Monday, March 21, 2011

आदिवासी स्त्रियां और विद्रोह






"तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे

क्योंकि हमने अपने को इतिहास के विरूद्ध दे दिया है

छूटी हुई जगह दिखे जहां-तहां

या दबी हुई चीख का अहसास हो

समझना हम वहीं मौजूद थे. 


दरअसल कवि विजय देवनारायण साही की ये पंक्तियां विद्रोह हैं, गैर बराबरी वाले समाज से, सड़ चुकीं सांस्कृतिक मान्यताओं से, लड़ती गिरती और गिर-गिर कर लड़ने को आतुर आधी दुनिया का। जिसमें आदिवासी महिलाएं सबसे आगे हैं, इसलिए जाहिर है ये इतिहास और इतिहासकारों के द्वारा आदिवासी महिलाओं के मुक्तकामी विद्रोहों को दबाने की तमाम कोशिशों के खिलाफ भी हैं। ऐसा नहीं है कि इतिहासकारों और मानवशास्त्रियों ने अंग्रेजों और सामंतों के विरूद्ध आदिवासी विद्रोहों का वर्णन नहीं किया है, परंतु इन विद्रोहों में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलने वाली आदिवासी महिलाओं का जिक्र तक नहीं है (और ये बात परंपरागत इतिहास कारों को तो छोड़िए, मार्क्सवादी इतिहासकारों के लेखन में भी मौजूद है)। ऐसा लगता है कि आदिवासी महिलाएं इन विद्रोहों से पूर्णतः अछूती रहीं हैं। दरअसल, लोकतांत्रिक सामाजिक सरोकारों में तो उन्हें हाशिए पर रखा गया है, जबकि सामंती सरोकारों को पूरा करने के मामले में वो धूरी बनी रही हैं। इसका असर इतिहास लेखन में माहिलाओं की स्थिति में भी देखने को मिलता है। इतिहास लेखन में वो सांस्कृतिक नजरिए से ही देखी गई हैं, उसमें भी उनकी परपंरा निर्वाहनी की ही भूमिका अधिक नजर आती है। वे गीतों में तो हैं, लेकिन शोक गीतों में। सामाजिक विद्रोह के ताने-बाने में वे हैं भी, तो धूमिल छवि के साथ। उन्हें याद करना भी गवांरा नहीं समझा जाता । और समझा भी जाता है, तो महज रिसर्च और कुछ उद्देश्यहीन एनजीओ लेखन में वे देखने को मिलती हैं, जहां उनके विद्रोह को हवा नहीं दी जाती, उलटी दिशा दी जाती है । यानी कुल मिला कर उनका विद्गोह पुरुष सहभागिता में स्त्री की अनिवार्य सेवा बन कर रह जाता है, लेकिन ये हकीकत नहीं है। किसी भी समाज में विद्रोह की भूमिका में स्त्री की भूमिका बराबरी की होती है।
अब यह जरूर है कि बहुत से लोगों को स्त्री की भूमिका किसी भी आंदोलन या विद्रोह में कमतर ही लगती है। इसकी कई वजहें हैं। इसमें सबसे खास है स्त्री के विद्रोह को मुखर अभिव्यक्ति का नहीं मिलना। दरअसल उसका विद्रोह इतना आम है कि उस पर किसी की नजर नहीं पड़ती, क्योंकी उसका यह विद्रोह समूची सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ होता है। फिर चाहे वह आदिवासी समाज हो या फिर सामंती समाज। हां, इतिहास में उनकी चर्चा जरूर होती है, लेकिन उन्हीं महिलाओं की, जिन्होंने सत्ता या विद्रोही पुरुष नेता की मनचाही स्थिति पाने के लिए कदमताल किया हो। सफल मार्क्सवादी विद्रोह भी इसी मामले में असफल रहे हैं कि वे कोई ऐसी व्यवस्था नहीं गढ़ पाए जहां स्त्री मुक्त हो अपनी तमाम मानसिक, जैविक और आर्थिक जरूरतों के मुताबिक। ऐसे में आदिवासी स्त्रियों का विद्रोह और अध्ययन की दरकार रखता है।

वैसे भी हमारे यहां स्त्री विद्रोह लेखन काफी कम हुआ है और जो उपलब्ध भी हैं, उसमें मुख्यत मध्यवर्ग और ऊँची जाति की स्त्रियों का ही जिक्र ज्यादा मिलता है। ऐसे में आदिवासी स्त्री विद्रोह पर लिखना या लिखा हुआ पढ़ना किसी सौभाग्य से कम नहीं लगता। यह बात भी ध्यान देने की है कि आदिवासी समाज पर लिखने वाले लेखकों, मानवशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों व इतिहासकारों ने आदिवासी विद्रोहों की कड़ी में विद्रोही महिलाओं मसलन सिनगी दई, कइली दई, देवमनी और माकी जैसी स्त्री विद्रोही चरित्रों की चर्चा तक नहीं की है। उन्होंने सिद्धो कान्हू या बिरसा मुन्डा या धरती आबा की तरह उन्हें स्थापित करना तो दूर, इनकी सहभागिता का उल्लेख भी नहीं किया है। लगता है जैसे कि वो आदिवासी समाज की इन स्त्री चरित्रों से लगभग अंजान ही रहे हैं, लेकिन तमाम बुद्धिजीवियों की इस अनदेखी के बाद भी ये विद्रोही महिलाऐं आदिवासी समाज की ऐतिहासिक धरोहर —लोकगीतों और दन्त-कथाओं— में इतिहास को चुनौती देती नज़र आ ही जाती हैं। यही नहीं, उन्होंने इन विद्रोहों के दौरान अपने लिए और अपने संघर्षों को जिंदा रखने के लिए अपने ही तरह के प्रतीक गढ़े हैं। उनके लिए भाल लगी बिंदी किसी सुलज्जा स्त्री का श्रृंगार नहीं है, बल्कि अपनी ताकत से हासिल की गई (जनी शिकार) निशानी है। यानी सदियों से औरत के लिए तय किए गए प्रतीक कैसे उसके विद्रोहों के चलते उसकी मुक्ति का प्रतीक बन गए, इसे देखने के लिए आदिवासी विद्रोहों को समझना एक बेहतर माध्यम हो सकता है और ये आदिवासी विद्रोह और उनमें महिलाओं की भूमिका महज किसी तात्कालिक कारणों का हल तलाशना नहीं थी, बल्कि इसमें सामूहिक जीवन पद्धति, जंगल-जमीन, संस्कृति के साथ-साथ अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई ज्यादा थी। झारखंड की उरांव आदिवासी औरतों ने लगभग चार सौ साल पहले सिनगी दई और कइली दई के नेतृत्व में रोहतासगढ़ के दुर्ग पर तुर्क सेना के दांत खट्टे कर दिए थे। किवदन्ती यह है कि सरहुल पर्व में जब पुरुष मादक पेय हडिया पीकर नशे में डूबे थे(यह भी कहा जाता है कि पुरुष जंगल गये हुए थे)। उस दौरान रोहतासगढ़ किले पर फतह करने के लिए तीन बार तुर्क सेना का हमला हुआ। तीनों बार स्त्रियों ने सैनिक वेश धारण किए और तुर्क सेना को परास्त किया। इस विजय की खुशी में आज भी आदिवासी औरतें बराबरी का सपना बांटती जनी शिकार करती हैं और ऐतिहासिक विजय की याद दिलाती हैं। बारह सालों में एक बार जनी शिकार का पर्व झारखंड के उरांव जनजाति में मनाया जाता है और स्त्रियाँ दुश्मन के प्रतीक स्वरूप जंगली जानवरों का शिकार करती हैं। उनके द्वारा माथे पर तीन लकीरों का गोदना भी इसी विजय की याद में गुदवाया जाता है।

इतिहासकारों का दावा है कि माहात्मा गांधी को सत्याग्रह और असहयोग का रास्ता टाना भगतों ने दिखाया, लैकिन हकीकत ये है कि इसमें देवमनी उर्फ बंधनी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता.. वह टाना भगत आंदोलन की एक स्तंभ रही है। जब बाहरी लोगों और अंग्रेजों ने आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल कर दिया और हजारों एकड़ जमीन छीन ली तब विशुनपुर के चिंगरी गांव में पैदा हुए जतरा उरांव ने टाना आंदोलन चलाया। जतरा भगत ने उरांव समाज से कहा कि असहयोग करो। ड ा. सुदेशना बसु ने अपनी किताब पीजेंट रसिस्टेंट इन बिहार में लिखा है कि चिंगरी में टाना भगत आंदोलन का परचम लहराने वाले जतरा भगत को 1914 में गिरफ्तार किया गया और उन्हे लगभग डेढ़ साल कैद की सजा हुई, लेकिन टाना भगतों का असहयोग आंदोलन बिखरा नहीं। बटकुरी गांव के जतरा भगत की पत्नी देवमनी-बंधनी ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। देवमनी के नेतृत्व में टाना भगत आंदोलन अपनी ऊंचाई पर पहुंचा। इस दौरान इस आंदोलन का विस्तार आज के बिहार और झारखंड के पूरे क्षेत्र पर हुआ। देवमनी के नेतृत्व में हजारों आदिवासी टाना पंथी हुए। देवमनी की बहादुरी और समर्पण से अंग्रेजों तथा जमींदारों में खौफ पैदा हुआ। जंगल-जमीन के लिए गोलबंदी बढ़ी। और आदिवासी लोग बड़ी संख्या में जल-जंगल और जमीन के लिए संघर्ष के लिए एकजुट हुए। बिरसा विद्रोह के कदम-दर-कदम संघर्ष में स्त्रियों की व्यापक भागीदारी पाई गई। विद्रोह के नायक बिरसा मुंडा का साथ स्त्रियों ने कभी नही छोड़ा, खासकर चम्पी और साली ने। चम्पी और साली नामक विद्रोही स्त्रियाँ हर समय बिरसा की मदद के लिए साथ रहीं। इसी प्रकार बिरसा विद्रोह के महान सह-नायक गया मुंडा और उनकी पत्नी माकी के साथ पूरे परिवार के बलिदान को कैसे भुलाया जा सकता है जिन्होने आदिवासी समाज की अस्मिता की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया अंग्रेजों से जुझते हुए गया मुंडा शहीद हुए और उनका पूरा परिवार जिनमें उनकी बेटियां और बहुएं भी थीं को अंग्रेजों ने जेल में कैद किया।
जब अंग्रेजों ने आदिवासी क्षेत्रों में पावं पसारना शुरू किया तो पहाड़-जंगल, नदी, गांव में बसा जीवन बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से अशांत होने लगा तब विरोध की शुरुआत हुई। विद्रोहों की इस कड़ी में 1855-56 का संताल हूल आदिवासी संघर्ष का ऐसा उदाहरण है, जिसमें आत्मगौरव और आत्मसम्मान के लिए दस हजार से ज्यादा लोगों ने बलिदान दिया। संथाल औरतों का अपहरण और कुकर्म के बाद उनकी हत्या, अंग्रेजों, महाजनों तथा जमींदारों के अत्याचारों से आदिवासी त्रस्त हो उठे, तो औरत-मर्द सभी ने हथियार उठा लिया। संथाल हूल के नायक सिद्धो, कानू, चांद, भैरव के साथ उनकी दो बहनें फूलो और झानो ने योद्धा की भांति अंग्रेजों से मुकाबला किया। रात को तलवार लेकर निकली फूलो और झानो ने अंग्रेजों के शिविर में जाकर 21 सिपाहियों की हत्या कर दी। संथाल लोकगीतों मे आज भी इन बहादुर औरतों को याद किया जाता है।
ये वे आंदोलन हैं जिन्हें लोग किसी न किसी रूप में जानते हैं और हमारी सरकारें भी किसी न किसी रूप में इन आंदोलनों पर अपनी उत्सवधर्मिता दिखलाती रही हैं, लेकिन दुखद यह है कि ये आंदोलन पुरुष आंदोलनकारियों के सन्दर्भ में ही याद किए जाते हैं। नींव की ईंट की तरह स्त्री आदिवासी विद्रोही इसमें सिरे से गायब नजर आती हैं। बावजूद इसके प्रकृति से साक्षात् संवाद करने वाली इन वनपुत्रियों के विद्रोहों की और कई मिसाले हैं, जिनको याद किया जाना बेहद जरूरी है। केरल के कुरुचिया आदिवासी महिला नीली ने अंग्रेजी फौज से संघर्ष के लिए अलग महिला सेना का गठन किया था। उड़ीसा की आदिवासी महिलाओं ने यह निश्चय किया कि जिस रूप के पीछे ये गोरे लुटेरे हमारा अपहरण करते है, हम उस रूप को ही नष्ट कर देगें और उन्होने अपने चेहरे पर आड़ी तिरछी रेखाऐं गुदवा लीं। ऐसे ही भील आदिवासी आंदोलनों में भी स्त्रियों ने बढ़कर-चढ़कर हिस्सा लिया । फूलो, झानो, माकी, थीगी, नागी, लेंबू, साली, चंपी, देवमनी,सिनगी,कइली दई जैसे आदिवासी स्त्रियों की एक लंबी फेहरिश्त है, जिनके नाम गुमनामी में ही सही, आदिवासी लोकगीतों, कथाओं और प्रतीकों में किसी न किसी रूप में जिंदा हैं।
आदिवासी समाजों में महिलाएं हमारे सभ्य कहे जाने वाले समाज से ज्यादा स्वतंत्र रही हैं,इसका कारण उत्पादन प्रक्रिया में उनकी सीधी भागीदारी का होना है।यही कारण भी रहा कि उन्होने बाहरी विपत्तियों का सामना अपने पुरुष साथियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर किया।चाहे मामला जंगल का हो या जमीन का,अस्मिता का हो या रोटी का,वे हर विद्रोह में उपस्थित रहीं हैं।यह बात और है कि उन्हे इतिहास में जगह नही दी गई। पर यह भी सच्चाई है कि इतिहास उनके बिना अधूरा रहा है और रहेगा।
नूतन मौर्या

जातियों के वजूद के लिए स्त्री हत्या जरूरी !



अंबेडकर यह खोज करने का दावा करते हैं कि – जाति समस्या के अलावा ‘सती प्रथा’,विधवाओं पर प्रतिबंध और बालिका विवाह( बालक-विवाह नहीं) की समस्याएं ब्राह्मण वर्ग द्वारा सजातीय विवाह पद्धति लागू करने के कारण उपजीं। उनकी यह व्याख्या कि ये समस्याएं किस तरह जाति व्यवस्था से जुड़ी हैं, इस प्रकार है-
सजातीय विवाह से हमारा तात्पर्य उन विवाहों से है जो जाति के भीतर ही होते हैं। किसी जाति में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की संख्या से मेल खानी चाहिए। हमें यह देखने को मिलता है कि पत्नियो के जीते जी पति मर जाते हैं और पतियों के जीते जी पत्नियां मर जाती हैं यदि कोई पत्नी मर जाए और उसका पति जीवित हो तो वहअतिरिक्त पुरुष होता है औऱ यदि पति मर जाय और पत्नी जीवित हो तो वह ‘अतिरिक्त स्त्री’ होती है। ये शब्दावलियां अंबेडकर ने गढ़ी हैं। यदि ऐसी अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अब भी युवावस्था या अधेड़ उम्र में हों तो उन्हे फिर से विवाह करना होगा। ऐसे विवाह उसी जाति में करने होंगे, अन्यथा वे अपने पुनर्विवाह के लिए दूसरी जातियों में झांक संकते हैं। तब जाति-व्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसा जोखिम उठाए बिना पुनर्विवाह की इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है?
अंबेडकर को पुनर्विवाह की समस्या मुश्किल में डाल देती है। उन्होने इस बात की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की कि स्त्रियों की सती प्रथा जैसी सभी समस्याएँ, पुनर्विवाह की समस्या के कारण उत्पन्न हुई।
“….(जाति से) बाहर विवाह रोकने की यह घेरा बंदी अनिवार्यत: समस्या पैदा कर देती है जिनका समाधान बहुत आसान नहीं है...यदि सजातीय विवाह पद्धति को निरापद रखना है तो यह आवश्यक रुप से दांपत्य अधिकारों का प्रावधान करना होगा, अन्यथा समूह के सदस्या येन-केन प्रकारेण अपना काम बनाने के लिए घेरे से बाहर निकल जाएंगे। परंतु दांपत्य अधिकारों का आवश्यक रुप से प्रावधान करने के लिए यह परम आवश्यक है कि समूह के भीतर दो लिंगो के विवाह-योग्य उन घटकों की आंकिक समानता कायम रखी जाय जो खुद को जाति में बनाए रखना चाहते हैं। केवल ऐसी समानता कायम रखने से ही यह संभव होगा कि समूह की आवश्यक सजातीयता को अक्षुण्ण रखा जा सके, और बहुत बड़ी विषमता से यह अवश्य टूट जाएगी। तब, जाति की समस्या जाति के भीतर दोनों लिंगों के विवाह योग्य घटकों के बीच विषमता को दुरुस्त करने की समस्या में बदल जाती है......यदि ध्यान न दिया जाय तो अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री, दोनों, जाति के लिए संकट खड़ा कर देते हैं..”(खंड 1 पृ 10)
अंबेडकर की व्याख्या जारी रहती है...
“…यदि हम उस समाधान की जांच करें जो हिंदुओं ने अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्याओँ को हल करने के लिए ढूंढा है तो हमारा काम आसान हो जाएगा...हिंदू समाज की कार्यपद्धति भले ही जटिल हो परंतु एक मामूली द्रष्टा को भी तीन अनूठे स्त्रियोचित प्रचलन देखने को मिलते हैं जिनका नांम है 1) सती प्रथा 2) बलात वैधव्य 3) बालिका विवाह ।...जहां तक मुझे पता है आज भी इस परिपाटी के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं मिलती है ”।( खंड 1 पृ 13)
बहरहाल, उन परिघटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या जो अभी तक दूसरों ने नहीं दी और जिसका अंबेडकर ने आविष्कार किया, इस प्रकार है:
“इस प्रश्न के बारे में कि क्यों वे उत्पन्न हुए, मेरा मानना है कि जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए वे आवश्यक थे।”
जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए ऐसे प्रचलन क्यों जरूरी हैं? 
पहले हम अंबेडकर के शब्दों में ही इन दोनों प्रथाओं का अवलोकन करें..
“...अतिरिक्त स्त्री (=विधवा) को यदि ठिकाने नहीं लगाया जाए तो वह समूह में बनी रहेगी: लेकिन उसके बने रहने से दोहरा खतरा है। वह जाति से बाहर विवाह कर सकती है और सजातीय विवाह पद्धति का उल्लंघन कर सकती है, या वह जाति के अंदर विवाह कर सकती है और स्पर्धा के द्वारा उन अवसरों को अतिक्रमित कर सकती है जो जाति में संभावी वधुओं के चलिए अवश्य सुरक्षित होना चाहिए। इसलिए किसी भी दशा में वह अभिशाप है, और यदि उसके मृत पति के साथ उसे जलाया न जा सकता हो तो उसका अवश्य कुछ होना चाहिए। दूसरा उपाय यह है कि उसके शेष जीवन के लिए उस पर वैधव्य थोप दिया जाए”।(खंड 1, पृ 11)।
अंबेडकर के मुताबिक सती प्रथा और वैधव्य इसी प्रकार अस्तित्व में आए।
कई स्थानों पर अंबेडकर का तर्क विच्छिन्न है। हम किन्ही भी दो तर्कों में सामंजस्य नहीं पाते है। उन्हे इस बात की बिल्कुल शंका ही नहीं हुई कि किसी भी सूरत में बालिका विवाह अतिरिक्त पुरुष के पुनर्विवाह की समस्या को हल नहीं कर सकता। अंबेडकर का कहना है कि कुछ अतिरिक्त पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं जबकि दूसरे विरक्त हो जाते हैं और यह टिप्पणी करते हैं कि यदि वे किसी एक रास्ते का इमानदारी से पालन करें तो कोई समस्या नहीं होगी अन्यथा जाति मर्यादा की सुरक्षा के लिए खतरा रहेगा। एक तरफ तो वे पुरुषों के प्रभुत्व की व्याख्या करते हैं और दूसरी तरफ वह उन पुरुषों की विशेषता बताते हैं मानों उनके पास मर्यादा है और होनी चाहिए ! क्योंकि, ‘किसी जाति में नियंत्रक अनुपात एक पुरष और एक स्त्री का होना चाहिए’ (खंड 1 पृ 12) मानो यह मर्यादा का सिद्धांत, जो आज भी लागू नहीं हुआ है, अतीत में पहले ही लागू हो चुका हो!
चाहे अतीत में हो या वर्तमान में, जिनकी पत्नियां मर जाती हैं, क्या वे बालिग स्त्री से विवाह नहीं करते हैं? क्या इससे ऐसी स्थिति निर्मित हो रही है जिससे अविवाहित पुरुष पत्नियां पाने में विफल हो जाएं। क्या पत्नियों के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह, तीसरा विवाह और विवाह के बाद विवाह नहीं किए जा रहे हैं? एक पुरुष और एक स्त्री का यह नियंत्रक उपाय किस जाति में और किस समय मौजूद था?

अंबेडकर लिखते हैं-
“मेरे विचार में, यह जातियों की व्यवस्था में किसी जाति की एक सामान्य प्रक्रिया है” (खंड 1 पृ 13)

इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप किसी जाति को सतत बनाए रखना चाहते हैं तो ये सभी प्रथाएं प्रकट होंगी।
ठीक है तो क्या ये प्रथाएं निचली जातियों में भी मिलती है? ब्राह्मण जाति की तरह, हमें हर जाति में अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अवश्य मिलते हैं। सभी जातियों को जातियों के रूप में सतत बनाए रखने के लिए, आप यह अपेक्षा करेंगे कि सती, वैधव्य और बाल-विवाह की प्रथाएं सभी जातियों में मौजूद रहनी चाहिए। क्या वे मौजूद थीं?
समकालीन जनमत 

स्त्री पैदा नहीं होती उसे बना दिया जाता है — सीमोन द बोउवार



'स्त्री उपेक्षिता' की भूमिका के अंश 
प्रभा खेतान 
" इस पुस्तक का अनुवाद करने के दौरान कभी – कभी मन में एक बात उठती रही है। क्या इसकी ज़रूरत है? शायद किसी की धरोहर मेरे पास है‚ जो मुझे लौटानी है। यह किताब जहां तक बन पड़ा मैं ने सरल और सुबोध बनाने की कोशिश की। मेरी चाह बस इतनी है कि यह अधिक से अधिक हाथों में पहुंचे। इसकी हर पंक्ति में मुझे अपने आस – पास के न जाने कितने चेहरे झांकते नज़र आए। मूक और आंसू भरे। यदि कोई इससे प्रेरणा पा सके‚ औरत की नियति को हारराई से समझ सके‚ तो मैं अपनी मेहनत बेकार नहीं समझूंगी। हांलाकि जो इसे पढ़ेगा‚ वह अकेले पढ़ेगा‚ लेकिन वह सबकी कहानी होगी। हाँ‚ इसका भावनात्मक प्रभाव अलग – अलग होगा।"
" आज यदि कोई सीमोन को पढ़े‚ तो कोई खास चौंकाने वाली बात नहीं भी लग सकती है। आज स्त्री के विभिन्न पक्षों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है‚ लेकिन मैं यह सोचती हूँ कि यह पुस्तक हमारे देश में आज भी बहस का मुद्दा हो सकती है। हम भारतीय कई तहों में जीते हैं। यदि हम मन की सलवटों को समझते हैं‚ तो ज़रूर यह स्वीकारेंगे कि औरत का मानवीय रूप सहोदरा कही जाने के बावज़ूद स्वीकृत नहीं है। हमारे देश में औरत यदि पढ़ी – लिखी है और काम करती है‚ तो उससे समाज और परिवार की उम्मीदें अधिक होती हैं। लोग चाहते हैं कि वह सारी भूमिकाओं को बिना किसी सिकायत के निभाए। वह कमा कर भी लाए और घर में अकेले खाना भी बनाए‚ बूढ़े सास – ससुर की सेवा भी करे और बच्चों का भरन – पोषण भी। पड़ोसन अगर फूहड़ है तो उससे फूहड़ विषयों पर ही बातें करे‚ वह पति के ड्राईंगरूम की शोभा भी बने और पलंग की मखमली बिछावन भी। चूंकि वह पढ़ी – लिखी है‚ इसलिये तेज – तर्रार समझी जाती है‚ सीधी तो मानी ही नहीं जा सकती। स्पष्टवादिता उसका गुनाह माना जाता है। वह घर निभाने की सोचे‚ घर बिगाड़ने की नहीं। सब कुछ तो उसी पर निर्भर करता है? समाज ने इतनी स्वतन्त्रता दी‚ परिवार ने उसे काम करने की इजाज़त दी है‚ यही क्या कम रहमदिली है! फिर शिकायत क्या?"
" यह पुस्तक न मनु संहिता है और न गीता न रामायण। हिन्दी में इस पुस्तक को प्रस्तुत करने का मेरा उद्देश्य सिर्फ यह है कि विभिन्न भूमिकाओं में जूझती हुई‚ नगरों – महानगरों की स्त्रियां इसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया मुझे लिख कर भेजें। यह सच है कि स्त्री के बारे में इतना प्रामाणिक विश्लेषण एक स्त्री ही दे सकती है। बहुधा कोई पाठिका जब अपने बारे में पुरुष के विचार और भावनाएं पढ़ती है‚ तब उसे लेखक की नीयत पर कहीं संदेह नहीं होता। ' अन्ना कैरेनिना पढ़ते हुए या शरत चन्द्र का 'शेष प्रश्न' पढ़ते हुए हम बिलकुल भूल जाते हैं कि इस स्त्री – चरित्र को पुरुष गढ़ रहा है‚ और यदि लेखक याद भी आता है तो श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है। पर यह बात भी मन में आती है कि यदि 'अन्ना' का चरित्र किसी स्त्री ने लिखा होता‚ तो क्या वह 'अन्ना' को रेल के नीचे कटकर मरने देती? यदि देवदास की ' पारो' को स्त्री ने गढ़ा होता‚ तो क्या वह यूं घुट – घुट कर मरती?"
" फ्रांस की जो स्थिति 1949 में थी‚ पश्चिमी समाज उन दिनों जिस आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहा था‚ वह सायद हमारा आज का भारतीय समाज है‚ उसका मध्यमवर्ग है‚ नगरों और महानगरों में बिखरी हुई स्त्रियां हैं‚ जो संक्रमण के दौर से गुज़र रही हैं।"
" आज 1989 में हो सकता है कि सीमोन के विचारों से हम पूरी तरह सहमत न हों‚ हो सकता है कि हमारे पास अन्य बहुत सी सूचनाएं ऐसी हों‚ जो इन विचारों की कमजोरियों को साबित करें‚ फिर भी बहुत सी स्त्रियां उनके विचारों में अपना चेहरा पा सकती हैं। कुछ आधुनिकाएं यह कह कर मखौल उड़ा सकती हैं कि हम तो लड़के – लड़की के भेद में पले ही नहीं। सीमोन के इन विचारों में मैं देश तथा विदेश में अनेक महिलाओं से बातें करती रही हूँ। हर औरत की अपनी कहानी होती है‚ अपना अनुभव होता है‚ पर अनुभवों का आधार सामाजिक संरचना तथा स्थिति होते हैं। परिस्थितियां व्यक्ति की नियंता होती हैं। अलगाव में जीती हुई स्त्रियों की भी सामूहिक आवाज़ तो होती ही है। आज से बीस साल पहले औसत मध्यवर्गीय घरों में स्वतन्त्रता की बात करना मानो अपने ऊपर कलंक का टीका लगवाना था। मैं यहां पर उन स्त्रियों का ज़िक्र नहीं कर रही‚ जो भाग्य से सुविधासम्पन्न विशिष्ट वर्ग की हैं तथा जिन्हें कॉन्वेन्ट की शिक्षा मिली है। मैं उस औसत स्त्री की बात कर रही हूँ‚ जो गाय की तरह किसी घर के दरवाजे पर रंभाती है और बछड़े के बदले घास का पुतला थनों से सटाए कातर होकर दूध देती है।
हममें से बहुतों ने पश्चिमी शिक्षा पाई है‚ पश्चिमी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है‚ पर सारी पढ़ाई के बाद मैं ने यही अनुबव किया कि भारतीय औरत की परिस्थिति 1980 के आधुनिक पश्चिमी मूल्यों से नहीं आंकी जा सकती। कभी ठण्डी सांसों के साथ मुंह से यही निकला‚ " काश! हम भी इस घर में बेटा हो कर जन्म लेते! " लेकिन जब पारम्परिक समाज की घुटन में रहते हुए और यह सोचते हुए कि पश्चिम की औरतें कितनी भाग्यशाली हैं‚ कितनी स्वतन्त्र एवं सुविधा सम्पन्न हैं और तब सीमोन का यह आलोचनात्मक साहित्य सामने आया‚ तो मैं चौंक उठी। सारे वायवीय सपने टूट गए। न पारम्परिक समाज में पीछे लौटा जा सकता है और न ही आधुनिक कहलाने वाले पश्चिमी समाज के पीछे झांकता हुआ असली चेहरा स्वीकार करने योग्य था। सीमोन ने उन्हीं आदर्शों को चुनौती दी‚ जिनका प्रतिनिधित्व वे कर रही थीं। औरत होने की जिस नियति को उन्होंने महसूस किया उसे ही लिखा भी। उन्होंने पश्चिम के कृत्रिम मिथकों का पर्दाफाश किया। पश्चिम में भी औरत देवी है‚ शक्तिरूपा है‚ लेकिन व्यवहार में औरत की क्या हस्ती है?"
" सीमोन को पढ़ते हुए औरत की सही और ईमानदार तस्वीर आंखों में तैरती है। यह समझ में आता है कि हम अकेले औरत होने का दर्द एवं त्रासदी को नहीं झेल रहीं। यह भी लगा कि हमारे देश की ज़मीन अलग है। वह कहीं – कहीं बहुत उपजाऊ है तो कहीं – कहीं बिलकुल बंजर। कहीं जलता हुआ रेगिस्तान है‚ तो कहीं फैली हुई हरियाली‚ जहां औरत के नाम से वंस चलता है। साथ ही यह भी लगा कि सीमोन स्वयं एक उदग्र प्रतिभा थीं और उनकी चेतना को ताकत दी सात्रर् ने‚ जो इस सदी के महानतम दार्शनिकों में से एक हैं। क्या सात्रर् की सहायता के बिना सीमोन इतना सोच पातीं? हमारी संस्कृति का ढांचा अलग है। सीमोन औरत के जिन भ्रमों एवं व्यामोहों का ज़िक्र करती हैं‚ हो सकता हैवे हमारे लिये आज भी ज़रूरी हों।"
" पुस्तक लिखते हुए स्त्री की स्थिति का उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के विश्लेषण किया। उन्होंने कहाः " स्त्री कहींं झुण्ड बना कर नहीं रहती। वह पूरी मानवता का हिस्सा होते हुए भी पूरी एक जाति नहीं। गुलाम अपनी गुलामी से परिचित हैं और एक काला आदमी अपने रंग से‚ पर स्त्री घरों‚ अलग – अलग वर्गों एवं भिन्न – भिन्न जातियों में बिखरी हुई है। उसमें क्रान्ति की चेतना नहीं‚ क्योंकि अपनी स्थिति के लिये वह स्वयं ज़िम्मेदार है। वह पुरुष की सहअपराधिनी है। अतः समाजवाद की स्थापना मात्र से स्त्री मुक्त नहीं हो जायेगी। समाजवाद भी पुरुष की सर्वोपरिता की ही विजय बन जाएगा। — सीमोन द बोउवार( द सैकेण्ड सेक्स)"
" नारीत्व का मिथक आखिर है क्या? क्यों स्त्री को धर्म‚ समाज‚ रूढ़ियां और साहित्य – शाश्वत नारीत्व के मिथक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। सीमोन विश्व की प्रत्येक संस्कृति में पाती हैं कि या तो स्त्री को देवी के रूप में रखा गया है या गुलाम की स्थिति में। अपनी इन स्थितियों को स्त्री ने सहर्ष स्वीकार किया‚ बल्कि बहुत सी जगहों पर सहअपराधिनी भी रही। आत्महत्या का यह भाव स्त्री में न केवल अपने लिये रहा‚ बल्कि वह अपनी बेटी‚ बहू या अन्य स्त्रियों के प्रति भी आत्मपीड़ाजनित द्वेष रखती आई है। परिणामस्वरूप स्त्री की अधीन्स्थता और बढ़ती गई।"
— प्रभा खेतान ( स्त्री उपेक्षिता की भूमिका के अंश)

छुआछूत की व्यवसायजन्य उत्पत्ति



श्री स्टैनली राइस के इस सिद्धान्त के अनुसार छुआछूत का कारण अछूतों के गंदे और अपवित्र पेशों से उपजता है। ये सिद्धान्त तार्किक लगता है। मगर इस तरह के पेशे दुनिया के हर समाज में पाये जाते हैं तो दूसरी जगहों पर उन्हे अछूत क्यों न समझा गया?

नारद स्मृति से पता चलता है कि आर्य स्वयं इस प्रकार के गंदे कार्य करते थे। नारद स्मृति के अध्याय ५ में कहा है कि पवित्र काम करने के लिये अन्य सेवकों का इस्तेमाल किया जाय जबकि अपवित्र काम जैसे झाड़ू लगाना, कूड़ा व जूठन उठाना, और शरीर के अंगो की मालिश करना दासों के विभाग में आता है। शेष काम पवित्र है जो अन्य सेवकों द्वारा किये जा सकते हैं।

सवाल उठता है कि ये दास कौन थे? क्या वे आर्य थे या अनार्य थे? आर्यों मे दास प्रथा थी और किसी भी वर्ण का आर्य दास हो सकता था। दास होने के पंद्रह तरीके नारद स्मृति में अलग से बताये हैं। और दास प्रथा के बारे में याज्ञवल्क्य ने कहा है कि यह प्रतिलोम क्रम से नहीं अनुलोम क्रम से लागू होती है। इसी पर विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरी में व्याख्या करते हुए बताया है कि शूद्र का दास सिर्फ़ शूद्र हो सकता है जबकि एक ब्राह्मण, शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण सभी को दास बना सकता है। लेकिन एक ब्राह्मण सिर्फ़ ब्राह्मण का ही दास हो सकता है।

एक बार दास बन जाने के बाद दास के लिये नियत कर्तव्यों में जाति की कोई भूमिका न होती। दास चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र उसे झाडू़ लगानी ही होगी। एक ब्राह्मण दास एक शूद्र के घर भले ही भंगी का काम न करे पर उस ब्राह्मण के घर तो करेगा ही जिसका वह दास है। अतः यह साफ़ है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो कि आर्य हैं, गंदे से गंदा, भंगी का काम करते हैं। जब यह काम एक आर्य के लिये घृणित नहीं था तो कैसे कहा जा सकता है कि गंदे और अपवित्र पेशे छुआछूत का आधार बन गये? इसलिये छुआछूत का व्यवसायजन्य उतपत्ति का सिद्धान्त भी खारिज करने योग्य है।

छुआछूत की उत्पत्ति का आधार - नस्ल का अन्तर- डॉ. बी आर अम्बेडकर



समाज शास्त्री स्टैनली राइस के मतानुसार अस्पृश्यता दो बातों से उत्पन्न हुई; नस्ल और पेशा। दोनों बातों पर अलग अलग विचार करना होगा, इस अध्याय में हम नस्ल के अंतर से छुआछूत की उत्पत्ति के सिद्धान्त के सम्बन्ध में विचार करेंगे।

श्री राइस के नस्ल के सिद्धान्त के दो पहलू हैं;१. अछूत अनार्य हैं, अद्रविड़ हैं, मूल वासी हैं, और२. वे द्रविड़ो द्वारा पराजित हुए और अधीन बनाए गए।

श्री राइस के मतानुसार भारत पर दो आक्रमण हुए हैं। पहला आक्रमण द्रविड़ों का, जिन्होने वर्तमान अछूतों के पूर्वज भारत के अद्रविड़ मूल निवासियों पर विजय प्राप्त की और फिर उन्हे अछूत बनाया। दूसरा आक्रमण आर्यों का हुआ, जिन्होने द्रविड़ों को जीता। यह पूरी कथा बेहद अपरिपक्व है तथा इस से तमाम प्रश्न उलझ कर रह जाते हैं और कोई समाधान नहीं मिलता।

प्राचीन इतिहास का अध्ययन करते हुए बार बार चार नाम मिलते हैं, आर्य, द्रविड़, दास और नाग। क्या ये चार अलग अलग प्रजातियां हैं या एक ही प्रजाति के चार नाम हैं? श्री राइस की मान्यता है कि ये चार अलग नस्लें हैं।

इस मत को स्वीकार करने के पहले हमें इसकी परीक्षा करनी चाहिये।

I

अब ये निर्विवाद है कि आर्य दो भिन्न संस्कृतियों वाले हिस्सों में विभक्त थे। ऋगवेदी जो यज्ञो में विश्वास रखते और अथर्ववेदी जो जादू टोनों में विश्वास रखते। ऋगवेदियों ने ब्राह्मणो व आरण्यकों की रचना की और अथर्ववेदियों ने उपनिषदों की रचना की। यह वैचारिक संघर्ष इतना गहरा और बड़ा था कि बहुत बाद तक अथर्ववेद को पवित्र वाङ्मय नहीं माना गया और न ही उपनिषदों को। हम नहीं जानते कि आर्यों के ये दो विभाग दो नस्लें थी या नहीं, हम ये भी नहीं जानते कि आर्य शब्द किसी नस्ल का नाम ही है। इसलिये यह मानना कि आर्य कोई अलग नस्ल है गलत होगा।

इससे भी बड़ी गलती दासों को नागों से अलग करना है। दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का तत्सम रूप है। नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिये सभी नागों को आम तौर पर दास कहना आरंभ हुआ।

तो नाग कौन थे? निस्संदेह वे अनार्य थे। ऋगवेद में वृत्र का ज़िक्र है। आर्य उसकी पूजा नहीं करते। वे उसे आसुरी वृत्ति का शक्तिशाली देवता मानते हैं और उसे परास्त करना अपना इष्ट। ऋगवेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट है कि नाग बहुत प्राचीन लोग थे। और ये भी याद रखा जाय कि न तो वे आदिवासी थे और न असभ्य। राजपरिवारों और नागों के बीच विवाह सम्बन्धों का अनगिनत उदाहरण हैं। प्राचीन काल से नौवीं दसवीं शताब्दी तक के शिलालेख नागों से विवाह सम्बन्ध की चर्चा करते हैं।

नाग सांस्कृतिक विकास की ऊँची अवस्था को प्राप्त थे, साथ ही वे देश के एक बड़े भूभाग पर राज्य भी करते थे। महाराष्ट्र नागों का ही क्ष्रेत्र है, यहाँ के लोग और शासक नाग थे। ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में आंध्र और उसके पड़ोसी राज्य नागों के अधीन थे। सातवाहन और उनके छुतकुल शातकर्मी उत्तराधिकारियों का रक्त नाग रक्त ही था। बौद्ध अनुश्रुति है कि कराची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था। तीसरी और चौथी शताब्दियों में उत्तरी भारत में भी अनेक नाग नरेशों का शासन रहा है, यह बात पुराणों, प्राचीन लेखों और सिक्कों से सिद्ध होती है। इस तरह के तमाम साक्ष्य हैं जो इतिहास में नागों के लगातार प्रभुत्व को सिद्ध करते हैं।

अब आइये द्रविड़ पर, वे कौन थे? क्या वे और नाग अलग अलग लोग हैं या एक ही प्रजाति के दो नाम हैं? इस विषय पर दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान दीक्षितय्यर ने अपने रामायण में दक्षिन भारत नामक लेख में कहते हैं..

उत्तर पश्चिम में तक्षशिला, उत्तर पूर्व में आसाम और दक्षिण में श्री लंका तक, सर्प चिह्न वाले देवतुल्य नाग फैले हुए थे। एक समय वे अत्यन्त शक्तिशाली थे और श्रीलंका और मलाबार उनके कब्ज़े में रहे। मलाबार में आज भी नाग पूजा की परम्परा है। ऐसा लगता है कि ईसवी दौर आते आते नाग चेरों के साथ घुलमिल गये थे..

इसी विषय को सी एफ़ ओल्ढम आगे बढ़ाते हुए बताते हैं.. प्राचीन काल से द्रविड़ तीन भागों में बँटे हैं, चेर चोल और पान्ड्य.. तमिल भाषा में चेर नाग का पर्यायवाची है। इसके अतिरिक्त गंगा घाटी में चेरु या सिओरी कहलाने वाले एक प्राचीन प्रजाति रहती है, ऐसा माना जाता है कि उनका एक समय में गंगा घाटी के एक बड़े हिस्से पर उनका, यानी कि नागों का, आधिपत्य रहा है। ये कहा जा सकता है कि ये चेरु अपने द्रविड़ बंधु चेरों के सम्बन्धी हैं। 

इसके अलावा दूसरी कडि़यां हैं जो दक्षिण के नागों को उत्तर भारत के नागों से मिलाती हैं। चम्बल में रहने वाले सरय, शिवालिक में सर या स्योरज और ऊपरी चिनाब में स्योरज। इसके अलावा हिमाचल की कुछ बोलियों में कीरा या कीरी का अर्थ साँप है हो सकता है किरात इसी से बना हो, जो एक हिमालय में रहने वाली एक प्रजाति है। नामों की समानता सदैव विश्वसनीय नहीं होती मगर ये सब लोग जिनके नाम मिलते जुलते हैं, सभी सूर्यवंशी है, सभी मनियर नाग को मानते हैं और ये सभी नाग देवता को अपना पूर्वज मानकर पूजते हैं।

तो यह स्पष्ट है कि नाग और द्रविड़ एक ही लोग हैं। मगर इस मत को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि यदि दक्षिण के लोग नाग ही हैं तो द्रविड़ क्यों कहलाते हैं? इस सम्बन्ध में तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली भाषा सम्बन्धी बात पर सी एफ़ ओल्ढम साहब फ़रमाते हैं;

संस्कृत के वैयाकरण मानते हैं कि द्रविड़ भाषा को उत्तर भारत की लोक भाषाओं से सम्बन्धित मानते हैं, खासकर उन लोगों की बोलियों से जो असुरों के वंशज है। सभी बोलियों में पैशाची में संस्कृत का सबसे कम अंश है।

ऋगवेद के साक्ष्यों के अनुसार असुरों की भाषा आर्यों को समझ में नहीं आती थी। और अन्य साक्ष्यों से साफ़ होता है कि मनु के समय आर्य भाषा के साथ साथ म्लेच्छ या असुरों की भाषा भी बोली जाती थी, और जो महाभारत काल तक आते आते आर्य जातियों के लिये अगम्य हो गई। बाद के कालों में वैयाकरणों ने नाग भाषाएं बोलने वालों का ज़िक्र किया है। इस से पता चलता है कि कुछ लोगों द्वारा अपने पूर्वजों की भाषा त्याग दिये जाने के बावजूद कुछ लोग उस भाषा तथा संस्कृति का व्यवहार करते रहे, और ये कुछ लोग में पान्ड्य व द्रविड़ थे। 

दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रविड़ संस्कृत का मूल शब्द नहीं है। यह तमिल से दमित हुआ और फिर दमिल्ल से द्रविड़। तमिल का अर्थ कोई प्रजाति नहीं बल्कि एक सिर्फ़ एक भाषाई समुदाय है।

तीसरी ध्यान देने योग्य बात कि तमिल आर्यों के आने से पूर्व पूरे भारत में बोले जाने वाली भाषा थी। उत्तर के नागों ने अपनी भाषा द्रविड़ को छोड़ दिया और संस्कृत को अपना लिया जबकि दक्षिण के पकड़े रहे। चूंकि उत्तर के नाग अपनी भाषा को भूल चुके थे और द्रविड़ बोलने वाले लोग सिर्फ़ दक्षिण में सिमट कर रह गये थे इसीलिये उन्हे द्रविड़ पुकारना संभव हुआ।

तो यह समझा जाय कि नाग और द्रविड़ एक ही प्रजाति के दो भिन्न नाम हैं, नाग उनका संस्कृतिगत नाम है और द्रविड़ भाषागत। इस प्रकार दास वे ही हैं, जो नाग हैं, जो द्रविड़ हैं। और भारत में अधिक से अधिक दो ही नस्लें रही है, आर्य और द्रविड़। साफ़ है कि श्री स्टैनली राइस का मत गलत है, जो तीन नस्ल का अस्तित्व मानते हैं।

II

अगर यह मान भी लिया जाय कि कोई तीसरी नस्ल भी भारत में थी, तो यह साबित करने के लिये कि आज के अछूत प्राचीन काल के मूल निवासी ही हैं, दो प्रकार के अध्ययन का सहारा लिया जा सकता है; एक मानव शरीर शास्त्र (anthropometry) और दूसरा मानव वंश विज्ञान (ethonography)।

मानव शरीर शास्त्र के विद्वान डॉ धुरे ने अपने ग्रंथ 'भारत में जाति और नस्ल' में इन मसलों का अध्ययन किया । तमाम बातों के बीच ये बात भी सामने आई कि पंजाब के अछूत चूहड़े और यू पी के ब्राह्मण का नासिका माप एक ही है। बिहार के चमार और बिहार के ब्राह्मण का नासिका माप कुछ ज़्यादा भिन्न नहीं। कर्नाटक के अछूत होलेय का नासिका माप कर्नाटक के ब्राह्मण से कहीं ऊँचा है। यदि मानव शरीर शास्त्र विश्वसनीय है तो प्रमाणित होता है कि ब्राहमण और अछूत एक ही नस्ल के है। यदि ब्राह्मण आर्य है तो अछूत भी आर्य है, यदि ब्राह्मण द्रविड़ है तो अछूत भी द्रविड़ है, और यदि ब्राह्मण नाग है तो अछूत भी नाग है। इस स्थिति में राइस का सिद्धान्त निराधार सिद्ध होता है।

III

आइये अब देखें कि मानव वंश विज्ञान का अध्ययन क्या कहता है। सब जानते हैं कि एक समय पर भारत आदिवासी कबीलों के रूप में संगठित था। अब कबीलों ने जातियों का रूप ले लिया है मगर कबीलाई स्वरूप विद्यमान है। जिसे टोटेम या गोत्र के स्वरूप से समझा जा सकता है। एक टोटेम या गोत्र वाले लोग आपस में विवाह समबन्ध नहीं कर सकते। क्योंकि वे एक ही पूर्वज के वंशज यानी एक ही रक्त वाले समझे जाते। इस तरह का अध्ययन जातियों को समझने की एक अच्छी कसौटी बन सकता था मगर समाज शास्त्रियों ने इसे अनदेखा किया है और जनगणना आयोगों ने भी। इस लापरवाही का आधार यह गलत समझ है कि हिन्दू समाज का मूलाधार उपजाति है।

सच्चाई यह है कि विवाह के अवसर पर कुल और गोत्र के विचार को ही प्रधान महत्व दिया जाता है, जाति और उपजाति का विचार गौण है। और हिन्दू समाज अपने संगठन की दृष्टि से अभी भी कबीला ही है। और परिवार उसका आधार है।

महाराष्ट्र में श्री रिसले द्वारा एक अध्ययन से सामने आया कि मराठों और महारों में पाए जाने वाले कुल एक ही से हैं। मराठों में शायद ही कोई कुल हो जो महारों में ना हो। इसी तरह पंजाब में जाटों और चमारों के गोत्र समान हैं।

यदि ये बाते सही हैं तो आर्य भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? जिनका कुल और गोत्र एक हो, वे सम्बन्धी होंगे। तो फिर भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? अतः छुआछूत की उत्पत्ति का नस्लवादी सिद्धान्त त्याज्य है।

Friday, March 18, 2011

उत्पीड़ित दुनिया: Afro-American Poems

उत्पीड़ित दुनिया: Afro-American Poems

Afro-American Poems



COAL

I 
is the total black, being spoken 
from the earth's inside. 
There are many kinds of open 
how a diamond comes into a knot of flame 
how sound comes into a word, coloured 
by who pays for what speaking.

Some words are open like a diamond
 
on glass windows
 
singing out within the passing crash of sun
 
There are words like stapled wagers
 
in a perforated book, -buy and sign and tear apart-
 
and come whatever wills all chances
 
the stub remains
 
an ill-pulled tooth with a ragged edge.
 
Some words live in my throat
 
breeding like adders. Others know sun
 
seeking like gypsies over my tongue
 
to explode through my lips
 
like young sparrows bursting from shell.
 
Some words
 
bedevil me.

Love is a word, another kind of open.
 
As the diamond comes into a knot of flame
 
I am Black because I come from the earth's inside
 
now take my word for jewel in the open light.
Written by Audre Lorde (1934-1992)
A Woman Speaks

Moon marked and touched by sun 
my magic is unwritten 
but when the sea turns back 
it will leave my shape behind. 
I seek no favor 
untouched by blood 
unrelenting as the curse of love 
permanent as my errors 
or my pride 
I do not mix 
love with pity 
nor hate with scorn 
and if you would know me 
look into the entrails of Uranus 
where the restless oceans pound.

I do not dwell
 
within my birth nor my divinities
 
who am ageless and half-grown
 
and still seeking
 
my sisters
 
witches in Dahomey
 
wear me inside their coiled cloths
 
as our mother did
 
mourning.

I have been woman
 
for a long time
 
beware my smile
 
I am treacherous with old magic
 
and the noon's new fury
 
with all your wide futures
 
promised
 
I am
 
woman
 
and not white.
Written by Audre Lorde (1934-1992)
Fantasy and Conversation

Speckled frogs leap from my mouth 
to drown in the coffee 
between our wisdoms 
and decisions

I could smile
 
and turn these frogs in to pearls
 
speak of love, our making
 
our giving.
 
And if the spell works
 
shall I break down
 
or build what is bropken
 
into a new house
 
shook with confusion

Shall I strike
 
before our magic
 
turns colour?
Written by Audre Lorde (1934-1992)

Who Said It Was Simple


There are so many roots to the tree of anger 
that sometimes the branches shatter 
before they bear.

Sitting in Nedicks 
the women rally before they march 
discussing the problematic girls 
they hire to make them free. 
An almost white counterman passes 
a waiting brother to serve them first 
and the ladies neither notice nor reject 
the slighter pleasures of their slavery. 
But I who am bound by my mirror 
as well as my bed 
see causes in colour 
as well as sex


and sit here wondering 
which me will survive 
all these liberations.

Written by Audre Lorde (1934-1992)


Power

The difference between power and rhetoric 
is being ready to kill 
yourself 
instead of your children.

I am trapped on a desert of raw gunshot wounds
 
and a dead child dragging his shattered black
 
face off the edge of my sleep
 
blood from his punctured cheeks and shoulders
 
is the only liquid for miles
 
and my stomach
 
churns at the imagined taste while
 
my mouth splits into dry lips
 
without loyalty or reason
 
thirsting for the wetness of his blood
 
as it sinks into the whiteness
 
of the desert where I am lost
 
without imagery or magic
 
trying to make power out of hatred and destruction
 
trying to heal my dying son with kisses
 
only the sun will bleach his bones quicker.

A policeman who shot down a ten year old in Queens
 
stood over the boy with his cop shoes in childish blood
 
and a voice said "Die you little motherfucker" and
 
there are tapes to prove it. At his trial
 
this policeman said in his own defense
 
"I didn't notice the size nor nothing else
 
only the color". And
 
there are tapes to prove that, too.

Today that 37 year old white man
 
with 13 years of police forcing
 
was set free
 
by eleven white men who said they were satisfied
 
justice had been done
 
and one Black Woman who said
 
"They convinced me" meaning
 
they had dragged her 4'10'' black Woman's frame
 
over the hot coals
 
of four centuries of white male approval
 
until she let go
 
the first real power she ever had
 
and lined her own womb with cement
 
to make a graveyard for our children.

I have not been able to touch the destruction
 
within me.
 
But unless I learn to use
 
the difference between poetry and rhetoric
 
my power too will run corrupt as poisonous mold
 
or lie limp and useless as an unconnected wire
 
and one day I will take my teenaged plug
 
and connect it to the nearest socket
 
raping an 85 year old white woman
 
who is somebody's mother
 
and as I beat her senseless and set a torch to her bed
 
a greek chorus will be singing in 3/4 time
 
"Poor thing. She never hurt a soul. What beasts they are."
Written by Audre Lorde (1934-1992)
Gray

I have a friend 
who is turning gray, 
not just her hair, 
and I do not know 
why this is so.

Is it a lack of vitamin E
 
pantothenic acid, or B-12?
 
Or is it from being frantic
 
and alone?

'How long does it take you to love someone?'
 
I ask her.
 
'A hot second,' she replies.
 
'And how long do you love them?'
 
'Oh, anywhere up to several months.'
 
'And how long does it take you
 
to get over loving them?'
 
'Three weeks,' she said, 'tops.'

Did I mention I am also
 
turning gray?
 
It is because I *adore* this woman
 
who thinks of love
 
in this way.
Written by Alice Walker
WHO ?

Who has not been 
invaded 
by the Wasichu? 

Not I, said the people. 

Not I, said the trees. 

Not I, said the waters. 

Not I, said the rocks. 

Not I, said the air. 

Moon! 

We hoped 
you were safe.
Written by Alice Walker
Expect Nothing

Expect nothing. Live frugally 
On surprise. 
become a stranger 
To need of pity 
Or, if compassion be freely 
Given out 
Take only enough 
Stop short of urge to plead 
Then purge away the need.

Wish for nothing larger
 
Than your own small heart
 
Or greater than a star;
 
Tame wild disappointment
 
With caress unmoved and cold
 
Make of it a parka
 
For your soul.

Discover the reason why
 
So tiny human midget
 
Exists at all
 
So scared unwise
 
But expect nothing. Live frugally
 
On surprise.
Written by Alice Walker
EACH ONE, PULL ONE

(Thinking of Lorraine Hansberry)

We must say it all, and as clearly
 
Trying to bury us.
 
As we can. For, even before we are dead,

Were we black? Were we women? Were we gay?
 
Were we the wrong
 shade of black? Were we yellow? 
Did we, God forbid, love the wrong person, country?
 
Or politics? Were we Agnes Smedley or John Brown?

But, most of all, did we write exactly what we saw,
 
As clearly as we could? Were we unsophisticated
 
Enough to cry
 and scream?

Well, then, they will fill our eyes,
 
Our ears, our noses and our mouths
 
With the mud
 
Of oblivion. They will chew up
 
Our fingers in the night. They will pick
 
Their teeth with our pens. They will sabotage
 
Both our children
 
And our art.

Because when we show what we see,
 
They will discern the inevitable:
 
We do not worship them.

We do not worship them.
 
We do not worship what they have made.
 
We do not trust them.

We do not believe what they say.
 
We do not love their efficiency.
 
Or their power plants.
 
We do not love their factories.
 
Or their smog.
 
We do not love their television programs.
 
Or their radioactive leaks.
 
We find their papers boring.
 
We do not worship their cars.
 
We do not worship their blondes.
 
We do not worship their penises.
 
We do not think much
 
Of their Renaissance
 
We are indifferent to England.
 
We have grave doubts about their brains.

In short, we who write, paint, sculpt, dance
 
Or sing
 
Share the intelligence and thus the fate
 
Of all our people
 
In this land.
 
We are not different from them,
 
Neither above nor below,
 
Outside nor inside.
 
We are the same.
 
And we do not worship them.

We do not worship them.
 
We do not worship their movies.
 
We do not worship their songs.

We do not think their newscasts
 
Cast the news.
 
We do not admire their president.
 
We know why the White House is white.
 
We do not find their children irresistible;
 
We do not agree they should inherit the earth.

But lately you have begun to help them
 
Bury us. You who said: King was just a womanizer;
 
Malcom, just a thug; Sojourner, folksy; Hansberry,
 
A traitor (or whore, depending); Fannie Lou Hamer,
 
merely spunky; Zora Hurston, Nella Larsen, Toomer:
 
reactionary, brainwashed, spoiled by whitefolks, minor;
 
Agnes Smedley, a spy.

I look into your eyes;
 
You are throwing in the dirt.
 
You, standing in the grave
 
With me. Stop it!

Each one must pull one.

Look, I, temporarily on the rim
 
Of the grave,
 
Have grasped my mother's hand
 
My father's leg.
 
There is the hand of Robeson
 
Langston's thigh
 
Zora's arm and hair
 
Your grandfather's lifted chin
 
And lynched woman's elbow
 
What you've tried to forget
 
Of your grandmother's frown.

Each one, pull one back into the sun

We who have stood over
 
So many graves
 
Know that no matter what they do
 
All of us must live
 
Or none.
Written by Alice Walker
I Said to Poetry

I said to Poetry: "I'm finished 
with you." 
Having to almost die 
before some wierd light 
comes creeping through 
is no fun. 
"No thank you, Creation, 
no muse need apply. 
Im out for good times-- 
at the very least, 
some painless convention."

Poetry laid back
 
and played dead
 
until this morning.
 
I wasn't sad or anything,
 
only restless.

Poetry said: "You remember
 
the desert, and how glad you were
 
that you have an eye
 
to see it with? You remember
 
that, if ever so slightly?"
 
I said: "I didn't hear that.
 
Besides, it's five o'clock in the a.m.
 
I'm not getting up
 
in the dark
 
to talk to you."

Poetry said: "But think about the time
 
you saw the moon
 
over that small canyon
 
that you liked so much better
 
than the grand one--and how suprised you were
 
that the moonlight was green
 
and you still had
 
one good eye
 
to see it with

Think of that!"

"I'll join the church!" I said,
 
huffily, turning my face to the wall.
 
"I'll learn how to pray again!"

"Let me ask you," said Poetry.
 
"When you pray, what do you think
 
you'll see?"

Poetry had me.

"There's no paper
 
in this room," I said.
 
"And that new pen I bought
 
makes a funny noise."

"Bullshit," said Poetry.
 
"Bullshit," said I.
Written by Alice Walker

The Old Men Used to Sing

The old men used to sing 
And lifted a brother 
Carefully 
Out the door 
I used to think they 
Were born 
Knowing how to 
Gently swing 
A casket 
They shuffled softly 
Eyes dry 
More awkward 
With the flowers 
Than with the widow 
After they'd put the 
Body in 
And stood around waiting 
In their 
Brown suits.
Written by Alice Walker
Top of Form
Bottom of Form
Tell Me

Tell me, dear beauty of the dusk, 
When purple ribbons bind the hill, 
Do dreams your secret wish fulfill, 
Do prayers, like kernels from the husk 
Come from your lips?

Tell me if when
 
The mountains loom at night,
 
giant shades
 
Of softer shadow,
 
swift like blades
 
Of grass seeds come to flower.

Then
 
Tell me if the night winds bend
 
Them towards me, if the Shenandoah
 
As it ripples past your shore,
 
Catches the soul of what you send.
 
Written by Jean Toomer (1894-1967)
People

To those fixed on white, 
White is white, 
To those fixed on black, 
It is the same, 
And red is red, 
Yellow, yellow-

Surely there are such sights
 
In the many colored world,
 
Or in the mind.
 
The strange thing is that
 
These people never see themselves
 
Or you, or me.

Are they not in their minds?
 
Are we not in the world?
 
This is a curious blindness
 
For those that are color blind.

What queer beliefs
 
That men who believe in sights
 
Disbelieve in seers.

O people, if you but used
 
Your other eyes
 
You would see beings.
 
Written by Jean Toomer (1894-1967)
Conversion

African Guardian of Souls, 
Drunk with rum, 
Feasting on strange cassava, 
Yielding to new words and a weak palabra 
Of a white-faced sardonic god--

Grins, cries
 
Amen,
 
Shouts hosanna.
 
Written by Jean Toomer (1894-1967)
Evening Song

Full moon rising on the waters of my heart, 
Lakes and moon and fires, 
Cloine tires, 
Holding her lips apart.

Promises of slumber leaving shore to
 
charm the moon,
 
Miracle made vesper-keeps,
 
Cloine sleeps,
 
And I'll be sleeping soon.

Cloine, curled like the sleepy waters
 
whtere the moonwaves start,
 
Radiant, resplendently she gleams,
 
Cloine dreams,
 
Lips pressed against my heart.
 
Written by Jean Toomer (1894-1967)
The Lost Dancer

Spatial depths of being survive 
The birth to death recurrences 
Of feet dancing on earth of sand; 
Vibrations of the dance survive 
The sand; the sand, elect, survives 
The dancer.

He can find no source
 
Of magic adequate to bind
 
The sand upon his feet, his feet
 
Upon his dance, his dance upon
 
The diamond body of his being.
 

Written by Jean Toomer (1894-1967) Full Moon


No longer throne of a goddess to whom we pray, 
no longer the bubble house of childhood's 
tumbling Mother Goose man,

The emphatic moon ascends--
 
the brilliant challenger of rocket experts,
 
the white hope of communications men.

Some I love who are dead
 
were watchers of the moon and knew its lore;
 
planted seeds, trimmed their hair,

Pierced their ears for gold hoop earrings
 
as it waxed or waned.
 
It shines tonight upon their graves.

And burned in the garden of Gethsemane,
 
its light made holy by the dazzling tears
 
with which it mingled.

And spread its radiance on the exile's path
 
of Him who was The Glorious One,
 
its light made holy by His holiness.

Already a mooted goal and tomorrow perhaps
 
an arms base, a livid sector,
 
the full moon dominates the dark.
Written by Robert Hayden (1913-1980)
Those Winter Sundays

Sundays too my father got up early 
and put his clothes on in the blueblack cold, 
then with cracked hands that ached 
from labor in the weekday weather made 
banked fires blaze. No one ever thanked him.

I'd wake and hear the cold splintering, breaking.
 
When the rooms were warm, he'd call,
 
and slowly I would rise and dress,
 
fearing the chronic angers of that house,

Speaking indifferently to him,
 
who had driven out the cold
 
and polished my good shoes as well.
 
What did I know, what did I know
 
of love's austere and lonely offices?
Written by Robert Hayden (1913-1980)

Frederick Douglass


When it is finally ours, this freedom, this liberty, this beautiful 
and terrible thing, needful to man as air, 
usable as earth; when it belongs at last to all, 
when it is truly instinct, brain matter, diastole, systole, 
reflex action; when it is finally won; when it is more 
than the gaudy mumbo jumbo of politicians: 
this man, this Douglass, this former slave, this Negro 
beaten to his knees, exiled, visioning a world 
where none is lonely, none hunted, alien, 
this man, superb in love and logic, this man 
shall be remembered. Oh, not with statues' rhetoric, 
not with legends and poems and wreaths of bronze alone, 
but with the lives grown out of his life, the lives 
fleshing his dream of the beautiful, needful thing.

Written by Robert Hayden (1913-1980)


Mourning Poem for the Queen of Sunday


Lord's lost Him His mockingbird, 
        His fancy warbler; 
        Satan sweet-talked her, 
        four bullets hushed her. 
        Who would have thought 
        she'd end that way?

Four bullets hushed her. And the world a-clang with evil. 
Who's going to make old hardened sinner men tremble now 
and the righteous rock? 
Oh who and oh who will sing Jesus down 
to help with struggling and doing without and being colored 
all through blue Monday? 
Till way next Sunday?


        All those angels 
        in their cretonne clouds and finery 
        the true believer saw 
        when she rared back her head and sang, 
        all those angels are surely weeping. 
        Who would have thought 
        she'd end that way?


Four holes in her heart. The gold works wrecked. 
But she looks so natural in her big bronze coffin 
among the Broken Hearts and Gates-Ajar, 
it's as if any moment she'd lift her head 
from its pillow of chill gardenias 
and turn this quiet into shouting Sunday 
and make folks forget what she did on Monday.


        Oh, Satan sweet-talked her, 
        and four bullets hushed her. 
        Lord's lost Him His diva, 
        His fancy warbler's gone. 
        Who would have thought, 
        who would have thought she'd end that way?

Written by Robert Hayden (1913-1980)

Those Winter Sundays

Sundays too my father got up early 
and put his clothes on in the blueblack cold, 
then with cracked hands that ached 
from labor in the weekday weather made 
banked fires blaze. No one ever thanked him.

I'd wake and hear the cold splintering, breaking.
 
When the rooms were warm, he'd call,
 
and slowly I would rise and dress,
 
fearing the chronic angers of that house,

Speaking indifferently to him,
 
who had driven out the cold
 
and polished my good shoes as well.
 
What did I know, what did I know
 
of love's austere and lonely offices?
Written by Robert Hayden (1913-1980)
Strong Men

They dragged you from the homeland, They chained you in coffles, 
They huddled you spoon-fashion in filthy hatches, 
They sold you to give a few gentlemen ease.

They broke you in like oxen, They scourged you, They branded you,
 
They made your women breeders, They swelled your numbers with bastards..
 
They taught you the religion they disgraced.
 
You sang:
 
Keep a-inchin' along
 
Lak a po' inch worm…
 
You sang:
 
By and Bye
 
I'm gonna lay down this heaby load…
 
You sang:
 
Walk togedder, chillen,
 
Dontcha git weary…
 
The strong men keep a-comin' on
 
The strong men get stronger.

They point with pride to the roads you built for them,
 
They ride in comfort over the rails you laid for them.
 
They put hammers in your hands
 
And said-Drive so much before sundown.
 
You sang:
 
Ain't no hammah
 
In dis lan'
 
Strikes lak mine, bebby,
 
Stikes lak mine.
 
They copped you in their kitchens,
 
They penned you in their factories,
 
They gave you the jobs that they were too good for,
 
They tried to guarantee happiness to themselves
 
By shunting dirt and misery to you....
Written by Sterling A. Brown (1901-1989)

Long Track Blues


Went down to the yards 
To see the signal lights come on; 
Looked down the track 
Where my lovin' babe done gone.

Red light in my block, 
Green light down the line; 
Lawdy, let yo' green light 
Shine down on that babe o' mine.


Heard a train callin' 
Blowin' long ways down the track; 
Ain't no train due here, 
Baby what can you bring back?


Brakeman tell me 
Got a powerful ways to go; 
He don't know my feelin's 
Baby, when he's talkin' so.


Lanterns a-swingin', 
An' a long freight leaves the yard; 
Leaves me here, baby, 
But my heart it rides de rod.


Sparks a flyin', 
Wheels rumblin' wid a mighty roar; 
Then the red tail light, 
And the place gets dark once more.


Dog in the freight room 
Howlin' like he los' his mind; 
Might howl myself, 
If I was the howlin' kind.


Norfolk and Western, 
Bobay, and the C. & O.; 
How come they treat 
A hardluck feller so?


Red light in my block, 
Green light down the line; 
Lawdy, let yo' green light 
Shine down on that babe o' mine.

Written by Sterling A. Brown (1901-1989)

Mose

Mose is black and evil 
And damns his luck 
Driving Mister Schwartz's 
Big coal truck.

He's got no gal,
 
He's got no jack,
 
No fancy silk shirts
 
For his back.

But summer evenings,
 
Hard luck Mose
 
Goes in for all
 
The fun he knows.

On the corner kerb
 
With a sad quartette
 
His tenor peals
 
Like a clarinet.

O hit it Moses
 
Sing att thing
 
But Mose's mind
 
Goes wandering;--

And to the stars
 
Over the town
 
Floats, from a good man
 
Way, way down-

A soft song, filled
 
With a misery
 
Older than Mose
 
Will ever be.
Written by Sterling A. Brown (1901-1989)

Ka'Ba

"A closed window looks down 
on a dirty courtyard, and Black people 
call across or scream across or walk across 
defying physics in the stream of their will.

Our world is full of sound
 
Our world is more lovely than anyone's
 
tho we suffer, and kill each other
 
and sometimes fail to walk the air.

We are beautiful people
 
With African imaginations
 
full of masks and dances and swelling chants
 
with African eyes, and noses, and arms
 
tho we sprawl in gray chains in a place
 
full of winters, when what we want is sun.

We have been captured,
 
and we labor to make our getaway, into
 
the ancient image; into a new

Correspondence with ourselves
 
and our Black family. We need magic
 
now we need the spells, to raise up
 
return, destroy,and create. What will be

the sacred word?
Written by Amiri Baraka
Wise I

     WHYS (Nobody Knows 
     The Trouble I Seen) 
     Traditional

If you ever find
 
yourself, some where
 
lost and surrounded
 
by enemies
 
who won't let you
 
speak in your own language
 
who destroy your statues
 
& instruments, who ban
 
your omm bomm ba boom
 
then you are in trouble
 
deep trouble
 
they ban your
 
own boom ba boom
 
you in deep deep
 
trouble

humph!

probably take you several hundred years
 
to get
 
out!
Written by Amiri Baraka
A Poem for Speculative Hipsters

He had got, finally, 
to the forest 
of motives. There were no 
owls, or hunters. No Connie Chatterleys 
resting beautifully 
on their backs, having casually 
brought socialism 
to England. 
     Only ideas, 
and their opposites 
         Like, 
     he was really 
     nowhere.
Written by Amiri Baraka
Preface to a Twenty Volume Suicide Note

Lately, I've become accustomed to the way 
The ground opens up and envelopes me 
Each time I go out to walk the dog. 
Or the broad edged silly music the wind 
Makes when I run for a bus...

Things have come to that.

And now, each night I count the stars.
 
And each night I get the same number.
 
And when they will not come to be counted,
 
I count the holes they leave.

Nobody sings anymore.

And then last night I tiptoed up
 
To my daughter's room and heard her
 
Talking to someone, and when I opened
 
The door, there was no one there...
 
Only she on her knees, peeking into

Her own clasped hands
Written by Amiri Baraka
CELL SONG

Night Music Slanted 
Light strike the cave of sleep. I alone 
tread the red circle 
and twist the space with speech

Come now, etheridge, don't
 
be a savior; take your words and scrape
 
the sky, shake rain

on the desert, sprinkle
 
salt on the tail
 
of a girl,

can there anything
 
good come out of
 
prison
Written by Etheridge Knight (1931-1991)
The Idea of Ancestry

Taped to the wall of my cell are 47 pictures: 47 black 
faces: my father, mother, grandmothers (1 dead), grand- 
fathers (both dead), brothers, sisters, uncles, aunts, 
cousins (1st and 2nd), nieces, and nephews.They stare 
across the space at me sprawling on my bunk.I know 
their dark eyes, they know mine.I know their style, 
they know mine.I am all of them, they are all of me; 
they are farmers, I am a thief, I am me, they are thee.

I have at one time or another been in love with my mother,
 
1 grandmother, 2 sisters, 2 aunts (1 went to the asylum),
 
and 5 cousins.I am now in love with a 7-yr-old niece
 
(she sends me letters in large block print, and
 
her picture is the only one that smiles at me).

I have the same name as 1 grandfather, 3 cousins, 3 nephews,
 
and 1 uncle. The uncle disappeared when he was 15, just took
 
off and caught a freight (they say).He's discussed each year
 
when the family has a reunion, he causes uneasiness in
 
the clan, he is an empty space.My father's mother, who is 93
 
and who keeps the Family Bible with everbody's birth dates
 
(and death dates) in it, always mentions him.There is no
 
place in her Bible for "whereabouts unknown."
Written by Etheridge Knight (1931-1991)

Dark Prophecy: I Sing Of Shine

And, yeah brothers 
while white America sings about the unsinkable molly brown 
(who was hustling the titanic 
when it went down) 
I sing to thee of Shine 
the stoker who was hip enough to flee the fucking ship 
and let the white folks drown 
with screams on their lips 
(jumped his black ass into the dark sea, Shine did, 
broke free from the straining steel). 
Yeah, I sing to thee of Shine 
and how the millionaire banker stood on the deck 
and pulled from his pockets a million dollar check 
saying Shine Shine save poor me 
and I'll give you all the money a black boy needs- 
how Shine looked at the money and then at the sea 
and said jump in muthafucka and swim like me- 
and Shine swam on-Shine swam on- 
and how the banker's daughter ran naked on the deck 
with her pink tits trembling and her pants roun her neck 
screaming Shine Shine save poor me 
and I'll give you all the pussy a black boy needs- 
how Shine said now pussy is good and that's no jive 
but you got to swim not fuck to stay alive- 
And Shine swam on Shine Swam on-

How Shine swam past a preacher afloating on a board
 
crying save me nigger Shine in the name of the Lord-
 
and how the preacher grabbed Shine's arm and broke his stroke-
 
how Shine pulled his shank and cut the preacher's throat-
 
And Shine swam on-Shine swam on-
 
And when news hit shore that the titanic had sunk
 
Shine was up in Harlem damn near drunk-
Written by Etheridge Knight (1931-1991)
TO AMERICA

How would you have us, as we are? 
Or sinking 'neath the load we bear? 
Our eyes fixed forward on a star? 
Or gazing empty at despair?

Rising or falling? Men or things?
 
With dragging pace or footsteps fleet?
 
Strong, willing sinews in your wings?
 
Or tightening chains about your feet?
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
Mother Night

Eternities before the first-born day, 
Or ere the first sun fledged his wings of flame, 
Calm Night, the everlasting and the same, 
A brooding mother over chaos lay. 
And whirling suns shall blaze and then decay, 
Shall run their fiery courses and then claim 
The haven of the darkness whence they came; 
Back to Nirvanic peace shall grope their way.

So when my feeble sun of life burns out,
 
And sounded is the hour for my long sleep,
 
I shall, full weary of the feverish light,
 
Welcome the darkness without fear or doubt,
 
And heavy-lidded, I shall softly creep
 
Into the quiet bosom of the Night.
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
Go Down, Death

(A Funeral Sermon)

Weep not, weep not,
 
She is not dead;
 
She's resting in the bosom of Jesus.
 
Heart-broken husband--weep no more;
 
Grief-stricken son--weep no more;
 
Left-lonesome daughter --weep no more;
 
She only just gone home.

Day before yesterday morning,
 
God was looking down from his great, high heaven,
 
Looking down on all his children,
 
And his eye fell on Sister Caroline,
 
Tossing on her bed of pain.
 
And God's big heart was touched with pity,
 
With the everlasting pity.

And God sat back on his throne,
 
And he commanded that tall, bright angel standing at his right hand:
 
Call me Death!
 
And that tall, bright angel cried in a voice
 
That broke like a clap of thunder:
 
Call Death!--Call Death!
 
And the echo sounded down the streets of heaven
 
Till it reached away back to that shadowy place,
 
Where Death waits with his pale, white horses.

And Death heard the summons,
 
And he leaped on his fastest horse,
 
Pale as a sheet in the moonlight.
 
Up the golden street Death galloped,
 
And the hooves of his horses struck fire from the gold,
 
But they didn't make no sound.
 
Up Death rode to the Great White Throne,
 
And waited for God's command.

And God said: Go down, Death, go down,
 
Go down to Savannah, Georgia,
 
Down in Yamacraw,
 
And find Sister Caroline.
 
She's borne the burden and heat of the day,
 
She's labored long in my vineyard,
 
And she's tired--
 
She's weary--
 
Go down, Death, and bring her to me.

And Death didn't say a word,
 
But he loosed the reins on his pale, white horse,
 
And he clamped the spurs to his bloodless sides,
 
And out and down he rode,
 
Through heaven's pearly gates,
 
Past suns and moons and stars;
 
on Death rode,
 
Leaving the lightning's flash behind;
 
Straight down he came.

While we were watching round her bed,
 
She turned her eyes and looked away,
 
She saw what we couldn't see;
 
She saw Old Death.   She saw Old Death
 
Coming like a falling star.
 
But Death didn't frighten Sister Caroline;
 
He looked to her like a welcome friend.
 
And she whispered to us: I'm going home,
 
And she smiled and closed her eyes.

And Death took her up like a baby,
 
And she lay in his icy arms,
 
But she didn't feel no chill.
 
And death began to ride again--
 
Up beyond the evening star,
 
Into the glittering light of glory,
 
On to the Great White Throne.
 
And there he laid Sister Caroline
 
On the loving breast of Jesus.

And Jesus took his own hand and wiped away her tears,
 
And he smoothed the furrows from her face,
 
And the angels sang a little song,
 
And Jesus rocked her in his arms,
 
And kept a-saying: Take your rest,
 
Take your rest.

Weep not--weep not,
 
She is not dead;
 
She's resting in the bosom of Jesus.
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
The White Witch

O brothers mine, take care! Take care! 
The great white witch rides out to-night. 
Trust not your prowess nor your strength, 
Your only safety lies in flight; 
For in her glance there is a snare, 
And in her smile there is a blight.

The great white witch you have not seen?
 
Then, younger brothers mine, forsooth,
 
Like nursery children you have looked
 
For ancient hag and snaggle-tooth;
 
But no, not so; the witch appears
 
In all the glowing charms of youth.

Her lips are like carnations, red,
 
Her face like new-born lilies, fair,
 
Her eyes like ocean waters, blue,
 
She moves with subtle grace and air,
 
And all about her head there floats
 
The golden glory of her hair.

But though she always thus appears
 
In form of youth and mood of mirth,
 
Unnumbered centuries are hers,
 
The infant planets saw her birth;
 
The child of throbbing Life is she,
 
Twin sister to the greedy earth.

And back behind those smiling lips,
 
And down within those laughing eyes,
 
And underneath the soft caress
 
Of hand and voice and purring sighs,
 
The shadow of the panther lurks,
 
The spirit of the vampire lies.

For I have seen the great white witch,
 
And she has led me to her lair,
 
And I have kissed her red, red lips
 
And cruel face so white and fair;
 
Around me she has twined her arms,
 
And bound me with her yellow hair.

I felt those red lips burn and sear
 
My body like a living coal;
 
Obeyed the power of those eyes
 
As the needle trembles to the pole;
 
And did not care although I felt
 
The strength go ebbing from my soul.

Oh! she has seen your strong young limbs,
 
And heard your laughter loud and gay,
 
And in your voices she has caught
 
The echo of a far-off day,
 
When man was closer to the earth;
 
And she has marked you for her prey.

She feels the old Antaean strength
 
In you, the great dynamic beat
 
Of primal passions, and she sees
 
In you the last besieged retreat
 
Of love relentless, lusty, fierce,
 
Love pain-ecstatic, cruel-sweet.

O, brothers mine, take care! Take care!
 
The great white witch rides out to-night.
 
O, younger brothers mine, beware!
 
Look not upon her beauty bright;
 
For in her glance there is a snare,
 
And in her smile there is a blight.
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
THE BLACK MAMMY

O whitened head entwined in turban gay, 
O kind black face, O crude, but tender hand, 
O foster-mother in whose arms there lay 
The race whose sons are masters of the land! 
It was thine arms that sheltered in their fold, 
It was thine eyes that followed through the length 
Of infant days these sons. In times of old 
It was thy breast that nourished them to strength.

So often hast thou to thy bosom pressed
 
The golden head, the face and brow of snow;
 
So often has it 'gainst thy broad, dark breast
 
Lain, set off like a quickened cameo.
 
Thou simple soul, as cuddling down that babe
 
With thy sweet croon, so plaintive and so wild,
 
Came ne'er the thought to thee, swift like a stab,
 
That it some day might crush thine own black child?
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
O Black and Unknown Bards

O black and unknown bards of long ago, 
How came your lips to touch the sacred fire? 
How, in your darkness, did you come to know 
The power and beauty of the minstrel's lyre? 
Who first from midst his bonds lifted his eyes? 
Who first from out the still watch, lone and long, 
Feeling the ancient faith of prophets rise 
Within his dark-kept soul, burst into song?

Heart of what slave poured out such melody
 
As "Steal away to Jesus"? On its strains
 
His spirit must have nighfly floated free,
 
Though still about his hands he felt his chains.
 
Who heard great "Jordan roll"? Whose starward eye
 
Saw chariot "swing low"? And who was he
 
That breathed that comforting, melodic sigh,
 
"Nobody knows de trouble I see"?

What merely living clod, what captive thing,
 
Could up toward God through all its darkness grope,
 
And find within its deadened heart to sing
 
These songs of sorrow, love and faith, and hope?
 
How did it catch that subtle undertone,
 
That note in music heard not with the ears?
 
How sound the elusive reed so seldom blown,
 
Which stirs the soul or melts the heart to tears.

Not that great German master in his dream
 
Of harmonies that thundered amongst the stars
 
At the creation, ever heard a theme
 
Nobler than "Go down, Moses." Mark its bars
 
How like a mighty trumpet-call they stir
 
The blood. Such are the notes that men have sung
 
Going to valorous deeds; such tones there were
 
That helped make history when Time was young.

There is a wide, wide wonder in it all,
 
That from degraded rest and servile toil
 
The fiery spirit of the seer should call
 
These simple children of the sun and soil.
 
O black slave singers, gone, forgot, unfamed,
 
You-you alone, of all the long, long line
 
Of those who've sung untaught, unknown, unnamed,
 
Have stretched out upward, seeking the divine.

You sang not deeds of heroes or of kings;
 
No chant of bloody war, no exulting paean
 
Of arms-won triumphs; but your humble strings
 
You touched in chord with music empyrean.
 
You sang far better than you knew; the songs
 
That for your listeners' hungry hearts sufficed
 
Still live,--but more than this to you belongs:
 
You sang a race from wood and stone to Christ.

Written by James Weldon Johnson (1871-1938)

Lift Every Voice and Sing


Lift every voice and sing, 
Till earth and heaven ring, 
Ring with the harmonies of Liberty; 
Let our rejoicing rise 
High as the listening skies, 
Let it resound loud as the rolling sea. 
Sing a song full of the faith that the dark past has taught us, 
Sing a song full of the hope that the present has brought us; 
Facing the rising sun of our new day begun, 
Let us march on till victory is won.

Stony the road we trod,
 
Bitter the chastening rod,
 
Felt in the days when hope unborn had died;
 
Yet with a steady beat,
 
Have not our weary feet
 
Come to the place for which our fathers sighed?
 
We have come over a way that with tears has been watered.
 
We have come, treading our path through the blood of the slaughtered,
 
Out from the gloomy past,
 
Till now we stand at last
 
Where the white gleam of our bright star is cast.

God of our weary years,
 
God of our silent tears,
 
Thou who hast brought us thus far on the way;
 
Thou who hast by Thy might,
 
Led us into the light,
 
Keep us forever in the path, we pray.
 
Lest our feet stray from the places, our God, where we met Thee,
 
Lest our hearts, drunk with the wine of the world, we forget Thee;
 
Shadowed beneath Thy hand,
 
May we forever stand,
 
True to our God,
 
True to our native land.
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
Prayer at Sunrise

O mighty, powerful, dark-dispelling sun, 
Now thou art risen, and thy day begun. 
How shrink the shrouding mists before thy face, 
As up thou spring'st to thy diurnal race! 
How darkness chases darkness to the west, 
As shades of light on light rise radiant from thy crest! 
For thee, great source of strength, emblem of might, 
In hours of darkest gloom there is no night. 
Thou shinest on though clouds hide thee from sight, 
And through each break thou sendest down thy light.

O greater Maker of this Thy great sun,
 
Give me the strength this one day's race to run,
 
Fill me with light, fill me with sun-like strength,
 
Fill me with joy to rob the day its length.
 
Light from within, light that will outward shine,
 
Strength to make strong some weaker heart than mine,
 
Joy to make glad each soul that feels its touch;
 
Great Father of the sun, I ask this much.
Written by James Weldon Johnson (1871-1938)
American History

Those four black girls blown up 
in that Alabama church 
remind me of five hundred 
middle passage blacks, 
in a net, under water 
in Charleston harbor 
so redcoats wouldn't find them. 
Can't find what you can't see 
can you? 
Written by Michael S. Harper
Clan Meeting: Births and Nations: A Blood Song

We reconstruct lives in the intensive 
care unit, pieced together in a buffet 
dinner: two widows with cancerous breasts 
in their balled hands; a 30-year-old man 
in a three-month coma 
from a Buick and a brick wall; 
a woman who bleeds off and on from her gullet; 
a prominent socialite, our own nurse, 
shrieking for twins, "her bump gone"; 
the gallery of veterans, succored, 
awake, without valves, some lungs gone.

Splicing the meats with fluids
 
seasoned on the dressing room
 
table, she sings "the bump gone"
 
refrain in this 69-degree oven,
 
unstuffing her twin yolks
 
carved from the breast, the dark meat
 
wrapped in tinfoil and clean newspaper;
 
the half black registered nurse
 
hums her six years in an orphanage,
 
her adopted white family,
 
breaded and primed in a posse,
 
rising in clan for their dinner.

We reload our brains as the cameras,
 
the film overexposed
 
in the x-ray light,
 
locked with our double door
 
light meters: race and sex
 
spooled and rungs in a hobby;
 
we take our bundle and go home.
 
Written by Michael S. Harper
Fantasy

I sailed in my dreams to the Land of Night 
Where you were the dusk-eyed queen, 
And there in the pallor of moon-veiled light 
The loveliest things were seen ...

A slim-necked peacock sauntered there
 
In a garden of lavender hues,
 
And you were strange with your purple hair
 
As you sat in your amethyst chair
 
With you feet in your hyacinth shoes.
 
Oh, the moon gave a bluish light
 
Through the trees in the alnd of dreams and night.
 
I stood behind a bush of yellow-green
 
And whistled a song to the dark-haired queen ...
 
Written by Gwendolyn Bennett (1902-1981)

To A Dark Girl

I love you for your brownness 
And the rounded darkness of your breast. 
I love you for the breaking sadness in your voice 
And shadows where your wayward eye-lids rest.

Something of old forgotten queens
 
Lurks in the lithe abandon of your walk
 
And something of the shackled slave
 
Sobs in the rhythm of your talk.

Oh, little brown girl, born for sorrow's mate,
 
Keep all you have of queenliness,
 
Forgetting that you once were slave,
 
And let your full lips laugh at Fate!
 
Written by Gwendolyn Bennett (1902-1981)
Advice

You were a sophist,* 
Pale and quite remote, 
As you bade me 
Write poems--- 
Brown poems 
Of dark words 
And prehistoric rhythms.... 
Your pallor stifled my poesy 
But I remebered a tapestry 
That I would some day weave 
Of dim purples and fine reds 
And blues 
Like night and death--- 
The keen precision of your words 
Wove a silver thread 
Through the dusk softness 
Of my dream-stuff.... 
Written by Gwendolyn Bennett (1902-1981)
Top of Form
Bottom of Form

Dark Blood

There were bizarre beginnings in old lands for the making 
       of me. There were sugar sands and islands of fern and 
       pearl, palm jungles and stretches of a never-ending sea.

There were the wooing nights of tropical lands and the cool
 
       discretion of flowering plains between two stalwart
 
       hills. They nurtured my coming with wanderlust. I
 
       sucked fevers of adventure through my veins with my
 
       mother's milk.

Someday I shall go to the tropical lands of my birth, to the
 
       coasts of continents and the tiny wharves of island
 
       shores. I shall roam the Balkans and the hot lanes of
 
       Africa and Asia. I shall stand on mountain tops and
 
       gaze on fertile homes below.

And when I return to Mobile I shall go by the way of
 
        Panama and Bocas del Toro to the littered streets and
 
       the one-room shacks of my old poverty, and blazing suns
 
       of other lands may struggle then to reconcile the pride
 
       and pain in me.
 
Written by Margaret Walker (1915-1998)
To A Lady On The Death Of Her Husband

GRIM monarch! see, depriv'd of vital breath, 
A young physician in the dust of death: 
Dost thou go on incessant to destroy, 
Our griefs to double, and lay waste our joy? 
Enough thou never yet wast known to say, 
Though millions die, the vassals of thy sway: 
Nor youth, nor science, not the ties of love, 
Nor ought on earth thy flinty heart can move. 
The friend, the spouse from his dire dart to save, 
In vain we ask the sovereign of the grave. 
Fair mourner, there see thy lov'd Leonard laid, 
And o'er him spread the deep impervious shade. 
Clos'd are his eyes, and heavy fetters keep 
His senses bound in never-waking sleep, 
Till time shall cease, till many a starry world 
Shall fall from heav'n, in dire confusion hurl'd 
Till nature in her final wreck shall lie, 
And her last groan shall rend the azure sky: 
Not, not till then his active soul shall claim 
His body, a divine immortal frame. 
But see the softly-stealing tears apace 
Pursue each other down the mourner's face; 
But cease thy tears, bid ev'ry sigh depart, 
And cast the load of anguish from thine heart: 
From the cold shell of his great soul arise, 
And look beyond, thou native of the skies; 
There fix thy view, where fleeter than the wind 
Thy Leonard mounts, and leaves the earth behind. 
Thyself prepare to pass the vale of night 
To join for ever on the hills of light: 
To thine embrace this joyful spirit moves 
To thee, the partner of his earthly loves; 
He welcomes thee to pleasures more refin'd, 
And better suited to th' immortal mind. 
Written by Phillis Wheatley (1753-1784)
On Being Brought from Africa to America

'Twas mercy brought me from my Pagan land, 
Taught my benighted soul to understand 
That there's a God, that there's a Saviour too: 
Once I redemption neither sought nor knew. 
Some view our sable race with scornful eye, 
"Their colour is a diabolic die." 
Remember, Christians, Negro's, black as Cain, 
May be refin'd, and join th' angelic train. 
Written by Phillis Wheatley (1753-1784)
On Virtue

O Thou bright jewel in my aim I strive 
To comprehend thee. Thine own words declare 
Wisdom is higher than a fool can reach. 
I cease to wonder, and no more attempt 
Thine height t' explore, or fathom thy profound. 
But, O my soul, sink not into despair, 
Virtue is near thee, and with gentle hand 
Would now embrace thee, hovers o'er thine head. 
Fain would the heav'n-born soul with her converse, 
Then seek, then court her for her promis'd bliss. 
Auspicious queen, thine heav'nly pinions spread, 
And lead celestial Chastity along; 
Lo! now her sacred retinue descends, 
Array'd in glory from the orbs above. 
Attend me, Virtue, thro' my youthful years! 
O leave me not to the false joys of time! 
But guide my steps to endless life and bliss. 
Greatness, or Goodness, say what I shall call thee, 
To give me an higher appellation still, 
Teach me a better strain, a nobler lay, 
O thou, enthron'd with Cherubs in the realms of day. 
Written by Phillis Wheatley (1753-1784)
Blues

Those five or six young guys 
lunched on the stoop 
that oven-hot summer night 
whistled me over. Nice 
and friendly. So, I stop. 
MacDougal or Christopher 
Street in chains of light.

A summer festival. Or some
 
saint's. I wasn't too far from
 
home, but not too bright
 
for a nigger, and not too dark.
 
I figured we were all
 
one, wop, nigger, jew,
 
besides, this wasn't Central Park.
 
I'm coming on too strong? You figure
 
right! They beat this yellow nigger
 
black and blue.

Yeah. During all this, scared
 
on case one used a knife,
 
I hung my olive-green, just-bought
 
sports coat on a fire plug.
 
I did nothing. They fought
 
each other, really. Life
 
gives them a few kcks,
 
that's all. The spades, the spicks.

My face smashed in, my bloddy mug
 
pouring, my olive-branch jacket saved
 
from cuts and tears,
 
I crawled four flights upstairs.
 
Sprawled in the gutter, I
 
remember a few watchers waved
 
loudly, and one kid's mother shouting
 
like "Jackie" or "Terry,"
 
"now that's enough!"
 
It's nothing really.
 
They don't get enough love.

You know they wouldn't kill
 
you. Just playing rough,
 
like young Americans will.
 
Still it taught me somthing
 
about love. If it's so tough,
 
forget it.
 
Written by Derek Walcott
A Far Cry from Africa

A wind is ruffling the tawny pelt 
Of Africa, Kikuyu, quick as flies, 
Batten upon the bloodstreams of the veldt. 
Corpses are scattered through a paradise. 
Only the worm, colonel of carrion, cries: 
"Waste no compassion on these separate dead!" 
Statistics justify and scholars seize 
The salients of colonial policy. 
What is that to the white child hacked in bed? 
To savages, expendable as Jews?

Threshed out by beaters, the long rushes break
 
In a white dust of ibises whose cries
 
Have wheeled since civilizations dawn
 
From the parched river or beast-teeming plain.
 
The violence of beast on beast is read
 
As natural law, but upright man
 
Seeks his divinity by inflicting pain.
 
Delirious as these worried beasts, his wars
 
Dance to the tightened carcass of a drum,
 
While he calls courage still that native dread
 
Of the white peace contracted by the dead.

Again brutish necessity wipes its hands
 
Upon the napkin of a dirty cause, again
 
A waste of our compassion, as with Spain,
 
The gorilla wrestles with the superman.
 
I who am poisoned with the blood of both,
 
Where shall I turn, divided to the vein?
 
I who have cursed
 
The drunken officer of British rule, how choose
 
Between this Africa and the English tongue I love?
 
Betray them both, or give back what they give?
 
How can I face such slaughter and be cool?
 
How can I turn from Africa and live?
 
Written by Derek Walcott
A City's Death by Fire

After that hot gospeller has levelled all but the churched sky, 
I wrote the tale by tallow of a city's death by fire; 
Under a candle's eye, that smoked in tears, I 
Wanted to tell, in more than wax, of faiths that were snapped like wire. 
All day I walked abroad among the rubbled tales, 
Shocked at each wall that stood on the street like a liar; 
Loud was the bird-rocked sky, and all the clouds were bales 
Torn open by looting, and white, in spite of the fire. 
By the smoking sea, where Christ walked, I asked, why 
Should a man wax tears, when his wooden world fails? 
In town, leaves were paper, but the hills were a flock of faiths; 
To a boy who walked all day, each leaf was a green breath 
Rebuilding a love I thought was dead as nails, 
Blessing the death and the baptism by fire. 
Written by Derek Walcott
The Talking Back of Miss Valentine Jones: Poem # one

well I wanted to braid my hair 
bathe and bedeck my 
self so fine 
so fully aforethought for 
your pleasure 
see: 
I wanted to travel and read 
and runaround fantastic 
into war and peace: 
I wanted to 
surf 
dive 
fly 
climb 
conquer 
and be conquered 
THEN 
I wanted to pickup the phone 
and find you asking me 
if I might possibly be alone 
some night 
(so I could answer cool 
as the jewels I would wear 
on bareskin for you 
digmedaddy delectation:) 
"WHEN 
you comin ova?" 
But I had to remember to write down 
margarine on the list 
and shoepolish and a can of 
sliced pineapple in casea company 
and a quarta skim milk cause Teresa's 
gaining weight and don' nobody groove on 
that much 
girl 
and next I hadta sort for darks and lights before 
the laundry hit the water which I had 
to kinda keep an eye on be- 
cause if the big hose jumps the sink again that 
Mrs. Thompson gointa come upstairs 
and brain me with a mop don' smell too 
nice even though she hang 
it headfirst out the winda 
and I had to check 
on William like to 
burn hisself to death with fever 
boy so thin be 
callin all day "Momma! Sing to me?" 
"Ma! Am I gone die?" and me not 
wake enough to sit beside him longer than 
to wipeaway the sweat or change the sheets/ 
his shirt and feed him orange 
juice before I fall out of sleep and 
Sweet My Jesus ain but one can 
left 
and we not thru the afternoon 
and now 
you (temporarily) shownup with a thing 
you says' a poem and you 
call it 
"Will The Real Miss Black America Standup?"

                                    guilty po' mouth
 
                                    about duty beauties of my
 
                                    headrag
 
                                    boozeup doozies about
 
                                    never mind
 
                                    cause love is blind

well
 
I can't use it

and the very next bodacious Blackman
 
call me queen
 
because my life ain shit
 
because (in any case) he ain been here to share it
 
with me
 
(dish for dish and do for do and
 
dream for dream)
 
I'm gone scream him out my house
 
be-
 
cause what I wanted was
 
to braid my hair/bathe and bedeck my
 
self so fully be-
 
cause what I wanted was
 
your love
 
not pity
 
be-
 
cause what I wanted was
 
your love
 
your love
Written by June Jordan (1936 - 2002)
Poem for South African Women

Our own shadows disappear as the feet of thousands 
by the tens of thousands pound the fallow land 
into new dust that 
rising like a marvelous pollen will be 
fertile 
even as the first woman whispering 
imagination to the trees around her made 
for righteous fruit 
from such deliberate defense of life 
as no other still 
will claim inferior to any other safety 
in the world

The whispers too they
 
intimate to the inmost ear of every spirit
 
now aroused they
 
carousing in ferocious affirmation
 
of all peaceable and loving amplitude
 
sound a certainly unbounded heat
 
from a baptismal smoke where yes
 
there will be fire

And the babies cease alarm as mothers
 
raising arms
 
and heart high as the stars so far unseen
 
nevertheless hurl into the universe
 
a moving force
 
irreversible as light years
 
traveling to the open eye

And who will join this standing up
 
and the ones who stood without sweet company
 
will sing and sing
 
back into the mountains and
 
if necessary
 
even under the sea:

we are the ones we have been waiting for.
Written by June Jordan (1936 - 2002)