अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब किसी भारतीय को अपने ही देश में आने के लिए, हवाई जहाज के टायलेट में घुसकर आने का खतरा उठाना पडता है तो स्थिति कितनी भयावह होगी। यह सब 9/11 के बाद तो किसी आम आदमी के लिए असंभव ही लगता है। अपनी आर्थिक स्थिति को बदलने के लिए अरब देश जाने का सपना संजोये लोगों के लिए यह घटना आंखें खोलने वाली थी। डाइनिंग हाल में अपने अपने टीवी सेट पर इस खबर को देखकर हममें से कइयों ने ऐसी शोषणपूर्ण स्थिति पर अफसोस जताया था। लेकिन हम भूल गये थे कि कम से कम नीली कॉलर वालों ने यूनियन बनाना सीख लिया है। मांगें मानी जाए या नहीं, लेकिन अपने हकों के बारे में कम से कम कभी-कभी बोलना तो सीख लिया है। एसी गाड़ियों में ऑफिस जाते जाते हम भूल से जाते हैं कि फिर लौटकर मुनीरका जैसी गलियों में ही आना है।
इकनॉमिक टाइम्स में कल एक खबर छपी – डेनमार्क में भारतीय आईटी पेशेवरों के शोषण के लिए CSC India Pvt Ltd जांच के घेरे में।
डेनमार्क के कानून के तहत, बाहर से आये पेशेवरों को कम से कम 31,250 क्रोनर (डेनमार्क मुद्रा) देना जरूरी है जबकि CSC पांच से आठ हजार क्रोनर ही देती आ रही थी। इस मुद्दे को वहां के आईटी पेशेवरों के यूनियन ने उठाया तब से यह कंपनी पसोपेश में है। यहां काम करते हुए यह तो कहा ही जा सकता है कि यह कंपनी केवल डेनमार्क में ही नहीं, हर जगह सबसे कम वेतन देने के लिए बदनाम रही है। भारत में भी यह अपवाद नहीं है। नोएडा में जहां कंपनी का मुख्यालय है, करीब दस हजार लोग काम कर रहे हैं। चयन के वक्त जितना कहा जा सके, उतने आश्वासन दिये जाते हैं जबकि असलियत पहली सैलरी के बाद समझ में आती है। वास्तविक सैलरी सकल आय से 30-40% कम आती है। फिर शुरू होता है स्पष्टीकरण का सिलसिला।
क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि एसी गाड़ियों में रात के वक्त ऑफिस जाने वाले की कुल आमदनी महज सात हजार रुपये होगी? जीने के लिए तो लोग तीन हजार की नौकरियां करके जी रहे हैं लेकिन क्या भारत सरकार, जो जब तब एस्मा और पता नहीं कितने सारे कानून लाती रहती है, उसके लिए यह सब नियम के विरुद्ध नहीं लगता? हर अगले सप्ताह किसी न किसी का ई-मेल आता रहता है, जिसमें कभी 20% सकल लाभ तो कभी नयी नयी बिजनेस उप्लब्धियों को गिनाया गया होता है। जबकि सच यह है कि पिछले दो साल से किसी भी कर्मचारी की सैलरी बढ़ी तो नहीं लेकिन घट जरूर गयी है। लिहाजा लोग अपने खर्चों में कटौती करके किसी दूसरे विकल्प का इंतजार कर रहे हैं।
बेसिक सैलरी की वजह से बोनस न देना पड़े, इस वजह से इस कंपनी ने पूरी की पूरी सकल सैलरी को बेसिक बना दिया है। लिहाजा 24% सैलरी तो पीएफ में ही कट जाती है क्योंकि प्रोविडेंट फंड में कंपनी के योगदान को भी दिखा कर यह कंपनी एक ऊंची सैलरी देने का ढोंग करती है। दो साल से काम कर रहे लोगों को कभी इस जनवरी में तो कभी अगले जुलाई में प्रोमोट करने का लालच देती रहती है।
आगामी एक अप्रेल से लंच में कंपनी की तरफ से दी जाने वाली सब्सिडी भी बंद की जा रही है। लिहाजा अब सभी को कम से कम एक समय के लिए पचास रुपये खाने पर देने होंगे। वो भी सात हजार की सैलरी में से।
इन सब गतिविधियों के मद्देनजर कम से कम पिछले छह महीनों में ही दो हजार से ज्यादा लोगों ने कंपनी छोड़ दी है और दूसरों ने अपने लिए दूसरे विकल्प तलाशने शुरू कर दिये हैं। लेकिन कंपनी एक नया नियम ले कर आयी है, जिससे लगता है कि भारत सरकार ने विदेशी कंपनियों को बंधुआ मजदूरी करवाने के अधिकार भी दे दिये हैं? नये नियम के अनुसार अब हर किसी के लिए दो महीने का नोटिस देना होगा। न तो इन दो महीनों को छुट्टियों से कम किया जाएगा, न ही हम पैसे देकर इन दो महीनों से बच सकते हैं। इसका साफ मतलब है कि न ही कोई दूसरी कंपनी दो महीने के लिए रुकेगी, न ही हम इस कंपनी को छोड़ पाएंगे।
सवाल यह है कि क्या कोई कंपनी अपने कर्मचारियों को इस तरह मजबूर कर सकती है? क्या पता कि किसी दूसरी कंपनी में भी ऐसे ही नियम-कायदे हों? क्या हम बस इन कंपनियों की दया के ही भरोसे रह गये हैं। कोई तो नियम कायदा होगा, जो हमारे हितों की रक्षा करता हो? ऐसे कौन से नियम हैं, जिनका फायदा उठा कर कोई इतनी बड़ी कंपनी महज सात हजार रुपये देकर अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ लेती है। ऐसी कौन सी सर्वे कंपनी है, जो ऐसी कंपनियों को बेस्ट फाइव और बेस्ट टेन में घोषित करती है। यह लिखने का एक दूसरा और सीधा मकसद यह भी है कि लोग समझें कि बड़ी-बड़ी कंपनियों में सब कुछ अच्छा ही नहीं होता। ऊंची दुकान और फीकी पकवान CSC के लिए भी सही कहा जा सकता है।
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