Written by डा. विवेक कुमार
देश में दलित नेतृत्व को दो भागों में बांटा जा सकता है- स्वतंत्र और परतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व. स्वतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व अपने खुद के संगठन में सक्रिय होता है. सामान्यतया इसका नेतृत्व और इस पर वर्चस्व दलितों का ही होता है. स्वतंत्र कार्ययोजना व विशिष्ट रुझान के साथ दलित ही इसकी मुख्यधारा में होते हैं. इसके विपरीत परतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व सवर्ण या अन्य पिछड़ा वर्गों के नेतृत्व वाली पार्टियों के अनुसूचित जाति व जनजाति प्रकोष्ठ में मिलता है.
कांग्रेस, भाजपा और शिवसेना जैसे दलों के नाम इस मामले में लिए जा सकते हैं. इन दलों के अनुसूचित जाति व जनजाति प्रकोष्ठ में न तो कोई स्वतंत्र एजेंडा होता है और न ही कोई खास रुझान. इस प्रकार परतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व हाशिए पर पड़ा रहता है और इसका पार्टी में कोई खास दखल नहीं होता. डा. अंबेडकर ने इंडियन लेबर पार्टी तथा अनुसूचित जाति महासंघ का गठन कर स्वतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व की शुरुआत की. बाद में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया तथा दलित पैंथर्स ने इस धारा को आगे बढाया, लेकिन नेतृत्व के अंदरूनी अंतर्विरोध के कारण उनके प्रयास सफल नहीं हो पाए. आजकल बसपा इस धारा का प्रतिनिधित्व करती है. इसके अलावा कुछ अन्य दलित नेता भी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. रामविलास पासवान, रामदास अठावले, थिरूमावलवन, प्रकाश अंबेडकर, कृष्णास्वामी, उदित राज आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं. इन तमाम नेताओं का जनाधार राज्य विशेष तक सीमित है. इनकी पैठ केवल खुद की जाति तक सिमट कर रह गई है.
दोनों धाराओं की बात करें तो आज हर कोई महसूस कर सकता है कि बसपा राष्ट्रीय स्तर पर और विशेषकर उत्तर प्रदेश में जातीय व क्षेत्रीय सीमाओं को लांघ चुकी है. दूसरी धारा का दलित नेतृत्व जगजीवन राम के साथ तब उभरा, जब वह कांग्रेस में शामिल हुए. डा. अंबेडकर के निधन के बाद राष्ट्रीय स्तर पर वह एकमात्र ऐसे दलित नेता के रूप में उभरे जिनके पास अपना जनाधार था. उनकी सहायता से कांग्रेस ने स्वतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व को उभरने से रोके रखा. इसके चलते न केवल दलित नेताओं के बीच एक प्रकार की टांग खिंचाई आरंभ हो गई, बल्कि दलित आंदोलन में भी अनेक तरह की बाधाएं उत्पन्न हुई. कांग्रेस अब भी यह खेल खेल रही है. उसने कुछ दलित नेताओं को ही नहीं, बल्कि इस वर्ग के कुछ बुद्धिजीवियों को भी गोद ले रखा है ताकि वह उन्हें दलित नेतृत्व के रूप में प्रदर्शित कर सके. दूसरों पर निर्भर दलित राजनीतिक नेतृत्व दलितों के हित के प्रति समर्पित हो ही नहीं सकता, क्योंकि उसे पार्टी आलाकमान का भय होता है. बात चाहे कांग्रेस की हो या फिर भाजपा की उनमें शामिल दलित नेता दरअसल अपने-अपने वर्ग के लिए पार्टी में शो पीस बनकर रह गए हैं. उनका काम सिर्फ पार्टी के पक्ष में अपने वर्ग के मतों को एकजुट करने की कोशिश करना है. राजनीति में संरक्षण की जो संस्कृति है वे उसका प्रतिनिधित्व करते हैं. यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि दलित मुद्दों पर भी उनका अपनी पार्टी में कोई दखल नहीं है. वे अपनी पार्टी के आला कमान की मर्जी के आगे नतमस्तक रहते हैं. आज बसपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है जिस पर वास्तव में दलितों का दबदबा है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा ने सभी अनुमानों को धता बताते हुए अकेले दम पर सरकार बनाने लायक संख्या प्राप्त कर ली थी. चुनाव में बसपा को 30.46 प्रतिशत मत मिले थे. यह दलित समुदाय के लिए गर्व का क्षण था. अब समय आ गया है जब हमें स्वतंत्र व परतंत्र दलित राजनीतिक नेतृत्व के अंतर को पहचानना होगा तथा दलित समुदाय के हितों में इसके प्रभाव का आकलन करना होगा.
कुछ लोग तर्क देते हैं कि बसपा को उत्तर प्रदेश के चुनाव में सफलता इसलिए मिली, क्योंकि बड़ी संख्या में ब्राह्मण मतदाताओं ने उसके पक्ष में मतदान किया. यह तर्क एक सीमा तक ही सही नजर आता है. बसपा के जो विधायक निर्वाचित हुए, उनमें 62 दलित, 58 अन्य पिछड़ा वर्ग, 29 मुसलिम समुदाय के हैं. इन्हें जो मत मिला उसमें 77 प्रतिशत दलित, 27 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग, 17 प्रतिशत मुसलिम और 16 प्रतिशत अगड़ी जातियों का मत शामिल है. यह आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि बसपा अभी भी बहुजन समाज की पार्टी है, जिसमें अगड़ी जातियों के लोग सजावटी सामान की तरह शामिल हैं. यदि आप मानते हैं कि राजनीति आपका भविष्य तय करती है तो आप यह फैसला करें कि आपकी राजनीति किस तरह की होनी चाहिए?
डा. विवेक कुमार जेएनयू में सोशल साइंस विभाग में प्राध्यापक हैं. उनसे संपर्क करने के लिए आप उन्हें vivekkumar@mail.jnu.ac.in पर मेल कर सकते हैं.
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