वर्ण का नियम
सवाल =वर्ण धरम पर आपका जो आग्रह है हम नहीं समाज पाते ! क्या आप वर्तमान जाती पर्नाली को उचित कह सकते है ! वर्ण की आपकी व्याख्या क्या है ?
उतर =वर्ण के अर्थ हैं मनुष्य के धंदे या पेसे के चयन का पूर्व -निर्धारण ! वरन का नियम यह है की परतेक मनुष्य अपनी आजीविका कमाने के लिए अपने बाप दादा के पेसे को ही अपनाएगा ! परतेक अपने पिता के धंधे पर चलता है , या अपने पिता के पेसे को चुनता है. इसलिए वर्ण एक परकार से आनुवंसिकता का नियम है.वर्ण कोई इसे चीज नहीं है जो हिन्दुओ पर थोप दी गई है. बलिक जो लोग हिन्दुओ के कल्याण के नयासी थे.
सवाल = यदि कोई व्यक्ति एसा धंधा करता है जो उसका जन्मजात नहीं ,तो वह व्यक्ति किस वर्ण का होगा ?
उतर =हिन्दू विस्वास के अनुसार वह व्यक्ति जिस वर्ण में जन्मा है उसी वर्ण का है किन्तु उस वर्ना का पालन न करने के कारन वह अपने पार्टी हिंसा करता है और पतित हो जाता है.
सवाल =कोई शुर्ध एसा कम करता है जो जन्मजात ब्रह्मण का कार्य है. क्या वह पतित हो जाता है.?
उतर = किसी शुर्ध को ज्ञान प्राप्त करने का उतना ही अधिकार है जितना की एक ब्रह्मण को है , किन्तु यदि वह अध्यापन कार्य द्वारा अपनी आजिविजा चलने का पर्यतन करता है तो वह अपने पदसे च्युत हो जाता है पाराचिन काल में सव्चलित वयापार थे. और किसी धंधे के सभी स्ध्यस्य की सहायतया करना एक अलिखित कानून था . सो साल पहले किसी बड़ाई का लड़का वकील बने की इच्छा नहीं करता था. आज वह करता है , क्योंकि वह देखता है की वह धंधा धन चुराने का सबसे अच्छा तरीका है . एक वकील सोचता है की पानी बुध्ही के उपयोग करके उसे ३५०० रूपये शुल्क लेना चाहिए और हाकिम साहब जेसा चिकत्सक सोचता है की चित्षा सम्बन्धी सलाह देने के लिए १००० रुपया पर्तिदिन लेने चैयाय ?
सवाल = लेकिन क्या किसी व्यक्ति को अपना मन-पसंद धंधा नहीं करना चैहिया ?
उत्तर = लेकिन किसी व्यकिति का मनचाहा धंधा वाही होना चाहिय जो उसके बाप- दादा का धंधा है. , उस धंधे को चुनने में बुराई नहीं है , उलटे यह उदत कार्य है. आज हम जिन्हें देखते है वे सनकी है , और इसी कारन हिंसा है. और समाज का विघटन हो रहा है हमे सतही द्रिस्तान्तो से अपने आपको चकित नहीं होने देने चाहिए . बड़ाई के आसे हजारो लड़के है जो अपने बाप के धंधा कर रहे है लेकिन इसे सो बड़ाई पुत्र भी नहीं है जो वकालत करते है पिछले ज़माने में दुसरो के धंधो में दखल देने और धन-संग्रह करने की मह्तावाकंसा लोगो में नहीं थी उस्धारण के सिसरो के जमाने में वकालत का धंधा अनेतिक था अगर धन के लिए नहीं बलिक सेवा के लिए कोई कुशर्ग बुधि बड़ाई वकील बन जाए जो वह बिलकुल ठीक होगा. बाद में यश और धन की कामना पैदा हो गई . वेध लोग समाज सेवा करते थे और जो कुछ उन्हें समाज से मिलता था उससे वे संतुष्ट थे / किन्तु वो अब व्यापारी बन गए है , बलिक समाज के लिए खतरा बन गए है जब भवनान शुद्ध सेवा करने की हुआ करती थी उस समय वेध्य और वकालत के धंधे उदार धंदे के , जो सर्वथा ठीक था.
सवाल =जहा तक तमिलनाडु का पर्सन है, सभी अब्राह्मण इसे धंधे अपनाना चाहते है जो उनके बाप-ददाओव का धंधा नहीं है !
उत्तर = दो करोड़ २० लाख तमिल लोगो की तरफ से बोलने के लिए आपके दावे को मैं अस्वीकार करता हूँ. मैं आपको एक " हम कुछ इसी चीज बनाने की कोसिस न करे जो अन्य लोगो के लिए संभव न हो " और इस पर्स्ताव को आप मेरे द्वारा पर्भासित वर्ण के आधार पर ही कार्यवानित कर सकते है ...
सवाल = आप कहते रहे है की वर्ण-धरम हमारी सांसारिक महतव्कन्साओव का दमन करता है. सो केसे ?उत्तर = यदि मैं अपने पिता के धंदे को अपनाऊ तो मुझे उसे सिखने के लिए किसी स्कुल में जाने की अवक्स्यता नहीं है. और मं अपने मानसिक सकती पूरी तरह अध्यात्मिक खोज में लगा सकता हूँ. क्योंकि मेरा धन, बलिक मेरी जीविका तो सुनिश्चित है ! पर्सनता और वास्तिवकता धार्मिक गतिविदिया की सुरक्षा का सवोतम साधन वर्ण है. अन्य व्यव्स्याओ में अपनी शक्ति केंद्रीय करने के मतलब है की मैं आत्मानुभव करने की अपनी शक्ति का कर्य करता हूँ. या अपनी आत्मा को भोतिक शुख -सुविधा के लिए बेचता हूँ !
सवाल =यदि हम उसी सवाल पर बार -बार लोटे तो आप किर्पया हमें शमा करेंगे ! हम उसे अछि तरह से समझ लेना चाहते है जो आदमी अलग =अलग समय पर अलग -अलग धंधे करता हो तो उसका वर्ण क्या हुआ ?
उत्तर - जब तक वह व्यक्ति अपने पिता के धंधे को करता हुआ अपनी जीविका कमाता है तब तक उसके वर्ण में कोई फ्हर्क नहीं पड़ता यह जो कम चाहे और जब तक चाहे तब तक कर सकता है. बसरते की वह सेवा भाव से करे. लेकिन जो व्यक्ति धन =लाभ के उदेश्य से समय -समय पर अपने धंधा बदलता है वह अपने को पतित करता है. और वर्ण-च्युत हो जाता है.
सवाल =किसी शुर्ध में ब्रह्मण के सरे गुण हो, फ्हिर भी वह ब्रह्मण नहीं कहला सकता ?उत्तर =इस जनम में उसे ब्रह्मण नहीं कहा जाएगा ! और वह उसके लिए अच्छी ही बात है की जिस वर्ण में उसका जनम नहीं हुआ है उस वर्ण की वह अनाधिकरिक्पूर्ण न अपनान्ये यह सच्ची विन्मर्ता का चिहन है.
सवाल =आप "भगवतगीता ' का अनुसरण करते है उसमे कहा गया है की वर्ण गुण और कर्म के अनुसार होता है. आप इसमें जन्म कहा से ले ए ?
उत्तर =मैं भगवत गीता को इसलिए पर्मानिक मानता हूँ कोय्नकी यही एक मात्र पुस्तक है जिसमे मुझे कोई एशे बात नहीं मिलती है जिस पर वितंडा हो सके ! इसने पर्सुत सिन्धात कर दिए है और इन सिदंतो को लागु करने की बात आप पर चोर्ड दी है 'गीता' या अवस्य कहती है की वर्ण और कर्म के अनुसार होता है , लेकिन गुण और कर्म जन्मजात होते है भगवान् कृष्ण ने कहा है की सभी वर्णों की सरिस्टी मैंने की है -'चतुवार्न्य मया सृस्तम ' अर्थात मैं समजता हूँ की वर्ण धर्म अदि यदि जन्मगत नहीं है तो फिर कुछ भी नहीं है साभार -यंग इंडिया २४-११ -१९२७
सम्पूर्ण गाँधी वांडमय खंड -३४, पृष्ट ५३५ -५४५
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