ऊपर से काली
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फ़सलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !
भीतर से अपने चमकते दाँतों
की तरह शान्त धवल होती हैं वे
वे जब हँसती हैं फेनिल दूध-सी
निश्छल हँसी
तब झर-झराकर झरते हैं....
पहाड़ की कोख में मीठे पानी के सोते
जूड़े में खोंसकर हरी-पीली पत्तियाँ
जब नाचती हैं कतारबद्ध
माँदल की थाप पर
आ जाता तब असमय वसन्त
वे जब खेतों में
फ़सलों को रोपती-काटती हुई
गाती हैं गीत
भूल जाती हैं ज़िन्दगी के दर्द
ऐसा कहा गया है
किसने कहे हैं उनके परिचय में
इतने बड़े-बड़े झूठ ?
किसने ?
निश्चय ही वह हमारी जमात का
खाया-पीया आदमी होगा...
सच्चाई को धुन्ध में लपेटता
एक निर्लज्ज सौदागर
जरूर वह शब्दों से धोखा करता हुआ
कोई कवि होगा
मस्तिष्क से अपाहिज !
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