Saturday, March 12, 2011

अविनाश कांबलेः दलित 'अंबानी'

Written by रवीश
"मैं तो बारहवीं फेल हूं. अंग्रेज़ी भी नहीं आती. इससे बिजनेस में कोई फर्क नहीं " 6 करोड़ का बिजनेस कायम करने के बाद अविनाश काम्बले ने पूरे आत्मविश्वास से अपनी यह बात माइक पर उड़ेल दी. हंस दिया और कहा कि डीटीडीसी में मैं डिलिवरी ब्वॉय था. फ्रैचाइज़ी होती है न वही मिल गई. एक आदमी दुकान बंद कर जा रहा था तो उसने कहा ले तू चला ले. मैंने काम शुरू कर दिया. आज मेरे पास एक सौ बीस लोग काम करते हैं. अविनाश काम्बले बोले जा रहे थे. लेदर की महंगी कुर्सी पर ठाठ से बैठा चौंतीस साल का एक नौजवान अपने संघर्ष की कहानी को यूं बता रहा था जैसे सबकुछ किसी कवि की कल्पना में घट रहा हो. शोलापुर से भाग कर आ गया था. बुआ ने रहने की जगह दे दी. चौराहे पर गजरे बेचने लगा. जिस चौराहे पर गजरे बेचने लगा उसी से दस किमी दूर पचपन लाख रुपये का पॉश इलाके में फ्लैट खरीदा है.
उदारीकरण के बाद निजी क्षेत्र में आए दलित युवकों की कहानियों में उलझ गया था. चाहता था कि मेरा कैमरा वैसा ही देख ले जैसा उनका आत्मविश्वास उबल रहा है. अविनाश ने कहा कि पुणे में भी लोग हैरान होते हैं कि दलित ने इतना कमाल कैसे कर दिया. पूरे पश्चिम महाराष्ट्र का मैं एक बड़ा कुरियर वाला बन गया हूं. डेढ़ सौ कारोपोरेट कंपनियां ग्राहक हैं. उनको कभी कोई शिकायत नहीं होने दी. मेरी नज़र अविनाश की बातों से हट कर कंप्यूटर के स्क्रिन सेवर पर भकभुक कर रहे अंबेडकर पर पड़ रही थी. पूछा कि बाबा साहेब यहां क्यों. अविनाश भावुक हो गया. बोला इन्हीं की वजह से हम हैं. ये न होते हैं तो हम कहां होते आज. बाबा साहेब से इमोशनल रिलेशन है. तभी मैंने जब ग्यारह लोगों को ब्रांच मैनेजर बनाया तो शोलापुर से लाकर छह दलित लड़कों को भी ब्रांच मैनेजर बनाया. उनको ट्रैनिंग दी और मौका दिया. वो अच्छा काम कर रहे हैं. बाबा साहब ने सिखाया है कि समाज का भला करते रहना है.
अविनाश से अगला सवाल था कि छह करोड़ तक कैसे पहुंच गए. अविनाश ने कहा कि डीटीडीटी के काउंटर को स्मार्ट लुक दे दिया. सोफा लगा दिया. शीशे का दरवाज़ा लगा दिया और एसी लगा दिया. डीटीडीसी के आल इंडिया चेयरमैन को भी विश्वास नहीं हुआ कि मेरी कंपनी का ऐसा लुक हो सकता है. अब वो हर जगह अपने काउंटर को अप मार्केट लुक दे रहे हैं. मैंने कई स्कीम निकाली है. हम लोग बिजनेस अच्छे से कर सकते हैं. गांवों में तो बिजनेस या जिसे आज आप सर्विस सेक्टर कहते हैं वो तो हम दलित ही चलाते थे न. बारात निकलवाने से लेकर श्मशान पहुंचाने तक. आप इसे अब सर्विस सेक्टर के रूप में देखिये. मैं पूछना चाहता था कि शोषण के रूप में न देंखे तब लेकिन दिमाग से उतर गया. दलित अपने स्किल का इस्तमाल कर रहे हैं.
पुणे की कहानी रोचक होती जा रही थी. उन्नीस सौ नब्बे के बाद के नौजवान उद्योगपतियों से मिलने का अनुभव. चंद्रभान प्रसाद से बात होते ही अगले दिन पुणे पहुंच गया था. जिस किसी से मिलता एक नई गाथा से टकराने लगता. भारत की पत्रिकाओं के कवर पर ग्लोबलाइजेशन की पैदाइश कई महापुरुषों की तस्वीर छपी है. मित्तल,टाटा और अंबानी. अविनाश काम्बले की तस्वीर भी किसी पत्रिका के कवर पर होनी चाहिए.

साभाऱः रवीश कुमार के ब्लॉग 'कस्बा' से

No comments:

Post a Comment