Saturday, March 12, 2011

एक दलित का संघर्ष

Written by हर्ष मंडार
कृशन ने सोचा होगा कि ऊंची जाति के लोग भले ही उसे धिक्कारते हैं, भगवान उसकी जरूर सुनेगा. वह सदियों पुरानी जातिगत व्यवस्था को तोड़ने निकल पड़ा. उसने उन सवर्णों को चुनौती देने की ठानी, जो उसे भगवान के मंदिर में नहीं जाने देते थे. वह हनुमानजी का पुजारी था. उसने तय किया कि वह खुद अपने लिए हनुमान जी का मंदिर बनवाएगा. यह तीन साल पहले की बात है, जब उसने इस संघर्ष की शुरुआत की थी. लेकिन भगवान भी ऊंची जाति वालों के ही पक्ष में निकले. आखिरकार उसे अपने निर्णय से पीछे हटना पड़ा. उसे गांव छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा. आखिर वह दलित जाति का जो ठहरा. उसके बेटे को अक्सर याद दिलाया जाता कि कक्षा के अन्य बच्चों की तुलना में उसकी नियति में अपमानित और तिरस्कृत होना लिखा है. उसे हर दिन यही बताया जाता कि वह अन्य बच्चों के समकक्ष नहीं है और न ही कभी हो सकता है. आखिर उसका जन्म एक दलित जाति में हुआ था. गांव के उस सरकारी स्कूल में उसके जैसे दलित बच्चों को शिक्षकों द्वारा कक्षा में सबसे पीछे बिठाया जाता. अन्य बच्चों से सुरक्षित दूरी पर. वह स्कूल के बाहर रखे मटके में से खुद अपने हाथ से लेकर पानी नहीं पी सकता था. यहां तक कि गर्मी की झुलसाती दोपहर में भी नहीं. गांव के हैंडपंप पर उसकी मां को रोज धैर्य के साथ इस बात का इंतजार करना पड़ता कि कोई ऊंची जाति की महिला उस पर तरस खाकर उसका घड़ा भर दे. उसके खुद छूने से हैंडपंप अपवित्र हो जाता. वह जब भी बस्ती से दूर स्थित पत्थरों व मिट्टी से बनी अपनी झोपड़ी में लौटता तो रोज के ऐसे तिरस्कारपूर्ण बर्तावों के खिलाफ अपने तर्को से विरोध जताता. उसके पिता कृशन उसे चुपचाप सुनते रहते. लेकिन फिर एक दिन अचानक उनकी जिंदगी बदल गई.
गांव के चौक के पास ठाकुरजी का एक पुराना मंदिर था. कृशन वहां अक्सर पूजा के लिए जाया करता था. निम्न जाति का होने की वजह से वह पुराने नियमों से बंधा हुआ था. ये नियम उसे मंदिर के भीतर जाने की अनुमति नहीं देते थे. वह मंदिर की ड्योढ़ी पर ही अगरबत्ती जलाकर श्रद्धा से हाथ जोड़ लेता. एक सुबह उच्च जाति के ब्राह्मण और बनिया समुदाय के कुछ युवाओं ने उसका रास्ता रोक दिया और धमकी दी कि यदि वह पूजा करने मंदिर गया तो उसकी खैर नहीं. तब पीढ़ियों से जाति के नाम पर बगैर किसी शिकायत के लगातार झेलते आ रहे तिरस्कार और अपमान को अब और सहने का धैर्य जवाब दे गया. कुछ दिनों कृशन ने खुद का मंदिर बनाने की घोषणा कर दी. जमीन खरीदने के लिए रखी अपनी सारी जमा-पूंजी को उसने इकठ्ठा कर उसे मंदिर के निर्माण में लगा दिया. जब यह राशि भी कम पड़ी, तो उसने ब्याज पर पैसा उधार ले लिया. उसने यह सारी पूंजी अपनी कमर से बांधी और भगवान की प्रतिमा की तलाश में निकल पड़ा. उसकी तलाश दौसा (राजस्थान) में हनुमान की आदमकद प्रतिमा में पूरी हुई. यह मूर्ति गांव के मंदिर में प्रतिष्ठापित ठाकुरजी की मूर्ति से चार गुनी ऊंची थी. वह उसे गांव लाया.
ऊंची जाति के लोग इससे परेशान थे. पर ऊंची जाति के लोगों के बढ़ते गुस्से और बेचैनी में उसे आनंद आता. ऊंची जाति के लोग उसके कार्य को बगावत के रूप में देख रहे थे. मूर्ति लाने के बाद एक पेंच और फंसी. मंदिर में तब तक पूजा शुरू नहीं की जा सकती, जब तक कि वहां प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो जाती. यह कोई ब्राह्मण ही कर सकता था. किसी स्थानीय ब्राह्मण पुजारी द्वारा यह कार्य करने का सवाल ही नहीं उठता था. किसी ने किया भी नहीं. लेकिन कृशन इससे हतोत्साहित नहीं हुआ. मथुरा का एक ब्राह्मण पुजारी काफी ऊंची दक्षिणा (छह हजार रुपए) के बदले में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा करने को तैयार हो गया. आखिर वह दिन आ ही गया जिसका कृशन लंबे समय से इंतजार कर रहा था. 24 घंटे के रामायण पाठ के बाद हनुमान प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा हुई. इस कार्यक्रम का पूरे गांव के लोगों ने बहिष्कार किया. यहां तक कि खुद दलित भी इससे दूर ही रहे. सवर्णों ने उन्हें कार्यक्रम में शामिल होने पर खामियाजा भुगतने की धमकी दे डाली थी. हालांकि राजस्थान के कई अन्य जिलों से दो हजार से भी अधिक दलित इस कार्यक्रम में शामिल हुए.
प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद से गांव के ऊंची जाति वालों ने कृशन के परिवार का हुक्का-पानी बंद कर दिया. जब वे सड़कों से गुजरते तो लोग उन पर ताने कसते. वो कृशन से मूर्ति गिराने और 21 हजार रुपये जुर्माना भरने को कह रहे थे. इससे इंकार करने पर कृशन के परिवार के सभी पुरुषों को पीटा गया. उसी रात कृशन और उसका परिवार चुपचाप गांव से पलायन कर गया. उन्होंने कई हफ्तों तक कलेक्टर कार्यालय के बाहर अनशन किया. इस पर स्थानीय मीडिया, मानवाधिकार कार्यकर्ता और दलित कार्यकर्ता उनके बचाव में सामने आए और नतीजतन कई महीनों के बाद गांववालों के खिलाफ न केवल आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ, बल्कि जब कृशन और उसका परिवार गांव लौटा तो उन्हें पांच पुलिसकर्मियों के रूप में सुरक्षा भी प्रदान की गई. गांव में ऊंची जाति के पुलिस जवान अपनी खराब किस्मत को कोस रहे थे, क्योंकि उन्हें ऊंची जातिवालों के गुस्से से एक दलित परिवार को बचाने का जिम्मा सौंपा गया था.
कुछ दिनों के बाद ही कृशन के परिवार की पुलिस सुरक्षा हटा ली गई. गांव के ऊंची जाति के लोग तो इसी अवसर का बड़े ही धर्य के साथ इंतजार कर रहे थे. उन्होंने फिर से कृशन के परिवार वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया. हनुमान मंदिर का निर्माण करके सदियों पुरानी दमनकारी जातिगत व्यवस्था को तोड़ने के लिए कृशन ने तीन साल पहले जिस संघर्ष की शुरुआत की थी, अंतत: उससे उसे पीछे हटना पड़ा और वह अपने परिवार सहित गांव छोड़ने के लिए मजबूर हो गया. अब वे लोग जयपुर की सड़कों पर खाक छान रहे हैं. जहां भी उन्हें मजदूरी मिल जाती है, वे कर लेते हैं. इस बीच नीमरोध गांव में हनुमानजी आज भी खड़े हैं. अपने सर्वण भक्तों के साथ.
(साभारः दैनिक भास्कर)

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