Saturday, March 12, 2011

अभय मौर्य-किसान

तब मैं उम्र में बहुत छोटा था,
ढोर चराता और घास ढोता था ।
मैंने देखा था मेरे बाब्बू हल जोतकर,
बैठे थे हुक्का पीने धूल-धूसरित होकर ।

आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
टाँगते हुए लाँगड़, आँगळी हिला-हिला ।
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।

लठैत आए बैलों के पास अकड़ते हुए,
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
ले चले शहर को देते गाली धुआँधार ।

गिर पाँव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा ।”

“चल हट!” – लाला फुँफकारा,
“नहीं सै बात या मन्नै गवारा ।
ना मानूँ तेरी इन थोथी बात्ताँ नै,
कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दाँ नै ।”

“के करूँ, लाला,” बाब्बू बोले,
“पकी फसल पर पड़गे ओले ।
सोने-सी गेहूँ जमीन पै लेटगी
देखते-देखते किस्मत फूटगी ।”

लाला कड़का, हुँकारा, “तो मैं के करूँ ?
या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूँ ?
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा ।

मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही ।
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा ।”

तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार ?
क्यों है निढाल माँ गोबर और भरोटे ढो-ढोकर ?
क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पाँवों में लोटकर ?

और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े ?
क्यों हैं बिन तले की जूतियाँ टुकड़े-टुकड़े ?
क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर ?
जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर ।

लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे ।
उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियाँ हज़ार,
“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार ।

उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूँ की बीजाई,
हम सब – माँ, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,
बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज ।
न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज ।

न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया ।
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
माँ, भाई और बहन ने भी आख़िर तोड़ दिया दम ।

अकेला मैं किसी तरह बच गया,
मामा अपने गाँव मुझे ले गया ।
अब बड़ा हो गया हूँ मैं, पढ़-लिख गया,
बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धँस गया ।

गाँव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई,
छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई ।
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने ।

ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद ।

समझ में लगी हैं बातें अब आने,
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने ।
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
आता कलेजा मुँह को, न कोई ओर, न छोर ।

क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से ?
क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से ?
क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की ?
क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की ?

क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले ?
क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले ?
क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे ?
क्यों मज़े में हैं दलाल, सूदखोर, हाक़िम, लुटेरे ये सारे ?

पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को ।

पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
किया जिन्होंने मज़दूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार ।
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब ?

आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आँकड़े,
आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आँकड़े।
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
कि दमक रहा है भारत, ज़ुल्म हैं इसमें कम ।

हो गया हूँ मैं सयाना, अक्सर सोचता हूँ,
सिहर उठता हूँ, बाल अपने नोचता हूँ ।
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना ।

घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना ?
लुटेरे करें मौज, हमें है ज़हर पीना ?
फाँसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,
लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना ।

No comments:

Post a Comment