January 30th, 2011
•एक संवाददाता
विवाह उत्सव भारतीय समाज में इस हद तक विकृत हो चुका है कि उसे किसी भी तरह का बढ़ावा देना सामाजिक अपराध से कम नहीं है। विशेष कर हिंदुओं में यह विकृति सारी सीमाएं लांघ गई है। दुखद यह है कि अन्य धर्मावलंबियों में भी, जातिवाद की तरह ही, हिंदू विवाह की बुराईयां फैलती जा रही हैं। इससे भी ज्यादा अफसोस और चिंताजनक यह है कि समाज में बढ़ती शिक्षा और समृद्धि ने इस विनाशक प्रथा को कम करने की जगह इसका विस्तार ही किया है।
यह दो व्यक्तियों के मिल कर नया जीवन शुरू करने का फैसला या दो परिवारों के बीच नये संबंधों की शुरूआत का उत्सव न हो कर अनावश्यक दिखावा और क्षमता से ज्यादा खर्च के अवसर में बदल गया है। बुरी बात यह है कि यह वर पक्ष द्वारा कन्या पक्ष के दोहन और शोषण का एक स्वीकृत सामाजिक व्यवस्था बन गया है। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि हिंदू समाज में इतने बड़े पैमाने पर स्त्रियों का दमन, उत्पीडऩ, हत्याएं और आत्म हत्याएं इसी आडंबर से जुड़ी हैं। युवतियों की आकस्मिक मौत का एक बड़ा कारण दहेज से जुड़ी समस्याएं हैं जो मध्यवर्ग से निकल कर निम्र वर्ग तक पहुंच गई हैं। लड़कों का विवाह उनके परिवारों के लिए खड़े-खड़े समृद्ध बन जाने का माध्यम हो चुका है। सच तो यह है कि पिछली कम से कम डेढ़ शताब्दी से विवाह प्रसंग की खराबियों की समस्याएं भारतीय समाज को उद्वेलित किए हुए हैं और औपनिवेशिक दौर से ही भारतीय विवाह परंपरा को सुधारने की कोशिश की जाती रही है। आजादी के बाद तो सरकार ने बाकायदा दहेज लेने पर पाबंदी और लड़कियों के पैतृक संपत्ति पर अधिकार के कानून बनाए हैं पर ये मात्र कागजी बन कर रह गए हैं। आज भी शिक्षित और कमाऊ लड़कियों तक को कम दहेज के कारण प्रताडऩा सहनी पड़ती है। सच यह है कि विवाह की बुराईयों को लेकर पिछले कुछ वर्षों में न तो सरकार की ओर से और न ही समाज की ओर से कोई ऐसा प्रयत्न नजर आता है जो इसे रोकने की कोशिश हो। विवाह को लेकर किसी तरह का कोई नियंत्रण या पाबंदी कहीं भी लागू नहीं की जाती। उल्टा उदारीकरण के बाद के वर्षों में विवाह एक बड़े उद्योग में बदल गया है और इस अनुत्पादक और समाज विरोधी गतिविधि में तेजी आई है। जो काम कभी छोटे-मोटे स्तर पर होते थे वह अब बड़े व्यावसायिक आयोजन में बदल गए हैं। असल में प्रेम विवाह या युवकों को चुनाव के अधिकार से वंचित रखने का एक बड़ा कारण दहेज और विवाह से जुड़ा यह तामझाम ही है। स्वयं युवकों द्वारा इस विकृत तौर-तरीके को परंपरा और गौरव कह कर इसका आग्रह करना मूलत: दिखावे के अलावा लालच भी है।
इस विकृति को किस तरह से बढ़ावा मिल रहा है उसका उदाहरण हमारे बड़े व्यावसायिक अखबार हैं जिनमें विवाह के दिखावे और आडंबर को लगातार महिमामंडित किया जाता है। पिछले दो दशक में हिंदू परिवारों ने देश विदेश में कुछ इस तरह की शादियां की हैं जो अपने बेतहाशा और बेहूदे खर्च के लिए बहुचर्चित रही हैं। अफसोस की बात यह है कि इनकी भत्र्सना किसी भी अखबार ने गलती से भी नहीं की है।
सवाल यह है कि इस सामाजिक कुरीति के बारे में राजनेताओं का क्या कहना है? जैसा कि चलन है जबानी तौर पर इसका बस विरोध करते हैं पर आपको कभी भी ऐसा देखने को नहीं मिलेगा कि इस तरह के विवाहों का सक्रिय तौर पर कहीं भी विरोध किया जा रहा हो। संभवत: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जो नीतिगत तौर पर विवाह में सादगी की हिमायत करता है। उससे इसकी अपेक्षा इसलिए भी की जाती है कि यह स्वयं को हिंदुओं की सबसे बड़ी हिमायती बतलाती है। ये पार्टियां असल में किसी संप्रदाय के राजनीतिक हितों का उस तरह से पक्ष नहीं लेतीं जिस तरह की वे बातें करती हैं बल्कि इसके बहाने संप्रदाय विशेष का एक वर्ग सत्ता हथियाने के लिए इसे आड़ के रूप में इस्तेमाल करता है। साफ है कि हिंदुओं या उस तरह से किसी भी संप्रदाय की हिमायती पार्टी का एक मात्र काम उसके राजनीतिक हितों की ही रक्षा न तो होना चाहिए और न ही हो सकता है। उसके सामाजिक उत्थान का काम भी तो उसी पार्टी का है या होना चाहिए। पर यथार्थ में क्या होता है? इसका सबसे ताजा उदाहरण भारतीय जनता पार्टी है।
उसके अध्यक्ष नितिन गडकरी के बेटे का विवाह है, दिसंबर के पहले सप्ताह में हुआ था। उस विवाह में क्या हुआ, यह देखना जरूरी है।
यह विवाह उसी विदर्भ (नागपुर) में हुआ जहां कि पिछले कुछ वर्षों में हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सन 1997 से अब तक अकेले महाराष्ट्र में 44,276 किसानों ने आत्महत्याएं कीं। सिर्फ 2009 में ही इस राज्य में आत्महत्या करनेवाले किसानों की संख्या 2,872 थी। इन में से अधिकांश आत्महत्याएं विदर्भ क्षेत्र में ही हुईं। असमानता और गरीबी का आलम यह है कि इस क्षेत्र में कुपोषण और भुखमरी इतनी ज्यादा है कि उसकी तुलना सिर्फ मध्य प्रदेश से ही की जा सकती है। देखने की बात यह है कि यह उसी महाराष्ट्र का हिस्सा है जो भारत के समृद्धतम राज्यों में से है। इस असमानता ने यहां बेचैनी फैलाई हुई है और आदिवासी बहुल इस क्षेत्र में माओवादी आंदोलन सक्रिय है। पर इससे नेताओं और राष्ट्रवाद की दुहाई देनेवाली पार्टी का क्या लेना-देना। शादी तो शादी की तरह ही होगी ना। आखिर हिंदू परंपरा और संस्कृति का मसला है। इस लिए भाजपा के अध्यक्ष महोदय श्रीमान नितिन गडकरी जी के सुपुत्र निखिल के विवाहोत्सव के निमंत्रण पत्रों की कीमत ही एक करोड़ के आसपास थी। दावत तीन हिस्सों में हुई। पहली परिवार के निकट के लोगों के लिए थी, जिसमें दो हजार लोग थे, विशिष्ट लोगों के लिए हुई दूसरी दावत में देश भर से 15 हजार लोगों के शामिल होने का अनुमान रहा। 4 दिसंबर को जनता व पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए हुए तीसरे आयोजन में पूरा शहर ही आमंत्रित था। एक अखबार के अनुसार इसके लिए एक लाख तो निमंत्रण पत्र ही भेजे गए थे।
इस विवाह पर कितना खर्च हुआ होगा इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 3 दिसंबर को हुई सिर्फ विशिष्ट लोगों की पार्टी पर ही पांच करोड़ खर्च होने का अनुमान है। इसमें 70 किस्म के व्यंजन परोसे गए थे। हेमा मालिनी जैसे नौ सौ लोगों को देश भर से आने-जाने के लिए हवाई टिकट दिए गए थे। दिल्ली में कई पत्रकारों को भी मुफ्त के टिकट मिले (जो भी जानते हैं कि उनका जन्म सिद्ध अधिकार है)। सारा महाराष्ट्र और विशेषकर विदर्भ बिजली की कमी से त्राहि-त्राहि कर रहा है। किसानों को सिंचाई के लिए बिजली नहीं मिल पा रही है और लोगों को रोशनी करने के लिए पर चार दिन तक नागपुर शहर का जर्रा-जर्रा विवाह की खुशी में जगमगाता रहा (किस के हिस्से की बिजली से, आप समझ ही गए होंगे)। कम से कम अनुमान लगाएं तो भी इस पर दस करोड़ रुपये तो खर्च हुए ही होंगे। मोटे अनुमान से भी इन पार्टियों में 25 करोड़ के आसपास तो खर्च किया ही गया होगा। देखने की बात यह है कि गडकरी उन उद्योगपतियों में से हैं जिनका उत्थान उदारीकरण की लहर में पिछले दो दशकों में ही हुआ है। (अगर सरकार कह रही है कि अर्थिक वृद्धि की दर दो अंकों के निकट पहुंचनेवाली है तो कोई गलत तो है नहीं! इससे कोई और बड़ा प्रमाण हो सकता है।)। पिछले दशक में हुई एक लाख आत्म हत्याओं की बात छोडिय़े, विवाह की यह भव्यता और कितने लोगों के लिए प्रेरणा का कारण बनेगी, उसका अनुमान लगाईये। और वह प्रेरणा कितनी और मासूम युवतियों की हत्या करवाएगी और कितनों को आत्म हत्या के कगार पर ले जाएगी जरा उसकी सोचिए!
इस खर्च का एक और पहलू भी है। इसमें भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री और मंत्रीगणों के अलावा केंद्र के कई नेता भी शामिल हुए। ये नेता वहां किस तरह पहुंचे यह जानना भी कम मजेदार नहीं है। अरुण जेटली और लालकृष्ण अडवाणी चार्टर्ड एयर बस 320 से पहुंचे, रमेश पोखरियाल निशंक, शिवराज सिंह चौहान, रमण सिंह, नरेंद्र मोदी, यदुरप्पा, सुखबीर सिंह बादल विशेष विमानों से पहुंचे। इन में से कई अपने उदार उद्योगपति मित्रों के विमानों में आये (राजनेताओं और उद्योगपतियों के बीच के भाई चारे के, राडिया टेपों के बहाने, सामने आए आदर्श किस्सों से आज भला कौन अपरिचित है!) जैसे कि नरेंद्र मोदी अडाणी समूह के निजी जेट से पहुंचे तो येदुरप्पा बंगलुरू की एक कंपनी के जहाज में। इनके अलावा अनिल अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला, वी. धूत, विजय माल्या आदि उद्योगपतियों ने अपने निजी विमानों का इस्तेमाल किया। इसी तरह राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे, वरुण गांधी आदि भी पहुंचे। कुल मिला कर उस दिन नागपुर के हवाई अड्डे पर 30 से ज्यादा निजी और चार्टर्ड जहाज उतरे जिनमें से, जाहिर है कि वे मेहमान उतरे जो निखिल के विवाह के अवसर पर हो रहे भोज में शामिल होने आए थे। अगर गडकरी ने अपने बेटे के विवाह में करोड़ों खर्च किए तो क्या ऐरे-गैरे फटीचर चले आते! उन्होंने भी अवसरानुकूल रकम लगाई थी। वह क्या हो सकती है इसका अनुमान अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक के 20 दिसंबर के अंक में छपे जहाजों को किराए पर लेने की दरों से कुछ हद तक लगाया जा सकता है। इसके अनुसार सामान्यत: आठ-नौ सीटों वाले जहाजों का किराया प्रति घंटे दो से पौने तीन लाख तक होता है। दिल्ली से अगर नौ सीटर चैलेंजर नामक जहाज को लिया जाए और इसके आने जाने के समय व इंतजार के समय को जोड़ा जाए – छह घंटा उड़ान और चार घंटा प्रतीक्षा – तो कुल किराया 30 लाख से ऊपर बैठता है। बोईंग 320 का क्या किराया रहा होगा, अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि यह बड़ा विमान होता है और इसके बारे में पत्रिका के लेख में कुछ नहीं कहा गया है।
देखने की बात यह है कि नागपुर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का भी मुख्यालय है जो हिंदुओं का स्वयं को सबसे बड़ा ठेकेदार बतलाता है पर लगता है उसका एजेंडा हिंदू समाज मेें किसी तरह का सुधार न हो कर सिर्फ उसकी रूढि़वादिता को भुनाना और हिंदुओं में असुरक्षा पैदा कर देश के विभिन्न समुदायों के प्रति घृणा फैलना है।
यह अजीब संयोग है कि गडकरी के लड़के के विवाह के कुछ ही दिन बाद वाराणसी में गंगा की आरती के दौरान, एक धमाका हुआ जिसमें एक मौत हुई और कई घायल हुए। देखने की बात यह थी कि उसी घटना स्थल पर एक डेढ़ वर्ष की लावारिस बच्ची मिली जो बम धमाके से ज्यादा अपने मां-बाप के खो जाने से दहशत में थी। पुलिस आतंकवादियों का सुराग लगाने में अभी तक तो कामयाब नहीं हो पाई है, पर हां उसने बच्ची के मां-बाप का पता लगाने में जरूर सफलता हासिल कर ली है। लड़की हिंदू ही नहीं बल्कि ब्राह्मण परिवार की थी। उसे वहां मां-बाप जान-बूझ कर छोड़ गए थे। क्यों? इसका जवाब गडकरी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक-दूसरे से पूछना चाहिए। संभव है वे किसी सही नतीजे पर पहुंच सकें।
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