Written by संजय कुमार
आरोप है कि दलित सवालों को मीडिया ने लगभग दरकिनार सा कर दिया है. सवाल दलित मुद्दों का हो, दलित साहित्य का या फिर कोई अन्य मुद्दा. मीडिया में इसे उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है. प्रतिनिधित्व के नाम पर केवल दलित उत्पीड़न और बलात्कार को स्थान मिल रहा है. वैचारिक सोच को दरकिनार करने की साजिश हो रही है. दलित विमर्श पर फोकस को लेकर अब कोई मीडिया पक्षधर नहीं दिखता है. हर खबर को वस्तु बनाकर पेश करने की होड़ के सामने 'दलित विमर्श' ही क्या मानवीय पहलू भी दूर हो चुके हैं. जहां तक मीडिया में दलित मुद्दों को उचित प्रतिनिधित्व देने की बात है तो यहां भी प्रश्न बाजारवाद का ही सामने आता है. जो दलित विचार से जुड़े हैं वही अलग से दलित विमर्श के नाम पर पत्र-पत्रिकाएं निकालकर दलित साहित्य, विमर्श आदि को जगह दे रहे हैं. दलित साहित्यकार डा. पूरण सिंह मानते हैं कि मीडिया में दलित सवालों को उचित प्रतिनिधित्व मिलना तो दूर उन्हें गिना तक नहीं जाता. मीडिया, जिसे देश के विकास में चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसके मालिक भी सवर्ण मानसिकता के लोग हैं. उन्होंने इस समाज का सदियों से शोषण, अपमान और तिरस्कार किया है. ऐसे में वो कतई स्वीकार नहीं करेंगे कि उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाए. मै तो यह कहूंगा कि मीडिया चाहे तो दलितों के यथार्थ को जनसामान्य तक पहुंचाने में सर्वोच्च भूमिका निभा सकती है. मीडिया के शीर्ष पर बैठे ये लोग जिस दिन मित्रता, शक्ति, विश्वमैत्री, प्रेम एवं बंदुत्व की भाषा बोलना सीख लेंगे, उस दिन यह सवाल अप्रासंगिक हो जाएगा.
एक सच यह भी है कि देश की मीडिया राजनीति, अपराध एवं मनोरंजक खबरों से पटी रहती हैं. अखबारों के रविवारिय व संपादकीय पृष्ठों में भी दलित सवालों और रचनाओं को कोई स्थान नहीं मिल रहा. विचार व साहित्य में भी अंबेडकर और ज्योति बा फुले जैसे दलित विचारकों के विचार नहीं के बराबर आते हैं. चर्चित दलित पत्रकार एवं साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय मानते हैं कि भारत की सवर्ण मीडिया शुरू से ही बेईमान और दोगले चरित्र की रही है. उसकी कथनी और करनी में अंतर है. सच तो यह है कि पिछले एक दशक से वे दलित सवालों को प्रतिनिधित्व नहीं दे रहे हैं. वह दलितों को नेताओं की तरह रिझाते हैं. वह मार्केट तलाश करते रहे हैं, जो उन्हें मिल भी रहा है. दलित समाज के बुद्धिजीवियों को अपने स्वतंत्र मीडिया की स्थापना कर उसका विकास करना चाहिए.
वहीं कवि-पत्रकार कैलाश दहिया कहते हैं मीडिया दलित अत्याचारों को तो उठा रहा है, लेकिन दलितों का जो दृष्टिकोण है उसे नजरअंदाज किया जा रहा है. दलित चाहता क्या है, उस पर मीडिया बात नहीं करता. आरक्षण को सामाजिक स्तर पर नहीं देखता है बल्कि उसके आर्थिक आधार को ही सामने लाता है. दलितों के राजनीतिक सवाल को नहीं उठाता बल्कि दलित नेतृत्व की बुराई ही करता रहता है. दलित राजनीति के साकारात्मक बातों को मीडिया निगल जाता है. कबीर व तुलसी के बीच में जो भेद है, उसे मुद्दा नहीं बनाता. कबीर 'दलितों' के सदगुरु हैं, जबकि तुलसी 'वर्ण व्यवस्था' के पोषक.
कहने का तात्पर्य यह है कि पूरी व्यवस्था ही सवर्णों के हाथ में है. ऐसे में मीडिया में दलितों और उनसे संबंधित मुद्दों की उपेक्षा कोई आश्चर्य की बात नहीं. किसी भी मीडिया में दलितों का प्रतिनिधित्व साफ-साफ दिखाई देना चाहिए. जहां तक योग्यता की बात है तो यह कुतर्क के सिवाय कुछ नहीं हैं. जब अमेरिका में डायवर्सिटी का सिद्धांत लागू हो सकता है तो हमारे यहां क्यों नहीं? अंतर्मन में झांकने की जरूरत है. अपनी बात आम-खास तक पहुंचाने के लिए दलितों को एक अदद मीडिया की अलग से जरूरत है. अगर ऐसा होता है तो इस दिशा में एक साकारात्मक पहलू होगा क्योंकि मीडिया के चरित्र से हर कोई वाकिफ है.
No comments:
Post a Comment