Thursday, March 17, 2011

वर्तमान को सही ठहराने के लिए अतीत को नहीं बदला जा सकता

January 16th, 2011
रोमिला थापर

इतिहासकार रोमिला थापर का यह लेख बाबरी मस्जिद फैसला आने से कुछ ही दिन बाद प्रकाशित हो गया था। स्थानाभाव के कारण इसे नबंबर अंक में शामिल नहीं किया जा सका। इस के महत्व को देखते हुए लेख को यहां दिया जा रहा है। – सं.

यह फैसला राजनीतिक है और एक ऐसे निर्णय को प्रतिबिंबित करता है जिसे राज्य काफी पहले भी ले सकता था। इसका जोर जमीन हासिल कर टूटी हुई मस्जिद के स्थान पर एक नया मंदिर बनाने पर है। यह समस्या हमारी समकालीन राजनीति में इसलिए इतनी उलझ गई है क्योंकि इसमें न सिर्फ कई धार्मिक अस्मिताएं शामिल हैं बल्कि ये सभी ऐतिहासिक साक्ष्यों पर अपने दावे भी करती हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों के पहलू को फैसले की प्रक्रिया में उठाया तो गया था, लेकिन आखिरी फैसले में इसे दरकिनार कर दिया गया।
न्यायालय ने फैसला दिया है कि एक निश्चित जगह थी जहां कोई दैवीय या अर्ध-दैवीय व्यक्ति पैदा हुआ था और जहां उसके जन्म की स्मृति में एक नया मंदिर बनाया जाना है। यह हिंदू आस्था और मान्यता द्वारा अपील की प्रतिक्रिया में कहा गया है। इस दावे के पक्ष में साक्ष्य के अभाव के कारण कहा जा सकता है कि यह फैसला वह नहीं है जिसकी एक न्यायालय से अपेक्षा की जाती है। एक देवता के रूप में राम में हिंदुओं की गहरी आस्था है, लेकिन क्या यह आस्था जन्म स्थान, जमीन के मालिकाने तथा एक प्रमुख ऐतिहासिक स्मारक के विनाश से जुड़े दावों पर एक कानूनी फैसले लेने में सहायक बन सकती है?
फैसले में दावा किया गया है कि वहां 12वीं सदी का एक मंदिर था जिसे मस्जिद बनाने के लिए तोड़ दिया गया- नया मंदिर बनाना इसीलिए जायज है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के उत्खनन और उसके निष्कर्षों को पूरी तरह स्वीकारा गया है, हालांकि अन्य पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने इसे कठोर चुनौती भी दी है। चूंकि यह पेशेवर विशेषज्ञता का मसला है जिस पर वैचारिक मतभेद काफी तीखे थे, लिहाजा सिर्फ एक नजरिए को एकांगी रूप से, और वह भी इतने सरलीकृत तरीके से स्वीकार कर लिया जाना फैसले में विश्वास कम ही जगा पाता है। एक न्यायाधीश ने कहा कि उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल नहीं की है क्योंकि वह इतिहासकार नहीं हैं, लेकिन यह भी कह डाला कि इस तरह के मुकदमों पर फैसला देने के लिए इतिहास और पुरातत्व कतई अनिवार्य नहीं हैं! बावजूद इसके मसले के केंद्र में दावों की ऐतिहासिकता और पिछली एक सहस्राब्दि के एतिहासिक ढांचे ही हैं।
एक मस्जिद जो करीब 500 साल पहले बनाई गई और जो हमारी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी, उसे राजनीतिक नेतृत्व के आग्रह पर एक भीड़ जान-बूझ कर नष्ट कर देती है। फैसले के सार में कहीं भी इस विनाशक कार्रवाई का जिक्र नहीं है, जो कि हमारी विरासत के खिलाफ एक अपराध है और जिसकी निंदा की जानी चाहिए। जो नया मंदिर होगा, उसका गर्भगृह यानी राम का काल्पनिक जन्मस्थल वहीं होगा जहां मस्जिद का मलबा पड़ा है। एक ओर जहां तथाकथित मंदिर के विध्वंस की निंदा की जाती है और यही नया मंदिर बनाने के लिए तर्क का काम करता है, वहीं दूसरी ओर मस्जिद के मामले में ऐसा नहीं है क्योंकि इसे शायद बड़े सुविधाजनक तरीके से मुकदमे के दायरे के ही बाहर रख दिया गया है।
यह फैसला न्यायालय के लिए एक उदाहरण निर्मित करने का काम करता है कि कोई समूह जो खुद को एक समुदाय के रूप में परिभाषित करता हो, यदि किसी जमीन पर दावा करना चाहे तो उसे किसी दैवीय या अर्ध-दैवीय के जन्मस्थल के रूप में घोषित कर सकता है। अब जहां कहीं कोई उपयुक्त संपत्ति दिख जाएगी या फिर कोई विवाद खड़ा करना होगा, तो इस तरह के कई जन्मस्थल निकल कर आ जाएंगे। चूंकि ऐतिहासिक स्मारकों के सचेतन विध्वंस की निंदा हमने नहीं की, तो आखिर आगे और स्मारकों के विध्वंस से लोगों को कौन रोक सकेगा? जैसा कि हमने पिछले कुछ सालों में देखा भी है, पूजा स्थलों की स्थिति को बदलने के खिलाफ 1993 का कानून अब पर्याप्त निष्प्रभावी हो चला है।
इतिहास में जो हुआ, सो हुआ। उसे बदला नहीं जा सकता। लेकिन हम यह समझने की सीख तो ले ही सकते हैं कि जो हुआ उसका पूरा संदर्भ क्या था और उसके विश्वसनीय साक्ष्य क्या हैं। हम वर्तमान की राजनीति को सही ठहराने के लिए अतीत को नहीं बदल सकते। इस फैसले ने इतिहास के प्रति सम्मान को ठेस पहुंचाया है और इसका उद्देश्य इतिहास की जगह धार्मिक आस्था को स्थापित करना है। सच्ची एकता तभी पैदा होगी जब यह भरोसा पैदा हो कि इस देश का कानून सिर्फ आस्था और मान्यता को नहीं, बल्कि साक्ष्यों को अपना आधार बनाता है।

अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव, साभार: द हिंदू

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