Thursday, March 17, 2011

सांप्रदायिक दंगे और वाल्मिकी समाज

January 16th, 2011
के.एस. तूफान

वाल्मीकि जाति का इतिहास योद्धाओं का इतिहास है। ‘नवल वियोगी’ सिंधु घाटी सभ्यता (मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा) का निर्माता शूद्रों एवं वणिकों को बतलाते हैं। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर को छोड़कर अधिकांश इतिहासकार, विद्वान एवं लेखक, आर्यों को भारत में बाहर से आया हुआ मानते हैं। भारत में आर्यों के आगमन के समय यहां की भूमि के चप्पे-चप्पे पर अधिकार करने हेतु भीषण रक्तपात हुआ। लंबे खूनी संघर्ष के चलते यहां के मूल निवासी अथवा द्रविड़ अथवा आदिवासी परास्त होकर अपना सब कुछ गवां बैठे और अंतत: सर्वहारा बनकर दासत्व को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिए गए। उसके बाद प्रारंभ हुआ सांप्रदायिक एवं जातिवादी लेखन। सुदूर अतीत में इसी समय वर्ण-व्यवस्था की आधारशिला भी रखी गई। इसके बल पर पराजितों को मानवाधिकार से वंचित कर सेवा के नाम पर उनसे घृणास्पद कार्य कराए जाने लगे और उनके इतिहास को नष्ट कर दिया गया।

उल्लेखनीय है कि वर्ण व्यवस्था का बिगड़ा हुआ रूप विभिन्न जातियां एवं उपजातियां हैं। जातिवाद की हानियों के विषय में राममनोहर लोहिया का कहना है, ”द्विजों को छोड़कर सारी जातियां व्यक्तित्व विहीन बना डाली गई हैं और यही वह दलदल है, जो सारी भारतीय समाज व्यवस्था में व्याप्त है। सारा सुधारवादी आंदोलन द्विजों की विभिन्न जातियों में होता रहा है और वह भी बुद्धिवादी बातों पर नहीं। इसीजिए सारा का सारा आंदोलन द्विजों के विभिन्न गिरोहों के सिवाय किसी भी शूद्र संप्रदाय को प्रभावित नहीं कर सका। सारा का सारा शूद्र संप्रदाय निर्जीव, व्यक्तित्वहीन बना रहा। यह दलदल इतना गहरा है कि बड़े से बड़ा पत्थर भी इसके गर्भ में कहां जाता है, कुछ पता नहीं चलता। जब तक यह दलदल सुखा नहीं दिया जाता, भारत में जातिवाद का नाश नहीं हो सकता।’’

जातिवाद के कट्टर विरोधी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने कहा है, ”इस देश में हजारों वर्ष से हम बहुत निरुत्साही अवस्था में चलते आ रहे हैं। जब तक यह अवस्था रहेगी, तब तक अपनी उन्नति के लिए उत्साह होना असंभव है। अन्याय और असमानता पर आधारित इस हिंदू धर्म में रहकर हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह चातुर-वर्ण व्यवस्था मनुष्य मात्र की उन्नति के लिए महा घातक है। शूद्रों का काम केवल सेवा करना ही है, उन्हें शिक्षा से क्या तात्पर्य, इस समस्या का हल कौन करेगा? ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को शूद्रों की गुलामी से हर प्रकार का लाभ है। शूद्रों के पास गुलामी के सिवाय और क्या है। चातुर-वर्ण व्यवस्था फूंक से उड़ाई नहीं जा सकती। यह केवल रूढि़ नहीं, वरन धर्म बन गई है।’’ हिंदू धर्म में जातिवाद एवं अस्पृश्यता के ऊपर स्वामी विवेकानंद ने कितना गहरा कटाक्ष किया है, ”हमारा धर्म रसोई घर में है। हमारा ईश्वर खाना बनाने का बर्तन है और हमारा धर्म है, मुझे न छुओ… मैं पवित्र हूं।’’ विडंबना यह है कि जब देश इक्कीसवीं शताब्दी में रह रहा है तब भी भारत में छुआछूत के दर्शन अनायास ही हो जाते हैं।

जहां तक वाल्मीकि समाज, डोम, डुमार, हेला, धानुक, चूहड़ा, भंगी एवं मेहतरों आदि द्वारा ‘सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा’ के उद्भव/प्रारंभ का प्रश्न है, तो इस परिपे्रक्ष्य में सांप्रदायिक लेखन का दुष्प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। सांप्रदायिक एवं जातिवादी लेखक इस मत को प्रचारित एवं स्थापित करना चाहते हैं कि सिर पर मल-मूत्र ढोने का कार्य भारत में मुसलमानों के बसने के बाद प्रारंभ हुआ। उनका तर्क है कि चूंकि मुस्लिमों में पर्दा प्रथा का प्रचलन था, अत: उन्होंने पाखानों का निर्माण किया और उनकी सफाई के लिए जाति विशेष को नियुक्त किया। मगर यह तर्क अत्यंत बोदा, लचर एवं सतही है। गौरतलब यह है कि स्नानगारों एवं शौचालयों के भग्नावशेष ‘सिधु घाटी सभ्यता’ में मोहनजोदड़ों एवं हड़प्पा की खुदाई के दौरान मिले हैं जो, आज से पांच हजार वर्ष पूर्व का इतिहास है। इतना ही नहीं बल्कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व बौद्धकाल में भी हमें ‘भंगी जाति’ की उपस्थिति प्राप्त होती है। ज्ञातव्य है कि भगवान बुद्ध ‘सुनीत भंगी’ को न केवल गले से लगाते हैं, वरन दीक्षा देकर संघ में भी प्रविष्ट करते हैं। दिलचस्प पहलू यह है कि सुनीत ने संघ में सम्पद, भिक्खू से लेकर थेरा तक की यात्रा सफलतापूर्वक तय की। इस बात का साक्षी, चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा के संस्मरणों में भी दी है। ‘डॉ. अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-14, पृ. 146’ के अनुसार चीनी यात्री ह्वेनसांग (629 ई.) ने, जो 16 वर्ष तक भारत में रहा। अपने यात्रा भ्रमण में अछूत जातियों के संबंध में लिखा है, ‘कसाई, धोबी, नट, नर्तक, बधिक (कसाई) और भंगियों की बस्ती एक निश्चित चिह्नों द्वारा पृथक की गई है। यह शहर से बाहर रहने के लिए मजबूर किए जाते हैं और जब कभी उन्हें किसी घर के पास से गुजरना होता है तो वे बाईं ओर बहुत दबकर निकलते हैं। इस तथ्य से ज्ञात होता है कि भारत में मुस्लिम साम्राज्य स्थापित होने से पहले ही भंगी जाति मौजूद थी।’ जहां तक सफाई कामगारों अथवा सफाईकर्मियों, सफाई मजदूरों का प्रश्न है, तो मुगलकाल में सफाई का कार्य करने वालों को मुगल बादशाहों द्वारा सम्मान प्रदान किया गया। इस पेशे को करने वालों को हलाल की कमाई करने वाला घोषित करते हुए, इन्हें ‘हलालखोर’ नाम दिया गया। इतना ही नहीं, बल्कि मुगल बादशाहों द्वारा सफाई कामगारों को ‘मेहतर’ की पदवी से विभूषित किया गया। ज्ञातव्य है कि मुगलकाल में उनके कई जागीरदारों, मनसबदारों अथवा नवाबों को मेहतर नाम से जाना जाता था। (संक्षिप्त हिंदी शब्दसार, अष्टम संस्करण-1971, संपादक-रामचंद्र वर्मा, प्रकाशन-नागरी प्रचारिणी सभा, काशी) के अनुसार ‘मेहतर’ शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है : 1. श्रेष्ठ व्यक्ति, बुजुर्ग, सरदार। 2. भंगी, हलालखोर।

अत: स्वयं सिद्ध है कि सब सांप्रदायिक एवं जातिवादी शक्तियां और लेखक इस झूठ को बार-बार दोहरा कर सत्य का रूप देना चाहते हैं कि सफाई कामगारों/वाल्मीकियों के शोषण, दमन, अत्याचार, अन्याय विशेषत: ‘सिर पर मल-मूत्र ढोने की कुप्रथा’ के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं। यह प्रचार हिंदुत्वादी एवं सांप्रदायिक शक्तियों द्वारा जानबूझ कर सोची-समझी नीति के अंतर्गत किया जाता है। ताकि सांप्रदायिक दंगों के समय दलितों/सफाई कामगारों/वाल्मीकियों का उपयोग (वास्तव में दुरुपयोग) किया जा सके। यहां पर यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि 6 दिसंबर, 1992 को ‘बाबरी मस्जिद’ को शहीद कर दिए जाने के बाद देश के अनेक भागों में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इस संदर्भ में देश के राष्ट्रीय मीडिया ने (प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक दोनों ने) इस तथ्य का विशेष रूप से उल्लेख किया था कि इन दंगों में दलितों, अनुसूचित जातियों, वाल्मीकियों ने भाग नहीं लिया। परिणामस्वरूप मुसलमानों की कम हानि हुई। अत: स्पष्ट है कि अब दलित/वाल्मीकि, सांप्रदायिक शक्तियों के चंगुल से मुक्त हो गए हैं। विचारणीय बिंदु यह भी है कि तथाकथित आभिजात्य/ उच्चवर्गीय/ सवर्ण/ एलीट एवं सभ्य कहलाने वाले हिंदू धर्मांवलंबी यह कहते नहीं अघाते और इस बात की डींगे हांकते नहीं थकते कि हिंदू धर्म सबसे विनयशील, क्षमाशील, दयामय, करुणामय, संवदनशील, अहिंसामय, लचीला एवं सबके साथ प्रेम का व्यवहार करने वाला है। प्रश्न उठता है कि जब हिंदू धर्मांवलंबी दलितों के घर फूंकते हैं, जब उनके दूल्हे को घोड़ी पर नहीं बैठने दिया जाता, जब उन्हें सार्वजनिक स्थानों से पेयजल लेने नहीं दिया जाता, होटलों पर वे खाना नहीं खा सकते, चाय नहीं पी सकते, नाई की दुकान पर बाल नहीं कटा सकते, जब आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाए जाते हैं और राष्ट्र की अरबों/खरबों रुपए की संपत्ति राख कर दी जाती है, तब यह डींग हांकने वाले तथा हिंदू धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले कौन से बिल में घुस जाते हैं?

आज की संपूर्ण स्थिति पर दृष्टिपात करने के उपरांत अशोक सिंघलों, प्रवीण तोगडिय़ों तथाकथित आचार्यों, (3) राजकिशोरों, महामंडलेश्वरों, परमहंसों, शंकराचार्यों, गडकरियों, कटियारों, मोहनराव भागवतों, राजनाथ सिंहों, उमा भारतीयों तथा सभी हिंदू धर्म के ठेकेदारों को चाहिए कि वे अयोध्या में राम मंदिर निर्माण एवं तमिलनाडु में रामसेतु संरक्षण का राग अलापना छोड़कर समाज में समरसता उत्पन्न करने हेतु अस्पृश्यता, छुआछूत, भेदभाव, ऊंच-नीच, आर्थिक विषमताओं एवं सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध धर्म-युद्ध छेड़ें। अन्यथा विघटन का यह चक्र भविष्य में भी चलता रहेगा और जबरदस्ती किसी को भी किसी भी विशेष खूंटे से बांधे रखना अत्यंत कठिन होगा।

अंत में दुष्यंत के शब्दों में आह्वान है कि—
कैसे मंजर सामने आने लगे हैं,
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।।

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