Tuesday, March 15, 2011

गजानन माधव 'मुक्तिबोध' की रचनाएँ

एक साहित्यिक की डायरी.

जब उससे मैं सड़क पर मिला, मुझे लगा कि वह ठीक बात करने के मूड में नहीं है। राह में मुझे देखकर वह खुश नहीं हुआ था। उसकी शर्ट की पीठ पसीने से तर-बतर थी, बाल अस्त-व्यस्त थे। और चेहरा ऐसा मलिन और क्लान्त था मानो सौ जूते खाकर सवारी आ रही हो। तत्काल निर्णय लिया कि वह सरकारी दफतर से लौट रहा है, कि वह पैदल आ रहा है,कि वह वहा अहलकार की किसी ऊंची या नीची साहित्यिक या राजनीतिक श्रेणी का ही एक हिस्सा है, वह मुझे फस्र्ट क्लास सूट-बूट में देख सिर्फ आगे बढ़ जाना चाहता है, क्योंकि वह बगल में खड़ा होकर, कॅण्ट्रास्ट खड़ा नहीं करना चाहता।

पुराने जमाने में भूखे व्यक्ति को अन्न देने से जितना पुण्य लगता था, आधुनिक काल मे शायद उससे भी अधिक पुण्य श्रम से मलिन और थके हुए व्यक्ति को एक कप गरम-गरम चाय प्रदान करते हुए दो मीठी बातें करने से लग जाना चाहिए। मेरे इस तर्क का आधार यहा है कि आज-कल सच्चा श्रम, जिससे चेहरा सूख जाता है, पसीना आता है, कपड़ों की इस्तिरी बिगड़ जाती हैं, ओछे हुए बाल असत-व्यस्त हो जाते हैं, उँगलियों को स्याही लग जाती है, आँखें कमजोर हो जाती हैं, अपने से बड़े पदाधिकारियों के मारे दिल धक-धक करता है। मतलब कह कि कम से कम मानवोचित सुविधाओं में अधिक से अधिक से श्रम की मनुष्यमूर्ति-दुनिया को तो छोड़ ही दीजिए - अपने भाइयों की, उनकी आँखों में भी हजार सहानुभूतियों के बावजूद, सूक्ष्म और स्थूल अनादार की पात्र है, असम्मान की पात्र है। टैªजडी तो यह है कि ऐसी मनुष्य-मूर्ति अपने स्वयं की आँखो में भी अनादर और सम्मान की ही पात्र होती है। इस विश्व-व्यापी और अन्तर्यामी अनादार और असम्मान की धूल धारण कर, हृदय में बासी कडु़आ जहर लिये हुए थके, क्लान्त और श्रमित व्यक्ति जब अपने दफ्तरों से बाहर दो मील दूर अपने घर की तरफ लुढ़कते-पुढ़कते निकलते हैं तो उनके मन में और हमारे मन में श्रम का कितना महान् आध्यात्मिक मूल्य अवतरित होता है, वह वर्णनातीत है !

इस तिराहे पर खड़े होकर, मुझे उस व्यक्ति की जरूरत महसूस हुई। वह मेरा परिचित था। आखिर, जब मैं इस कोने में अकेला खड़ा हू तो वह मुझसे बातचीत तो कर ही सकता था। मुझे लगता था कि जब तक मैं अपनी बकवास पूरी नहीं कर लूगा मुझे चैन न मिलेगी।

मैं पान चबा रहा था। सुर्खरू था। ऐसे मौके पर मनुष्य स्वभावतः बुद्धिमान हो जाता है। उसमें आत्म-विश्वास की तेजस्विता रहती है- वह क्षण-स्थायी ही क्यों न हो । वह आशावादी होता है। ह नसीहत दे सकता है। वह दूर-दृष्टा होता है, चाहे तो पैगम्बर हो सकता है, चाहे तो वह रोमैण्टिक प्रेमी बन सकता है। वाह-वाह ! सुर्खरूपन, तेरा क्या कहना ! बिना श्रम के जो प्राप्ति होती है, उपलब्धि होती है, वही तू है ! पल-भर मैं संकोच की गटर-गंगा में डूब गया। मैं रीअली (सचमुच) फस्र्ट क्लास कपड़े पहने था। बेहतरीन सूट। मैं गया था शहर के ऊँचे दरजे के कुछ लोगों से मिलने। वहाँ या तो महँगी किस्म के खदी के कपड़े चलते थे या ये कपड़े। आजकल मै। आधा बेकार हूँ। अपने ही घर में शरणार्थी हूँ। लिहाजा, कुछ बड़े आदमियों के यहाँ जाकर, एक असिस्टेण्ट डायरेक्टर के पद ( वह जगह अभी खाली नहीं हुई थी, लेकिन सुना था कि होनवाली थी) के लिए कोशिश कर रहा था।और ज्यों ही आप ऐसे कपड़े पहन लेते हैं, अपने धुले-पुँछेपन को स्वास्थ्य की संवेदना मानते हुए( थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही) अपने को 'बाश्शा' अनुभव करते हैं ! गौरव और गरिमा की यह संवेदना !! तेरा नाम सत्य है, तेरा नाम शिव है, तेरा नाम है सौनदर्य ! लेकिन शहर के उस फैशनेबल मुहल्ले के अपने आत्मीयों से लौटकर मुझे आकसिमक यह भावना हुई कि मैं अकेला हूँ, कि अपनी असली श्रेणी के साथी के साथ बैठकर ही मैं अपने आनन्द का वितरण और उपभोग कर सकूँगा। और इसी अन्तःप्रवृत्ति के अन्दरूनी धक्के के फलस्वरूप मैं आॅफिस से लौटते हुए उस व्यक्ति को आमन्त्रण दे बैठा।

लेकिन ज्यों ही मैं उसके साथ चाय पीने लगा, हम दोनों के बीच एक जहरीली चुप्पी की रेख दूरी का माप-छण्ड बनने की कोशिश करने लगी। मैंने उदारता की पराकाष्ठा करते हुए एसके लिए एक कप चाय और मँगवा दी !

मैं अपने शरीर पर पड़े हुए कपड़ों से लगातार सचेत था। ये वस्त्र ही हैं कि मुझे उससे दूर ठेले जा रहे थे ! इस संकोच को दूर हटाने के लिए मैंने कोट उतारकर रख दिया ! गरमी के बहाने शर्ट के बटन इस प्रकार खोल दिये कि अन्दर उलटी पहनी हुई जीर्ण-शीर्ण फटी बनियान लोगों की दिखाई दे सके !
मैं चाहता था कि वह मेरे अन्दरूनी नक्शे को देखे। लेकिन शायद वह अपनी धुन के धुँधलके में उड़ते हुए थके-हारे पंछी की भाँति नीड़ में समाना चाहता था। घर लौटना चाहता था।
मैं अपने को उससे एक गज ऊँचा अनुभव न करूँ और सच्ची मेहनत का शाप न झेल सकने के कारण उससे एक गज नीचा भी न अनुभव करूँ, इसलिए उसका जी खुश करके उसके साथ हँस बोल लेने के लिए मैंने उससे पूछा, “कल आल इण्डिया रेडियो से मैंने आपकी कहानी सुनी। बहुत अच्छी थी ! पढ़ी भी अच्छी गयी !“उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा-यह जानने के लिए कि मेरा इरादा क्या हो सकता है। उसने प्रभुतावश कहा, अजी, आप तो बस आप तो आलोचक हैं,नुक्स बताइए! मैंने विश्वास दिलाया कि उसकी कहानी बहुत अच्छी थी, क्योंकि वह सचमुच बहुत अच्छी थी। लेकिन उसका जी नहीं भरा।उसने मेरी तरफ गौर से देखा। वह एक पतला-लम्बा चेहरा था। जरूरत से ज्यादा उंचा माथा-शयद आगे के बाल कम होने के कारण। मुझे ऐसे चेहरे पसन्द हैं। ऐसे लोगों में आप डूब सकते हैं और आपकी डुबकी को वे एन्जॅाय करने मजा लेने की ताकत रखते हैं । कम से कम मेरा खयाल है। मेरे द्वारा की गयी प्रशंसा के प्रति उसकी सन्देह की द्ष्टि मुझे बहुत-बहुत भायी। एक सच्चा लेखक जानता है कि वह कहां कमजोर है कि उसने कहां सच्चाई से जी चुराया है, कि उसने कहां लीपा-पोती कर डाली है, कि उसने कहां उलझा-चढ़ा दिया है, कि उसे वस्तुतः कहना क्या था और कह क्या गया है,कि उसकी अभिव्यक्ति कहां ठीक नहीं है।वह इसे बखूबी जानता है। क्योंकि वह लेखक सचेत है। सच्चा लेख्क अपनेखुद का दुश्मन होता है। वह अपनी आत्म-शान्ति को भंग करके ही लेखक बना रह सकता है। इसीलिए लेखक अपनी कसौटी पर दूसरों की प्रशंसा को भी कसता है और आलोचना को भी। वह अपने खुद का सबसे बड़ा आलोचक होता है।
बेचारा सर्वज्ञ शब्द-तत्पर आलोचक यह सब क्या जाने ! वह केवल वाह्य प्रभाव की दृष्टि से देखता है। आलोचक साहित्य का दारोगा है। माना कि दारोगापन बहुत बड़ा कर्तव्य है - साहित्य,संस्कृति,समाज ,विश्व तथाब्रह्माण्ड के प्रति। लेकिन मुश्किल यह है कि वह जितना उंचा उत्तरदायित्व सिर पर ले लेता है, अपने को उतना ही महान अनुभव करता है। और सच्चा लेखक जिततनी बड़ी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले लेता है, स्वयं को उतना अधिक तुच्छ अनुभव करता है। उसे अपनी अक्ष्मता और आत्मसीमा का साक्षत् बोध होता हरता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि अभिव्यक्ति की तुलना जी में धड़कनेवाले केवल वस्तु सत्य से ही नहीं करता, वरन् अपने स्वयें के साक्षात्कार सामर्थ्य की तुलना उस वस्तु-सत्य की विशालता से भी करता है। आत्म-सत्य भी कह सकते हैं उसे, जिसकी धारणा के लिए उसे लगता है कि जितनी आवश्यक मनःशक्ति उसमें चाहिए उतनी नहीं है। कभी-कभी तो उसे केतल आभास-संवेदन से ही काम चला लेना पड़ता है। तब अपनी विषय-वस्तु की विशालता और गहराई की तुलना में लेखक अपने को हीन क्यों न अनुभव करे ,जब कि वह खूब जानता है कि उसने जो कुछ वस्तुतः सम्पन्न किया है उससे भी अच्छा किया जा सकता था। विषय-वस्तु के प्रति लेखक का यह संवेदनात्मक उत्तरदायित्व,उसकी मनःशक्ति को किस तरह भंग किये रखता है,यह किसी सच्चे लेखक से ही जाना जा सकता है।

मैंने उस दुबले-पतले चेहरे के सन्देह-भाव को देखा और बात पलटने की दृष्टि से कहा, “यह जरूर है कि आपकी कहानी बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक थी।"

उसने मुसकराकर जवाब दिया, "मनौवैज्ञानिक न होती तो क्या होती ! मन में ही घुलते और घुटते रहले के सिवा और क्या है जिन्दगी में ?"

मैंने उससे असहमति प्रकट करनी चाही। मैंने पूछा, तो क्या आप कुण्ठा को मनोवैज्ञानिकता की जननी मानते हैं।

"कुण्ठा-वुण्ठा , मैं नहीं समझता, “उसने जवाब दिया, “हर जमाने में गरीबों की मुश्किल रही है हर जमाने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है- बहुत विशाल श्रेणी का ,भारतीय जनता का ,मेहनतकश का।“ वह आगे कहता गया, “पिछला कौन-सा ऐसा युग था जिसमें कुण्ठा न हरी हो ?... और फिर...और फिर...कुण्ठा का मतलब क्या है ? उसने समझाते हुए कहा, कुण्ठा का आधिपतय तो तब समझना चाहिए जब कुण्ठा के बुनियादी कारणों को दूर करने की बेसब्री और विक्षोभ न हो। हाँ, कुण्ठा का अगर फ्रॅायडवाद और मार्क्सवाद की संकर सन्तान है।

वह दुबला-पतला चेहरा मेरे सामने उठावदार और उभारदार हो गया, उसमें भव्य गरिमा प्रतिबिम्बित हो उठी। मुझे लगा-उसका दिमाग खुद-ब-खुद सोचता है। उस वयक्ति में मेरी दिलचस्प ज्यादा बढ़ गयी। मैं उसके विचारों को आदरपूर्वक सुनने लगा।उसने मुझे बोलने का अवसर न देते हुए कहा, “मैं तो सिर्फ मेहनत पर, अकारथ मेहनत पर, उस मेहनत पर जो अपना पेट भी नहीं भर सकती, उस मेहनत पर जो बहुत सज्जन है, उस सीन-शीनल श्रम पर लिखनेवाला हूँ, उस श्रम का चित्रण करना चाहता हूँ, जिसका बदला कभी नहीं मिलता और जिसे आये-दिन आत्मबलिदान और त्याग की नसीहत दी जाती है ! मैं उस भयानक मशीन का चित्रण करने वाली कहानी नहीं, बल्कि उपन्यास लिखने वाला हूँ, जिसमें हर आदमी वह नहीं है जो वह वस्तुतः है या होना चाहेगा। उसमें मशीन का दोष नहीं। मशीन चलानेवालों का गुरुतर अपराध है ! इस मशीन की लौह-नलियों में पडत्रे हुए मानती श्रम का मैं चित्रण करना चाहता हूँ ! कहिए, आपका क्या खयाल है ?

“मैंने ढाई मिनिट तक जैसे साँस ही नहीं ली। उसके भाव-विचार ने न केतल मुझे प्रभावित किया था, वरन् दिमाग पर दबाव डाल दिया था। मेरे सिर पर वजन हो गया था।

मैंने धीरे-धीरे कहा, “जरूर चित्रण कीजिए, जरूर लिखिए !

“क्यों, लेकिन आप चुप हो गये ! "

मैंने कहा, “चुप नहीं, मैं सोच रहा थ कि सिर्फ बहुत बड़ी थीम (विषय) उठा लेने से काम नहीं चलता। यह जरूरी है कि सिर्फ उतना ही अंश उठाया जाये जिसका मन पर अत्यधिक आघात हुआ हो। बड़ी भारी बिल्डिंग खड़ी करने को बजाय छोटी-सी कुटिया खड़ी की जाये तो अधिक अच्छा होगा।"

उसने कहा, “सही है। आसमान का चित्रण सधे न सधे, सामने के मैले डबरे में डबरे में सूरज के बिम्ब का चित्रण मुझसे सध भी जायेगा।“ उस व्यक्ति के इस वचन में आत्म-दया की हलकी-सी गूँज मुझे सुनाई दी।
मैंने बेरूखी से कहा, “इस आत्म-दया की जरूरत नहीं। एक सच्चे आर्टिस्ट का संघर्ष बहुत घुमावदार होता है ! हाँ, लेकिन भीतर सूरज का प्रतिबिम्ब धारण किये हैं। पूरा वस्तु-सत्य इस इमेज में आ गया है। इसीलिए पत्रवह महत्वपूर्ण है। हमारा परिश्रम भी तो थोड़ा नहीं है। हमारी साँस भी तो उखड़ी-उखड़ी है। डबरे हुए तो क्य हुआ, हैं तो प्रकृति-जन्य !"

एकाएक जैसे मैंने उसकी कमजोर रग पकड़ ली। उसमें आत्मविश्वास की कमी थी। जब स्रिफ सीना तानकर लोग खोटा माल खपा देते हैं और प्रभववादी होने के बहाने हर मामूली को गैर-मामूली बनाकर दुनिया के सामने उसे पेश करते हैं तो जो चीज सही और सच्ची है वह क्यों न ऐंठे ?

मैंने उससे कहा, “आजकल सच्चाई का सबसे बड़ा दुश्मन असत्य नहीं स्वयं सच्चाई ही है, क्योंकि वह ऐंठती नहीं, सजजनता को साथ लेकर चलती है। आजकल के जमाने में वह है आउट आफ डेट। जी ! उसलिए सत्य जरा युयुत्सु बने, वीर बने तभी वह धक सकता है, चल सकता है, बिक सकता है।"

वह और भी अप्रतिभ हो गया। किन्तु उसके चेहरे पर भीतर की खुशी का ज्यादा उजाला लाने के लिए मैंने उसे कहा, “बोल्डनेस हैज जीनियस ( औद्धत्य की अपनी प्रतीभा है)। गेटे का वाक्य है। मैं इसे उल्टा करके पढ़ता हूँ।“ मेरे कीमती कपड़ों के ठाठ ने मुझे कुछ उत्साहित तो कर ही दिया था (लेकिन क्या मैं सच कह रहा हूँ ?) जो हो ,हम दोनों जब बिदा हुए, बहुत दोस्त बनकर बिदा हुए।
प्रस्तुतकर्ता Rangnath Singh पर 5.7.09 2 टिप्पणियाँ
लेबल: एक साहित्यिक की डायरी, डबरे पर सूरज का बिम्ब
25 JUNE, 2009

कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी: दो
बात चल रही थी आलोचना और काव्य पर। यशराज न जाने किस बात पर चीखकर टेबल पर घूँसे मारन लगा और बोला, ”हाँ, आलोचना में फ्राॅड होता है, किन्तु काव्य में भी होता है। एक तो फ्राॅड जान-बूझकर किया जाता है अर्थात् काव्य में लेखक जो दृष्टि अपनाता है वह उसकी अन्तर्दृष्टि नहीं होती। कवि एक अभिनेता भी है। सफलतापूर्वक अभिनय करने के बाद भी वह अभिनय ही है। वह असल की नकल है। उसमें असल की बू हो सकती है लेकिन वह असल नहीं है।”

मुझे हँसी आ गयी है। यशराज के असाहित्यिक शब्द ’असल’ और ’नकल’ मुझे भा गये। बड़े अच्छे शब्द हैं ! एक बात और भी महत्वपूर्ण हुई। वह यह कि यशराज काव्य का सत्यत्व वहाँ मानता है जहाँ लेखक अन्तर्दृष्टि को दरकिनार रखते हुए अभिनेतृत्व करता है। तो मतलब यह कि यशराज यह मानता हे कि मानसिक प्रतिक्रिया को ठीक-ठीक अनुपात में ज्यों का त्यों देखने के अनुरोध के महत्व को स्वीकार करना है ! यही न ? लेकिन मैंने यह बात जबान से नहीं निकाली। मैं तो सिर्फ सुन रहा था। यशराज ने कहा, काव्य में एक दूसरे ढ़ंग का फ्राड भी होता है।

मैंने कहा , ”कौन-सा ?”
यशराज ने जवाब दिया, यह फ्राड तब होता है जब लेखक यह जानता ही नहीं कि वह फ्राॅड कर रहा है। लेखक को पूरा विश्वास होता है कि जो बात वह कह रहा है, सही कह रहा है। अर्थात् जहाँ लेखक ईमानदारी से मूर्ख हेता है। लेखक को यह भी विश्वास होता है कि उसकी बात केवल सच्ची ही नहीं वरन् सुन्दर भी है और कल्याणकारी भी। लेखक पूर्ण निष्ठा के साथ बात कर रहा है। फिर भी उसकी निष्ठा फ्राॅड को जन्म देती है या जन्म दे सकती है।

"-मतलब यह कि लेखक की निष्ठा और आत्मविश्वास कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो उसके साहित्य को फ्राॅड बन जाने से बचाये। दूसरे शब्दों में, लेखक सम्पूर्ण निष्ठा और आत्मविश्वास के साथ भी बड़ा ही सन्तुलित फ्राॅड कर सकता है। ध्यान रखो कि इसका अर्थ यह भी नहीं कि निष्ठा और आत्मविश्वास ऐसी शक्ति है जो अनिवार्य रूप से और हमेशा असहित्य को फ्राॅड ही बनाती है। किन्तु अपनी बात पर निष्ठा और आत्मविश्वास होने मात्र से साहित्य निर्मल, छल-रहित, फ्राॅडलेस नहीं होता।”

यशराज की उत्तप्त मुखमुद्रा देखकर मुझे सचमुच हँसी आ गयी। मैंने ठठाकर हँसते हुए कहा, ”तो तुम क्या सोचते हो ? लेखक अपने ही खिलाफ, अपने वस्तुतत्व के विरुद्ध, अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं के विरुद्ध, जासूसी करे और सी.आई.डी.- गिरी करे ? इतना बेवकूफ लेखक नहीं होता !”

यशराज ने झुझलाते हुए कहा, ”मजाक मत करो, असलियत को देखो !”

इस बात पर मुझे और हँसी आ गयी। फिर भी यशराज की बात का आदर करते हुए मैंने कहा, ”अच्छा, तो इस दूसरे किस्म के फ्राॅड को जरा और समझाइए ! मैं ध्यानमग्न होकर सुन रहा हूँ !”यशराज बोलता गया, ”बस, तुम सरीखे श्रोता मुझे मिल जाये तो मजा आ जाये। आजकल ईमानदार श्रोताओं की बड़ी कमी है। वक्ता तो बहुत ईमानदार होते हैं !”

दोनों की बात ठहाकों में डूब गयी ! यशराज कहता गया -

”लेखक ईमानदारी से फ्राॅड वहा करता है जहाँ उसे मालूम ही नहीं हेता है कि वह स्वयं फ्राॅड को जन्म दे रहा है। दूसरे शब्दों में, उसक विचार या उसकी अनुभूतियाँ वस्तुतत्व के वस्तुमूलक आकलन पर आधारित नहीं होतीं। अन्यथा, वे ऐसी होती हैं कि जो जीवन के यथार्थ से नियन्त्रित न होकर उसके आत्मबद्ध दृष्टिकोण के फलस्वरूप विक्षेप-ग्रस्त ही होती हैं। ऐसी स्थिति में लेखक की भावना का ज्ञानात्मक आधार गलत होता है। इस ज्ञानात्मक आधार की विकृति के फलस्वरूप उसकी भावना भी विकार-ग्रस्त ही होती है। दूसरे शब्दों में लेखक जब केवल सब्जेक्टिव होता है- भले ही वह आब्जेक्टिविटी का आभास निर्माण करता रहे- अर्थात् जब वह अपनी तथाकथित अन्तर्दृष्टि को वस्तुतत्व पर थोपता है या अपनी तथाकथित अनुभूति के रंगीन चश्मे से वस्तुतत्व को देखता है तब उसके साहित्य में निस्सन्देह फ्राॅड उत्पन्न होता है !”

यहाँ मैंने यशराज की लगाम थाम ली। मैंने कहा, ”मिस्टर, जब हम काव्य के वस्तुतत्व की बात करते हैं तब हम उस भाव-समुदाय की बात कर रहे हैं जो कि कवि की वाणी द्वारा व्यक्त होता है।”

यशराज उत्तेजित हो उठा। उसने आवेश से कहा, ”मैं काव्य के वस्तुतत्व के बारे में तुम्हारी परिभाषा मानने के लिए तैयार नहीं हँू। काव्य में एक मानसिक प्रतिक्रिया या प्रतिक्रियाओं की श्रृंखला व्यक्त होती है। वस्तुतः यह मानसिक प्रतिक्रिया नहीं है जिसके प्रति और जिसके बारे में यह प्रतिक्रिया हुई है। अर्थात् मैं भावों के आलम्बन की बात कर रहा हूँ समझ गये हजरत!”

मैंने खीजकर कहा, भावों के आलम्बन की बात करो। काव्य के वस्तुतत्व में तो भाव और उसका आलम्बन दोनों आयेंगे। हाँ, आगे चलो !

यशराज ने कहा, मैं तो अपने शब्दों में बात करूंगा।

मैंने बीच ही में टोककर जवाब दिया, जिसका सम्बन्ध उसकी बात से कुछ भी नहीं था। मैंने कहा,क्या तुम यह मानते हो कि वैसा फ्रॅाड बहुत सुन्दर भी हो सकता है, बहुत मनमोहक और बहुत आकर्षक !यशराज ने एकदम कहा, यही तो उसकी खराबी है ! चूँकि वह मनमोहक और आकर्षक होता है इसलिए वह पाठकों को अधिक प्रभावित करता है ! किन्तु इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि फ्रॅाड भी एक कला है- ललित कला। और जो फ्रॅाड है वह ललित कला भले ही हो, वह व्यक्तिगत ईमानदारी के आधार पर उपस्थित ललित कला नहीं है। मैंने सन्त्रस्त हो कर कहा, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो ? उसने जवाब दिया, भावना का ज्ञानात्मक आधार जब तक वस्तुतः शुद्ध है तभी तक वह भावना फ्रॅाड नहीं है। किन्तु ज्ञान का भी निरन्तर प्रसार और विकास होता हैं चूँकि ज्ञान के क्षेत्र में ही भावना विचरण करती है इसलिए ज्ञान को अधिकाधिक मार्मिक यथार्थ-मूलक और विकसित करने का जो संघर्ष है वह वस्तुतः कलाकार का सच्चा संघर्ष है। यदि कवि या कलाकार यह संघर्ष त्याग देता है, तो वह सचमुच ईमानदार नहीं है। सच तो यह है कि व्यक्तिगत ईमानदारी के भीतर ही एक बहुत बड़ा संघर्ष होता है। दूसरे शब्दों में, कला के क्षेत्र में व्यक्तिगत ईमानदारी स्वयं सिद्ध नहीं वरन् प्रयत्न-साध्य होती है !वे क्या इसका मतलब यह है कि जो लेखक लेखन-कार्य के सम्बन्ध में पूर्णतः सचेत नहीं है अर्थात् जिस लेखक की रचना अनायास, बिना परिश्रम क सहज रूप से प्रसूत होती है उस लेखक में व्यक्तिगत ईमानदारी का अभाव है। हम एक उदाहरण लें। शैले का काव्य भावनाओं का अनायास पूर कहा गया है। चँूकि वह काव्य प्रयत्न-साध्य नहीं था, वरन् एक विशेष अर्थ मे अनायास था, इसलिए तुम्हारे अनुसार उसमें व्यक्तिगत ईमानदारी का अभाव रहा है।यशराज इस जगह आकर कुछ संकोच मे पड़ गया। वह देर तक मेरी बातों का जवाब न दे सका। व्यक्तिगत ईमानदारी के सम्बन्ध में उसने आगे जो स्पष्टीकरण दिया वह बड़ा ही मजेदार है।

यशराज कहता गया - तुमने एक बड़ी अच्छी कठिनाई उपस्थित कर दी। लेकिन हाँ उसका भी हल है। शैले की बहुत सी ऐसी कतिवाएँ हैं जिनका ज्ञानात्मक आधार उस युग विशेष की परिस्थिति के घेरे के भीतर- पहले के कवियों के ज्ञानात्मक आधार से अधिक विकसित था। शैले की रोमैण्टिक दृष्टि, क्लासिकल पुराण-पन्थी कवियों की रूढ़िवादी दृष्टि की तुलना में, कहीं अधिक पारदर्शी थी। साथ ही युग की उत्थानशील शक्तियों ने शैले को जो उतकृष्ट मानवतावादी स्वप्न देकर रखा था उस स्वप्न से वह कवि प्रेरित था। व्यक्ति की आत्मगरिमा तथा व्यक्ति के भीतर की उत्थानशील स्निग्ध आध्यात्मिक सम्भावनाएँ शैले के काव्य में प्रकट होती हैं। शैले के काव्य का ज्ञानात्मक आधार निस्सन्देह अन्य कवियों की अपेक्षा न केवल सत्यात्मक था, तथ्यात्मक था, वरन् वह अधिक विशद, विस्तृत और निर्णायक भी था। दूसरे शब्दों में, शैले में एक विशाल जागरूकता थी। इस ज्ञानात्मक आधार कमजोर तब होता है जब कवि समाज को प्राप्त अद्यतन ज्ञान की उपेक्षा कर अद्यतन ज्ञान द्वारा सम्प्रेरित भावनाओं से दूर हटकर केवल अपने ऐकान्तिक निविड़ लोक में ही विचरण करता है, ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध ही रहीं है, वरन् समाज की उत्थानशील तथा हृासोन्मुख शक्तियों का बोध भी है। शैले के काव्य का सौन्दर्य उस मनोभूमिका से उत्पन्न हुआ है जो अपने युग में विकासमान उत्थानशील प्रवृत्तियों से परिपक्व हुई है। शैले को ज्ञान ने स्वप्न दिया, स्वप्न ने भावना दी। उसका समस्त साहित्य इस मनोभूमिका से अनुरंजित है। शैले के काव्य की कुहरिलता के कारणों के सम्बन्ध में मैं पहले ही कह चुका हूँ। वास्तविकता यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से शैले बहुत जागरूक कवि था। वह अपने जमाने की उत्थानशील मानवतावादी शक्तियों से आध्यात्मिक सम्बन्ध अनुभव करता था। कला के क्षेत्र में भी वह इतना अधिक जागरूक था कि वह अपने युग के मनोहर स्पन्दनों को अपने काव्य में अपने स्वप्नों के माध्यम से व्यक्त कर सका। किन्तु हम अन्य रोमैण्टिक लेखकों और कवियों को लें। उनमें से कइयों में हमें छù मनोवैज्ञानिकता दिखाई देती है। छù मनोवैज्ञानिकता का भी एक बहुत बड़ा व्यापार होता है। हिन्दी के रोमैण्टिक कवियों में ऐसी छù भावनाएँ बहुत देखने को मिलेंगी ! यह छù मनोवैज्ञानिकता एक विशेष प्रकार की अभिरुचि से उत्पन्न होती है और उस अभिरुचि को वह दृढ़ करती है। अभिरुचि स्वयं इस कपटजाल को जन्म भी देती है। अभिरुचि के के साथ-साथ कई प्रकार के सेन्सर्स लगे रहते हैं। लेखक को अनेक प्रकार के सेन्सर्स यानी गहरे अन्तर्निषेध का सामना करना पड़ता है। कुछ अन्तर्निषेध ऐसे होते हैं जो उसके काव्यसम्बन्धी यथार्थ की संवेदनाओं को भी काटकर फेंक देते हैं। काव्य का जो वास्तविक तत्व है जिसके कारण और जिसके द्वारा सौन्दर्य प्रकट होता है, उसी से पता चल जाता है कि लेखक छù भावनाओं का व्यापार कर रहा है या क्या !

यशराज कहता गया, ये अन्तर्निषेध उसकी बहुत-सी अच्छी और सच्ची भावनाओं के स्रोत को भी सुख देते हैं। फलतः जो काव्य प्रसूत होता है वह जाली होता है। हिन्दी में जाली कविताओं की कमी नहीं। कभी-कभी ऐसा जाली साहित्य भी कुछ परम्परागत गुण व्यक्त करता आया है। कवि के अभ्यास-वश काव्य में लालित्य आदि गुण उत्पन्न हो जाते हैं। जिसके फलसवरूप कुछ लोग उन्हें साहित्य की अमूल्य न्धिि में जमा कर देते हैं। यशराज आगे कहता गया, ऐसे काव्य में प्रकट भावनाएँ जाली होने के कारण बहुधा अप्राकृतिक भी हो उठती हैं। कविता का धर्म है- अपनी प्रकृति से और काव्य के वस्तुतत्व की प्रकृति से एकाकार होना। व्यक्तिगत ईमानदारी का यह बहुत बड़ा तकाजा है कि लेखक निर्भीकतापूर्वक अपने अन्तर्निषेधों को सुधारे,उनका सामना करें। साथ ही, वह अपनी प्रकृति में और वस्तु के प्रकृति में प्रवेश करे। इस अन्तःप्रवेश के रास्ते में जो भी सामने आता हो उस जोर से हटा दे। दूसरे शब्दों में, अपनी अन्तःप्रकृति और वस्तु की प्रकृति में प्रवेश करने के उद्देश्य से, काव्यसम्बन्धी अपनी अभिरुचि भी बदल डाले - वह अपना, अपने स्वयं का , लगातार संशोधन और सम्पादन करता जाये...!

मैं एकदम बोल पड़ा, ”ओ, हीअर आइ सी (यहाँ मैं तुमसे सहमत हॅँू) !” यशराज आगे कहता गया, जो लेखक अपने हृदय को (तुम्हारे शब्दों में) निरन्तर संशोधित और सम्पादित नहीं करता है, उसका विकास रुक जाता है। यह संशोधन और सम्पादन, कवि की जीवन-दृष्टि के द्वारा ही सम्पन्न होना चाहिए, स्वाँग रचने के लिए नहीं।

यशराज बहुत ज्यादा बोल गया था। कभी-कभी मेरा ध्यान भी उचट जाता। फिर भी मैं एकाग्रतापूर्वक उसकी बात सुनने का प्रयत्न कर रहा था। यशराज कह रहा था, ”कवि का यह धर्म है कि उसके दिल में जो नकारशील खटके हैं, जो अन्तर्निषेधों हैं, उन्हें विवेकसंगत बनाया जाये। केवल विशेषाभिरुचि के वशीभूत होकर का विकास न किया जाये । ध्यान रहे कि ये अन्तर्निषेध लेखक स्वयं अपने लेखन-कार्य के दौरान में विकसित करता है। उनका विकास किस प्रकार होता है, यह विषय ही अलग है। महत्व की बात यह है कि अन्तर्निषेधों का विवेकसंगत विकास हो। व्यक्तिगत ईमानदारी का यह बहुत बड़ा तकाजा है। यदि काव्य के वस्तुतत्व की प्रकृति और कवि की प्रकृति दोनों का समाहार करनेवाली कवि-दृष्टि ऐसी है जो जीवन के लिए उस कवि दृष्टि का महत्व अत्यन्त सीमित है तो उस काव्य को हम भले ही सुन्दर कह लें, वह हमारे जीवन पर विशेष प्रभाव नहीं डाल सकता अर्थात् वह हमारे जीवन-विवेेक को सविकसित और पुष्ट नहीं कर सकता। ध्यान रखिए कि कवि-दृष्टि के रूप में ही ले रहा हँू।” यहाँ यशराज की साँस खत्म हो गयाी।

यशराज की विवेचन-बुद्धि ने निस्सन्देह मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरे मन में विचारों का ताँता-सा शुरू हो गया। यशराज को चुप देख मैंने भी अपना कुछ जोड़ना चाहा।मैंने कहा, यशराज, सुनो। अब मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ। ध्यान से सुनना ! भले ही काव्य रचना की सच्ची मनोभूमिका काव्य-रचना के क्षणें के बाहर निरन्तर तैयार होती रहती है। यदि इस मनोभूमि की तैयारी के दौरान कवि सचमुच ईमानदार है, यानी वह अपनी जीवन-दृष्टि व्यापक और गहरी रखने का प्रयत्न करता है, तो उस काव्य-रचना से सम्बनिधत वह मनोभूमिका भी अधिकाधिक विशद और यथार्थ होती जायेगी ऐसा मेरा खयाल है। इसलिए में यह कहता हूँ कि काव्य-रचना एक परिणाम है किसी पूर्वगत प्रदीर्घ मनःप्रक्रिया को जो अलग-अलग समयों में बनती गयी और अपने तत्व एकत्र करती गयी है। काव्य-रचना में जो अनायासता उत्पन्न नहीं होती। वरन् काव्य-रचना की पूर्वगत मनोभूमिका की समृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। इसलिए व्यक्तिगत ईमानदारी का सम्बन्ध काव्य-सम्बन्धी मनोभूमिका से अधिक है। यदि यह मनोभूमिका आत्मपरक और वस्तुपरक अर्थात् उन दोनों से समन्वित जीवनपरक दृष्टि से तैयार की गयी है तो उस कवि का क्या कहना ! वह निस्सन्देह समृद्ध करती है। इस सतह पर मुख्य प्रश्न दृष्टि का है। मानवता के कवि की दृष्टि विश्व-जनता के उद्देश्यों से एकाकार, अर्थात् जब कवि की भावनाओं का ज्ञानात्मक आधार विस्तृतव्यापक और अद्यतन है तो ऐसी स्थिति में उस कवि की दृष्टि ही उसके अन्तःकरण में एक वातावरण निर्माण करेगी, एक काव्यात्मक मनोभूमिका तैयार करेगी। मनोभूमिका या वातावरण के बिना सत्काव्य सम्भव ही नहीं। सच तो यह है कि काव्य-साधना, कला-साधना काव्य रचना या कला-प्रक्रिया के दौरान में ही सीमित नहीं होती। काव्य-साधना या कला-साधना का अधिकतर भाग, काव्य-रचना के क्षणों से बहुत बाहर होता है। इसलिए कलाकार के लिए यह आवश्यक है कि वह ज्ञानात्मक आधार का अधिकाधिक विस्तार कर, ज्ञान-स्वप्न दे सके, स्वप्न-भावनाएँ उत्सर्जित कर सके । मानसिक प्रतिक्रिया का संॅपादन-संशोधन यदि उस स्वप्न द्वारा प्रस्तुत हेता है तो निस्सन्देह वह कल्याणकारी है। उस ज्ञानात्मक आधार पर ही मन अपने का सम्पादित और संशोधित करता रहेगा। कवि के अनुभूतिमय जीवनकाल में ही यह संशोधन-सम्पादन चलता रहेगा।” किन्तु जब काव्य-रचना एक सृजन-प्रक्रिया के रूप में चलती है उस समय कवि कृत्रिम रूप से संशोधन-सम्पादन चलता रहा तो कवि पर अभिनेतृत्व और स्वाँग का अभियोग-आरोप सही हो जायेगा। किन्तु यदि ज्ञानात्मक आधार पर विकसित जीवन-स्वप्न ही स्वयं मानसिक प्रतिक्रिया का संशोधन-सम्पादन करता रहे तो निःस्सन्देह वह काव्य-रचना के एक अत्यन्त स्वाभाविक अंग के रूप में ही प्रस्तुत होगा।”यशराज ने कहा, तो व्यक्तिगत ईमानदारी काहे में है ?

ज्ञानात्मक आधार को विस्तृत से विस्तृत करने, उसे अत्यन्त व्यापक बनाने, उसके आधार पर जीवन-स्वप्न विकसित करने, जीवन-स्वप्न के अनुसार मानसिक प्रतिक्रियाओं को दिशा देने अर्थात् अपने ही अन्तःकरण का संशोधन-सम्पादन करने में ही व्यक्तिगत ईमानदारी परिलक्षित होगी। तुम्हारी बात भी सही हे। काव्य-साधना, अधिकतर, काव्य-रचना के क्षेत्र के बाहर होती है। हाँ, यह बात सही है।व्ह मुझे देखकर मुसकराया। उसके स्मित में एक अजीब ही तृप्ति थी। जी हाँ, वह बेरोजगार है। गरीब है, ठुकराया हुआ भी है, समाज में उसकी कोई इज्जत नहीं है। लेकिन वह निःस्पृह भी है। क्या वह सुकरात नहीं है ? मेरी माँ ने मुझे बताया था कि भगवान् भिखारियों का वेश लेकर अपाहिजों के रूप में भटकतें हैं और परीक्षा लेते हैं। भगवान् पर मेरी आस्था नहीं है लेकिन मनुष्य पर तो है। इतने में मुझे खयाल आया कि ‘ज्ञानात्मक आधार‘ की परिभाषा होना आवश्यक है। मैंने यशराज से पूछा -ज्ञानात्मक आधार से तुम्हारा मतलब वैज्ञानिक जानकारी के अलावा भी कुछ है या नहीं ?

वह हँस पड़ा। उसने कहा, ”जीवन-जगत् का जो बोध है उसका व्यापक होना, पुष्ट होना, विश्व में ज्ञान का जो आज विकास स्तर प्राप्त है, उसको आत्मसात् करना और उससे आगे बढ़ना आवश्यक है। भावना उसी क्षेत्र में सक्रिय हाती है जो क्षेत्र वस्तुतः ज्ञानशक्ति द्वारा गृहीत हो। बोध यानि ज्ञान के क्षेत्र भीतर ही भावना की पहुँच है, उसके बाहर नहीं । इसीलिए यह आवश्यक है कि हमारे जीवन का ज्ञानात्मक आधार व्यापक और विकसित हो। ज्ञान भी एक तरह का अनुभाव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। उससे निकलते हैं निष्कर्ष, उससे होता है जीवन-विवेेक का विकास। यह विवके ही एक स्वप्न देता हे। यह स्वप्न परमावश्यक है। वह जीवन-स्वप्न है। वह आध्यात्मिक है, यौनिक भी।” मैंने पूछा, ”यौनिक का क्या अर्थ ?”

उसने कहा, ”हम अपूर्व शब्दावली में बात करते हैं। लेकिन जीवन के जिस क्षेत्र की हम बात करें उसकी शब्दावली आना चाहिए। क्या लेखक के लिए परम आवश्यक नहीं है कि वह विश्व-जनता के अभ्युत्थान को देखे और समाज का उत्पीड़न करनेवाली शक्तियों से सचेत हो और उसके प्रति विद्रोह करने वाली ताकतों से सक्रिय सहानुभूति रखे। ज्ञानात्मक आधार के विकास में तो बातें भी सम्मिलित हैं। नहीं हैं क्या ?”
मैंने सिर्फ इतना ही कहा, ”तुम तो मेरे बारे में जानते हो ! मेरा तो यह दृष्टिकोण बहुत पहले से रहा है और उसके लिए कुछ तकलीफ भी उठायी है।”जब हमने एक दूसरे की आँखो में देखा तो पाया कि हम सचमुच एक-दूसरे के मित्र हैं।


लेबल: एक साहित्यिक की डायरी, कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी: दो

लाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी - एक
मेरी डायरी पर बहुत कम बहस हुआ करती है। लेकिन कल हो ही गयी। वो जो यशराज हैं न। वही, वही ! उस गली में रहते हैं। नहीं, नहीं, उनकी वकालत नहीं चलती। हाँ यूँ ही हैं, यों आदमी काबिल हैं। बी. एस-सी., बी.टेक.,एल-एल.बी., लेकिन बिलकुल बेरोजगार हैं। उस शहर में उन्हें सब जानते हैं। हँसते हैं उनपर। वे बेरोजगार हैं न, इसलिए। उनके चेहरे पर हमेशा शनीचरी छाया रहती है। खैर तो ’वसुधा‘ के लिए लिखी गयी ताजी-ताजी डायरी उन्हें सुनाने का मुझे जब सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं बड़ा खु्रश था। क्या तीर मारा है मैंने !

यशराज गरदन नीचे डाले मेरी डायरी को चुपचान सुन रहे थे। जब सुनाना खत्म हुआ तो बहुत ही मन्थर गति से उन्होंने अपन सिर ऊँचा उठाया। कहने लगे- ”यह डायरी एकदम फ्राड है !” मुझ पर वज्रपात हो गया था। काटो तो खून नहीं। नाड़ी खिसक गयी। यशराज ने अपना चेहरा ऐसा बिगाड़ लिया था, मानो उनकी जबान का स्वाद एकदम कड़ुआ हो उठा !

डायरी मैंने बहुत मेहनत से बनायी थी। परसाई जी के पत्र-रूपी पिस्तौलों से सम्प्रेरित होकर मैंने इतनी मेहनत की थी। नतीजा क्या निकला....धूल राख.....बालू ! मैंने अपने मन को काफी नसीहत दी। उसकी पीठ थपथपायी। लेकिन निस्सन्देह उस समय मेंरा चेहरा बहुत पीला हो गया, क्योंकि मैंने उन क्षणों का अनुभव किया कि चेहरों का खून निचुड़ता हुआ दिल में टपक रहा है। मैंने यशराज की तरफ जब देखा तो मुझे सन्देह हुआ कि वह भी मुझपर हँस रहा है। मैंने अपने को सँवारते हुए, अटकते हुए और शब्दों के लिए भटकते हुए कहा, ”तुम भले ही फ्राड कह लो। इसमें व्यक्तिगत ईमानदारी जरूर है ! डायरी मेरी व्यक्तिगत ईमानदारी का सबूत है।”

यशराज ने अपनी मुसकान दबा ली। उसके होठों की उस छोटी-सी हलचल से मुझे घाव सा लग गया। मैं प्रयत्न करने लगा कि मेरी आंखों में क्रोध या खून दौड़ जाये। लेकिन, देह में रक्त ही नहीं था। दूसरे, अगर मैं अकड़ने का नाट्क भी करता तो भी बात न बनती क्योंकि वैसा करना मेरी बौद्धिक संस्कृति के मानदण्डों के बिलकुल विपरीत था।अब तक का इतिहास यह है कि मैं अपनी बुद्धि द्वारा हृदय को सम्पादित और संषोधित करता आया हँू। यह प्रक्रिया बिलकुल बचपन ही से चल रही है। जिन्दगी एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं है। वह एक प्राइमरी स्कूल है, जहा टाट पट्टी पर बैठना पड़ता हैं।

जी हाँ ! उस जिन्दगी का यही हाल है ! भय, आतंक, विचित्र आशंकाएँ अजीबो गरीब उलझाव, फटी हुई टाट पट्टियाँ, पुराने स्याही रंगे टेबल, गुरूजी की भयानक दुतरफा मूँछ और घर में माता पिता की डाँट फटकार और बच्चे का कोमल छोटा सा शरीर !सोचा था कि जल्दी जल्दी बड़ा हो जाउगा। ऊँचा, तगड़ा, मोटा। फिर, जिन्दगी, प्राइमरी न रहेगी। लेकिन, नहीं। ज्यों-ज्यों बड़ा होता गया खून सूखता गया। ऊँचा हुआ, साथ ही जर्जर भी। जिन्दगी पहले से भी बदतर प्राइमरी स्कूल होती गयी। जी हाँ, जिन्दगी-भर पाठ पढ़ना है। सिर्फ पहाड़े पढ़कर ही काम नहीं चलने का। गुणा-भाग की नयी से नयी कतर ब्यौंत करनी पड़ेगी। अँगुलियों में स्याही, कमीज पर नीले दाग, होठों के एक सिरे पर नीला रंग। मरने तक प्राइमरी स्कूल ही रहेगी यह जिन्दगी। वही पुरानी फटी टाट-पट्टी मानो मेरी कविता की एक पंक्ति !

यशराज की बात अलग है। वह आला आदमी है। वह आइन्स्टीन की बात करता है। प्लैंक और ला प्लाॅस उसकी जबान पर नाचते है। मैं ? इस मैं को नष्ट कर दो ! भारतीय संस्कृति का यह सन्देश है !यशराज का शब्द प्रवाह मेरे कानों में बहा, ”व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या अर्थ है ?अधिक से अधिक वह अभिव्यक्ति की ईमानदारी है। इससे अधिक कुछ नहीं ! तुममें तो अभिव्यक्ति की ईमानदारी भी नहीं है।”यशराज न मालूम क्या कहता गया। मैं तो अपने मन में यह सोच रहा था कि मुझे तो बुद्धि के द्वारा अपने हृदय को सम्पादित और संशोधित करना है, उसमें पाद- टिप्पणियाँ जोड़नी है, भूमिका लिखनी है, सबके पीछे निर्देश- सूची भी तो जोड़ देनी है। किन्तु यह सम्पादन और संशोधन क्या कभी भी पूरा होगा ? क्या कभी भी मैं मास्टरपीस की भाँति उसे उपस्थित कर सकूँगा। शायद यह सम्भव ही नहीं है। कल ही तो बूढ़े ,बहुत बूढ़े, पिताजी ने मुझे कहा था कि आखिरी साँस टूटने तक नया सीखना पड़ता है, अपने आप में संशोधन करते रहना पड़ता है। लगातार सीखते जाना और नये-नये पाठ पढ़ने पड़ते हैं ! ऐसा !

मैंने यशराज से आत्मस्वीकृति के स्वर में कहा, व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ है जिस अनुपात में, जिस मात्रा में, जो भावना या विचार उठा है, उसको उसी मात्रा में प्रस्तुत करना । जो भाव या विचार जिस स्वरूप को लेकर प्रस्तुत हुआ है, उसको उसी स्वरूप में प्रस्तुत करना लेखक का धर्म है !़यशराज ने जिद्दी आवाज में कहा, क्या उसका धर्म यहीं तक सीमित है ? यदि वह यहीं तक सीमित है तो वह व्यक्तिगत ईमानदारी भी नहीं है, अभिव्यक्ति की ईमानदारी भी नहीं !

यशराज से बहस करने की मेरी तबीयत नहीं हो रही थी। लगता था अगर कोई व्यक्ति एक कप चाय दे दे तो नसें गरमा जायें। फिर शायद बहस के काबिल हो सकूँ। फिर भी , अगर मैं जवाब न देता तो बहुत बुरा सा दीखता। आखिर ऐसी भी क्या बात है ! सम्भव है यशराज के पास भी कुछ ऐसा कहने के लिए हो जो मेरा पूरक हो सके । जरा इत्मीनान से काम लो !

मैंने कहा, ”कैसे ?”यशराज पिस्तौल से छूटी हुई गोली की भाँति उड़ता गया। उसने कहा, ”जो भाव या जो विचार जिस स्वरूप को लेकर जिस मात्रा में और जिस अनुपात में प्रस्तुत हुआ है, उसका उसी स्वरूप मे प्रस्तुत करना एकदम नाकाफी है। महत्व की बात यह है कि वह भाव या वह विचार किसी वस्तु-तथ्य से सुसंगत है या नहीं। व्यक्तिगत ईमानदारी का नारा देनेवाले लोग असल में, भाव या विचार के सिर्फ सब्जेक्टिव पहलू केवल आत्मगत पक्ष के चित्रण को ही महत्व देकर उसे भाव-सत्य या आत्म-सत्य की उपाधि देते हैं। किन्तु भाव या विचार का एक आब्जेक्टिव पहलू अर्थात वस्तुपरक पक्ष भी होता है। आजकल लेखन कार्य में आत्मपरक पक्ष को महत्व देकर वस्तुपरक पक्ष की उपेक्षा की जाती है। चित्रण करते समय आत्मपरक पक्ष को प्रधानता दी जाती है, वस्तुपरक पक्ष को नहीं। इस रवैये का असर टेकनीक पर पड़ता है।” यशराज की आँखें देखने के काबिल थीं। वह मुझे इस तरह देख रहा था मानो झिड़क रहा हो। किन्तु उसके चेहरे की ओर नहीं वरन् उसकी बातों की ओर ध्यान मैं देने लगा।यशराज कहता गया, ”मध्ययुगीन भारतीय काव्य में कुछ महत्वपूर्ण अपवादो को छोड़, प्रधान प्रवृत्ति वस्तुपक्ष के वर्णन की ओर ही अधिक रही। इस प्रवृत्ति ने आत्मपक्ष को गौण स्थान दिया। नये छायावादी युग ने आत्मपक्ष को ही प्रधान स्थान दिया और वस्तुपक्ष को गौण। यदि हिन्दी की नयी कविता को साहित्य के इतिहास में, या यूँ कहिये कि संस्कृति के इतिहास में, कोई महत्वपूर्ण पार्ट अदा करना है, तो उसे काव्य की प्रकृति तथा शिल्प में आत्मपक्ष का समन्वय उपस्थित करना होगा।”

यशराज ने विजेता की आँखों से मुझे देखा। निस्सन्देह मुझे पराजित होना पड़ा। मैंने दो सेर का अपना सिर हिलाकर उसकी हाँ में हाँ मिलायी। तब एकाएक मुझे भान हुआ मानो मेरे मस्तक की सन्दूक में सचमुच आलू और भण्टे भरे हैं ! उनकी तो तरकारी भी नहीं हो सकती।इसके बावजूद मैं यशराज की बात ज्यादा ध्यान से सुनने लगा। मुझे प्रतीत हुआ कि उसे ऐसा कुछ कहना है जो मेरे लिए मूल्यवान् भी सिद्ध हो सकता है।मैंने प्रार्थना के स्वर में कहा, ”यशराज, मैं नयी कविता का कोई प्रवक्ता नहीं हूं। मैं तुम्हारी बात मानने के लिए मान भी लूँ; किन्तु मेरे लिए यह एक बड़ा रहस्य ही बना रहेगा कि किस प्रकार वस्तुपक्ष से आत्मपक्ष का समन्वय स्थापित किया जाता है ?”

यशराज ने बीच ही में बात काटते हुए कहा, मैं तो तुम्हारी डायरी के बारे मैं बात कर रहा था। उसके प्रसंग से नयी कविता पर चला आया। तुमने जगह जगह, व्यक्तिगत ईमानदारी की जो बात कही हे वह बहुत ही कुहरिल है। ‘व्यक्तिगत ईमानदारी’ की क्या परिभाषा है ? मैं बहुत सी नयी कविताएँ पढ़ता हूं। मुझे उनमें कुछ विशेष ईमानदारी नहीं मालूम होती। यशराज कहता गया, ”नयी कविता की भी एक लीक पड़ गयी है। वह भी एक ढर्रा है। ढर्रे में सब कुछ खपाया जा सकता है। एक बार शिल्पविधान पर अधिकार हो जाये कि बस...!”

उसने कहना जारी रखा, ”यह तो तुम जानते हो कि भाव या विचार का एक वस्तुतत्व भी होता है अर्थात् वह एक ऐसी मानसिक प्रतिक्रिया है जो किसी वस्तुतत्व के प्रति की गयी है। इस मानसिक प्रतिक्रिया में सत्यत्व तो तभी उत्पन्न होगा जब उसमें वस्तुतत्व का वस्तुमूलक आविर्भाव हो। साथ ही उसमें यह बोध भी सम्मिलित हो कि जो मानसिक प्रतिक्रिया उस वस्तुतत्व के प्रति हुई है, वह सही है या गलत, उचित है या अनुचित, ठीक अनुपात में है कि गलत अनुपात में। यदि ऐसा नहीं हुआ तो बड़ी अजीब बात होगी।”

मैंने मुसकराकर कहा, ”हजरत, काव्य की प्रक्रिया ज्ञानात्मक प्रक्रिया नहीं है।” यशराज ने जवाब दिया, ”ठीक। किन्तु ज्ञान और बोध के आधार पर ही भावना की इमारत खड़ी है। यदि ज्ञान और बोध की बुनियाद गलत हुई तो भावनाओं की इमारत भी बेडौल और बेकार होगी। उसका असर काव्य शिल्प पर भी होगा।”

यशराज कह कहकर क्षणमात्र चुप रहा मानो साँस लेना चाह रहा हो। वह आगे कहता गया, व्यक्तिगत ईमानदारी वहाँ लक्षित होगी जहां वस्तु का वस्तुमूलक आकलन करते हुए लेखक उस आकलन के आधार पर वस्तुतत्व के प्रति सही सही मानसिक प्रतिक्रिया करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसकी प्रतिक्रिया में सत्यत्व का आविर्भाव नहीं होगा।

मैंने कहा, ”तुम्हारी परिभाषा यदि स्वीकार कर ली जाये तो काव्य के क्षेत्र में एक दंगा सा मच जायेगा। असलियत यह है कि तुम जिस वस्तुमूलक सत्य की बात करते हो, वह काव्य के भाव सत्य से अलग है....”यशराज ने आँखे फाड़कर मेरी तरफ देखना शुरू किया मानो मैं कोई जिराफ या कंगारू जैसा अजीबो-गरीब प्राणी होऊँ। मैंने भी बहुत गम्भीरता से उत्तर दिया, ”मैं भी अपनी बात कहाँ समझा पा रहा हूँ !”

दोनों ने अपने अपने आसन बदले।मैंने शून्य की ओर देखना शुरू किया। उस शून्य में मुझे दो बातें नजर आयीं। एक तो यह कि यशराज के अनुसार मानसिक प्रतिक्रिया जिस वस्तु के प्रति होती है उस वस्तु का भी चित्रण परमावश्यक है, दूसरी यह कि सत्यत्व के आविर्भाव के लिए यह जरूरी है कि कवि उक्त वस्तुतथ्य के प्रति सही सही मानसिक प्रतिक्रिया करे।यशराज के इस अभिमत पर मेरे मन ने इस प्रकार टिप्पणी की। मन कहता गया: अपनी मानसिक प्रतिक्रिया वस्तुतथ्य के प्रति सही सही है या नहीं इसकी कसौटी क्या है ?

मेरे खयाल से कवि लेखक अपने दृष्टिकोण से किसी वस्तुतथ्य के प्रति प्रतिक्रिया करता है। माना कि मानसिक प्रतिक्रिया मे सवेंदना अन्तर्भूत है, किन्तु उसमें दृष्टि या दृष्टिकोण भी अन्तर्भूत है। संवेदना और दृष्टि दोनों से मिलकर मानसिक प्रतिक्रिया होती है। हाँ, यह आवश्यक नहीं है कि मानसिक प्रतिक्रिया करते समय कवि उस दृष्टि या दृष्टिकोण के पीछे रहनेवाली अर्थात् उसकी पाश्र्वभूमि के रूप में सारी वस्तुएं एक साथ नहीं रह सकतीं। किन्तु ध्यान अलग चीज है, मन अलग बात है। ध्यान में तो वस्तुतथ्य है, उस वस्तुतथ्य के प्रति संवेदनात्मक प्रतिक्रिया की गयी है, किन्तु उस प्रतिक्रिया में प्रच्छन्न रूप से अथवा अर्ध-सचेत रूप में कवि की दृष्टि या दृष्टिकोण अवश्य रहता है। यह दृष्टि या दृष्टिकोण अनिवार्यतः बौद्धिक ही होता है, यह नहीं कहा जा सकता। हम उसके दृष्टिकोण को रूख या रवैया भी कह सकते हैं। मजेदार बात यह है कि कभी कभी मानसिक प्रतिक्रिया करते समय तो एक रुख या दृष्टि रहती है किन्तु मन एक इकाई ही नहीं होता। उस इकाई के भीतर दुई भी होती है। ऐसी स्थिति में मानसिक प्रतिक्रिया के भीतर एक रुख और उस प्रतिक्रिया को सम्पादित और संशोधित करने वाली एक और दृष्टि रहती है। विवादियों के एक पक्ष का कहना है कि मानसिक प्रतिक्रिया का यह संशोधन सम्पादन अनावश्यक है, गलत है, खतरे से भरा हुआ है। यहाँ बेईमानी हो सकती है, जान-बूझकर की जाती हैं इसलिए होना यह चाहिए कि व्यक्तिगत मानसिक प्रतिक्रिया को ज्यों का त्यों, ठीक-ठाक अनुपात और मात्रा में प्रकट किया जाये।उनके इस अभिमत में बहुत कुछ सार है। काव्य में लम्बी-चौड़ी बात हंाकनेवाले, स्वाँग करनेवाले, अपने को मसीहा और क्रान्तिकारी समझकर बात करनेवाले लोग छोटी-सी मानसिक प्रतिक्रिया को अपनी दृष्टि के अनुसार बहुत बढ़ा-चढ़ाकर रखते हैं। वे एक ऐक्टर हैं, नट हैं। वास्तविक प्रेम करने का आत्मबल उनमें बिलकुल भी नहीं है; किन्तु स्वाँग ऐसा करते हैं मानो वे अपनी प्रमिका के बिना जी नहीं सकते। अगर हम मानसिक प्रतिक्रिया को ज्यों-त्यों स्वभाविक अनुपात और मात्रा में, व्यक्त करने का आग्रह नहीं करते, उस आग्रह को महत्व नहीं देते, तो काव्य में से अभिनेता तथा स्वाँग वाले लोग, लम्बी-चैड़ी बात हाँकने वाले सज्जन, बिला शक एक झूठा साहित्य पैदा कर देते हैं। ऐसे लोग मन की इकाई में जो दुई है उसकी प्रकृति के अनुसार अपनी मूल मानसिक प्रतिक्रिया को सम्पादित और संशोधित करते हैं। कहते हैं कि काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है- मात्र व्यक्तिगत नहीं। इसलिए उन्हें काव्य-सृजन के दौरान (मन के भीतर) अभिनेतृत्व करने, स्वाँग रचने, लम्बी-चैड़ी हाँकने आदि-आदि की पूरी छूट है। वे कहते हैं कि काव्य एक सांस्कृतिक संस्था है, वह मात्र व्यक्तिगत कमरा नहीं।खैर, बड़े-बड़े शब्दों को जाने दीजिए।

मैं भी मानसिक प्रतिक्रिया को सम्पादित और संशोधित करने की बात कहता आया हूं। मेरे इस मन्तव्य का क्या वास्तविक अर्थ है ? और यह यशराज जब मानसिक प्रतिक्रिया के सहीपन की बात करता है, वस्तुतथ्य के प्रति सही-सही मानसिक प्रतिक्रिया करने पर जोर देता है तो उसकी इस बात का निर्देशक महत्व क्या है ? क्या यशराज यह कहना चाहता है कि कवि जीवन-जगत् के प्रति वास्तविक विश्व-दृष्टि का विकास करे, और वह विश्व-दृष्टि उसकी मानसिक प्रतिक्रिया की प्रेरक हो ? यदि सचमुच इतनी सब बातें क्षण-भर में सोच गया। भीतर का मेरा अपना सारा विचार-जगत् मूर्तिमान हो उठा। किन्तु यशराज की बातों का प्रवाह कहीं और जा रहा था।वह कहता गया, ”व्यक्तिगत ईमानदारी वह है जहाँ लेखक वस्तु का सही मानसिक प्रतिक्रिया करे। यदि वह ऐसा नहीं करता तो उसकी प्रतिक्रिया में सत्यत्व का आविर्भाव उत्पन्न नहीं होगा। यही न ?”

मैंन जवाब दिया, तुम्हारी परिभाषा यदि स्वीकार कर ली जाये तो काव्य के क्षेत्र में एक हंगामा मच जायेगा। काव्य का सत्य, शासकीय या वैज्ञानिक सत्य नहीं है। यदि वस्तुतः वैसा होता तो अब तक दुनिया में जितना भी काव्य-साहित्य उत्पन्न हुआ है वह तुम्हारी परिभाषा का अनुगमन करता।यशराज बीच में बोल उठा, ”मैं तो व्यक्तिगत ईमानदारी की बात कर रहा हूँ। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि हिन्दी में (मैं हिन्दी की बात ही बोल सकता हूं ) बहुतेरी ऐसी कविताएं हैं जो बिलकुल फ्राड हैं। जिन्हें तुम नयी कविता कहते हो, उसमें भी फ्राड की कमी नहीं है।”शायद यशराज ने मुझे उत्तेजित करने के लिए यह कहा होगा। लेकिन ईश्वर की कुछ ऐसी कृपा रही कि मैं विचलित नहीं हुआ।

मैंने शान्त भाव से तिरछी मार की। मैंने कुछ आलोचकों के नाम भी लेना चाहे। लेकिन कुछ सोचकर चुप रह गया। आलोचक भी तो झूठ के साथ-साथ कभी सच बोल जाया करते हैं। हाँ, यह होता है उनके मसीहाई बौद्धिक अहंकार के बावजूद !

मैं शान्त था, किन्तु उत्तेजना घर कर रही थी। हमारी और यशराज की आपसी सिर-फुटौवल कई बार हो भी चुकी है। इसलिए उससे घबराने की बात नहीं थी।

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