Thursday, March 17, 2011

औपनिवेशिक कानूनों का वर्तमान

January 30th, 2011
•रामशरण जोशी

करीब अस्सी बरस पहले भगत सिंह ने सही कहा था कि गोरे शासक चले जाएंगे, उनकी जगह काले शासक बैठ जाएंगे। अर्थात राज्य का वर्ग चरित्र यथावत रहेगा; नागरिक अधिकार एक्टीविस्ट डॉ. बिनायक सेन को रायपुर की सेशन अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनाकर साबित कर दिया है कि आजादी के 62-63 वर्ष के बावजूद भारतीय राष्ट्र राज्य का चरित्र औपनिवेशिक राज्य के चरित्र की नकल ही है। डॉ. सेन के साथ-साथ नक्सल सिद्धांतकार नारायण सान्याल और कोलकाता के तेंदूपत्ता व्यापारी पीयूष को भी यही सजा दी गई है। तीनों को उम्रकैद की सजा ‘राजद्रोह’ के अपराध के तहत मिली है।
स्वतंत्र भारत की सरकार को ‘राजद्रोह’ के दंड का कानूनी प्रावधान साम्राज्यवादी सरकार से विरासत में मिला है। 15 अगस्त, 1947 से पहले औपनिवेशिक सरकार ने 1870 में विद्रोहियों और आलोचकों को दंडित करने के लिए ‘राजद्रोह’ की कानूनी व्यवस्था की थी। इंडियन पेनल कोड (आई.पी.सी.) की धारा 124-ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाता है और दोष सिद्ध होने पर अपराधी को ताउम्र जेल में सड़ा दिया जाता है। ”स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है” जैसे युगांतकारी नारे के सूत्रधार और ‘गीता रहस्य’ जैसी ऐतिहासिक कृति के रचयिता बाल गंगाधर तिलक को भी अंग्रेजी सरकार ने इसी धारा के तहत मुकदमा चलाकर वर्षों तक कैद रखा था। तिलक की भांति सैकड़ों-हजारों देशभक्त स्वतंत्रता सेनानी रहे होंगे जिन्हें राजद्रोह की सजा काटनी पड़ी होगी। इस धारा का इतिहास बतलाता है कि अंग्रेजी हुकूमत ने सरकार के प्रति असंतोष, घृणा, और अवमानना फैलाने या पैदा करने जैसी गतिविधियों की रोकथाम के लिए इसकी व्यवस्था की थी। क्योंकि 1857 के विद्रोह से अंग्रेजी शासन हिल उठा था; अखबारों में हुकूमत के अत्याचारों की आलोचना होने लगी थी; देश में जागरुकता बढ़ती जा रही थी; सुधारवादी आंदोलन तेज हो रहे थे। अंग्रेजी राज इन तमाम गतिविधियों से भयभीत हो उठा था, विशेष रूप से प्रेस की आलोचना उसके लिए असहनीय होती जा रही थी। इसलिए अंग्रेजी राज ने ‘राजद्रोह’ का भय दिखाकर आलोचकों को आतंकित करने की असफल कोशिश की।
ऐसा नहीं है कि इस धारा की आलोचना नहीं हुई। अंग्रेजी राज में भी इस दमनकारी कानून को खत्म करने की मांग की गई थी। 1942 में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया ने इसकी समीक्षा भी की और तर्कसंगत बनाने की कोशिश की। लेकिन प्रीवी कौंसिल ने कोर्ट के फैसले को स्वीकार नहीं किया।
उम्मीद थी कि स्वतंत्र भारत की नेहरू-सरकार इस दमनकारी विरासत का अंत कर देगी। 1962 में सुप्रीम कोर्ट की संविधान-बैंच ने इसकी समीक्षा भी की थी। लेकिन, हैरत और अफसोस के साथ बतलाना पड़ रहा है कि इस बैंच ने इस धारा की वैधता को रद्द नहीं किया। कुछ सतही निर्देश जरूर जोड़े। हालांकि सर्वोच्च-न्यायालय ने 124-ए को कुछ हद तक निष्प्रभावी बनाया भी लेकिन अब तक के अनुभव इसके लोकतंत्र विरोधी प्रभाव की गवाही भी देते हैं। सरकारें अपने विरोधियों-आलोचकों को भयभीत करने और निरंतर उन्हें दबाए रखने के लिए इसका इस्तेमाल करती रहती हैं। कुछ समय पहले गुजरात सरकार ने भी कतिपय पत्रकारों को सबक सिखाने की गरज से इस हथियार का प्रयोग किया था। डॉ. सेन, सान्याल और पीयूष के प्रकरण में स्थिति स्वत: स्पष्ट है।
124-ए के लोकतंत्र, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार विरोधी चरित्र को ध्यान में रखकर अरुणा रॉय, हर्ष मंदर, सांसद रामदयाल मुंडा, एन.सी. सक्सेना, दीपा जोशी, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज जैसी हस्तियों ने सेशन कोर्ट के फैसले की आलोचना की है। इसे दुर्भाग्यपूर्ण और लोकतंत्र पर कुठाराघात बताया। उल्लेखनीय यह भी है कि मंदर, रॉय, द्रेज, मुंडा, सक्सेना जैसे लोग राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सक्रिय सदस्य भी हैं और सरकार की नीतियों को लोकोन्मुखी बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। पर रायपुर-फैसले ने इन सभी को हिलाकर रख दिया है। यह कहना ज्यादा ठीक रहेगा कि देश के लोकतंत्रवादी, समतावादी, मानवाधिकार-वादी और संवेदनशील क्षेत्रों में शासक वर्ग के वास्तविक इरादों को लेकर गहरी चिंताएं पैदा हो गई हैं। शंकाएं उठ रही हैं कि कहीं भारत को औपनिवेशिक काल में तो नहीं धकेला जा रहा है? इस स्वतंत्र नागरिक अधिकार विरोधी विरासत का निर्णायक ढंग से खात्मा क्यों नहीं किया गया? जब 1977 के जनता शासन काल में आपातकाल के प्रावधान पर इतनी हायतौबा मचाई जा सकती है तो इस दमनकारी धारा पर खामोशी किसलिए?
वास्तव में देश में ‘राजविद्रोह’ की अवधारणा पर नए सिरे से बहस होनी चाहिए। स्वतंत्र भारत के परिप्रेक्ष्य में इसे परिभाषित किया जाना चाहिए। हम क्यों भूल जाते हैं कि औपनिवेशिक सरकार ने बिस्मिल, अशफाक, भगत सिंह, सुखदेव, चंद्रशेखर जैसों को ‘आतंकवादी’ घोषित किया था। वीर सावरकर जैसे सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों को ‘कालापानी’ की सजा दी गई थी। क्या स्वतंत्र राष्ट्र होने के बावजूद हम दमनकारी व भारतविरोधी चश्मे से आज के भारत और उसके नागरिक को देखेंगे? यदि देश से सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक विषमताओं का अंत करने के लिए ‘मुक्ति संघर्ष’ होते हैं तो इन्हें ‘राजद्रोह’ कैसे घोषित किया जा सकता है? यदि इस तरह के संघर्षों को ‘राजद्रोह’ की संज्ञा दी जाती है तो फिर मजबूरन यह निष्कर्ष निकालना पड़ेगा कि गुलाम भारत के ‘श्वेत शासकों’ और स्वतंत्र भारत के ‘काले शासकों’ में कोई फरक नहीं है। दोनों प्रकार के शासकों का ‘चाल-चलन-चरित्र’ सजातीय है!
हैरत यह भी है कि ‘राजद्रोह’ को शोषण-उत्पीडऩ-असमानता विरोधी संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जा रहा है। क्या आर्थिक अपराधों को इस श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? हर्षद मेहता-कांड, हवाला कांड, 2-जी स्पेक्ट्रम कांड, राडिया कांड, राष्ट्रमंडल खेल कांड, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी कांड जैसे महाघोटाले समानांतर ‘काली अर्थव्यवस्था’ का निर्माण नहीं कर रहे हैं? क्या इस काली अर्थव्यवस्था से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को आघात नहीं पहुंच रहा है? क्या यह देश के साथ विश्वासघात नहीं है? क्या यह एक प्रकार का ‘सफेद पोश षड्यंत्र’ नहीं है? तब इन घोटालों-महाघोटालों को ‘राजद्रोह’ की संज्ञा क्यों न दी जाए? क्यों न आर्थिक अपराधियों (काला बाजारियों, हवालाखोरों, भ्रष्टाचारी नेता व अफसर आदि) को 124-ए के तहत उम्रकैद की सजा दी जाए? ये सफेदपोश षड्यंत्रकारी भारतीय राष्ट्र राज्य के लिए कहीं ज्यादा घातक हैं बनिस्पत डॉ. सेन जैसे हजारों अनाम समतावादी मानव सेवियों के।
यहां सवाल डॉ. सेन और उनके साथियों का नहीं है, मूल मुद्दा है राज्य की दृष्टि का, नागरिकों के साथ उसके व्यवहार का। न्याय और न्यायिक प्रक्रिया, दोनों ही राज्य के चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि राज्य का चरित्र विषमता विरोधी और समता व जन समर्थक है तो न्यायपालिका के व्यवहार में इसका प्रतिबिंबन होगा ही। वैश्वीकरण के युग से पहले प्राय: न्यायालयों का व्यवहार श्रमिक संगठनों और श्रमिकों के पक्ष में हुआ करता था। आज इसमें अंतर आया है। श्रमिक संगठन व आंदोलन कमजोर हुए हैं। यह अकारण नहीं हुआ है। विकत दो दशकों में असंतोष व असमानता का फैलाव बढ़ा है; राज्य का एजेंडा बदला है; संवेदनहीन झटपटिया पूंजीपति वर्ग राज्य के विभिन्न अंगों (कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका) पर काबिज होने लगा है। इस वर्ग को संभावित विद्रोह से आत्मरक्षा के लिए औपनिवेशिक हथियारों की याद आ रही है। इन हथियारों से ही किलेबंदी की जा सकती है और स्वेच्छाचारिता के साथ किसी भी प्रतिरोधी नागरिक (सामान्य कार्यकर्ता से लेकर बुद्धिजीवी व लेखक तक) को ‘राष्ट्र द्रोही’, ‘राष्ट्र गद्दार’ आदि घोषित किया जा सकता है। इसीलिए वैश्वीकरण को उपनिवेशवाद का ‘नया अवतार’ या नवउपनिवेशवाद कहा जाता है। अत: डॉ. सेन के प्रकरण को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है।

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