Sunday, July 24, 2011

प्रमोशन और साहित्य का संकट




  • जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

    वामपंथी चिंतक। कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर। मीडि‍या और साहि‍त्‍यालोचना का वि‍शेष अध्‍ययन।
  • यूजर ऑनलाइन

कोलकाता में एक दशक से हिन्दी सेमीनार के प्रमाणपत्र जुटाने की संक्रामक बीमारी कॉलेज शिक्षकों में फैल गयी है। सेमीनार में वे इसलिए सुनने जाते हैं जिससे उन्हें सेमीनार में भाग लेने का सर्टीफिकेट मिल जाए। यह साहित्य के चरम पतन की सूचना है। ये वे लोग हैं जो हिन्दी साहित्य से रोटी-रोजी कमा रहे हैं। ये लोग सेमीनार में बोले बिना सेमीनार में भाग लेने का प्रमाणपत्र पाकर अपने को धन्य कर रहे हैं। आयोजक यह कहकर शिक्षकों को बुलाते हैं कि प्रमोशन कराना है तो सेमीनार सर्टीफिकेट लगेगा, आ जाओ सुनने, सर्टीफिकेट मिल जाएगा। फलतः ज्यादातर शिक्षक सेमीनार को सुनने आते हैं। सेमीनार का सर्टीफिकेट पाने के लिए वे डेलीगेट फीस भी देते हैं। इस प्रक्रिया में दो किस्म का साहित्यिक भ्रष्टाचार हो रहा है. पहला नौकरी में प्रमोशन के स्तर पर हो रहा है। श्रोता के सर्टीफिकेट को वक्ता के सर्टीफिकेट के रूप में पेश करके तरक्की के पॉइण्ट प्राप्त किए जा रहे हैं। दूसरा , साहित्य विमर्श के नाम पर कूपमंडूकता बढ़ रही है। सेमीनारों में वक्ताओं के भाषण साधारण पाठक की चेतना से भी निचले स्तर के होते हैं और सेमीनार के बाद सभी लोग एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं, गैर शिक्षक श्रोता फ्रस्टेट होते हैं,वे मन ही मन धिक्कारते हैं और कहते हैं और कहते हैं कि वे सुनने क्यों आए। वक्तागण आशीर्वाद देते हैं,पैर छुआते हैं। इस समूची प्रक्रिया में कई लोग तो इस कदर नशे में आ गए हैं कि उन्हें यह बीमारी हो गयी है कि शहर में कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो उनको अध्यक्षता के लिए बुलाओ,ये लोग अध्यक्ष न बनाए जाने पर कार्यक्रम में जाते नहीं है। नहीं बुलाने पर नाराज हो जाते हैं। इन पंडितों का मानना है वे जिस सेमीनार में जाते हैं उस सेमीनार को सार्थक करके आते हैं। इस प्रसंग में मुझे कई लेखकों की रचनाएं याद आ रही हैं। इनमें सबसे पहले में मुक्तिबोध को उद्धृत करना चाहूँगा। बहुत पहले मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसरों के बारे में लिखा, ”बटनहोल में प्रति‍नि‍धि पुष्‍प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहि‍त्‍यि‍क से रास्‍ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हि‍न्‍दी का हर प्रोफेसर साहि‍त्‍यि‍क होता है। अपने इस अनुसन्‍धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्‍यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्‍ति‍क आत्‍मवि‍श्‍वास। ऐसा आत्‍मवि‍श्‍वास महान् बुद्धि‍मानों का तेजस्‍वी लक्षण है या महान् मूर्खों का दैदीप्‍यमान प्रतीक ! मैं नि‍श्‍चय नहीं कर सका कि वे सज्‍जन बुद्धि‍मान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धि‍मान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं।”
मुक्‍ति‍बोध ने यह भी लि‍खा है ” चूँकि प्रोफेसर महोदय साहि‍त्‍यि‍क हैं इसलि‍ए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम- कमाई के काम में चुस्‍त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्‍हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्‍यों न हो।”
कोलकाता के शिक्षकों की अवस्था इससे बेहतर नहीं बन पायी है। हिन्दी के इस तरह के आयोजनों में किस तरह के भाषण होते हैं और चेले-चेलियां किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इस पर कवि -कहानीकार उदयप्रकाश की बड़ी शानदार कविता है ‘पाँडेजी’ उसका अंश देखें-
“छोटी-सी काया पाँडेजी की/छोटी-छोटी इच्छाएँ/ छोटे-छोटे क्रोध/और छोटा दिमाग।
गोष्ठी में दिया भाषण,कहा- ‘नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है ‘/फिर हँसे कि ‘ मैंने देखो
कितनी गोपनीय/चीज को खोल दिया यों।यह तीखी मेधा और/वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है। ‘/एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-’ भाषण लाजबाब था /अत्यन्त धीर-गंभीर/
तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक/हिन्दी आलोचना के खच्चर/ अस्तबल में/आप ही हैं /एकमात्र/काबुली बछेड़े/ ‘तो गोल हुए पाँडे जी/मंदिर के ढ़ोल जैसे/ठुनुक -ठुनुक हँसे और/फिर बुलबुल हो गए/फूलकर मगन !”
मैं 20 सालों से कोलकाता में रह रहा हूँ और आए दिन हिन्दी सेमीनारों की दुर्दशापूर्ण अवस्था के किस्से अपने दोस्तों और विद्यार्थियों से सुनता रहा हूँ। मैं आमतौर पर इन सेमीनारों से दूर रहता हूँ। इसके कारण लोग यह मानने लगे हैं कि मैं साहित्य के बारे में नहीं जानता। कई मित्र हैं जो सेमीनार के कार्ड में वक्ता के रूप में मेरा नाम न देखकर दुखी होकर फोन करते हैं कि यहां तो आपको होना ही चाहिए था। मेरी स्थिति इस कदर खराब है कि एकबार कोलकाता की सबसे समर्थ साहित्यिक संस्था की कर्ताधर्ता साहित्यकार नेत्री ने चाय पर अपने घर बुलाया और कहा कि हम इतने कार्यक्रम करते हैं और आपस में बातें भी करते हैं कि स्थानीय स्तर पर कौन विद्वान हैं जिन्हें बुलाया जाए तो लोग आपका नाम कभी नहीं बताते, मैं स्वयं भी नहीं जानती कि आप विद्वान हैं। मैंने कहा मैं विद्वान नहीं हूँ। इसी प्रसंग में मैंने उन्हें त्रिलोचन की एक कविता ‘ प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है’ सुनायी, कविवर त्रिलोचन ने लिखा- ” प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है/उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था/आँख फाड़कर देखा/दोष नहीं था/पर आँखों का/सब कहते हैं कि प्रेस छली है/शुद्धिपत्र देखा ,उसमें नामों की माला छोटी न थी/ यहाँ भी देखा ,कहीं त्रिलोचन नहीं/तुम्हारा सुन सुनकर सपक्ष आलोचन कान पक गए थे/मैं ऐसा बैठा ठाला नहीं,तुम्हारी बकबक सुना करूँ/किसी जगह उल्लेख नहीं है,तुम्हीं एक हो,क्या अन्यत्र विवेक नहीं है/ तुम सागर लाँघोगे ? -डरते हो चहले से/बड़े-बड़े जो बात कहेंगे-सुनी जायगी/व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी/”
कोलकाता हिन्दी के क्षयिष्णु वातावरण का एक अन्य पक्ष है हिन्दी के पठन-पाठन की ह्रासशील अवस्था। यह स्थिति कमोबेश पूरे राज्य में है। मसलन जो आज छात्र है वह कल शिक्षक होगा।जो विद्यार्थी एम.ए. में आते हैं उनमें अधिकांश ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं जानते । अब आप ही सोचिए कि जो विद्यार्थी एम.ए. तक आ गया वह हिन्दी लिखना नहीं जानता। इस तरह के विद्यार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उच्च शिक्षाकी सुविधाओं का निचलेस्तर पर विस्तार हुआ है। बड़े पैमाने पर छात्र हिन्दी ऑनर्स कर रहे हैं , वे जब ठीक से हिन्दी लिखना नहीं जानते,ठीक से प्रश्नों का उत्तर तक नहीं देते तब वे कैसे एम.ए. तक अच्छे अंक प्राप्त करके आ जाते हैं, इसका रहस्य कोई भी आसानी से समझ सकता है कि कोलकाता में हिन्दी में अंक कैसे दिए जाते होंगे। हिन्दी प्रमोशन के नाम पर बड़े पैमाने पर ऐसे छात्रों की पीढ़ी तैयारहुई है जो येन-केन प्रकारेण अंक हासिल करके पास हुए हैं। पढ़ने,समझने और सीखने की आदत बहुत कम विद्यार्थियों में है। जिनमें यह आदत है उन्हें पग-पग पर छींटाकशी, अपमान और अकल्पनीय असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। कोलकाता में सारे विद्यार्थी जानते हैं कि हिन्दी में नौकरी पाने के नियम क्या हैं ? किसके हाथ में नौकरियां हैं ? किस नेता और प्रोफेसर को पटाना है और कैसे पटाना है । इस समस्या की जड़ें गहरी हैं,गहराई में जाकर देखें तो हिन्दी के शिक्षक नए से डरते हैं,विचारों का जोखिम उठाने से डरते हैं। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझते हैं। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने पढ़ाने में इनकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।
आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेतीले टीले में सिर गडाए बैठे हैं।
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को अनुसंधान का जरिया नहीं बना पाए है। विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता बनाए रखने में इस तरह के शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा है।हिन्दी के शिक्षक कम ज्ञान में संतुष्ट,आरामतलब,और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में मशगूल रहते हैं।
इसके विपरीत यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध करतााहै या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने और केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षकगण सबसे आगे होते हैं। और कहते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं। यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते हैं कि फलां का लिखा अभी तक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पाती है तब तक दूसरी आ जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इस तरह की मनोदशा के प्रतिवादस्वरूप त्रिलोचन ने लिखा है- “शब्द/ मालूम है/व्यर्थ नहीं जाते हैं/पहले मैं सोचता था/उत्तर यदि नहीं मिले /तो फिर क्या लिखा जाय/किन्तु मेरे अन्तरनिवासी ने मुझसे कहा- लिखाकर/तेरा आत्म-विश्लेषण क्या जाने कभी तुझे/एक साथ सत्य शिव और सुंदर को दिखा जाय/अब मैं लिखा करता हूँ/अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने/कागज पर बस उतार देता हूँ/”
हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। वे किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।
परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है।परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक-शिक्षक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया। परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं।परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं।तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन है और स्टीरियोटाईप है।
परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है। परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता।परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं, नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक का अंग है।
हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं।आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं।सालाना 7 हजार से ज्यादा शोध प्रबंध हिन्दी में जमा होते हैं। लेकिन इनमें एक फीसद शोध प्रबंधों में भी सामयिक समाज की धड़कन सुनाई नहीं देगी। हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवर सिंह,विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय,शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह ,परमानन्द श्रीवास्तव,नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा है ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा ? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।

Wednesday, July 20, 2011

श्रमण संस्‍कृति का बौद्ध दर्शन ही वर्तमान समस्‍याओं का सही निदान हो सकता है

 by Sheel Bodhi on Wednesday, July 20, 2011 at 11:30pm


जयप्रकाश कर्दम जी की बातों से मैं सहमत हूं लेकिन जाति व्‍यवस्‍था या वर्ण व्‍यवस्‍था अपने आप में एक स्‍वतंत्र व्‍यवस्‍था नहीं है। जाति या वर्ण की व्‍यवस्‍था के बदल देने से बदलाव आ ही जाएगा यह जरूरी नहीं है। जाति या वर्ण आधारित व्‍यवस्‍था संस्‍कृति के साथ जुडा एक गहरा मामला है। जाति या वर्ण जैसी व्‍यवस्‍था को हटा भी दिया जाए तब भेदभाव पर आधारित कोई दूसरी व्‍यवस्‍था उत्‍पन्‍न हो जाएगी। मामला संस्‍कृति के अन्‍तर्भूत तत्‍व दर्शन का है। चीजें जैसी है उन्‍हें वैसा नहीं देखा जा रहा है। अपितु वैसा देखा जा रहा है जैसा कि हिन्‍दू संस्‍कृति के दर्शन के द्वारा दिखाया जा रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि भ्रष्‍टाचार जैसे मामलों को हल करने के लिए आर्य संस्‍कृति की अपेक्षा श्रमण संस्‍कृति के दर्शन को जनमानस में प्रचारित व प्रसारित किए जाने की जरूरत है। चार्वाक, आजीवक, जैन और बौद्ध दर्शन श्रमण संस्‍कृति से जुडे अभिन्‍न भाग है। चार्वाक व आजीवक दर्शन का मूल ग्रंथ या प्रमाणित साहित्‍य हमारे पास नहीं है और महावीर के 12 पूर्व भी महाबली के समय तक लूप्‍त हो चुके थे, अंक और उपांग के रूप में निर्मित साहित्‍य प्रवर्तित काल का साहित्‍य है, जैसे कि सांख्‍य दर्शन के ऊपर ईश्‍वर कृष्‍ण के भाष्‍य। बौद्धों का साहित्‍य देखा जाए तो भगवान बुद्ध की मुत्‍यु के एक सप्‍ताह के भीतर ही संकलन करना शुरू किया जा सका था, इसलिए सुत्र व विनय पिटक मौलिकता के सर्वाधिक करीब की रचना हैं। ये दो पिटक व्‍यक्ति पूजा से प्रेरित नहीं है और न ही व्‍यक्ति विशेष के प्रति आस्‍थावान है, बल्कि आदमी को कोरा बनाकर उसे विवेकशील बनाने के धेय के साधक हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि जब बुद्ध शिक्षाओं का संकलन व संग्रहण हो रहा था तब किसी ने भी बुद्ध की जीवनी नहीं लिखी और न ही इसपर जोर दिया गया था। इसलिए श्रमण संस्‍कृति का प्रतिनिधि स्‍वर बौद्ध दर्शन ही है जो व्‍यक्ति को विवेकशील बनाकर व्‍यक्ति को इस काबिल बनाता है ताकि वह अपने निर्णय स्‍वयं तैयार कर सके। सम्‍यक दृष्टि के द्वारा यथार्थ को यथार्थ रूप में देख सके। यही यथार्थवादी दृष्टि केवल  भ्रष्‍टाचार को ही नहीं बल्कि मनुष्‍य समाज की और दूसरी बुराईयों का अंत करेगी। श्रमण संस्‍कृति का एक बड़ा गुण यह है कि यह व्‍यक्ति को आत्‍मकेन्द्रित नहीं बनाता है। इस दर्शन की पूजा विधि ही आत्‍म सुधार से शुरू होकर सब्‍ब सत्ता सुखी होन्‍तु की भावना से समाप्‍त होती है। आर्य संस्‍कृति में सभी कुछ आत्‍म केन्द्रित है। यहां केवल एक ही शिक्षा है, और वह शिक्षा है जो  मांगना है केवल अपने लिए ही मांगना है। अपने लिए मांगने की यह प्रवृति जन्‍म के साथ सिखाई जाती है और मूत्‍यु पर्यंनत तक व्‍यक्ति के अंतर्मन में अवस्थित रहती है, जिससे एक प्रकार का सामाजिक अनुशासन सामने आता है जिसका नाम  भ्रष्‍टाचार है। इसलिए मामला केवल वर्ण या जाति की  प्रथाओं का ही नहीं है बल्कि मुख्‍य मुद्दा तो आर्य संस्‍कृति के स्‍थान पर लोक कल्‍याणकारी श्रमण संस्‍कृति के अनुसार व्‍यक्ति के निर्माण का है। 

दलित लेखक संघ- लेखक से मुलाकात कार्यक्रम में माता प्रसाद जी

दलित लेखक संघ
दिनांक 19 जुलाई 2011
लेखक से मुलाकात
  कार्यक्रम का संक्षिप्‍त विवरण
वरिष्‍ठ लेखक मा. माता प्रसाद जी के साहित्‍य पर बातचीत के लिए एक कार्यक्रम मोहन सिंह प्‍लेस के इंडियन कॉफी हाऊस में रखा गया। जिसमें मुख्‍य अतिथि के रूप में जयप्रकाश कर्दम थे। मंच का संचालन मा.मुकेश मानस ने किया। 
                                                                                                                                             
दलित आंदोलन में ठहराव क्‍यों ?... :मा. माता प्रसाद
नई दिल्‍ली के क्‍नॉट प्‍लेस स्थित मोहनसिंह प्‍लेस इंडियन कॉफी हाऊस में दलित लेखक संघ ने लेखक से मुलाकात कार्यक्रम रखा। जिसमें नाटककार व कवि मा.माता प्रसाद जी से मुलाकात की गई। इस कार्यक्रम की अध्‍यक्षता मा. जयप्रकाश कर्दम, प्रख्‍यात साहित्‍यकार ने की तथा मंच संचालन मा. मुकेश मानस ने किया।
        अपना वक्‍तव्‍य देते हुए  मा. माता प्रसाद जी ने कहा कि पहले हम लोगों को हरिजन या अछूत कहा जाता था। बाद में दलित शब्‍द आया। दलित साहित्‍य की पृष्‍ठभूमि लोकगीतों से निर्मित है। आजादी के बाद जो पढ़ी लिखी पीढ़ी आई उसने साहित्‍य रचना आरम्‍भ किया और सन् 1980 के आसपास सही तरीके से दलित साहित्‍य लेखन आया। अब जो साहित्‍य आ रहा है वह मुख्‍यधारा के साहित्‍य से टक्‍कर ले रहा है। अभी तक जो मुख्‍यधारा का साहित्‍य लिखा गया उसमें सामने की तसवीर ही आई, पीछे का कुछ नहीं आया, पीछे जो था वह दलित था जो साहित्‍य में दिखाई नहीं दे रहा था। अब दलित साहित्‍य आने से दर्पण में जो छिपा हुआ था वह दिखाई देने लगा है। उन्‍होंने यह भी कहा कि दलित साहित्‍य का विस्‍तार विभिन्‍न विधाओं में होना चाहिए।
उन्‍होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि ठहराव क्‍यों दिखाई दे रहा है, आंदोलन कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है। आंदोलन में ठहराव की स्थिति से आंदोलन कमजोर पड़कर बहुजन से सर्वजन हो गया है। ब्राह्मण साफ, क्षत्रिय हाफ और बनिया माफ। मा. माता प्रसाद जी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि राजनीति सब तालों की कुंजी नहीं है। जब तक सामाजिक व सांस्‍कृतिक परिवर्तन नहीं होते हैं तब तक परिवर्तन नहीं होता है। डॉ. अम्‍बेडकर ने यही बात रखी है। राजनीति से सत्ता पाई जा सकती है लेकिन बदलाव के लिए सांस्‍कृतिक परिवर्तन जरूरी हैं।  राजनीति से निकलकर हमें राजनैतिक सामाजिक परिवर्तन में जाना चाहिए। इसलिए सामाजिक व सांस्‍कृतिक व्‍यवस्‍था में आमूल चूल परिवर्तन जरूरी हैं। आगे उन्‍होंने कहा कि पार्टी प्रथा में एक बुराई है कि हमें पार्टी का अनुशासन मानना होता है, इसलिए कभी-कभी ऐसा वक्‍त भी आता है जब अपना अहित, अपने समाज का अहित हो रहा होता है तब भी हमें उसका समर्थन करना पड़ता है। हम अलग-अलग पार्टियों में रहे लेकिन जो हमारे समाज का कॉमन इंटरेस्‍ट है, उसके लिए एक मंच पर आना चाहिए।
        भट्टा मज़दूर, बेडित जाति, शरणार्थी, पीडि़त लोगों को हमें अपने साथ लेना चाहिए। पिछडी जाति के शुद्र लोग अब जातिवादी हो गए हैं। ये लोग अछूतों के साथ ज्‍यादा दुर्व्‍यवहार करते हैं। शुद्र और अछूत लेखकों को एक साथ बैठकर सोचना चाहिए जिससे नई राह निकलेंगी। उन्‍होंने कहा कि आरक्षण को हम अच्‍छा नहीं मानते परन्‍तु आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक बराबरी देनी होगी यदि यह मिले तो हम आरक्षण का विरोध करेंगे। महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए बल्कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए, जिससे नेतृत्‍व उभरे और समानता आए और समाज का भला हो।
अपने वक्‍तव्‍य में उन्‍होंने यह भी कहा कि मिड डे मील योजना में छुआछूत की जो घटनाएं सामने आई हैं। उससे सरकार को दलित महिलाओं को वहां से नहीं हटाना चाहिए। इससे समाज पर बुरा असर पड़ता है। सार्वजनिक स्‍थानों पर छुआछात एक अपराध है, इसलिए यह नहीं होना चाहिए। मा. माता प्रसाद ने कहा कि किसानों और बुनकरों का ऋण माफ किया गया है पर आईआरडीपी/एसपीसीपी के तहत जो दलितों को दिया गया ऋण है सरकार उसे माफ क्‍यों नहीं करती। इसे सरकार के द्वारा माफ किया जाना चाहिए। उन्‍होंने भ्रष्‍टाचार पर रोशनी डालते हुए कहा कि भ्रष्‍टाचार में दलित समाज के लोग ज्‍यादातर नहीं है क्‍योंकि राजनीति में उनके सरंक्षक नहीं है इसलिए वे भ्रष्‍टाचारी नहीं होते। उन्‍हें डर होता है कि वे पकड़े जाएंगे। भ्रष्‍टाचार पर सरकार को कड़ा होना चाहिए।
मा. माता प्रसाद जी का वक्‍तव्‍य समाप्‍त होने पर मा. अजय नावरिया जी ने पूछा कि परिवर्तन के लिए राजनीति महत्‍वपूर्ण है या धर्म। जिसका जवाब देते हुए मा. माता प्रसाद ने कहा कि सांस्‍कृतिक परिवर्तन जरूरी है क्‍योंकि बड़ी संख्‍या में लोग जुडेंगे तो लोगों में सामाजिकता की भावना आयेगी फिर आर्थिक प्रश्‍न भी हल किए जाए, राजनीति से सभी परिवर्तन नहीं होते हैं।
बेधडक न्‍यूज मासिक के संपादक जसवंत सिंह बेधडक ने प्रश्‍न किया कि दलितों की दुर्दशा के लिए कांग्रेस कितनी जिम्‍मेदार है, का उत्तर देते हुए मा. माता प्रसाद जी ने कहा कि कांग्रेस ने बाबा साहब को मौका दिया जिससे संविधान बना और आज हमें आरक्षण भी बाबा साहब के द्वारा बने संविधान के कारण ही मिल रहा है। उसका श्रेय कांग्रेस को है। आजादी के बाद जमींदारी खत्‍म हुई, हमने जमींदारी का दौर देखा है, कांग्रेस ने जो बदलाव की बयार दी उससे मुक्ति की तड़प जागी। आज हमारे लोग अधिकारी बन गए हैं, यह सब कांग्रेस ने किया है।
जवाहर लाल नेहरु विश्‍वविद्यालय के शोधार्थी मा. सर्वैश कुमार मौर्या ने पूछा कि रोटी बेटी के संबंध को दलित मुक्ति के लिए कितना महत्‍वपूर्ण मानते हैं का जवाब देते हुए उन्‍होंने कहा कि मैंने अपने नाटक अछूत का बेटा में रोटी बेटी का प्रश्‍न उठाया था। सामाजिक परिवर्तन में रोटी बेटी के संबंध सहायक के रूप में काम करते हैं।
वार्तालाप को आगे बढ़ाते हुए मा.शीलबोधि ने पूछा कि पिछले दौर में नौंटकी मे माध्‍यम से दलितों के पास रंगमंच था, आज दलितों के पास रंगमंच नहीं है, इसके लिए क्‍या होना चाहिए का जवाब देते हुए उन्‍होंने कहा कि दलित रंगमंच बनना चाहिए जिससे मंचन व अन्‍य चीजे प्रभावी तौर पर बने। नुक्‍कड़ नाटक लिखे जाने चाहिए। समाज हमारा अभी पढ़ा-लिखा नहीं है, इसलिए रंगमंच ही परिवर्तन का जरिया बनेगा।
मा. अजय नावरिया ने पूछा कि आपकी आत्‍मकथा क्‍यों चर्चित नहीं हुई पर मा. माताप्रसाद जी ने कहा कि मेरी आत्‍म कथा का एक बड़ा भाग राजभवन से जुडा हुआ था, शायद इसलिए।
अपना अध्‍यक्षीय भाषण करते हुए मा. जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि दिल्‍ली आज दलित साहित्‍य के नामपर लेखकों का केन्‍द्र है। प्रबुद्ध लोगों के बीच अंतर्विरोध लाजमी हैं। और असहमति को तरजीह देना चाहिए। व्‍यक्तिगत संवाद चलता रहना चाहिए। हमारी असहमतियां जरूरी काम करती हैं। लेखक संकीर्ण नहीं हो सकता। सन् 1980 में मा. माता प्रसाद जी ने कहा था कि दलित शब्‍द बाद में आया यह सही है कि यह बाद में आया। बाबा साहब के यहां अनटचेबल शब्‍द था। बहुजन संगठन, ओप्रेस्‍ड इंडिया आदि कांशीराम के शब्‍द थे पर दलित बाद में आया। हमें मनुष्‍य को जाति के खांचे में नहीं बांटना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें अधिकार नहीं है कि हम सवर्णों की आलोचना करें। हमें अपना विस्‍तार करके एक सामाजिक ग्रुप बनना चाहिए। हमें किसी भी विचार में प्रगतिशीलता की बहुसंख्‍या देखनी चाहिए। हमारे आंदोलन की सोच बड़ी होनी चाहिए उन्‍होंने आगे कहा कि लक्ष्‍मण गायकवाड की उचल्‍या  घुमन्‍तू समाज पर है वे हमारे प्रतिष्ठित लेखक हैं। जिस समाज से हमारे महत्‍वपूर्ण नारायण सुर्वे-संजय नवले भी  जैसे लेखक भी हैं। कुछ लोग उन्‍हें अलगा रहे हैं। मा. कर्दम ने आगे कहा कि आज हमें फुले रैदास व नारायण गुरू से अलग नहीं होना चाहिए। यह कहना कि केवल अम्‍बेडकर चाहिए, ठीक नहीं है। हमें सभी लोगों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहिए। उन्‍होंने मा.माता प्रसाद के वक्‍तव्‍य पर बोलते हुए कहा कि विस्‍थापन का सवाल जो माता प्रसाद जी ने उठाया, वह बहुत महत्‍वपूर्ण है। हमारी समाज व्‍यवस्‍था के चलते, औरत से ज्‍यादा विस्‍थापन का दंश सहती है। माता प्रसाद जी की आत्‍म कथा में झौंपड़ी से शुरू होने वाला संघर्ष महत्‍वपूर्ण है, लेकिन जैसा उन्‍होंने कहा कि राज्‍यपाल वाला अंश ज्‍यादा है। ज्‍यादा आत्‍मकथाएं वे चर्चित हुई जो स्‍थापित लेखकों ने लिखी। माता प्रसाद जी बहुआयामी व्‍‍यक्तित्‍व वाले लेखक हैं इसलिए चर्चा ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण नहीं है। मा. कर्दम जी ने अपनी बात समाप्‍त करते हुए कहा कि आंदोलन में व्‍यक्ति नहीं विचार प्रमुख होने चाहिए। दलित आंदोलन की त्रासदी यही है कुछ नामों के चलते यह आरोप लग रहा है। नई पीढ़ी स्‍पष्‍ट और बढि़या लिख रही है। यह एक चरण है इसे ठहराव नहीं माना जा सकता है।
इस मौके पर दलित लेखक संघ की अध्‍यक्षा मा. रजनी तिलक ने मा. माता प्रसाद और मा. जयप्रकाश कर्दम का कार्यक्रम में महत्‍वपूर्ण उपस्थित के लिए आभार प्रकट किया। कार्यक्रम में धन्‍यवाद शीलबोधि ने किया।  

शीलबोधि, महासचिव
                                                                                                                             सर्वेश कुमार मौर्या, सचिव
दलित लेखक संघ
दिनांक 20 जुलाई 2011

Monday, June 27, 2011

उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ते दलित Written by स्वामीनाथन अय्यर





Friday, 24 June 2011 06:22
क्या आप भी यही सोचते हैं कि जीडीपी की रिकॉर्ड ग्रोथ से दलितों का कुछ भी भला नहीं हुआ है? सेंटर फॉर एडवांस स्टडी ऑफ इंडिया के डायरेक्टर देवेश कपूर, सीबी प्रसाद, लैंट प्रिचेट और डी श्याम बाबू ने हाल ही में एक स्टडी की है. ‘रिथिंक इनइक्वालिटी: दलित्स इन यूपी इन मार्केट रिफॉर्म इरा’ नाम से किए गए इस अध्ययन के मुताबिक 1990 के बाद से उत्तर प्रदेश में दलित क्रांति का दौर सामने आता है. हालांकि यहां लंबे समय तक दलितों का दमन हुआ है.
मीडिया में जोर शोर से दलितों के दमन, आर्थिक असमानता और इनकी कमजोर आर्थिक व सामाजिक स्थिति की बात कही जाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि आय के मामले में ये तबका अभी भी सबसे निचले पायदान पर है. लेकिन इस नई स्डटी में ये बात भी सामने आई है कि बीते कुछ सालों में इनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत में काफी बदलाव आया है. सबसे बड़ा बदलाव तो यही है कि अब दलित कहे जाने वाले लोग खुद को खास मानने लगे हैं. इस स्टडी (2010 में की गई) के लिए यूपी के दो ब्लाकों में एक सर्वे करवाया गया. इनमें से एक संपन्न कहा जाने वाला पश्चिमी यूपी का ‘खुर्जा’ ब्लॉक था और दूसरा अपेक्षाकृत पिछड़ा बताया जाने वाला पूर्वी यूपी का ब्लॉक ‘बिलारियागंज’ था. इन दोनों ब्लॉकों में ये पता लगाने की कोशिश की गई कि 1990 से 2008 के बीच दलितों के जीवन में किस तरह का सामाजिक-आर्थिक बदलाव आया है.
सर्वे में ये समाने आया कि पूर्वी यूपी के ब्लॉक में पक्के मकानों की संख्या 18.1 फीसदी से बढ़कर 64.4 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है. वहीं पश्चिमी यूपी में ये आंकड़ा 38.4 फीसदी से बढ़कर 94.6 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह घरों में टेलीविजन का आंकड़ा लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी इलाके में 22.2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 45 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह आधुनिकता का प्रतीक कहे जाने वाले मोबाइल फोन की संख्या भी लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी ब्लॉक में 36.3 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 32.5 फीसदी पर पहुंच गई.
अठारह सालों के दौरान दलितों के घरों में पंखों की संख्या पूर्वी ब्लॉक में बढ़कर 36.7 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 61.4 फीसदी हो गई. कुछ ऐसा ही हाल साइकिल के मामले में भी है. पूर्वी ब्लॉक में साइकिल-मालिकों की संख्या 46.6 फीसदी से बढ़कर 84.1 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 37.7 फीसदी से बढ़कर 83.7 फीसदी हो गई.
ग्रामीण क्षेत्रों में सम्मान का प्रतीक माने जाने वाली मोटरसाइकिल के मामले में भी अच्छे तथ्य सामने आए हैं. 1990 में जहां मोटरसाइकिल मालिकों की संख्या नगण्य थी वहीं 2008 में पूर्वी ब्लॉक में 7.6 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 12.3 फीसदी दलितों के पास मोटरसाइकिल मौजूद थी. हालांकि बुरे वक्त के साथी कहे जाने वाले गहनों के मामले में आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. गहनों के मामले में पूर्वी ब्लॉक का आंकड़ा 75.8 फीसदी से घटकर 29.3 फीसदी के स्तर पर आ गया वहीं पश्चिमी ब्लॉक में भी ये आंकड़ा 64.6 फीसदी से घटकर 21.2 फीसदी के स्तर पर आ गया.
अनाजों के मामले में भी सर्वे में काफी अच्छे संकेत मिले हैं. 1990 से 2008 के बीच, 18 सालों के दौरान इन क्षेत्रों में दलितों द्वारा मोटे यानी निम्न कोटी के अनाजों (टोटा चावल, गुड़ का रस) के मुकाबले अच्छी क्वालिटी के अनाजों जैसे चावल, दाल, टमाटर आदि का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है.निम्न स्तर का भोजन कहे जाने वाले रोटी-चटनी का इस्तेमाल पूर्वी ब्लॉक में 82 फीसदी से घटकर 2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 9 फीसदी रह गया है. इसी तरह बच्चों द्वारा रात का बचा हुआ खाना अगले दिन खाने के मामले में आंकड़ा पूर्वी ब्लॉक में 95.9 फीसदी से गिरकर 16.2 फीसदी के स्तर पर आ गया है. निम्न क्वालिटी के चावल के उपयोग के मामले में भी पूर्वी क्षेत्र का आंकड़ा 54 फीसदी से घटकर 2.6 फीसदी और पश्चिमी क्षेत्र में 2.7 फीसदी से घटकर 1.1 फीसदी के स्तर पर आ गया है.
दालों की बात की जाए तो पिछले कुछ सालों में भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता में कमी आई है. अच्छी बात यह है कि बावजूद इसके यूपी के पूर्वी ब्लॉक के दलितों में इसका इस्तेमाल 31 फीसदी से बढ़कर 90 फीसदी हो गया है. इसी तरह पश्चिमी ब्लॉक में इसका इस्तेमाल 60.1 फीसदी से बढ़कर 96.9 फीसदी हो गया है. शायद दाल की बढ़ती कीमतों के पीछे ये भी एक वजह है. टोटा चावल और गुड़ का पानी पीने के मामलों में कमी आई है. सर्वे में एक और अच्छी बात सामने आई है. दरअसल इन इलाकों में अब पैकेट बंद नमक, इलाइची और टमाटर का इस्तेमाल भी दिख रहा है.
आलोचक कहते हैं कि आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में दलित वर्ग को खास फायदा नहीं पहुंचा है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यूपी के जिस पूर्वी ब्लॉक की बात हो रही है वहां के 61 फीसदी दलित और पश्चिमी ब्लॉक के 38 फीसदी दलित ये मानते हैं कि अब उनकी स्थिति काफी बेहतर है. केवल 2 फीसदी का ये सोंचना है कि उनकी स्थिति वैसी की वैसी ही है या फिर और बदतर हुई है.पारंपरिक तौर पर दलितों का मुख्य पेशा खेतों में मजदूरी करना रहा है. लेकिन देश में आर्थिक सुधारों के दौरान इन का पेशा भी बदला है. इनमें से बड़ी संख्या में लोग शहरों में काम करने आ गए. और शहरों में इनको मिलने वाला वेतन इतनी तरक्की की बड़ी वजह के तौर पर सामने आया है.
सर्वे में पता चला है कि 1990 में जहां पूर्वी ब्लॉक के 14 फीसदी दलित परिवारों को शहरों में नौकरी करने वाले सदस्यों या रिश्तेदारों के जरिए आर्थिक फायदा पहुंचता था वहीं 2008 में आंकड़ा 50.5 फीसदी के स्तर पहुंच गया. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 6.1 फीसदी से बढ़कर 28.6 फीसदी पर आ गया. अच्छी बात ये भी है कि अपना व्यावसाय करने वाले दलितों की संख्या में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है. 1990 से 2008 के बीच पूर्वी ब्लॉक के 4.2 फीसदी दलित अपना खुद का व्यवसाय करते थे. 2008 में ये आंकड़ा 11 फीसदी पर आ गया. इसी तरह पश्चिमी यूपी के मामले में ये आंकड़ा 6 फीसदी से बढ़कर 36.7 फीसदी पर आ गया. इसके उलट कृषि कार्यों में मजदूरी करने वालों की तादाद पूर्वी ब्लॉक में 76 फीसदी से घटकर 45.6 फीसदी पर आ गई. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 46.1 फीसदी से घटकर महज 20.5 फीसदी पर आ गया है.
आखिर इस बदलाव के पीछे क्या वजह रही है? दलित खुद ये कहते हैं कि करीब 10-15 साल पहले इन बदलावों की शुरूआत हुई थी. हालांकि तेजी से तरक्की करने के मामले में कई दूसरे राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश पिछड़ गया. बावजूद इसके 2003-04 से 2008-09 के बीच पांच सालों में इस राज्य का औसत सकल घरेलू उत्पाद 6.29 फीसदी बढ़ा है. यूं तो ये आंकड़ा देश की जीडीपी ग्रोथ के औसत आंकड़े से काफी पीछे है, लेकिन 7 फीसदी के जादुई आंकड़े के काफी करीब भी है. इंदिरा-नेहरु युग के मुकाबले मौजूदा समय में दलितों की आय 10 गुना तेजी से बढ़ रही है. और इसकी बदौलत उनकी संपन्नता भी तेजी से बढ़ रही है.
लेखक का मानना है कि पिछले दो दशकों में तेजी से आर्थिक सुधारों का दौर रहा है. इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव भी तेजी से बढ़ा है. उनका ये भी मानना है कि दलितों की स्थिति में सुधार के मामले में इस पार्टी की और बड़ी भूमिका हो सकती है.
मायावती अब तक चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं. इस दौरान उन्होंने अपने नौकरशाहों और अधिकारियों को दलितों का खास खयाल रखने के लिए विशेष तौर पर संतुष्ट किया. और ऐसा हुआ भी है. आज दलित समाज की तरक्की की झलक सिर्फ उनके जीवन स्तर में ही नहीं बल्कि उनकी सामाजिक हैसियत में भी दिख रही है. दलित अब सवर्णों की आंखों में आंखें डाल सकते हैं. यूपी में यह एक  अहम सामाजिक परिवर्तन है.
आजादी.मी से साभार.

दलित लेखक संघ- चुनाव की प्रक्रिया

दलित लेखक संघ में एक बार फिर से अवसरवाद और पदों की जंग दिखाई पड़ रही है एक दुसरे पर कीचड़ उछाला जा रहा है अपने अवसरवाद को दूसरो का अवसरवाद बताया जा रहा है कृपा करके इस पर धयान  दें . जो लोग खुद को लोकतांत्रिक और  दूसरो को अलोकतांत्रिक बता रहे है वे खुद के बारे में भी सोचें की वे क्या कर रहे है अनीता भारती जी ने सबको  मेसेज किया की ९ जुलाई को दलेश का चुनाव होना है जिसका वेनु  अभी तै नहीं है   ये फैसला  किस सभा या मीटिंग में तय हुआ, वो  मीटिंग कब हुई तथा उसमे कौन  लोग उपस्थित थे , इसकी कोई जानकारी उन्होंने नहीं दी है उन्हें यह जानकारी मुहया करानी चाहिए जिससे उनकी लोकतान्त्रिक पद्धति शो  हो सके . ,जबकि लोकतान्त्रिक तरीके से १९ जून को काफी हाउस  की मीटिंग में सर्वसम्मति  से लिए गए फैसले  को वे अलोकतांत्रिक बता रही है दुसरे वे  आनन फानन  बनी  अपनी बनाई वेबसाइट दलित लेखक संघ में आंकड़ो का भ्रम भी फैला  रही है  , वे २९ may  के  आकडओं को   २९ जून  का  Minutes    बता रही है  अब देखने और सोचने की बात यह है की वे ऐसा क्यों कर रही है  देखे उनका आकडा, उनका सच  -

http://www.dalitlekhaksangh.org/excerpts-from-minutes-of-dls-meeting-of-29th-june-2011.html

शायद लेखक संघ दुबारा से लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है और कुछ लोगों का चरित्र साफ होना है,   मै इसलिए ये लिख रहा हू क्योंकी मै भी इस प्रक्रिया का साझीदार रहा हूँ . हाँ यह जरुर है की अनीता जी इस सभा में नहीं थी और ईशकुमार गंगानिया जी ने समन्‍वय समिति की रिपोर्टिंग की थी इसके बाद समन्‍वय समिति के गैरजिम्मेदाराना रवैए  ,मीटिंग समन्‍वय समिति  की रिपोर्टिंग , उसकी कार्य पद्धति , उसके प्रयासों सफलता व विफलता पर चर्चा की लिए ही समिति द्वारा ही बुलाई गयी थी और समिति के ३ जिम्मेदार सदस्य ही गायब थे , के चलते यह समिति भंग कर दी गयी और एक नयी समिति बनाई गयी जिसने यह तय किया की २५ जून को भविस्य की कार्य योजना व चुनाव की प्रक्रिया को कार्यान्वित किया जाय. अभी अप सब का शाम ५ .30  बजे गाँधी शांति प्रतिष्ठान , I  TO  , में आमंत्रण है आये और चर्चा व चुनाव की प्रक्रिया में साझीदार बने  






Sunday, June 26, 2011

'सबसे लोकप्रिय प्रगतिशील कवि' विश्वनाथ त्रिपाठी



नागार्जुन
नागार्जुन को बाबा के नाम से जाना जाता है. आप बाबा कह दीजिए तो लोग समझ जाएँगे कि बात नागार्जुन की हो रही है. हिंदी में उनके आलावा सिर्फ़ एक ही कवि को बाबा कहा जाता है और वो हैं तुलसीदास.
हिंदी के प्रगतिशील कवियों में जितने लोकप्रिय नागार्जुन हैं उतना और कोई नहीं है यह बात बिना हिचक कहनी चाहिए.
अब तो नई कविता गद्य हो गई है लेकिन नागार्जुन ऐसे कवि हैं जो छंद को नहीं छोड़ते. आधुनिक कवियों में छंद को न छोड़ने वाले कवियों में रघुवीर सहाय भी हैं और उनकी लिखी बहुत सी कविताएँ नागार्जुन की कविता प्रतीत होती है, 'राष्ट्रगीत में भला ये कौन भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हर हरणा गाता है.'
नागार्जुन का ये जादू है कि वे पारंपरिक छंदों का प्रयोग करते हुए भी ऐसा कुछ लिखते हैं कि कोई ये न कह सके कि ये आधुनिक कविता नहीं है. अब दोहे को लीजिए. पता नहीं वह हिंदी का कितना पुराना छंद है. कालिदास तक ने दोहे लिखे हैं. उनका लिखा एक दोहा बार-बार याद आता है,
'खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक'
क्या भयानक बिंब है इस कविता में. शासन के आतंक के लिए ऐसा बिंब मैंने कहीं और नहीं पढ़ा. ये कमाल देखिए कवि का कि वह दोहे में ऐसे बिंब खड़े कर सकता है. संगीनों के जंगल पर मुक्तिबोध ने भी लिखा है. मुक्तिबोध बड़े कवि हैं और मुझे बेहद प्रिय भी हैं लेकिन बंदूक का 'नभ में विपुल विराट' होने का बिंब वहाँ नहीं है.

लोक का बिंब

नागार्जुन विद्वान कवि हैं. वे संस्कृति और परंपरा के विद्वान हैं. संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश सब को वे जानते हैं. वे अपने इस ज्ञान से परंपरा का रचनात्मक दोहन करना नागार्जुन के अलावा किसी को नहीं आता.
ऐसा नहीं है कि हमारे नए कवि अच्छे नहीं है. बहुत से अच्छे कवि हैं. उनमें से कुछ मुझे प्रिय भी हैं. अगर मुझे एक दो का नाम लेना हो तो मैं रघुवीर सहाय और विष्णु खरे का नाम लूँगा.
लेकिन जब नए कवियों को कोई नई बात कहनी होती है तो वे पश्चिम की ओर देखते हैं या यथार्थ को अपने आसपास देख लेते हैं लेकिन नागार्जुन अपना बिंब लोक जीवन से लेते हैं. फिर वे नए फ़ॉर्म में भी कविता रच देते हैं.
नागार्जुन पंडितों के सख़्त ख़िलाफ़ थे लेकिन वे उनके पढ़े जाने वाले मंत्र जैसी कविता रचते हैं, 'ऊँ काली काली काली महाकाली महाकाली, ऊँ मार मार मार वार न जाए खाली....'
रूप और शिल्प की बातें बहुत से लोग करते हैं. मैं उस पर बहस नहीं करना चाहता. लेकिन नागार्जुन की कविता रूप और शिल्प के स्तर पर भी चकित करती हैं. उनकी एक कविता है, 'अकाल के बाद'
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
ये नई जनवादी और प्रगतिशील कविता है.
मैं कहता हूँ कि यह जनवादी-प्रगतिशील कविता का 'क्लासिक' है. पता नहीं कब ये लोगों को समझ में आएगा कि जनवाद और प्रगतिशीलता सिर्फ़ संवेदनाएँ नहीं है.
वो शिल्प भी है और फ़ॉर्म भी है. जिसने किसी भूखे आदमी को अन्न पाना देखा है. जिसने आँखों की चमक देखी है. वह समझ सकता है. ग़रीबी के छोटे सुख होते हैं. यही छोटा सुख उसका बड़ा सुख होता है. इससे उसकी आँखों में चमक आती है. जो इस छोटे सुख को पहचानता है वही बड़ा कवि है.
नागार्जुन ग़रीब के छोटे सुख और उसकी आँखों की चमक को पहचानते थे इसलिए वे एक बड़े कवि थे.

बाबा के गाँव में अरविंद दास



बाबा नागार्जुन का घर
वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' उर्फ़ नागार्जुन यायावर थे. कभी कलकत्ता, तो कभी सहारनपुर, पटियाला, लाहौर, फ़िरोजपुर, अबोहर तो कभी सारनाथ, लंका या तिब्बत. उनकी यात्रा जीवन पर्यंत थमी नहीं.
अपनी इस यायावरी प्रवृत्ति के चलते वे अपने गाँव तरौनी में भी कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे ताउम्र नहीं छूटा. साहित्य में भी नहीं, जीवन में भी नहीं.
उनके साहित्य संसार पर यदि हम गौर करें तो मिथिला का समाज प्रमुखता से चित्रित हुआ है.
पर साहित्य की भावभूमि भले मिथिला का गाँव-समाज हो, पर वह अपनी संवेदना में अखिल भारतीय है. इस तरह कविता में कबीर से और उपन्यासों में वे प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ते हैं.
एक प्रवासी की पीड़ा व्यक्त करते हुए नागार्जुन ने अपनी एक कविता में लिखा है:
“याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही
रखे गए वे नाम”
मिथिला अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है. मैं आषाढ़ के महीने में दरभंगा ज़िले में स्थित उनके गाँव तरौनी गया. डबरे में मखान के पत्तों पर पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं. आम के बगीचों से ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ आमों की खुशबू चारों ओर फैल रही थी.
खेतिहर किसान धान की रोपनी करते मिले. पगडंडियों के किनारे कीचड़ में गाय-भैंस-सूअर एक साथ लोटते दिखे.
एक ओर खपरैल और दूसरी ओर ईंट से बने घरों के बीचों-बीच नागार्जुन के आंगन में फूस से छाया हुआ मड़वा और घर की दीवारों पर मिथिला पेंटिंग की महक थी. आंगन में आम से लदे पेड़ की डाल लटक रही थी. घर के ठीक सामने पोखर के महार पर कनेल और मौलश्री के फूल अपनी सुगंधि बिखेर रहे थे.
बच्चों को हांकते ‘दुखरन मास्टर’, ‘तालाब की मछलियाँ’ रूपक में बंधी स्त्री और अपने हक की लड़ाई लड़ता ‘बलचनमा’. नागार्जुन के साहित्य का लोक अपनी संपूर्णता में मेरी आँखों के सामने था.

लोक के रचनाकार

बाबा नागार्जुन का घर
नागार्जुन इस लोक से अपनी शक्ति ग्रहण करते हैं.
लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक चेतना उनके साहित्य की विशिष्टता है. क्या यह आश्चर्य नहीं कि कवि विद्यापति के क़रीब 500 वर्ष बाद मिथिला से कोई कवि अखिल भारतीय स्तर पर अपने स्वर को बुलंद करता है.
नागार्जुन हिंदी साहित्य की एक बिखरती परंपरा को फिर से जोड़ते हैं. उन्होंने मैथिली से अपने साहित्य जीवन की शुरूआत की और हिंदी के जनकवि के रूप में चर्चित हुए. मैथिली में रचित कविता संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' और उपन्यास ‘पारो’ आधुनिक मैथिली साहित्य की एक थाती है.

मिथिला में पंडितों की लंबी परंपरा रही है.
लेकिन वे ‘पोथी-पतरा-पाग’ में ही ज़्यादातर सिमटे रहे. अपनी विद्वता की बोझ से दबे रहे. लोक की परंपरा उनके लिए कोई मानी नहीं रखा. विद्यापति जैसे रचनाकर अपवाद हैं.
संस्कृत के पंडित होने के बावजूद नागार्जुन ने पंडिताई को बोझ नहीं बनने दिया. उन्होंने जन जीवन से जुड़कर साहित्य में और जीवन में सहजता पाई. उनका पूरा साहित्य जन के जीवट रस से सिक्त है.
उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा है: कवि ! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का...’ समाज के बहुसंख्यक जन के प्रति उनकी संवेदना, प्रतिबद्धता का स्रोत इस रूपक में निहित है.

'न हकलाने वाले कवि थे नागार्जुन' मैनेजर पांडे



बाबा नागार्जुन
आजकल भारत में इतिहास लेखन में एक नई परंपरा शुरु हुई है. 'सबॉल्टर्न हिस्ट्री' यानी समाज के पराधीन, दुखी, सताए हुए और निचले तबके के लोगों का इतिहास.
इतिहास लिखने वालों के लिए यह ज़रुर नई परंपरा है लेकिन जो बाबा नागार्जुन की कविता को जानते हैं वो जानते हैं कि उनकी कविता दरअसल सबॉल्टर्न वर्ग की ही कविता है. वे उनकी यातनाओं और यातना से मुक्ति की ही कविता लिखते रहे हैं.
मेरी समझ से भारतीय समाज के तीन वर्ग सबसे अधिक सबॉल्टर्न कहे जाने लायक हैं. एक हैं आदिवासी, दूसरी औरतें और तीसरे दलित. बाबा नागार्जुन ने इन तीनों के ही बारे में ख़ूब लिखा है.
आदिवासी समाज को लेकर इन दिनों भारतीय समाज में जो द्वंद्व चल रहा है, उसकी बड़ी बहसें हो रही हैं. आदिवासियों का सत्ताओं से संघर्ष हो रहा है और बहुत सी बातें हो रही हैं. नागार्जुन ने भारत के आदिवासियों की यातनाओं, पराधीनताओं आदि की कविता तब लिखी थी जब हिंदुस्तानी समाज में उस तरह की कविता लिखने की प्रवृत्ति ही नहीं थी. अनेक कविताएँ हैं उनकी, 'साल वनों के टापू में' या 'सघन बगीची में' या दूसरी कई अन्य.
दूसरा सबॉल्टर्न समाज भारत में है औरतों का. सारी दुनिया में औरतें पराधीन और सताई हुई रही हैं. भारत में और भी ज़्यादा क्योंकि दुनिया के जो भी देश जितने पुराने हैं, वे उतने ही दकियानूसी देश भी हैं. परंपराओं और रूढ़ियों के ग़ुलाम. नागार्जुन ने स्त्रियों की यातना और उन यातनाओं से मुक्ति की आकांक्षाओं की कोशिश पर बहुत सारा साहित्य लिखा है.
वर्ष 1935-36 से 90 के दशक तक के भारतीय समाज में स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आम जनता की बदहाली, तबाही और तंगी के बीच जनता के विद्रोह, प्रतिरोध और सत्ता में संघर्ष का इतिहास अगर आप एक जगह देखना चाहते हैं तो वह नागार्जुन की कविताओं में मौजूद है
नागार्जुन का लगभग अस्सी प्रतिशत जो उपन्यास साहित्य है, जैसे 'रतिनाथ की चाची', 'कुंभी पाक' और दूसरे अनेक, इन सबमें किसी न किसी स्त्री की यातना और उससे मुक्त होने की छटपटाहट मौजूद है. नागार्जुन ने मैथिली में एक बहुत ही मार्मिक और लगभग प्रगीतात्मक उपन्यास लिखा है, 'पारो'. उसमें भी उसी तरह से मिथिला के पुराने पुरातनपंथी समाज में जो विवाह को लेकर लड़कियों की जो यातना थी, उसे बहुत ही मार्मिक ढंग से उन्होंने पेश किया है.
इसके अलावा हिंदी में उनकी एक और कविता है 'तालाब की मछलियाँ'. यह कविता स्त्री की पराधीनता की वास्तविकता और स्वाधीनता की आकांक्षा को व्यक्त करने वाली कविता है.
भारत में जो तीसरा बड़ा सबॉल्टर्न समाज है दलितों का. नागार्जुन ने और कविताओं में भी दलितों की पीड़ा की चर्चा की है. लेकिन इस प्रसंग में उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता 'हरिजन गाथा' है. लंबी कविता है और ये बिहार के एक गांव बेचछी में हरिजनों को ज़िंदा जलाए जाने की घटना पर आधारित है.
इस घटना पर हिंदी में दो बड़ी रचनाएँ लिखी गईं. एक तो नागार्जुन की यह कविता और दूसरा मन्नू भंडारी का उपन्यास 'महाभोज'. अगर आप 'हरिजन गाथा' को देखें तो उसमें एक ओर उच्च वर्ग और वर्ण की ज़्यादती है तो दूसरी ओर दलितों की यातना और हत्या का वर्णन है. उस कविता के अंत में नागार्जुन दलितों की मुक्ति की संभावना को लेकर एक तरह से यूटोपिया रचते हुए दिखाई देते हैं.
मुझे लगता है कि यह जो भारत का सबॉल्टर्न समाज है, उसके कवि हैं नागार्जुन.

विविधता का कवि

वैसे तो भारतीय समाज में जितनी व्यापकता और विविधता है वह सब नागार्जुन की कविता में है. उनकी कविताओं में हिमालय है, कश्मीर है, केरल है तो गुजरात भी है और मिजोरम भी.
लेकिन वर्ष 1935-36 से 90 के दशक तक के भारतीय समाज में स्वाधीनता आंदोलन से लेकर आम जनता की बदहाली, तबाही और तंगी के बीच जनता के विद्रोह, प्रतिरोध और सत्ता में संघर्ष का इतिहास अगर आप एक जगह देखना चाहते हैं तो वह नागार्जुन की कविताओं में मौजूद है.
वे एक ऐसे कवि भी हैं जिन्होंने अंग्रेज़ी राज के ज़माने से बाद के दिनों तक भी साम्राज्यवाद की खुली आलोचना की.
चाहे वह इंग्लैंड की रानी के भारत आगमन पर लिखी कविता 'आओ रानी हम ढोएंगे पालकी हो' या फिर अमरीकी राष्ट्रपति जॉनसन पर लिखी कविता 'प्रभु तुम चंदन हम पानी' हो.
यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि नागार्जुन की कविता में जहाँ जनसंघर्ष का वर्णन सबसे अधिक है, उनकी कविता जनसंघर्षों के दौरान सबसे अधिक गाई जाने वाली कविता बनी.
वे सजग और सचेत रुप से जनता के कवि थे. इसलिए तो वे कह सके,
'जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊँ,
जनकवि हूँ मैं साफ़ कहूँगा क्यों हकलाऊँ.'
सारी दुनिया में बहुत सारे कवि आपको मिलेंगे, वे हिंदी में भीं हैं जो हकलाहट को ही कविता समझते हैं.
असल में जो लोग समाज और जीवन से सुविधा चाहते हैं वे साहित्य में दुविधा की भाषा बोलते हैं और दुविधा की भाषा को ही कविता की कला समझते और बनाते हैं.
नागार्जन हकलाने वाले या दुविधा की भाषा वाले कवि नहीं थे.

Wednesday, June 8, 2011

हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते

 विभा रानी
the-vagina-monologues1नया ज्ञानोदय के अप्रैल 2009 अंक में प्रकाशित सुप्रसिद्ध मलयाली कवि के सच्चिदानंद की एक कविता उद्धृत है
मैं एक अच्छा हिन्दू हूं
खजुराहो और कोणार्क के बारे में मैं कुछ नहीं जानता
कामसूत्र को मैंने हाथ से छुआ तक नहीं
दुर्गा और सरस्वती को नंगे रूप में देखूं तो मुझे स्वप्नदोष की परेशानी होगी
हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते
जो भी थे उन्हें हमने काशी और कामाख्या में प्रतिष्ठित किया
कबीर के राम को हमने अयोध्या में बंदी बनाया
गांधी के राम को हमने गांधी के जन्मस्थान में ही जला दिया
आत्मा को बेच कर इस गेरुए झंडे को खरीदने के बाद
और किसी भी रंग को देखूं तो मैं आग-बबूला हो जाऊंगा
मेरे पतलून के भीतर छुरी है
सर चूमने के लिए नहीं, काट-काट कर नीचे गिराने के लिए…
यह मात्र संयोग ही नहीं है कि हम कहीं भी कभी भी प्यार की बातें करते सहज महसूस नहीं करते। यहां प्यार से आशय उस प्यार से है, जो सितार के तार की तरह हमारी नसों में बजता है, जिसकी तरंग से हम तरंगित होते हैं, हमें अपनी दुनिया में एक अर्थ महसूस होने लगता है, हमें अपने जीवन में एक रस का संचार मिलाने लगता है। मगर नहीं, इस प्यार की चर्चा करना गुनाह है, अश्लीलता है, पाप है और पता नहीं, क्या-क्या है। हमारे बच्चों के बच्चे हो जाते हैं, मगर हम यह सहजता से नहीं ले पाते कि हमारे बच्चे अपने साथी के प्रति प्यार का इज़हार करें या अपने मन और काम की बातें बताएं। और यह सब हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति के नाम पर किया जाता है।
अभी-अभी एक अखबार में पढ़ रही थी फिल्म निर्माता राकेश रोशन का इंटरव्यू। उनकी फिल्म काईट के बारे में, जिसमें उनके अभिनेता बेटे ने चुम्बन का दृश्य दिया है। साक्षात्कार लेनेवाले की परेशानी यह थी कि यह चुम्बन का दृश्य हृतिक रोशन ने किया कैसे, और एक पिता होने के नाते राकेश रोशन ने यह फिल्माया कैसे और उसे देखा कैसे? बहुत अच्छा जवाब दिया राकेश रोशन ने कि अब इस फिल्म में मैं प्रेम के लिए चुम्बन नहीं दिखाता तो क्या हीरो- हीरोइन को पेड़ के पीछे नाचता-गाता दिखाता? जान लें कि इस फिल्म कि नायिका भारतीय नहीं है। राकेश रोशन ने कहा कि एक अभिनेता के नाते उसने काम किया है, वैसे ही, जैसे उसने कृष में लम्बी-लम्बी छलांगें लगायी थीं।
जिस प्रेम से हमारी उत्पत्ति है, उसी के प्रति इतने निषेध भाव कभी-कभी मन में बड़ी वितृष्णा जगाते हैं। आखिर क्यों हम प्रेम और सेक्स पर बातें करने से हिचकते या डरते हैं? ऐसे में सच्छिदानंदन जी की बातें सच्ची लगती हैं कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते, और अब उन्हीं के अनुकरण में हमारे भी नही होते। आखिर हम उन्हीं की संतान हैं न। भले वेदों में उनके शारीरिक सौष्ठव का जी खोल कर वर्णन किया गया है और वर्णन के बाद देवियों को माता की संज्ञा दे दी जाती है, मानो माता कह देने से फिर से उनका शरीर, उनके शरीर के आकार-प्रकार छुप जाएंगे। वे सिर्फ एक भाव बनाकर रह जाएंगी।
यक्ष को दिया गया युधिष्ठिर का जवाब बड़ा मायने रखता है कि अगर मेरी माता माद्री मेरे सामने नग्नावस्था में आ जाएं तो मेरे मन में पहले वही भाव आएंगे, जो एक युवा के मन में किसी युवती को देख कर आते हैं। फिर भाव पर मस्तिष्‍क का नियंत्रण होगा और तब मैं कहूंगा कि यह मेरी माता हैं।
समय बदला है, हम नहीं बदले हैं। आज भी सेक्स की शिक्षा बच्चों को देना एक बवाल बना हुआ है। भले सेक्स के नाम पर हमारे मासूम तरह-तरह के अपराध के शिकार होते रहें। आज भी परिवारों में इतनी पर्दा प्रथा है कि पति-पत्नी एक साथ बैठ जाएं, तो आलोचना के शिकार हो जाएं। अपने बहुचर्चित नाटक वेजाइना मोनोलाग के चेन्नई में प्रदर्शन पर बैन लगा दिये जाने पर बानो मोदी कोतवाल ने बड़े व्यंग्यात्मक तरीके से कहा था कि इससे एक बात तो साबित हो जाती है कि मद्रास में वेजाइना नहीं होते।
देवी-देवता की मूर्ति गढ़ते समय तो हम उनके अंग-प्रत्यंग को तराशते हैं, मगर देवी-देवता के शरीर की काट कोई अपनी तूलिका से कर दे तो वह हमारे लिए अपमान का विषय हो जाता है। हमारी समझ में यह नही आता कि इस दोहरी मानसिकता के साथ जी कर हम सब अपने ही समाज का कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। देवी-देवता को हम भोग तो लगाते हैं, देवी देवता का मंदिरों में स्नान-श्रृंगार, शयन सब कुछ कराते हैं, मगर देवी-देवता अगर देवी-देवता के जेंडर में हैं, तो हम उनके लिंग पर बात क्यों नहीं कर सकते? आज भी सेक्स पर बात करना बहुत ही अश्लील मना जाता है। और यह सब इसलिए है कि हम सब इसके लिए माहौल ही नहीं बना पाये हैं। एक छुपी-छुपी सी चीज़ छुपी-छुपी सी ही रहे, हर कोई इसे मन में तो जाने मगर इस पर बात न करे, इस पर चर्चा न करे। ऐसे में हमारे साथ आप सबको भी यकीन करना होगा कि हमारे देवी-देवताओं के जननेंद्रिय नहीं होते और उनके अनुसरण में हमारे भी।