January 16th, 2011
हेमलता महिश्वर
किसी भी मनुष्य की शक्ति की पहचान उसके द्वारा संपादित कार्यों के परिणाम स्वरूप होती है। और आगे चलकर इस पहचान को निर्दिष्ट करने के लिए कुछ कथाओं का सृजन भी किया जाता है ताकि आने वाला समय उससे एक सबक लेकर अपनी दशा और दिशा निर्धारित करे। समाज में सदैव दो तरह तरह की प्रवृत्तियां एक साथ कार्य कर रही होती हैं – समाजोन्मुख प्रवृत्ति और व्यक्तिनिष्ठ प्रवृत्ति। समाजोन्मुख प्रवृत्ति वृहत्तर समाज को लेकर अपनी चिंता प्रकट करती है और इसके परिणामस्वरूप नेतृत्वकत्र्ता को राज्य की प्रभुता का शिकार होना होता है। इसके विपरीत व्यक्तिनिष्ठ प्रवृत्ति स्वकेंद्रित होती है। यह स्वार्थसिद्धि को ही वृहत्तर समाज की अनिवार्यता सिद्ध करती है। जब यह प्रवृत्ति पूर्णत: अकेली होती है तो समाज का कुछ कम नुकसान करती है पर जब यह प्रभुता के साथ मिलकर कार्य करती है तो वृहत्तर लोक को केवल एक साधन ही स्वीकार करती चलती है। ऐसे में जब वृहत्तर लोक अपनी असहमति प्रदर्शित करता है तो इस असहमति को उसे राष्ट्रद्रोह साबित करने में भी देर नहीं लगती है। इनमें से किसी भी प्रवृत्ति को यदि स्त्रिायों का समर्थन प्राप्त हो जाता है तो उसकी सफ लता असंदिग्ध स्वीकार कर ली जाती है। यहां कुछ उदाहरणों से हम इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं।
एक लोक कथा सुनी जाती है कि एक चोर को जब राजा ने फ ांसी की सजा सुनाई तो उसकी अंतिम इच्छा भी पूछी गई। चोर अपनी मां से मिलना चाहता था। वह अपनी मां से उस वक्त मिलना चाहता था जब फ ांसी के लिए फांसी स्थल पर वह सारी प्रजा के समक्ष खड़ा हो। सारे राज दरबार में उसकी नैतिकता की धाक जम गई। जब निर्धारित दिवस, नियत स्थान पर, जो ऊंचा था, सीढिय़ों पर चढ़कर ले जाया गया तो उसी ऊंचे स्थान पर उसकी मां को बुलाया गया। उसने मां के कानों में कुछ कहने की आज्ञा मांगी। जैसे ही मां उसके मुंह के पास अपना कान ले गई उसने मां का कान काट खाया। मां को लहूलुहान देख राजा ही नहीं, सारी प्रजा भी उस चोर पर बहुत नाराज हुई कि अपने अंतिम समय में भी वह अपनी कुप्रवृत्तियों से बाज नहीं आया। जो लोग उसकी नैतिकता को सराह रहे थे, वे ही अब उसे बुरी तरह कोस रहे थे। उससे पूछा गया कि अंतिम समय में उसने ऐसा क्यों किया तो उसने जवाब दिया कि मैं सारी प्रजा को यह सबक सिखाना चाहता था कि जब भी कोई बच्चा किसी भी तरह का कोई गलत काम करता है तो उसकी गलतियों पर बड़ों को पर्दा नहीं डालना चाहिए। अपनी मां को मैंने हमेशा अपनी चोरी के कारनामे कानाफ ूसी करते हुए सुनाए थे। मेरी मां ने मुझे मेरी पहली चोरी पर रोका नहीं। यदि रोक लेती तो आज मैं प्राणदंड का भागी नहीं होता।
बिल्कुल ऐसे ही एक सुपरहिट फिल्म आयी थी खलनायक। उसमें भी मां की ढील की वजह से बच्चा गलत रास्तों का अनुगामी होता है और देश को नुकसान पहुंचाने की ओर अग्रसर होता है। किंतु फि र अपनी मां की ही वजह से अपनी कुप्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करता है। दोनों प्रसंगों में स्त्री की नकारात्मक छवि उद्घाटित हो रही है। दूसरे प्रसंग में छवि को नाटकीय स्वरूप प्रदान किया गया है और सकारात्मकता की ओर कथानक मुड़ जाता है।
जो भी हो, इन दो कल्पनाप्रसूत प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि समाज में स्त्री की भूमिका कितनी उत्तरदायित्वपूर्ण होती है। आज हम यह भी स्वीकार करते चल रहे हैं कि एक बच्चे के नागरिक के रूप में निर्माण के दौरान पिता की बड़ी अहम भूमिका है। बच्चे की जिम्मेदारी एक मां के लिए भी उतनी ही होती है जितनी कि एक पिता के लिए। इसके पीछे कारण यह है कि अक्सर बच्चों को पालने-पोसने का काम सिर्फ मां का मान लिया जाता है। पिता की जिम्मेदारी केवल इतनी मानी जाती है कि वह आर्थिक स्थिति और बाहरी दुनिया को संचालित करे। आज समय बदल रहा है और कम से कम मध्यवर्गीय पिता की बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदार सोच-समझ विकसित होती दिख रही है।
इन प्रसंगों के पश्चात हम यथार्थ के आधार पर बात करें तो अभी हाल ही में संपन्न बिहार के चुनाव परिणाम हमें महिला शक्ति का स्पष्ट संकेत देते हैं। दैनिक जागरण अखबार लिखता है : ”बिहार का चुनावी परिणाम सूबे से बाहर पूरे देश के लिए एक नई राजनीति का आगाज कर सकता है। खासकर नीतीश की जीत में महिलाओं की हिस्सेदारी महिला आरक्षण पर दबाव बढ़ा सकती है। बिहार में छ: चरणों में हुए मतदान में इस बार महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से आगे रही । इसे अपनी जीत का आधार मान रहे नीतीश को चुनावी परिणामों के आंकड़ों ने गदगद कर दिया। साथ ही इस महिला शक्ति ने दूसरों की भी आंखें खोल दीं। पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फ ीसदी आरक्षण के साथ-साथ महिला आरक्षण पर नीतीश के बदले तेवर ने उन्हें अलग पायदान पर खड़ा कर दिया था। नीतीश इस मुद्दे पर अपनी पार्टी के पुराने रुख से अलग आरक्षण की पैरवी करते दिखे थे। पार्टी के अंदर कई वरिष्ठों ने इसका विरोध किया। नीतीश का तीर सही निशाने पर बैठा। चुनाव में आधी आबादी उनके साथ आ खड़ी हुई।’’, (26 नवंबर 2010)।
घर की जिम्मेदारी से बाहर कदम रखते ही स्त्रियों ने सदैव एक नए आकाश को छूने का प्रयास किया है। हां, यहां यह भी स्वीकारणीय है कि कितनी महिलाओं ने स्वतंत्रचेता होकर मतदान किया और कितनी महिलाओं ने अनुसरण किया। अब परिणाम तो सामने हैं ही कि महिलाओं ने बहुत उत्साह से मतदान में भाग लिया।
पिछले दिनों मैं दिल्ली आ रही थी। मैं जिस बोगी थी उसी में छत्तीसगढ़ की ठेठ गंवार दिखाई देने वाली कुछ औरतें भी सवार हुईं। मैं चिंतित हुई कि टी.टी. आएगा तो इन पर पेनाल्टी ठोकेगा। स्वयं को कुछ महान की मुद्रा में अवस्थित कर मैंने उनसे कहा,”तुमन ए बोगी म काबर चढ़ गे हवौ? एदे टी.टी. ह आही त तुमन ल उतार दीही अऊ पइसा घलोक माँगही। अभीचे तुमन उतर के दूसर बोगी म चढ़ जावौ।’’
मेरा इतना कहना था कि उनमें से एक ने कहा,”कइसे उतार दीही? हमर कर टिकट हे।’’
मुझे काटो तो खून नहीं! मैंने झेंप मिटाने की गरज से पूछा कि वे कहां जा रही हैं, तो पता चला कि वे पंच-सरपंच हैं और दिल्ली जा रही हैं, रैली में भाग लेने।
आगे झांसी में एक पुलिसकर्मी बिना आरक्षण के जब अपने परिवार को जगह दिलाने के लिहाज से डंडा हड़काने लगा तो उन महिलाओं ने तुरंत पूरी बोगी में हल्ला करना शुरू कर दिया और वे उसे टिकट दिखाने को निकालने लगीं कि पुलिसकर्मी मय परिवार के वहां से सटक लिया। भला हो ग्राम पंचायत का जिसने इतनी चेतना तो पैदा की। भले ही आज वह पंच या सरपंच महिला अपने पति का स्टैंप हों, भविष्य काल इतना सोया तो नहीं रहेगा जितना अभी, जिस समय में वे सांस ले रही हैं। उनकी चेतना उनके परिवार को तो प्रभावित करेगी! देश को चेतना के स्तर पर नये विकास से जोडऩे वाले प्रख्यात सामाजिक चिंतक महात्मा जोतिबा फुले ने लिखा था – जब एक पुरुष पढऩा-लिखना सीखता है तब केवल एक पुरुष शिक्षित होता है किंतु जब एक महिला पढऩा-लिखना सीखती है तो एक परिवार शिक्षित होता है।
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने इस बात पर बल दिया था कि यदि किसी परिवार की आर्थिक स्थिति किसी एक बच्चे को शिक्षित करने लायक है तो लड़के के बजाय लड़की को शिक्षित करना चाहिए क्योंकि एक शिक्षित लड़की पूरे परिवार को शिक्षित करती है।
अर्थात् एक लड़की या स्त्री की सामाजिक भूमिका से महात्मा जोतिबा फुले और डॉ.अम्बेडकर पूरी तरह परिचित थे और इस बात से भी कि एक लड़के या पुरुष की भूमिका समाज किस तरह से निर्धारित करता है। समाज का सुखद भविष्य निर्धारित करने के लिए स्त्री की भूमिका क्या और कैसी होनी चाहिए। इसकी तैयारी बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि जोतिबा फुले ने अपनी पत्नी सावित्री बाई को लड़कियों को शिक्षित करने हेतु प्रेरित किया। तमाम विरोध के बावजूद सावित्री बाई कर्तव्य पथ पर अग्रसर रहीं।
इस तरह से हम देखते हैं कि एक स्त्री के द्वारा शिक्षा के प्रचार-प्रसार में योगदान देने से देश की तस्वीर में क्या परिवर्तन आया। इसी तरह से जब स्त्रियां समाज के अलग-अलग क्षेत्रों में पूरी चेतना के साथ अपना योगदान देती हैं तो देश की एक अलग तस्वीर उभरती है।
निश्चय ही हमारे समाजों में परिवर्तन की शुरुआत हो चुकी है। कहीं वह बहुत क्षीण है इसलिए सामान्य तौर पर नजर नहीं आती और कहीं इतनी तीव्र और स्पष्ट की उसकी धमक देशों की सीमाएं पर कर जाती है। कम से कम एशियाई उपमहाद्वीप के अलग-अलग देशों में अपनी-अपनी तरह का काम करने वाली कई ऐसी महिलाएं हैं जो इस परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। यहां मैं भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार का नाम लूं तो भारत से इरोम शर्मिला चानू, पाकिस्तान में असमां जहांगीर, बांग्लादेश से तस्लीमा नसरीन, म्यांमार से आंग सान सू की के नाम सूर्य की तरह तजोदीप्त होते दिखाई पड़ते हैं। इन महिलाओं ने अपनी-अपनी तरह से अपने-अपने समाज को झकझोरने का कार्य किया है। उनका यह कार्य उनके राष्ट्र को एक नई दिशा में ले जाने का सकारात्मक कदम होगा। प्रसिद्ध दार्शनिक ज्यां पाल सात्र्र ने लिखा ही था कि किसी भी राष्ट्र की सफ लता इस बात से नहीं आंकी जाती कि अपनी समस्याओं को सुलझाने में उसने कितना ख़ून बहाया बल्कि इस बात से आंकी जाती है कि वह अपनी समस्याओं को सुलझाने में कितना कामयाब रहा। नि:संदेह बगैर किसी जान-माल के नुकसान के पारदर्शिता के साथ संपादित किए गए कार्य ही सरकार की स्वच्छ और स्पष्ट छवि जनता के समक्ष प्रस्तुत करते हैं और सरकार को दमन का सहारा नहीं लेना पड़ता। यह भी बहुत आवश्यक है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपने प्रत्येक कार्य के लिए सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होती है और उसे जनता को अपने भरोसे में लेकर कार्य संपादित करना अनिवार्य होता है। आखिर कुछ तो कारण होंगे ही कि देश का कुछ हिस्सा इतना नाराज हो जाता है कि वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर ही सही अपना विरोध दर्ज करता है और कुछ कारण तो होते ही होंगे कि सरकार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उन्हें बाधक तत्त्व स्वीकारती है और दमन की मुद्रा में आ जाती है।
क्या यह अचानक है कि भारतीय उपमहाद्वीप में म्यांमार सहित, ज्यों-ज्यों असमानता बढ़ रही है, विकास के पूंजीवादी मॉडलों से विस्थापन बढ़ रहा है, इससे असंतोष और विरोध भी बढ़ता जा रहा है। इसने सत्ताओं के दमन को विकराल कर दिया है। देखने की बात यह है कि इसके विरोध में आगे महिलाएं ही हैं। गत माह अगर नर्मदा आंदोलन के 25 वर्ष पूरे हुए तो देश के पूर्वी छोर पर सरकार के दमनकारी कानूनों के विरोध में बैठी इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के दस वर्ष पूरे हुए। उधर म्यांमार में नजरबंद आंग सान सू की 25 वर्ष बाद रिहा हुई।
इधर की तीन बड़ी घटनाएं इस बदलाव को रेखांकित करती हैं।
उत्तर पूर्व में अपने लिए नहीं अपने समाज के लोगों के लिए संघर्ष कर रही इरोम शर्मिला चानू का आमरण अनशन अपने समाज के लोगों के आत्मसम्मान और जीवन की रक्षा की खातिर है। सरकार ने वर्षों पहले विशेष सशस्त्र सेना बल (आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर) वहां लागू किया है। इससे हासिल अतिरिक्त अधिकार का मनमाना प्रयोग सेना करती चली आ रही है, जिसका विरोध मणिपुर की जनता की ओर से लगातार हो रहा है। शर्मिला ने अपना अनशन 2 नवंबर, 2000 से आरंभ किया जब इस विषेश सशस्त्र सेना बल ने बस का इंतजार करते 10 मासूम लोगों को अपनी खूनी बंदूक का निशाना बनाया था।
विशेष सशस्त्र सेना बल के द्वारा किए गए अमानवीय कृत्यों की फेहरिस्त लंबी बताई जाती है। मनोरमा कांड भी अभी लोग भूले नहीं होंगे। कथित बलात्कार और हत्या का शिकार हुई मनोरमा देवी कांड का विरोध वहां की स्त्रियों ने नग्न प्रदर्शन करते हुए किया था, इससे साफ जाहिर होता है कि विषेश सशस्त्र सेना बल की भूमिका क्या रही होगी। मनोरमा हत्या कांड के विरोध में पबेम चितरंजन ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह कर लिया पर सरकार के कानों पर जूं भी नहीं रेंगी। शर्मिला पर इस बात का इल्जाम लगाकर कि वह आमरण अनशन करते हुए आत्म हत्या करना चाहती है, 21 नवंबर, 2000 को पुलिस ने शर्मिला को हिरासत में लिया और उसे तब से नाक द्वारा बलात कृत्रिम आहार देकर जिंदा रखा जा रहा है। निश्चय ही शर्मिला के अनशन ने इस दमनकारी कानून के खिलाफ चेतना फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सरकार के लिए शर्मिला की लोकप्रियता सिरदर्द बनती जा रही है। निश्चय ही शर्मिला का विरोध और त्याग बेकार नहीं जाएगा और देर-सबेर सरकार को इस कानून को हटाना ही होगा।
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण अभियान से जुड़कर पिछले 21 वर्षों से अहिंसात्मक तरीके से बड़े बांधों का विरोध करती मेधा पाटकर जब देश के न्यायालय के समक्ष निर्णय सुनाए जाने के बाद रो पड़ती हैं तो एहसास होता है कि राज्य की प्रभुता का इस्तेमाल कर पूंजीपति बनते लोग कैसे तर्क गढ़ते हैं और समाज के समक्ष प्रस्तुत कर आम जन को स्वयं का मुखापेक्षी बना लेते हैं। मेधा पाटकर अपने साक्षात्कार में कहती हैं -”गांधीवादी मूल्यों के प्रति आग्रह जनांदोलनों की पहली और अंतिम शर्त नहीं होती। हम बम-बारूद चलाना जानते तो वह भी कर सकते थे। जो तरीका हमें नहीं मालूम उसके बारे में क्या सोचना। मूल्य के तौर पर अहिंसा को अपनी कसौटी बनाना यह मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रकृति है। 21 वर्षों से जारी लंबे संघर्ष में अहिंसा को नहीं छोडऩे के कारण अगर हमारी आलोचना हो रही है तो आलोचना वाजिब ही है। अत्याचार सहना जब मुश्किल हो जाए तो आत्म सुरक्षा के लिए हिंसा पर उतारू होना मनुष्य की अंतिम मजबूरी है।’’, टर्निंग इंडिया नवंबर 2010।
इसी तरह समाज में कानूनी तौर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का कार्य पाकिस्तान जैसे मर्दवादी देश की एक महिला वकील असमां जहांगीर ने किया है जो अकेले बूते पर पाकिस्तान में मानवाधिकारों के दमन के खिलाफ आवाज उठाती रही हैं। यह दमन और उत्पीडऩ चाहे धार्मिक ताकतों का हो या फिर सरकारी एजेंसियों का। उनका काम विशेषकर एक कट्टरतावादी देश में स्त्रियों के सम्मान और उनके निजत्व के अधिकार की लड़ाई को जारी रखने का है। उन्होंने अपने देश में बंदी भारतीय नागरिकों की मुक्ति और उनके मानवीय अधिकारों के लिए भी लगातार आवाज उठाईहै। यही कारण है कि वह पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की बार एसोसिएशन क ी पहली महिला अध्यक्ष बनी हैं। वह मानवाधिकार आयोग क ी अध्यक्ष तो हैं ही।
बांग्लादेश की तस्लीमा नसरीन भारतीय उपमहाद्वीप में स्त्रियों की आजादी और अधिकारों की लड़ाई की अग्रणी व्यक्तित्व हैं। यही नहीं वह मानवाधिकारों की भी पक्षधर हैं और अपने देश में हिंदुओं के प्रति होनेवाले भेदभाव और अत्याचारों का वह खुल कर विरोध करती रही हैं। उन्हें इसी विषय पर लिखे अपने उपन्यास लज्जा के लिए देश निकाले का दंड पिछले दो दशक से झेलना पड़ रहा है। यहां तक कि वह अपनी मां की मृत्यु पर भी अपने देश नहीं जा सकीं थीं।
म्यांमार की आंग सान सू की पिछले तीन दशक से अपने देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संर्घषरत करती रही हैं। बीस साल की नजरबंदी के बाद अंतत: सैनिक सरकार को उन्हें छोडऩा पड़ा है। देखने की बात यह है कि उन्होंने सरकार के आगे झुकना कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी स्वाभाविकता में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के साथ नित्य प्रति वह संपर्क में आता है और अपने जीवंत होने का संदेश देता है। ऐसी स्थिति में बगैर किसी से बातचीत किए जीवन के महत्वपूर्ण वर्ष गुजार देना कम निराशाजनक नहीं होता। बावजूद इसके देश को लोकतांत्रिक व्यवस्था देने हेतु जीवन का समर्पण कर देना सामाजिक प्रतिबद्धता का प्रतीक है। वह लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई प्रधानमंत्री, प्रमुख विपक्षी नेता और अपने देश के राजनीतिक दल नेशनल लीग फ ॉर डेमोक्रेसी की नेता हैं। नोबेल शांति पुरस्कार के साथ साथ राफ्तो एवं सुखारोव पुरस्कार से नवाजी गई सू की ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की कीमत न केवल अपने अपितु अपने पूरे परिवार के लिए मुसीबतों को अपनाकर चुकाया। गत माह 13 नवंबर को सू की को दो दशकों की नजरबंदी के बाद रिहा किया गया है। कितनी बड़ी विडंबना है कि एक पत्नी को अपने पति अथवा कि एक पति को अपनी पत्नी से मिलने की अनुमति देना तो दूर देश में आने के लिए वीसा तक नहीं दिया गया। सन 1989 से केवल पांच बार वह अपने पति से मिल सकीं। चरम सीमा यहीं पर समाप्त नहीं होती। प्रोस्टेट कैंसर से पीडि़त पति को देखने के लिए सू को देश छोडऩे की इजाजत तो दी गई पर देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की खातिर वह इस डर से देश नहीं छोड़ सकीं कि उन्हें वापस नहीं आने दिया जाएगा। उन्होंने तो ‘भय से आजादी’ प्राप्त की और कर्तव्य पथ पर डटी रहीं।
एशिया का यह दौर इस मामले में उल्लेखनीय रहेगा कि इन महिलाओं ने प्रजातांत्रिक और मानवीय मूल्यों की खातिर साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्त क्षेत्रों में अपनी सशक्त भूमिका निभाई है। यही क्यों, हमारे समाज में न जाने कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो अपने अपने स्तर पर छोटी-छोटी लड़ाइयों के माध्यम से बदलाव की नई आशा की नई किरणों का संचार कर रही हैं।
वैसे यह समझना अपने आप में राजनीति वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के लिए चुनौती पूर्ण है कि आखिर ऐसा क्यों है कि आज हमारे उपमहाद्वीप में महिलाओं ने बदलाव के मोर्चे पर पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है। निश्चय ही यह नये सवेरे की आहट है।
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