Saturday, March 12, 2011

एक दलित का द्वंद

Written by कंवरदीप सिंह

इन्सान को पहले देश अलग करते हैं, फिर राज्य, फिर धर्म. फिर जाति और तो और उसका रंग और काम भी. दोस्ती, प्यार और इंसानियत तो बहुत बाद में आती है या कह लो आती ही नहीं. मैं एक दलित हूँ. और मैंने पाया है कि मेरे साथ के हर नौजवान से मेरा मुकाबला शिक्षा या नौकरी पाने तक नहीं है. और सब अच्छा पढ़ ले अच्छा कमा ले या नहीं पर इज्ज़त कि तलाश उन्हें नहीं मुझे करनी पड़ती है.

मुझ पर ये एक अधिक जिम्मेदारी है, अपना वो स्थान पाना जो और सब को जन्म के साथ ही मिल जाता है. पर मै अपना हक मांगना नहीं चाहता मुझे तरस लेना नहीं आता और न ही मै छीन के लेना चाहता हूँ क्योंकि मुझे परवाह ही नहीं है अब! मै ठुकराए जाने से इनकार करता हूँ और अगर चुनने का हक है किसी को तो वो फिर मै अपनी तरफ रखता हूँ. अगर बांटना ही चाहता है इन्सान खुद को तो मैंने अपना चुनाव कर लिया है जो कि जाति पर ना हो कर समानता पर होगा.

मै नहीं चाहता कि हमारी आने वाली पीढ़ी को दोस्ती का एहसान और प्यार की सजा सहनी पड़े. बहुत सवाल हैं मन में, जिनके जवाब तलाशने है, पर पूछने नहीं हैं, क्योंकि किसी के पास जवाब नहीं, पर कोई सोचना भी नहीं चाहता, हर कोई साथ भी नहीं चलना चाहता.

दोस्तों आरक्षण कोई भीख नहीं ये जरुरत है हर एक समाज क़ी, एक सुविधा है उन को बराबर लाने क़ी जो पीछे रह गए हैं . सिर्फ एक आरक्षण में हर कोई खुद को हारा मानता है और कहता है ये ठीक नहीं सब एक सा होना चाहिए, पर उसी इन्सान को शर्म आती है अपनी बेटी क़ी शादी करने में एक दलित से, सोचता है दुनिया को क्या जवाब दूंगा...तब भी तो वही बात है के सब एक समान हो.

ये एक लडाई नहीं ये एक आवाज़ है उस एक दबे कुचले इन्सान क़ी जिस के साथ सदियों से होता आ रहा है ये. जिसको और सब के उसी भगवान ने बनाया है जिस पर हर किसी को गर्व है पर कोई भी उस भगवान का शम्बूक नहीं बनना चाहेगा.

मै यहाँ ये सब क्यूँ लिख रहा हूँ, मेरे पास वजह है, कि मै छुपाना नहीं चाहता मै एक दलित हूँ. अगर हूँ तो मुझे गर्व है खुद पर. कम से कम मेरे दिल में नफरत तो नहीं. अच्छा है कि समाज ने मुझसे छोटा नहीं बनाया किसी को नहीं तो मेरा चेहरा भी साफ़ और मन घिनौना हो जाता....

(कंवरदीप सिंह ने इसे फेसबुक पर लिखा था. इसे वहां से उठाकर दलित मत पर प्रकाशित किया जा रहा है)

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