Monday, June 27, 2011

उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ते दलित Written by स्वामीनाथन अय्यर





Friday, 24 June 2011 06:22
क्या आप भी यही सोचते हैं कि जीडीपी की रिकॉर्ड ग्रोथ से दलितों का कुछ भी भला नहीं हुआ है? सेंटर फॉर एडवांस स्टडी ऑफ इंडिया के डायरेक्टर देवेश कपूर, सीबी प्रसाद, लैंट प्रिचेट और डी श्याम बाबू ने हाल ही में एक स्टडी की है. ‘रिथिंक इनइक्वालिटी: दलित्स इन यूपी इन मार्केट रिफॉर्म इरा’ नाम से किए गए इस अध्ययन के मुताबिक 1990 के बाद से उत्तर प्रदेश में दलित क्रांति का दौर सामने आता है. हालांकि यहां लंबे समय तक दलितों का दमन हुआ है.
मीडिया में जोर शोर से दलितों के दमन, आर्थिक असमानता और इनकी कमजोर आर्थिक व सामाजिक स्थिति की बात कही जाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि आय के मामले में ये तबका अभी भी सबसे निचले पायदान पर है. लेकिन इस नई स्डटी में ये बात भी सामने आई है कि बीते कुछ सालों में इनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत में काफी बदलाव आया है. सबसे बड़ा बदलाव तो यही है कि अब दलित कहे जाने वाले लोग खुद को खास मानने लगे हैं. इस स्टडी (2010 में की गई) के लिए यूपी के दो ब्लाकों में एक सर्वे करवाया गया. इनमें से एक संपन्न कहा जाने वाला पश्चिमी यूपी का ‘खुर्जा’ ब्लॉक था और दूसरा अपेक्षाकृत पिछड़ा बताया जाने वाला पूर्वी यूपी का ब्लॉक ‘बिलारियागंज’ था. इन दोनों ब्लॉकों में ये पता लगाने की कोशिश की गई कि 1990 से 2008 के बीच दलितों के जीवन में किस तरह का सामाजिक-आर्थिक बदलाव आया है.
सर्वे में ये समाने आया कि पूर्वी यूपी के ब्लॉक में पक्के मकानों की संख्या 18.1 फीसदी से बढ़कर 64.4 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है. वहीं पश्चिमी यूपी में ये आंकड़ा 38.4 फीसदी से बढ़कर 94.6 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह घरों में टेलीविजन का आंकड़ा लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी इलाके में 22.2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 45 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह आधुनिकता का प्रतीक कहे जाने वाले मोबाइल फोन की संख्या भी लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी ब्लॉक में 36.3 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 32.5 फीसदी पर पहुंच गई.
अठारह सालों के दौरान दलितों के घरों में पंखों की संख्या पूर्वी ब्लॉक में बढ़कर 36.7 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 61.4 फीसदी हो गई. कुछ ऐसा ही हाल साइकिल के मामले में भी है. पूर्वी ब्लॉक में साइकिल-मालिकों की संख्या 46.6 फीसदी से बढ़कर 84.1 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 37.7 फीसदी से बढ़कर 83.7 फीसदी हो गई.
ग्रामीण क्षेत्रों में सम्मान का प्रतीक माने जाने वाली मोटरसाइकिल के मामले में भी अच्छे तथ्य सामने आए हैं. 1990 में जहां मोटरसाइकिल मालिकों की संख्या नगण्य थी वहीं 2008 में पूर्वी ब्लॉक में 7.6 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 12.3 फीसदी दलितों के पास मोटरसाइकिल मौजूद थी. हालांकि बुरे वक्त के साथी कहे जाने वाले गहनों के मामले में आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. गहनों के मामले में पूर्वी ब्लॉक का आंकड़ा 75.8 फीसदी से घटकर 29.3 फीसदी के स्तर पर आ गया वहीं पश्चिमी ब्लॉक में भी ये आंकड़ा 64.6 फीसदी से घटकर 21.2 फीसदी के स्तर पर आ गया.
अनाजों के मामले में भी सर्वे में काफी अच्छे संकेत मिले हैं. 1990 से 2008 के बीच, 18 सालों के दौरान इन क्षेत्रों में दलितों द्वारा मोटे यानी निम्न कोटी के अनाजों (टोटा चावल, गुड़ का रस) के मुकाबले अच्छी क्वालिटी के अनाजों जैसे चावल, दाल, टमाटर आदि का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है.निम्न स्तर का भोजन कहे जाने वाले रोटी-चटनी का इस्तेमाल पूर्वी ब्लॉक में 82 फीसदी से घटकर 2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 9 फीसदी रह गया है. इसी तरह बच्चों द्वारा रात का बचा हुआ खाना अगले दिन खाने के मामले में आंकड़ा पूर्वी ब्लॉक में 95.9 फीसदी से गिरकर 16.2 फीसदी के स्तर पर आ गया है. निम्न क्वालिटी के चावल के उपयोग के मामले में भी पूर्वी क्षेत्र का आंकड़ा 54 फीसदी से घटकर 2.6 फीसदी और पश्चिमी क्षेत्र में 2.7 फीसदी से घटकर 1.1 फीसदी के स्तर पर आ गया है.
दालों की बात की जाए तो पिछले कुछ सालों में भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता में कमी आई है. अच्छी बात यह है कि बावजूद इसके यूपी के पूर्वी ब्लॉक के दलितों में इसका इस्तेमाल 31 फीसदी से बढ़कर 90 फीसदी हो गया है. इसी तरह पश्चिमी ब्लॉक में इसका इस्तेमाल 60.1 फीसदी से बढ़कर 96.9 फीसदी हो गया है. शायद दाल की बढ़ती कीमतों के पीछे ये भी एक वजह है. टोटा चावल और गुड़ का पानी पीने के मामलों में कमी आई है. सर्वे में एक और अच्छी बात सामने आई है. दरअसल इन इलाकों में अब पैकेट बंद नमक, इलाइची और टमाटर का इस्तेमाल भी दिख रहा है.
आलोचक कहते हैं कि आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में दलित वर्ग को खास फायदा नहीं पहुंचा है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यूपी के जिस पूर्वी ब्लॉक की बात हो रही है वहां के 61 फीसदी दलित और पश्चिमी ब्लॉक के 38 फीसदी दलित ये मानते हैं कि अब उनकी स्थिति काफी बेहतर है. केवल 2 फीसदी का ये सोंचना है कि उनकी स्थिति वैसी की वैसी ही है या फिर और बदतर हुई है.पारंपरिक तौर पर दलितों का मुख्य पेशा खेतों में मजदूरी करना रहा है. लेकिन देश में आर्थिक सुधारों के दौरान इन का पेशा भी बदला है. इनमें से बड़ी संख्या में लोग शहरों में काम करने आ गए. और शहरों में इनको मिलने वाला वेतन इतनी तरक्की की बड़ी वजह के तौर पर सामने आया है.
सर्वे में पता चला है कि 1990 में जहां पूर्वी ब्लॉक के 14 फीसदी दलित परिवारों को शहरों में नौकरी करने वाले सदस्यों या रिश्तेदारों के जरिए आर्थिक फायदा पहुंचता था वहीं 2008 में आंकड़ा 50.5 फीसदी के स्तर पहुंच गया. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 6.1 फीसदी से बढ़कर 28.6 फीसदी पर आ गया. अच्छी बात ये भी है कि अपना व्यावसाय करने वाले दलितों की संख्या में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है. 1990 से 2008 के बीच पूर्वी ब्लॉक के 4.2 फीसदी दलित अपना खुद का व्यवसाय करते थे. 2008 में ये आंकड़ा 11 फीसदी पर आ गया. इसी तरह पश्चिमी यूपी के मामले में ये आंकड़ा 6 फीसदी से बढ़कर 36.7 फीसदी पर आ गया. इसके उलट कृषि कार्यों में मजदूरी करने वालों की तादाद पूर्वी ब्लॉक में 76 फीसदी से घटकर 45.6 फीसदी पर आ गई. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 46.1 फीसदी से घटकर महज 20.5 फीसदी पर आ गया है.
आखिर इस बदलाव के पीछे क्या वजह रही है? दलित खुद ये कहते हैं कि करीब 10-15 साल पहले इन बदलावों की शुरूआत हुई थी. हालांकि तेजी से तरक्की करने के मामले में कई दूसरे राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश पिछड़ गया. बावजूद इसके 2003-04 से 2008-09 के बीच पांच सालों में इस राज्य का औसत सकल घरेलू उत्पाद 6.29 फीसदी बढ़ा है. यूं तो ये आंकड़ा देश की जीडीपी ग्रोथ के औसत आंकड़े से काफी पीछे है, लेकिन 7 फीसदी के जादुई आंकड़े के काफी करीब भी है. इंदिरा-नेहरु युग के मुकाबले मौजूदा समय में दलितों की आय 10 गुना तेजी से बढ़ रही है. और इसकी बदौलत उनकी संपन्नता भी तेजी से बढ़ रही है.
लेखक का मानना है कि पिछले दो दशकों में तेजी से आर्थिक सुधारों का दौर रहा है. इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव भी तेजी से बढ़ा है. उनका ये भी मानना है कि दलितों की स्थिति में सुधार के मामले में इस पार्टी की और बड़ी भूमिका हो सकती है.
मायावती अब तक चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं. इस दौरान उन्होंने अपने नौकरशाहों और अधिकारियों को दलितों का खास खयाल रखने के लिए विशेष तौर पर संतुष्ट किया. और ऐसा हुआ भी है. आज दलित समाज की तरक्की की झलक सिर्फ उनके जीवन स्तर में ही नहीं बल्कि उनकी सामाजिक हैसियत में भी दिख रही है. दलित अब सवर्णों की आंखों में आंखें डाल सकते हैं. यूपी में यह एक  अहम सामाजिक परिवर्तन है.
आजादी.मी से साभार.

दलित लेखक संघ- चुनाव की प्रक्रिया

दलित लेखक संघ में एक बार फिर से अवसरवाद और पदों की जंग दिखाई पड़ रही है एक दुसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है अपने अवसरवाद को दूसरो का अवसरवाद बताया जा रहा है कृपा करके इस पर धयान  दें . जो लोग खुद को लोकतांत्रिक और  दूसरो को अलोकतांत्रिक बता रहे है वे खुद के बारे में भी सोचें की वे क्या कर रहे है अनीता भारती जी ने सबको  मेसेज किया की ९ जुलाई को दलेश का चुनाव होना है जिसका वेनु  अभी तै नहीं है   ये फैसला  किस सभा या मीटिंग में तय हुआ, वो  मीटिंग कब हुई तथा उसमे कौन  लोग उपस्थित थे , इसकी कोई जानकारी उन्होंने नहीं दी है उन्हें यह जानकारी मुहया करानी चाहिए जिससे उनकी लोकतान्त्रिक पद्धति शो  हो सके . ,जबकि लोकतान्त्रिक तरीके से १९ जून को काफी हाउस  की मीटिंग में सर्वसम्मति  से लिए गए फैसले  को वे अलोकतांत्रिक बता रही है दुसरे वे  आनन फानन  बनी  अपनी बनाई वेबसाइट दलित लेखक संघ में आंकड़ो का भ्रम भी फैला  रही है  , वे २९ may  के  आकडओं को   २९ जून  का  Minutes    बता रही है  अब देखने और सोचने की बात यह है की वे ऐसा क्यों कर रही है  देखे उनका आकडा, उनका सच  -

http://www.dalitlekhaksangh.org/excerpts-from-minutes-of-dls-meeting-of-29th-june-2011.html

शायद लेखक संघ दुबारा से लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है और कुछ लोगों का चरित्र साफ होना है,   मै इसलिए ये लिख रहा हू क्योंकी मै भी इस प्रक्रिया का साझीदार रहा हूँ . हाँ यह जरुर है की अनीता जी इस सभा में नहीं थी और ईशकुमार गंगानिया जी ने समन्‍वय समिति की रिपोर्टिंग की थी इसके बाद समन्‍वय समिति के गैरजिम्मेदाराना रवैए  ,मीटिंग समन्‍वय समिति  की रिपोर्टिंग , उसकी कार्य पद्धति , उसके प्रयासों सफलता व विफलता पर चर्चा की लिए ही समिति द्वारा ही बुलाई गयी थी और समिति के ३ जिम्मेदार सदस्य ही गायब थे , के चलते यह समिति भंग कर दी गयी और एक नयी समिति बनाई गयी जिसने यह तय किया की २५ जून को भविस्य की कार्य योजना व चुनाव की प्रक्रिया को कार्यान्वित किया जाय. अभी अप सब का शाम ५ .30  बजे गाँधी शांति प्रतिष्ठान , I  TO  , में आमंत्रण है आये और चर्चा व चुनाव की प्रक्रिया में साझीदार बने  






Sunday, June 26, 2011

'सबसे लोकप्रिय प्रगतिशील कवि' विश्वनाथ त्रिपाठी



नागार्जुन
नागार्जुन को बाबा के नाम से जाना जाता है. आप बाबा कह दीजिए तो लोग समझ जाएँगे कि बात नागार्जुन की हो रही है. हिंदी में उनके आलावा सिर्फ़ एक ही कवि को बाबा कहा जाता है और वो हैं तुलसीदास.
हिंदी के प्रगतिशील कवियों में जितने लोकप्रिय नागार्जुन हैं उतना और कोई नहीं है यह बात बिना हिचक कहनी चाहिए.
अब तो नई कविता गद्य हो गई है लेकिन नागार्जुन ऐसे कवि हैं जो छंद को नहीं छोड़ते. आधुनिक कवियों में छंद को न छोड़ने वाले कवियों में रघुवीर सहाय भी हैं और उनकी लिखी बहुत सी कविताएँ नागार्जुन की कविता प्रतीत होती है, 'राष्ट्रगीत में भला ये कौन भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हर हरणा गाता है.'
नागार्जुन का ये जादू है कि वे पारंपरिक छंदों का प्रयोग करते हुए भी ऐसा कुछ लिखते हैं कि कोई ये न कह सके कि ये आधुनिक कविता नहीं है. अब दोहे को लीजिए. पता नहीं वह हिंदी का कितना पुराना छंद है. कालिदास तक ने दोहे लिखे हैं. उनका लिखा एक दोहा बार-बार याद आता है,
'खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक'
क्या भयानक बिंब है इस कविता में. शासन के आतंक के लिए ऐसा बिंब मैंने कहीं और नहीं पढ़ा. ये कमाल देखिए कवि का कि वह दोहे में ऐसे बिंब खड़े कर सकता है. संगीनों के जंगल पर मुक्तिबोध ने भी लिखा है. मुक्तिबोध बड़े कवि हैं और मुझे बेहद प्रिय भी हैं लेकिन बंदूक का 'नभ में विपुल विराट' होने का बिंब वहाँ नहीं है.

लोक का बिंब

नागार्जुन विद्वान कवि हैं. वे संस्कृति और परंपरा के विद्वान हैं. संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश सब को वे जानते हैं. वे अपने इस ज्ञान से परंपरा का रचनात्मक दोहन करना नागार्जुन के अलावा किसी को नहीं आता.
ऐसा नहीं है कि हमारे नए कवि अच्छे नहीं है. बहुत से अच्छे कवि हैं. उनमें से कुछ मुझे प्रिय भी हैं. अगर मुझे एक दो का नाम लेना हो तो मैं रघुवीर सहाय और विष्णु खरे का नाम लूँगा.
लेकिन जब नए कवियों को कोई नई बात कहनी होती है तो वे पश्चिम की ओर देखते हैं या यथार्थ को अपने आसपास देख लेते हैं लेकिन नागार्जुन अपना बिंब लोक जीवन से लेते हैं. फिर वे नए फ़ॉर्म में भी कविता रच देते हैं.
नागार्जुन पंडितों के सख़्त ख़िलाफ़ थे लेकिन वे उनके पढ़े जाने वाले मंत्र जैसी कविता रचते हैं, 'ऊँ काली काली काली महाकाली महाकाली, ऊँ मार मार मार वार न जाए खाली....'
रूप और शिल्प की बातें बहुत से लोग करते हैं. मैं उस पर बहस नहीं करना चाहता. लेकिन नागार्जुन की कविता रूप और शिल्प के स्तर पर भी चकित करती हैं. उनकी एक कविता है, 'अकाल के बाद'
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
ये नई जनवादी और प्रगतिशील कविता है.
मैं कहता हूँ कि यह जनवादी-प्रगतिशील कविता का 'क्लासिक' है. पता नहीं कब ये लोगों को समझ में आएगा कि जनवाद और प्रगतिशीलता सिर्फ़ संवेदनाएँ नहीं है.
वो शिल्प भी है और फ़ॉर्म भी है. जिसने किसी भूखे आदमी को अन्न पाना देखा है. जिसने आँखों की चमक देखी है. वह समझ सकता है. ग़रीबी के छोटे सुख होते हैं. यही छोटा सुख उसका बड़ा सुख होता है. इससे उसकी आँखों में चमक आती है. जो इस छोटे सुख को पहचानता है वही बड़ा कवि है.
नागार्जुन ग़रीब के छोटे सुख और उसकी आँखों की चमक को पहचानते थे इसलिए वे एक बड़े कवि थे.

बाबा के गाँव में अरविंद दास



बाबा नागार्जुन का घर
वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' उर्फ़ नागार्जुन यायावर थे. कभी कलकत्ता, तो कभी सहारनपुर, पटियाला, लाहौर, फ़िरोजपुर, अबोहर तो कभी सारनाथ, लंका या तिब्बत. उनकी यात्रा जीवन पर्यंत थमी नहीं.
अपनी इस यायावरी प्रवृत्ति के चलते वे अपने गाँव तरौनी में भी कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे ताउम्र नहीं छूटा. साहित्य में भी नहीं, जीवन में भी नहीं.
उनके साहित्य संसार पर यदि हम गौर करें तो मिथिला का समाज प्रमुखता से चित्रित हुआ है.
पर साहित्य की भावभूमि भले मिथिला का गाँव-समाज हो, पर वह अपनी संवेदना में अखिल भारतीय है. इस तरह कविता में कबीर से और उपन्यासों में वे प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ते हैं.
एक प्रवासी की पीड़ा व्यक्त करते हुए नागार्जुन ने अपनी एक कविता में लिखा है:
“याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही
रखे गए वे नाम”
मिथिला अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है. मैं आषाढ़ के महीने में दरभंगा ज़िले में स्थित उनके गाँव तरौनी गया. डबरे में मखान के पत्तों पर पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं. आम के बगीचों से ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ आमों की खुशबू चारों ओर फैल रही थी.
खेतिहर किसान धान की रोपनी करते मिले. पगडंडियों के किनारे कीचड़ में गाय-भैंस-सूअर एक साथ लोटते दिखे.
एक ओर खपरैल और दूसरी ओर ईंट से बने घरों के बीचों-बीच नागार्जुन के आंगन में फूस से छाया हुआ मड़वा और घर की दीवारों पर मिथिला पेंटिंग की महक थी. आंगन में आम से लदे पेड़ की डाल लटक रही थी. घर के ठीक सामने पोखर के महार पर कनेल और मौलश्री के फूल अपनी सुगंधि बिखेर रहे थे.
बच्चों को हांकते ‘दुखरन मास्टर’, ‘तालाब की मछलियाँ’ रूपक में बंधी स्त्री और अपने हक की लड़ाई लड़ता ‘बलचनमा’. नागार्जुन के साहित्य का लोक अपनी संपूर्णता में मेरी आँखों के सामने था.

लोक के रचनाकार

बाबा नागार्जुन का घर
नागार्जुन इस लोक से अपनी शक्ति ग्रहण करते हैं.
लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक चेतना उनके साहित्य की विशिष्टता है. क्या यह आश्चर्य नहीं कि कवि विद्यापति के क़रीब 500 वर्ष बाद मिथिला से कोई कवि अखिल भारतीय स्तर पर अपने स्वर को बुलंद करता है.
नागार्जुन हिंदी साहित्य की एक बिखरती परंपरा को फिर से जोड़ते हैं. उन्होंने मैथिली से अपने साहित्य जीवन की शुरूआत की और हिंदी के जनकवि के रूप में चर्चित हुए. मैथिली में रचित कविता संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' और उपन्यास ‘पारो’ आधुनिक मैथिली साहित्य की एक थाती है.

मिथिला में पंडितों की लंबी परंपरा रही है.
लेकिन वे ‘पोथी-पतरा-पाग’ में ही ज़्यादातर सिमटे रहे. अपनी विद्वता की बोझ से दबे रहे. लोक की परंपरा उनके लिए कोई मानी नहीं रखा. विद्यापति जैसे रचनाकर अपवाद हैं.
संस्कृत के पंडित होने के बावजूद नागार्जुन ने पंडिताई को बोझ नहीं बनने दिया. उन्होंने जन जीवन से जुड़कर साहित्य में और जीवन में सहजता पाई. उनका पूरा साहित्य जन के जीवट रस से सिक्त है.
उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा है: कवि ! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का...’ समाज के बहुसंख्यक जन के प्रति उनकी संवेदना, प्रतिबद्धता का स्रोत इस रूपक में निहित है.

'न हकलाने वाले कवि थे नागार्जुन' मैनेजर पांडे



बाबा नागार्जुन
आजकल भारत में इतिहास लेखन में एक नई परंपरा शुरु हुई है. 'सबॉल्टर्न हिस्ट्री' यानी समाज के पराधीन, दुखी, सताए हुए और निचले तबके के लोगों का इतिहास.
इतिहास लिखने वालों के लिए यह ज़रुर नई परंपरा है लेकिन जो बाबा नागार्जुन की कविता को जानते हैं वो जानते हैं कि उनकी कविता दरअसल सबॉल्टर्न वर्ग की ही कविता है. वे उनकी यातनाओं और यातना से मुक्ति की ही कविता लिखते रहे हैं.
मेरी समझ से भारतीय समाज के तीन वर्ग सबसे अधिक सबॉल्टर्न कहे जाने लायक हैं. एक हैं आदिवासी, दूसरी औरतें और तीसरे दलित. बाबा नागार्जुन ने इन तीनों के ही बारे में ख़ूब लिखा है.
आदिवासी समाज को लेकर इन दिनों भारतीय समाज में जो द्वंद्व चल रहा है, उसकी बड़ी बहसें हो रही हैं. आदिवासियों का सत्ताओं से संघर्ष हो रहा है और बहुत सी बातें हो रही हैं. नागार्जुन ने भारत के आदिवासियों की यातनाओं, पराधीनताओं आदि की कविता तब लिखी थी जब हिंदुस्तानी समाज में उस तरह की कविता लिखने की प्रवृत्ति ही नहीं थी. अनेक कविताएँ हैं उनकी, 'साल वनों के टापू में' या 'सघन बगीची में' या दूसरी कई अन्य.
दूसरा सबॉल्टर्न समाज भारत में है औरतों का. सारी दुनिया में औरतें पराधीन और सताई हुई रही हैं. भारत में और भी ज़्यादा क्योंकि दुनिया के जो भी देश जितने पुराने हैं, वे उतने ही दकियानूसी देश भी हैं. परंपराओं और रूढ़ियों के ग़ुलाम. नागार्जुन ने स्त्रियों की यातना और उन यातनाओं से मुक्ति की आकांक्षाओं की कोशिश पर बहुत सारा साहित्य लिखा है.
वर्ष 1935-36 से 90 के दशक तक के भारतीय समाज में स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आम जनता की बदहाली, तबाही और तंगी के बीच जनता के विद्रोह, प्रतिरोध और सत्ता में संघर्ष का इतिहास अगर आप एक जगह देखना चाहते हैं तो वह नागार्जुन की कविताओं में मौजूद है
नागार्जुन का लगभग अस्सी प्रतिशत जो उपन्यास साहित्य है, जैसे 'रतिनाथ की चाची', 'कुंभी पाक' और दूसरे अनेक, इन सबमें किसी न किसी स्त्री की यातना और उससे मुक्त होने की छटपटाहट मौजूद है. नागार्जुन ने मैथिली में एक बहुत ही मार्मिक और लगभग प्रगीतात्मक उपन्यास लिखा है, 'पारो'. उसमें भी उसी तरह से मिथिला के पुराने पुरातनपंथी समाज में जो विवाह को लेकर लड़कियों की जो यातना थी, उसे बहुत ही मार्मिक ढंग से उन्होंने पेश किया है.
इसके अलावा हिंदी में उनकी एक और कविता है 'तालाब की मछलियाँ'. यह कविता स्त्री की पराधीनता की वास्तविकता और स्वाधीनता की आकांक्षा को व्यक्त करने वाली कविता है.
भारत में जो तीसरा बड़ा सबॉल्टर्न समाज है दलितों का. नागार्जुन ने और कविताओं में भी दलितों की पीड़ा की चर्चा की है. लेकिन इस प्रसंग में उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता 'हरिजन गाथा' है. लंबी कविता है और ये बिहार के एक गांव बेचछी में हरिजनों को ज़िंदा जलाए जाने की घटना पर आधारित है.
इस घटना पर हिंदी में दो बड़ी रचनाएँ लिखी गईं. एक तो नागार्जुन की यह कविता और दूसरा मन्नू भंडारी का उपन्यास 'महाभोज'. अगर आप 'हरिजन गाथा' को देखें तो उसमें एक ओर उच्च वर्ग और वर्ण की ज़्यादती है तो दूसरी ओर दलितों की यातना और हत्या का वर्णन है. उस कविता के अंत में नागार्जुन दलितों की मुक्ति की संभावना को लेकर एक तरह से यूटोपिया रचते हुए दिखाई देते हैं.
मुझे लगता है कि यह जो भारत का सबॉल्टर्न समाज है, उसके कवि हैं नागार्जुन.

विविधता का कवि

वैसे तो भारतीय समाज में जितनी व्यापकता और विविधता है वह सब नागार्जुन की कविता में है. उनकी कविताओं में हिमालय है, कश्मीर है, केरल है तो गुजरात भी है और मिजोरम भी.
लेकिन वर्ष 1935-36 से 90 के दशक तक के भारतीय समाज में स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आम जनता की बदहाली, तबाही और तंगी के बीच जनता के विद्रोह, प्रतिरोध और सत्ता में संघर्ष का इतिहास अगर आप एक जगह देखना चाहते हैं तो वह नागार्जुन की कविताओं में मौजूद है.
वे एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से बाद के दिनों तक भी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की.
चाहे वह इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' या फिर अमरीकी राष्ट्रपति जॉनसन पर लिखी कविता 'प्रभु तुम चंदन हम पानी' हो.
यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि नागार्जुन की कविता में जहाँ जनसंघर्ष का वर्णन सबसे अधिक है, उनकी कविता जनसंघर्षों के दौरान सबसे अधिक गाई जाने वाली कविता बनी.
वे सजग और सचेत रुप से जनता के कवि थे. इसलिए तो वे कह सके,
'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ,
जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊँ.'
सारी दुनिया में बहुत सारे कवि आपको मिलेंगे, वे हिंदी में भीं हैं जो हकलाहट को ही कविता समझते हैं.
असल में जो लोग समाज और जीवन से सुविधा चाहते हैं वे साहित्य में दुविधा की भाषा बोलते हैं और दुविधा की भाषा को ही कविता की कला समझते और बनाते हैं.
नागार्जन हकलाने वाले या दुविधा की भाषा वाले कवि नहीं थे.

Wednesday, June 8, 2011

हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते

 विभा रानी
the-vagina-monologues1नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2009 अंक में प्रकाशित सुप्रसिद्ध मलयाली कवि के सच्चिदानंद की एक कविता उद्धृत है
मैं एक अच्छा हिन्दू हूं
खजुराहो और कोणार्क के बारे में मैं कुछ नहीं जानता
कामसूत्र को मैंने हाथ से छुआ तक नहीं
दुर्गा और सरस्वती को नंगे रूप में देखूं तो मुझे स्वप्नदोष की परेशानी होगी
हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते
जो भी थे उन्हें हमने काशी और कामाख्या में प्रतिष्ठित किया
कबीर के राम को हमने अयोध्या में बंदी बनाया
गांधी के राम को हमने गांधी के जन्मस्थान में ही जला दिया
आत्मा को बेच कर इस गेरुए झंडे को खरीदने के बाद
और किसी भी रंग को देखूं तो मैं आग-बबूला हो जाऊंगा
मेरे पतलून के भीतर छुरी है
सर चूमने के लिए नहीं, काट-काट कर नीचे गिराने के लिए…
यह मात्र संयोग ही नहीं है कि हम कहीं भी कभी भी प्यार की बातें करते सहज महसूस नहीं करते। यहां प्यार से आशय उस प्यार से है, जो सितार के तार की तरह हमारी नसों में बजता है, जिसकी तरंग से हम तरंगित होते हैं, हमें अपनी दुनिया में एक अर्थ महसूस होने लगता है, हमें अपने जीवन में एक रस का संचार मिलाने लगता है। मगर नहीं, इस प्यार की चर्चा करना गुनाह है, अश्लीलता है, पाप है और पता नहीं, क्या-क्या है। हमारे बच्चों के बच्चे हो जाते हैं, मगर हम यह सहजता से नहीं ले पाते कि हमारे बच्चे अपने साथी के प्रति प्यार का इज़हार करें या अपने मन और काम की बातें बताएं। और यह सब हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के नाम पर किया जाता है।
अभी-अभी एक अखबार में पढ़ रही थी फिल्म निर्माता राकेश रोशन का इंटरव्यू। उनकी फिल्म काईट के बारे में, जिसमें उनके अभिनेता बेटे ने चुम्बन का दृश्य दिया है। साक्षात्कार लेनेवाले की परेशानी यह थी कि यह चुम्बन का दृश्य हृतिक रोशन ने किया कैसे, और एक पिता होने के नाते राकेश रोशन ने यह फिल्माया कैसे और उसे देखा कैसे? बहुत अच्छा जवाब दिया राकेश रोशन ने कि अब इस फिल्म में मैं प्रेम के लिए चुम्बन नहीं दिखाता तो क्या हीरो- हीरोइन को पेड़ के पीछे नाचता-गाता दिखाता? जान लें कि इस फिल्म कि नायिका भारतीय नहीं है। राकेश रोशन ने कहा कि एक अभिनेता के नाते उसने काम किया है, वैसे ही, जैसे उसने कृष में लम्बी-लम्बी छलांगें लगायी थीं।
जिस प्रेम से हमारी उत्पत्ति है, उसी के प्रति इतने निषेध भाव कभी-कभी मन में बड़ी वितृष्णा जगाते हैं। आखिर क्यों हम प्रेम और सेक्स पर बातें करने से हिचकते या डरते हैं? ऐसे में सच्छिदानंदन जी की बातें सच्ची लगती हैं कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते, और अब उन्हीं के अनुकरण में हमारे भी नही होते। आखिर हम उन्हीं की संतान हैं न। भले वेदों में उनके शारीरिक सौष्ठव का जी खोल कर वर्णन किया गया है और वर्णन के बाद देवियों को माता की संज्ञा दे दी जाती है, मानो माता कह देने से फिर से उनका शरीर, उनके शरीर के आकार-प्रकार छुप जाएंगे। वे सिर्फ एक भाव बनाकर रह जाएंगी।
यक्ष को दिया गया युधिष्ठिर का जवाब बड़ा मायने रखता है कि अगर मेरी माता माद्री मेरे सामने नग्नावस्था में आ जाएं तो मेरे मन में पहले वही भाव आएंगे, जो एक युवा के मन में किसी युवती को देख कर आते हैं। फिर भाव पर मस्तिष्‍क का नियंत्रण होगा और तब मैं कहूंगा कि यह मेरी माता हैं।
समय बदला है, हम नहीं बदले हैं। आज भी सेक्स की शिक्षा बच्चों को देना एक बवाल बना हुआ है। भले सेक्स के नाम पर हमारे मासूम तरह-तरह के अपराध के शिकार होते रहें। आज भी परिवारों में इतनी पर्दा प्रथा है कि पति-पत्नी एक साथ बैठ जाएं, तो आलोचना के शिकार हो जाएं। अपने बहुचर्चित नाटक वेजाइना मोनोलाग के चेन्नई में प्रदर्शन पर बैन लगा दिये जाने पर बानो मोदी कोतवाल ने बड़े व्यंग्यात्मक तरीके से कहा था कि इससे एक बात तो साबित हो जाती है कि मद्रास में वेजाइना नहीं होते।
देवी-देवता की मूर्ति गढ़ते समय तो हम उनके अंग-प्रत्यंग को तराशते हैं, मगर देवी-देवता के शरीर की काट कोई अपनी तूलिका से कर दे तो वह हमारे लिए अपमान का विषय हो जाता है। हमारी समझ में यह नही आता कि इस दोहरी मानसिकता के साथ जी कर हम सब अपने ही समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। देवी-देवता को हम भोग तो लगाते हैं, देवी देवता का मंदिरों में स्नान-श्रृंगार, शयन सब कुछ कराते हैं, मगर देवी-देवता अगर देवी-देवता के जेंडर में हैं, तो हम उनके लिंग पर बात क्यों नहीं कर सकते? आज भी सेक्स पर बात करना बहुत ही अश्लील मना जाता है। और यह सब इसलिए है कि हम सब इसके लिए माहौल ही नहीं बना पाये हैं। एक छुपी-छुपी सी चीज़ छुपी-छुपी सी ही रहे, हर कोई इसे मन में तो जाने मगर इस पर बात न करे, इस पर चर्चा न करे। ऐसे में हमारे साथ आप सबको भी यकीन करना होगा कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते और उनके अनुसरण में हमारे भी।

लोकतंत्र सरकार की विचारधारा नहीं होती



5 JUNE 2009 
♦ अनिल चमड़िया
democracy1किसी वैचारिक सवाल पर नज़रिया स्पष्ट नहीं बन पाने में शायद सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि उसे एक घटना और एक सीमित भूगोल में देखने की भूल भी होती हैं। नेपाल सरकार के सेनाध्यक्ष कटवाल को हटाए जाने के फैसले को राष्ट्रपति द्वारा रद्द किए जाने के बाद प्रधानमंत्री पद से प्रचंड द्वारा इस्तीफा देने के घटनाक्रमों को देखने के नज़रिये के साथ भी यही बात जुड़ी हुई हैं। पाकिस्तान के बारे में क्या कहा जाता है? वहां लोकतंत्र नहीं है। सेना सत्ता पर हावी रहती है। पाकिस्तान के लिए मज़बूत लोकतंत्र की ज़रूरत है। लेकिन नेपाल में चाहते हैं कि सेना हावी रहे। चुनी गयी सरकार की अधीनता में नहीं रहे। अब एक दूसरा सवाल करें। भारत में माओवादियों से अपील की जाती है कि वे हथियार का रास्ता छोड़ दें और मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो जाएं। नेपाल के माओवादियों से भी यही अपील की जाती थी। उन्हें आतंकवादी घोषित किया गया। जब वे चुनाव में शामिल हुए और मतदाताओं ने उन्हें संविधान सभा के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें देकर सरकार बनाने के लिए कहा, तो इससे परेशानी होने लगी। कहा जाने लगा कि नेपाल में माओवादियों ने अपनी जड़ें जमा ली तो उसे हिला पाना मुश्किल होगा। उसका असर दूसरे देशों और खासतौर से पड़ोसी देशों के राजनीतिक भविष्य पर पड़ेगा। सवाल है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में ही विश्‍वास है या नहीं? क्या लोकतंत्र की वही प्रक्रिया उचित है, जो कि सत्ता पर काबिज वर्ग की सत्ता को बनाये रखने में मददगार हो?
संसदीय लोकतंत्र अपने आप में क्या कोई निरपेक्ष शासन व्यवस्था नहीं है? लोकतंत्र की प्रचलित अवधारणा में मतदाताओं द्वारा सत्ता चलाने के लिए किसी पार्टी या नेता का चुना जाना है। लेकिन किसी देश में ऐसे लोकतंत्र का मतलब यह नहीं होता है कि वहां की सत्ता का संचालन वहां के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित पार्टी, पार्टियों या नेतृत्व द्वारा ही किया जाना संभव है। यह खुला सत्य है कि दुनिया के ढेर सारे मुल्कों में मतदाताओं द्वारा पार्टियों के चुने जाने के बाद अमेरिका और ब्रिटेन की पसंद से नेतृत्व तय होते हैं। दरअसल दुनिया भर में मतदाताओं द्वारा चुनाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना के दावों के आलोक में अब तक कई चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं। पहला तो यह कि महज मतदान लोकतंत्र के स्थापित होने की कोई कसौटी नहीं है। भूटान में सबने देखा कि वहां एक सरकार के लिए मतदान इसीलिए करा लिया जाता है क्योंकि उसके पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही के खिलाफ़ ज़बरदस्त आंदोलन हुआ और बहुमत की संख्या में लोग वहां लोकतंत्र की बहाली के लिए सड़कों पर आ गये हैं। लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण बात पर ज़रूर ध्यान जाना चाहिए है कि भारत का चुनाव पर आधारित लोकतंत्र पिछले पचास पचपन साल में अपने पड़ोसी देश भूटान में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की स्थापना के लिए कोई प्रभाव नहीं डाल सका। जबकि पूरी दुनिया में यह देश सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरता है। भूटान में चुनाव वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं है ये बात भी पूरी तरह से स्पष्ट हैं। वह तो लोकतंत्र के आंदोलन के वैचारिक प्रभाव को दूसरी दिशा में ले जाने का तात्कालिक उपाय है। वहां चुनाव एक ऐसी योजना है, जिसमें लोकतंत्र की बहाली नहीं बल्कि राजशाही को उसकी पूरी ताक़त के साथ बनाये रखना है। दूसरी बात यह भी स्पष्ट हुई है कि गरीब देशों के लिए लोकतंत्र की एक परिभाषा होती है और ताक़तवर देशों के लिए दूसरी परिभाषा होती है। असमान विकास की स्थिति में लोकतंत्र की कोई निश्चित परिभाषा तय नहीं हो सकी है।
लोकतंत्र की अवधारणा लेकर एक बात बहुत स्पष्ट होनी चाहिए कि यह केवल ढांचा नहीं है। यह एक वैचारिक अवधारणा है। इस विचारधारा का सौंदर्य कई तत्वों पर खड़ा होता है। इसमें स्वतंत्रता और संप्रभुता प्रमुख हैं। लेकिन स्वतंत्रता और संप्रभुता का क्या पैमाना होना चाहिए? किसी देश का मतदाता एक निश्चित अवधि के बाद राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों का अपने प्रतिनिधि के पक्ष में मतदान करता है, तो यहां उसकी स्वतंत्रता दिखती है, लेकिन क्या यह स्वतंत्रता सरकार की भी स्वतंत्रता होती है? पार्टी और उसका प्रतिनिधि सरकार या सत्ता नहीं है। सरकार में स्थायित्व का चरित्र होता है। पार्टियां और प्रतिनिधि बदलते रहते हैं लेकिन सरकार नहीं बदलती। नेपाल के ही उदाहरण को लें। वहां राजशाही थी। माओवादियों के जनयुद्ध के बाद राजा की कुर्सी हमेशा के लिए छिन गयी। इसमें एक बात बहुत स्पष्ट है कि दुनिया भर में जहां लोकतंत्र की सरकारें बन रही थी, उनमें से किसी भी सरकार या कुछ ने मिलकर ये कोशिश नहीं की कि नेपाल जैसे देशों में राजशाही ख़त्म होनी चाहिए। लोगों ने ही तय किया। इसका मतलब साफ है कि लोकतंत्र सरकार की विचारधारा नहीं होती है। उसकी विचारधारा केवल उसका अपना हित है। अब दूसरा सवाल यह है कि माओवादियों के जनयुद्ध की वजह से राजा का सिंहासन चला गया, लेकिन राजा के साथ जो शाही जुड़ा हुआ है, वह कहां ख़त्म हुआ। शाही ही विचारधारा है, जो विभिन्न रूपों में नेपाल के पूरे समाज में घुसा पड़ा है। क्या राजा की कुर्सी के साथ ही वह ख़त्म हो सकता है? राजशाही की संस्कृति और उसमें रचे-बसे एक वर्ग और उसके तमाम तरह के हित सरकार के स्थायित्व के साथ जुड़े रहे हैं। वह तो कोई एक कुर्सी या महल नहीं है। नेपाल में माओवादियों को सरकार चलाने का अवसर तो मिला लेकिन वह कैसी सरकार को चलाएं? यदि वे सरकार को चलाते रहते तो क्या हो सकता है? सरकार को ही बदलें तो क्या क्या होना चाहिए? नेपाल के संदर्भ में तो ये बात बहुत साफ होती है कि संसदीय लोकतंत्र में भी मतदान में बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता है। किसी भी मतदान के बाद यदि बहुमत मतदाता केवल फिर से मतदान के लिए तैयार रहने की मानसिकता में तैयार कर लिये जाएं तो सरकार को कभी कोई आंच नहीं आ सकती है। जिनके हित स्थायी तौर पर सरकार से जुड़े होते हैं, उनके हित बने रह सकते हैं। भारत का उदाहरण भी यहां काबिलेगौर है। केवल मतदाता बनने के कैसे खतरे हो सकते हैं, ये तो कई देशों के हालातों को देखकर कहा जा सकता है। सरकारें मतदाता तैयार करती हैं और आंदोलन सरकार को बदलने की संस्कृति। नेपाल के माओवादी आंदोलन में मतदाता नहीं बल्कि आंदोलनकारी तैयार हुए और उन्‍होंने मौके पर मतदान भी किया। इस प्रक्रिया से उन्हें अब तक गुरेज नहीं है।
लोकतंत्र के साथ राष्ट्रवाद के तत्व का भी विकास हुआ है। संप्रभुता इसी की गाड़ी पर चलती है। लेकिन जिस तरह से हर देश के लिए लोकतंत्र की कोई एक परिभाषा नहीं होती है, उसी तरह से राष्ट्रवाद भी लोकतंत्र की तरह अलग-अलग स्तरों पर पारिभाषित होता रहता है। ताक़तवर देश ही तय करता है कि ग़रीब मुल्क का राष्ट्रवाद क्या है? यह तो अक्सर देखा जाने लगा कि अमेरिका जब चाहता है, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों को बुला कर बताता है कि उन्हें अपने अपने राष्ट्र में क्या नहीं करना चाहिए और किस काम को किस तरह से करना है। यही नहीं, उनके राष्ट्र में उनके कौन कौन से दुश्मन हैं, उन्हें कैसे ख़त्‍म करना है। लोकतंत्र का मतलब ये भी होता है कि ग़रीब और कमज़ोर समझे जाने वाले मुल्क ताक़तवर देशों को हर वक्त अपने काम काज की रिपोर्ट दें। ऐसे में लोकतंत्र का मतदाता और उसका राष्ट्रवाद क्या कर सकता है? भारत में इस बात पर कई बार शोर-शराबा हुआ कि हमारी सरकार अमेरिकी सरकार के निर्देशों पर काम करती है। उसने अमेरिका से बिना पूछे परमाणु परीक्षण कर दिया तो भारत के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन अब नेपाल की चुनी हुई सरकार के मुखिया कह रहे हैं कि उन्हें अपने देश में सेनाध्यक्ष को हटाने के लिए भारत की सरकार से बात करने की कोशिश की थी। वहां से उन्हें धमकी मिली कि सेनाध्यक्ष को हटाने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे। सेनाध्यक्ष राज परिवार के सदस्य हैं। ये उदाहरण अपने आप में कहता है कि मतदान का मतलब लोकतंत्र और उसके तमाम मूल तत्वों का बने रहना नहीं है। अपने भारत देश में ही जिस तरह के राष्ट्रवाद को खड़ा किया जा रहा है, वह ताक़तवरों के सामने झुकने और कम ताक़त वालों को अक्सर हड़काने का नहीं है क्या?
इसीलिए अपना राष्ट्रवाद कभी जड़ नहीं तैयार कर पाया। वह एक मतदाता राष्ट्रवाद के रूप में ही दिखता रहता है। वहां की सरकार को दिशा निर्देश पाने में अपने हित सुरक्षित दिखते हैं, तो उसे कोई वैचारिक परेशानी नहीं है। लेकिन कोई भी आंदोलन जब अपनी एक मुकम्मल वैचारिक अवधारणा के साथ आकार लेता है, तो लोकतंत्र भी पूरे चांद के आकार की तरह आसमान में दिखना चाहता है। दरअसल यह अनुभव किया जा रहा है कि मुक्कमल वैचारिक अवधारणा के बिना यदि कोई आंदोलन करता है, तो वह केवल अपनी पार्टी या संगठन द्वारा चलायी जाने वाली सरकार ही स्थापित कर सकता है। बिना आंदोलन की पृष्ठभूमि के जहां चुनाव होते हैं, वहां का मतदाता पार्टी प्रतिनिधि को तो सुन लेता है, लेकिन उसके बाद का काम ताक़तवरों के हाथ में होता है। जिस सरकार को चलाने के लिए मतदाताओं ने पार्टियों या प्रतिनिधियों को चुना है, उस सरकार को ही चलने नहीं देंगे, तो मतदाता सरकार को नहीं चलने देने वालों का क्या कर लेंगे? लेकिन जब मतदाता एक वैकल्पिक व्यवस्था की संस्कृति में रचा बसा होगा, तो वह कुछ कर लेगा। वह कम से कम स्थितियों को समझेगा और अपना नया रास्ता निकालेगा।
राष्ट्रवाद का आधार स्वालंबन का होना चाहिए या फिर परजीविता का? परजीविता गुलाम मानसिकता का आधार तैयार करती है। दरअसल नेपाल की घटनाएं ही नहीं, पूरी दुनिया में लोकतंत्र की अवधारणा का जिस तेजी से विकास हुआ है, उसी तेजी के साथ सरकारों में निरकुंशता भी बढ़ी है और तेजी के साथ बढ़ रही है। इसकी यही वजह है कि सरकार चलाने के लिए चुनी जाने वाली पार्टियां मतदाताओं के बजाय सरकार को चलाने वाली शक्तियों के दबाव में आ जाती है। सरकार ने पार्टियों का सरकारीकरण कर दिया है और दूसरी तरफ मतदाताओं के सामने पार्टियों के बीच ही किसी पार्टी को चुनने की विकल्पहीनता की परिस्थितियां तैयार कर दी हैं। लेकिन जहां किसी आंदोलन की प्रक्रिया से लोकतंत्र की अवधारणा विकसित होती है, वहां वह आंदोलन संपूर्णता में लोकतंत्र को आकार लेते देखना चाहता है। ऐसी स्थिति में सरकार और आंदोलन के बीच टकराव स्वभाविक होता है। सरकार आंदोलनों के वास्तविक राजनीतिक उद्देश्यों को किसी पार्टी और किसी शासक के बदले जाने तक सीमित करना चाहती है।
नेपाल में राजा के बाद सेनाध्यक्ष को राजशाही द्वारा पोषित हितों के केंद्र के रूप में विकसित करने की कोशिश की गयी। लेकिन वहां लोकतंत्र का आंदोलन इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि उसका उद्देश्य सत्ता के ढांचे में किसी एक पद को हमेशा के लिए ख़त्म करने तक सीमित नहीं है। वह तमाम स्तरों पर सत्ता संबंधों में परिवर्तन चाहता है। ऐसे आंदोलन ही सरकार के पूरे ढांचे के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाते हैं। वरना दूसरी भीड़ इकट्ठी करने वाले आंदोलनों की सरकार को क्या परवाह होती है। नेपाल का आंदोलन जिस अवस्था में पहुंच गया है, वहां राष्ट्रवाद और सार्वभौमिकता की उसकी अपनी परिभाषा बनने से रोका जाना संभव नहीं दिखता है। दरअसल नेपाल के बहाने यह देखने की कोशिश की जानी चाहिए कि पूरी दुनिया में मतदाताओं में यह जागरूकता बढ़ रही है कि वह लोकतंत्र को सरकारों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहता है। उसे अपने द्वारा पारिभाषित लोकतंत्र की जरूरत महसूस हो रही है। लेकिन इस काम में एक चुनौती ये भी आ रही है कि नेपाल का आंदोलनकारी जब अपने लोकतंत्र को परिभाषित करता है तो पड़ोस में उसे दो तरह से देखा जाता है। पड़ोसी देश में उसे एक वर्ग अपने विरोध में देखता है क्योंकि उसके देश के हितों के वह प्रतिकूल होता है। दूसरा लोकतंत्र की एक समान परिभाषा को राष्ट्रवाद मानता है। लोकतंत्र का विकास इसी तर्ज पर होता रहा है। लेकिन सत्ता के साथ अपने हितों को बनाये रखने वाली शक्तियों ने लोकतंत्र की परिभाषा की कुंजी छीनकर अपने हाथों में ले ली है। इसीलिए लोकतंत्र केवल सत्ता के हथियार के रूप में बचा हुआ है।