Thursday, March 17, 2011

पुरातत्व की राजनीति

October 25th, 2010
सूरजभान

हाल में दिए गए बाबरी मस्जिद के संदर्भ में यह लेख विशेष महत्व रखता है। प्रो. सूरज भान का देहांत विगत 14 जुलाई को हुआ था।
परिवर्तन और सामाजिक, सांस्कृतिक विकास के निर्माण की विधि भी पुरातत्व की अपनी विधि है। पुरातत्व वैज्ञानिक प्राचीन बस्तियों को खोजते हैं, उनकी खुदाई करते हैं, उनका स्तरीकरण करते हैं। विभिन्न स्तरों से जुड़े मकानों, मोहल्लों और बस्तियों के अध्ययन के आधार पर सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास का निर्माण भी करते हैं।
पुरातत्वविद के लिए प्राचीन संस्कृतियों के काल को तय करने के लिए अनेक प्राकृतिक विज्ञानों का सहयोग लेना महत्वपूर्ण हो गया है। विज्ञान की मदद से आज पुरातत्वशास्त्री यह जानने में सक्षम हो गया है कि अमुक संस्कृति के लोग क्या फसलें बोते थे, किन पशुओं को पालते थे, किन धातुओं, शंखों, पत्थरों, आदि का अपने उद्योग में इस्तेमाल करते थे। उनकी भूमि, जलवायु और प्राकृतिक वातावरण कैसा था। उनकी शारीरिक संरचना, भोजन, आयु, लिंग, बीमारियों, मृत्युदर आदि के बारे में भी जानकारी मिल जाती है। यह सही है कि आधुनिक विज्ञान के इस्तेमाल ने प्राचीन संस्कृति और उसके इतिहास के ज्ञान को अधिक समृद्ध बनाया है। परंतु यह भी सच है कि आधुनिक विज्ञान पुरातत्व के शोध में तभी कारगर सिद्ध होता है जब पुरातत्ववेत्ता उत्खनन से विश्वसनीय सामग्री अथवा सैंपल उपलब्ध करवा सकें। पुरातत्ववेत्ता की दृष्टि और प्रशिक्षण पर ही सांस्कृतिक कालक्रम निर्धारण एवं सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की रचना और सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन की समझ निर्भर करती है। यदि पुरातत्ववेत्ता किसी बस्ती के स्तरीकरण को समझने में गलती कर देता है अथवा पुरावशेषों एवं सैंपलों को रिकॉर्ड करने में गलती करता है तो आधुनिक विज्ञान उसे ठीक नहीं कर सकता, गलत निष्कर्ष ही देगा और इतिहास के निर्माण में सहायक होने की बजाए उसे तोडऩे-मरोडऩे में ही सहयोग देगा। अत: पुरातत्ववेत्ता को अंधविज्ञानवाद अर्थात् प्राकृतिक विज्ञान में इतिहास, पुरातत्व एवं समाज विज्ञान की सभी समस्याओं की विवेचना कर सकने की क्षमता में विश्वास से बचना जरूरी है। ऐसी अंधविज्ञानवाद की धारणा सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना के स्वरूप और विकास को परिष्कृत करने की बजाए उसे बिगाडऩे में ही मदद करेगी। प्राकृतिक विज्ञान अपने आप में सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन और उसके परिवर्तन को समझने में अक्षम है। यह काम पुरातत्ववेत्ता के वैज्ञानिक दृष्टिकोण और प्रशिक्षण पर ही निर्भर करता है। यदि पुरातत्ववेत्ता अपने युग और समाज को ठीक से नहीं समझता, अपने युग के सामाजिक अंतरों को ठीक से नहीं पहचानता और आज के युग के सही सरोकारों अर्थात सामाजिक जरूरतों को नहीं पहचानता तो अतीत में भी उसकी दृष्टि कुंठित ही रहेगी। वह अतीत के समाज को न समग्रता में देख पाएगा, न सापेक्ष रूप को और न ही उसके परिवर्तन को। वास्तव में इतिहास एवं पुरातत्व, आधुनिक युग के समाज का अतीत के समाज के साथ वार्तालाप है। केवल पुरातत्ववेेत्ता और अतीत के तथ्यों के बीच की वार्ता नहीं। पुन: यह वार्ता अतीत और भविष्य के समाजों के बीच भी है। पुरातत्व अनुसंधान कितना यथार्थपरक है यह इस बात पर निर्भर करता है कि पुरातत्ववेत्ता की दृष्टि व अध्ययन विधि कितनी वैज्ञानिक और तर्कशील है, उसके सामाजिक सरोकार कितने गहन हैं और वह भविष्य में कितना झांक पाता है।
आज भारत में पुरातत्व विज्ञान के सामने बड़ी भयंकर चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। कुछ पुरातत्ववेत्ता प्राचीन धार्मिक साहित्य में दिए मिथकों को यथार्थ मान रहे हैं और उन मिथकों को यथार्थ सिद्ध करने के लिए पुरातत्व में इनका आधार खोजना चाहते हैं। इस पूर्वकल्पित दृष्टि से कार्य कर रहे ये विद्वान कभी महाभारत की ऐतिहासिकता को खोजने का मिथ्या प्रयास कर रहे होते हैं तो कभी रामायण का। पिछले दिनों तो आर्यों को मूल भारतवासी सिद्ध और भारत को हिंदुओं की आदि भूमि प्रमाणित करने के लिए ‘इतिहास का पुनर्लेखनÓ नाम की एक विचित्र विधि प्रचलित की है, जो नि:संदेह राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित है। इसी विचारधारा के साथ यह कोशिश की जा रही है कि सिंधु सभ्यता आर्य ही है। दूसरी तरफ घग्घर नदी और उसकी सहायक नदियों को ऋग्वैदिक सरस्वती नाम देकर सिंधु सरस्वती सभ्यता की एक नई अवधारणा ही खड़ी की गई है। इसका आधार केवल मात्र यही बताया जा रहा है कि ऋग्वेद के अंतिम चरण में सरस्वती नदी यमुना और सतलुज के बीच बहती थी तथा इसे पहाड़ से लेकर समुद्र तक जाने वाली एक विशाल नदी बताया गया है। ऋग्वेद के इस उद्धरण को तथ्य मानकर कई पुरातत्ववेत्ताओं ने यह कोशिश की है कि वैदिक सरस्वती का समुद्र तक मार्ग निर्धारित किया जाए। आर.एस.एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की दो प्रमुख संस्थाएं बाबा साहिब आप्टे स्मारक समिति और इतिहास संकलन समिति इस काम में 1980 के दशक से ही जुटी हैं। इन्हीं संस्थाओं की तरफ से वाकणकर ने 1985 में सरस्वती के मार्ग को खोजने के लिए हिमालय से सोमनाथ तक की यात्रा की थी। कई भूगर्भ शास्त्रियों ने सरस्वती को, पश्चिमी राजस्थान में लूना नदी को साथ ले, जोधपुर के पास से गुजरते हुए कच्छ के रण में जा गिरने का दावा किया है और यह भी कहा कि सरस्वती नदी ने सात बार अपना प्रवाह बदला था। पहले यह इलाहाबाद में गंगा में मिलती थी और अंत में उसका मार्ग घग्घर-हाकड़ा के रास्ते पाकिस्तान में बहावलपुर व पूर्वी सिंध से होकर कच्छ की खाड़ी तक जाता था। पिछले कुछ सालों में पुरी एवं वर्मा दो भूगर्भ शास्त्रियों ने तो हिमालय में स्थित टोंस नदी को ही, जो यमुना की सहायक नदी है, सरस्वती का ऊपरी मार्ग सिद्ध करने की कोशिश की है। ये विद्वान कभी सतलुज और यमुना को वैदिक सरस्वती की सहायक नदियां बताकर इस बरसाती नदी को एक महान समुद्रगामी नदी का रूप देना चाहते हैं तो कभी टोंस को ही सरस्वती का पहाड़ी भाग दिखाने की कोशिश करते हैं ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि सरस्वती में मध्य हिमालय का हिम जल प्रवाह करता था और यह एक विशाल नदी थी जो ऋग्वेद के काल में समुद्र तक जाती थी। यह भी सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि हरियाणा और राजस्थान में घग्घर और सरस्वती के बहाव के साथ-साथ स्थित सिंधु सभ्यता के नगर इसलिए उजड़ गए क्योंकि ऋग्वेद के बाद के काल में सतलुज और यमुना के मार्ग बदल लेने से सरस्वती नदी सूख गई। अब उनका पानी सरस्वती में नहीं आ रहा था। शिवालिक के पहाड़ों के उठ जाने से टोंस ने भी अपना मार्ग बदल लिया और सरस्वती को छोड़ यमुना में जा मिली।
ये तर्कहीन विचार तथ्यों से बहुत दूर है। ऋग्वेद का काल प्राय: 1,500 ईस्वी पूर्व से 1000 ईस्वी पूर्व रखा जाता है और सिंधु सभ्यता को कार्बन 14 के आधार पर 2,500 ईस्वी पूर्व से 2000 ईस्वी पूर्व के बीच माना जाता है। शिवालिक के पहाड़ों का उठना और उससे टोंस नदी का सरस्वती में बहने के मार्ग का रुक जाना ऋग्वेद और सिंधु सभ्यता के युगों से हजारों साल पहले की घटना हो सकती है, पिछले 5000 साल की नहीं। फिर ऋग्वेद में सतलुज और यमुना को सरस्वती से भिन्न नदियां दिखाया गया है। उनका सरस्वती में मिलने का उल्लेख न ऋग्वेद में है न उत्तर वैदिक साहित्य में। फिर यमुना के खादर और बांगर के किनारे पर पाए गए पुरातत्व के अवशेष एवं बस्तियां यह स्पष्ट कर देती हैं कि सिंधु काल में यमुना नदी दिल्ली के मार्ग से ही बहती थी। दूसरी तरफ फरीदाबाद जिले में सतलुज नदी के किनारे पाई गई पराक् सिंधु और सिंधु संस्कृतियों की बस्तियां भी यह सिद्ध करती हैं कि सतलुज नदी भी सिंधु सभ्यता के युग में अपने इस मार्ग से बह रही थी। उसके भी सरस्वती (घग्घर) नदी में मिलने के कोई प्रमाणिक भूगर्भीय तथ्य उपलब्ध नहीं हैं। सरस्वती नदी के जोधपुर के पास लूनी नदी से मिलकर कच्छ में जा गिरने की बात भी ऐसा ही एक दूसरा मिथक है। कारण यह है कि उत्तरी पश्चिमी राजस्थान की चारों नदियां (साबी, दोहन, कंसावती और कांटली) तो उत्तर की तरफ हरियाणा के मैदान में आती हैं न कि दक्षिण में कच्छ की तरफ। फिर भला सरस्वती नदी के पश्चिमी राजस्थान में जोधपुर आदि के पास से बहने के क्या प्रमाण हैं?
1980 के दशक में तो अयोध्या में बाबरी मस्जिद के नीचे राम मंदिर के होने का मिथ्या प्रचार भी खूब उठाया गया था। दिसंबर, 1992 में इसी राजनीति के तहत बाबरी मस्जिद को गिरा भी दिया गया। परंतु भाजपा राज में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (आक्र्योलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) द्वारा 2003 में अयोध्या में की गई खुदाई में बाबरी मस्जिद के नीचे राम मंदिर के भाग्नावशेषों के पाए जाने की बजाए सल्तनत काल की एक मस्जिद के अवशेष निकल आए। इस प्राचीन मस्जिद की पश्चिमी दीवार ठीक बाबरी मस्जिद की पश्चिमी दीवार के नीचे है। इस मस्जिद का दक्षिणी भवन ठेठ बाबरी मस्जिद के दक्षिणी गुंबद के नीचे है। सल्तनत-कालीन मस्जिद के अवशेषों में चूने और सूर्खी का लगभग वैसा ही विशाल फर्श है जैसा बाद में बाबरी मस्जिद का बना। पुन: शायद सल्तनत काल में ही एक हौज भी मस्जिद के अहाते में बनाया गया था जिसे मुगल काल के बाद भर दिया गया और उस पर राम चबूतरा बना दिया गया। इस उत्खनन से बी.बी. लाल एवं एस.पी. गुप्ता द्वारा प्रस्थापित राम मंदिर के प्रमाण नितांत झूठे सिद्ध हो गए हैं।
पुरातत्व विज्ञान को इस तरह सांप्रदायिक राजनीति का उपकरण बना लिए जाने के पीछे हमारे देश में पुरातत्व विज्ञान के विकास की दिशा भी सहयोगी रही है। आजादी के बाद ही 1950 के दशक में पुरातत्व सर्वे विभाग के पुराविद् बी.बी. लाल ने महाभारत की ऐतिहासिकता को सिद्ध करने का दावा कर दिया। 1970 के दशक में रामायण की ऐतिहासिकता सिद्ध करने का कार्यभार भी बी.बी. लाल ने उठा लिया। इसी दशक में एस.आर. राव ने लोथल के सिंधु सभ्यता के नगर से वैदिक आर्यों के सांस्कृतिक तत्व मिलने और 1980 के दशक में उन्होंने महाभारत की द्वारका नगरी के समुद्र के नीचे ढूंढ निकालने का दावा कर डाला व पुन: सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए प्राकृतिक वातावरण के परिवर्तन को ही श्रेय देने लगे थे। आहिस्ता-आहिस्ता अमेरिकी पुरातत्व के प्रभाव से पुरातत्व की समझ गैर-ऐतिहासिक होती गई। प्राकृतिक विज्ञानों को समाज के जीवन और परिवर्तन को समझने का कारगर हथियार माना जाने लगा। धार्मिक ग्रंथों में दिए मिथकों को आधार मानकर की जाने वाली खोजों पर पुरातत्व शास्त्रियों एवं उनकी संस्थाओं में चिंता और चर्चा करना बंद-सा हो गया। वास्तव में पुरातत्ववेत्ताओं की जमात का सामाजिक बुनतर (अधिकतर विद्वानों का हिंदू संप्रदाय एवं उच्च जातियों से संबंधित होना) भी इसका एक कारण था। पुरातत्व विज्ञान अपनी दिशा से भटक रहा है और निहित स्वार्थों का हित साधने का औजार ही बनता जा रहा है। नि:संदेह पुरातत्ववेत्ताओं में नैतिक मूल्यों का अभाव और समाज की वास्तविक परिस्थितियों की जानकारी का अभाव तथा सामाजिक चिंताओं और सरोकारों से अलगाव ही मुख्य कारण दिख पड़ते हैं। आज अधिकतर पुरातत्ववेत्ता प्राचीन समाजों के न तो सामाजिक ढांचों को समझने की कोशिश करते हैं न लिंग संबंधों को देखने की चिंता। वास्तव में वे अतीत की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना वर्गीय लैंगिक जीवन की परिस्थितियों को ही नहीं देख पा रहे। वे शहरी, ग्रामीण एवं कबिलाई जीवन को समग्रता में और सापेक्षता में नहीं देख पा रहे। सिंधु सभ्यता की खोज में लगे विद्वान तो केवल नगरों का ही उत्खनन करते हैं। सभ्यता के नगरीय स्वरूप उसके विशाल विस्तार, विदेशी व्यापार, नगर संरचना का ही महिमामंडन करने में लगे हैं। दूसरी तरफ कुछ विद्वान भारत में सभ्यता के उदय को, नगरों के विकास को तथा लोहे की प्राचीनता को मनमाने ढंग से अतीत में धकेलते जा रहे हैं। उत्तरप्रदेश के पुरातत्ववेत्ता ताम्राषम युगीन संस्कृति को ही उत्तर वैदिक संस्कृति से जोडऩे की कपोल-कल्पना के तहत लोहे को उस संस्कृति से खोज निकालने का ऐलान कर रहे हैं। अयोध्या में पुरातत्व सर्वे के विद्वान तो पूर्व-ऐतिहासिक नगरीकरण के काल को 600 ईस्वी पूर्व की बजाए 1000 ईस्वी पूर्व बता रहे हैं। इसके मुताबिक तो महात्मा बुद्ध जो इसके शुरुआती दौर में हुए थे, वह भी 10वीं सदी ईस्वी पूर्व के माने जाने चाहिए,जो नितांत गलत होगा।
सिंधु सभ्यता को तो चौथी सहस्त्राब्दी ईस्वी पूर्व में पहुंचा दिया गया है। यह अंधराष्ट्रवादी मिथक नहीं तो और क्या है? दूसरी तरफ पुरातत्व सर्वे के पुराविद् नगरों के ही उत्खनन में ही रुचि रखते हैं ताकि वे भव्य और चमत्कारी उपलब्धियों से समाज को चकाचौंध कर सकें। यह सभ्यता की आंशिक समझ ही है। वे नहीं जानते कि ये नगर ग्रामीण और कबिलाई समाजों के ही भ्रम का परिणाम थे। ये भी वे नहीं जानते कि विकास का यह अंतर सामाजिक संबंधों के अंतर को दिखलाता है और समाज के भीतर के द्वंद्व व अलगाव का ब्यौरा देता है परंतु वर्गीय हित में काम कर रहे विद्वान सच्चाई को खोजने की बजाए मिथक घड़ रहे हैं। इसी प्रकार दूसरी तरफ ये विद्वान भारतीय संस्कृति में परिवर्तन की तरफ ध्यान न देकर, संस्कृति की निरंतरता पर ही जोर दे रहे हैं। यही उद्देश्य था सरस्वती हेरिटेज प्रोजेक्ट का, जिस पर बिना किसी ऐतिहासिक व पुरातात्विक समस्या-समाधान की सोचे, अनेक स्थलों पर अपार धन खर्च कर उत्खनन शुरू कर दिए गए थे। नि:संदेह यह भी राष्ट्रीयता के नाम पर एक वर्गीय मिथक घड़ा गया था।
पुरातत्ववेत्ता राष्ट्रवाद के नाम पर यदि किसी अतीत के समाज व संस्कृति की वास्तविक जीवन की परिस्थितियों को उद्घाटित करने में रुचि नहीं रखता तो इसका अर्थ यह है कि उसका उस समाज के बुनतर और उसके अंदरूनी संबंधों एवं टकरावों तथा जनसाधारण से भेदभाव करने व हाशिए पर डाल दिए जाने की विकास पद्धति से कोई सरोकार नहीं है। यह पुरातत्ववेत्ताओं की अनैतिकता नहीं तो और क्या है? दूसरी तरफ यदि प्राचीन समाजों की सांस्कृतिक विविधता, जनजीवन की परिस्थितियां समझने की कोशिश नहीं करता तो वह सांस्कृतिक परिवर्तन को ठीक-ठाक कैसे समझ सकता है? यही कारण है कि भारत के अधिकतर पुरातत्ववेत्ता न सिंधु सभ्यता के अंत को ठीक से समझ पा रहे हैं न दूसरी सहस्त्राब्दी में बाहर से आने वाले अनेक समुदायों एवं संस्कृतियों का इससे संबंध देख पा रहे हैं और न ही सभ्यता के उदय और विकास की प्रक्रिया को ठीक-ठाक पहचान पा रहे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव में उन्होंने भ्रम पाल लिया है कि प्राकृतिक विज्ञानों की मदद से संस्कृतियों के विकास का विवेचन किया जा सकता है व समझा जा सकता है जो नि:संदेह उनकी अधूरी समझ मात्र ही नहीं बल्कि यह वर्गीय राजनीति ही है। ठ्ठ
यह लेख जतन में प्रकाशित हुआ था।

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