अंबेडकर यह खोज करने का दावा करते हैं कि – जाति समस्या के अलावा ‘सती प्रथा’,विधवाओं पर प्रतिबंध और बालिका विवाह( बालक-विवाह नहीं) की समस्याएं ब्राह्मण वर्ग द्वारा सजातीय विवाह पद्धति लागू करने के कारण उपजीं। उनकी यह व्याख्या कि ये समस्याएं किस तरह जाति व्यवस्था से जुड़ी हैं, इस प्रकार है-
सजातीय विवाह से हमारा तात्पर्य उन विवाहों से है जो जाति के भीतर ही होते हैं। किसी जाति में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की संख्या से मेल खानी चाहिए। हमें यह देखने को मिलता है कि पत्नियो के जीते जी पति मर जाते हैं और पतियों के जीते जी पत्नियां मर जाती हैं यदि कोई पत्नी मर जाए और उसका पति जीवित हो तो वहअतिरिक्त पुरुष होता है औऱ यदि पति मर जाय और पत्नी जीवित हो तो वह ‘अतिरिक्त स्त्री’ होती है। ये शब्दावलियां अंबेडकर ने गढ़ी हैं। यदि ऐसी अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अब भी युवावस्था या अधेड़ उम्र में हों तो उन्हे फिर से विवाह करना होगा। ऐसे विवाह उसी जाति में करने होंगे, अन्यथा वे अपने पुनर्विवाह के लिए दूसरी जातियों में झांक संकते हैं। तब जाति-व्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसा जोखिम उठाए बिना पुनर्विवाह की इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है?
अंबेडकर को पुनर्विवाह की समस्या मुश्किल में डाल देती है। उन्होने इस बात की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की कि स्त्रियों की सती प्रथा जैसी सभी समस्याएँ, पुनर्विवाह की समस्या के कारण उत्पन्न हुई।
“….(जाति से) बाहर विवाह रोकने की यह घेरा बंदी अनिवार्यत: समस्या पैदा कर देती है जिनका समाधान बहुत आसान नहीं है...यदि सजातीय विवाह पद्धति को निरापद रखना है तो यह आवश्यक रुप से दांपत्य अधिकारों का प्रावधान करना होगा, अन्यथा समूह के सदस्या येन-केन प्रकारेण अपना काम बनाने के लिए घेरे से बाहर निकल जाएंगे। परंतु दांपत्य अधिकारों का आवश्यक रुप से प्रावधान करने के लिए यह परम आवश्यक है कि समूह के भीतर दो लिंगो के विवाह-योग्य उन घटकों की आंकिक समानता कायम रखी जाय जो खुद को जाति में बनाए रखना चाहते हैं। केवल ऐसी समानता कायम रखने से ही यह संभव होगा कि समूह की आवश्यक सजातीयता को अक्षुण्ण रखा जा सके, और बहुत बड़ी विषमता से यह अवश्य टूट जाएगी। तब, जाति की समस्या जाति के भीतर दोनों लिंगों के विवाह योग्य घटकों के बीच विषमता को दुरुस्त करने की समस्या में बदल जाती है......यदि ध्यान न दिया जाय तो अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री, दोनों, जाति के लिए संकट खड़ा कर देते हैं..”(खंड 1 पृ 10)
अंबेडकर की व्याख्या जारी रहती है...
“…यदि हम उस समाधान की जांच करें जो हिंदुओं ने अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्याओँ को हल करने के लिए ढूंढा है तो हमारा काम आसान हो जाएगा...हिंदू समाज की कार्यपद्धति भले ही जटिल हो परंतु एक मामूली द्रष्टा को भी तीन अनूठे स्त्रियोचित प्रचलन देखने को मिलते हैं जिनका नांम है 1) सती प्रथा 2) बलात वैधव्य 3) बालिका विवाह ।...जहां तक मुझे पता है आज भी इस परिपाटी के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं मिलती है ”।( खंड 1 पृ 13)
बहरहाल, उन परिघटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या जो अभी तक दूसरों ने नहीं दी और जिसका अंबेडकर ने आविष्कार किया, इस प्रकार है:
“इस प्रश्न के बारे में कि क्यों वे उत्पन्न हुए, मेरा मानना है कि जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए वे आवश्यक थे।”
जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए ऐसे प्रचलन क्यों जरूरी हैं?
पहले हम अंबेडकर के शब्दों में ही इन दोनों प्रथाओं का अवलोकन करें..
“...अतिरिक्त स्त्री (=विधवा) को यदि ठिकाने नहीं लगाया जाए तो वह समूह में बनी रहेगी: लेकिन उसके बने रहने से दोहरा खतरा है। वह जाति से बाहर विवाह कर सकती है और सजातीय विवाह पद्धति का उल्लंघन कर सकती है, या वह जाति के अंदर विवाह कर सकती है और स्पर्धा के द्वारा उन अवसरों को अतिक्रमित कर सकती है जो जाति में संभावी वधुओं के चलिए अवश्य सुरक्षित होना चाहिए। इसलिए किसी भी दशा में वह अभिशाप है, और यदि उसके मृत पति के साथ उसे जलाया न जा सकता हो तो उसका अवश्य कुछ होना चाहिए। दूसरा उपाय यह है कि उसके शेष जीवन के लिए उस पर वैधव्य थोप दिया जाए”।(खंड 1, पृ 11)।
अंबेडकर के मुताबिक सती प्रथा और वैधव्य इसी प्रकार अस्तित्व में आए।
कई स्थानों पर अंबेडकर का तर्क विच्छिन्न है। हम किन्ही भी दो तर्कों में सामंजस्य नहीं पाते है। उन्हे इस बात की बिल्कुल शंका ही नहीं हुई कि किसी भी सूरत में बालिका विवाह अतिरिक्त पुरुष के पुनर्विवाह की समस्या को हल नहीं कर सकता। अंबेडकर का कहना है कि कुछ अतिरिक्त पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं जबकि दूसरे विरक्त हो जाते हैं और यह टिप्पणी करते हैं कि यदि वे किसी एक रास्ते का इमानदारी से पालन करें तो कोई समस्या नहीं होगी अन्यथा जाति मर्यादा की सुरक्षा के लिए खतरा रहेगा। एक तरफ तो वे पुरुषों के प्रभुत्व की व्याख्या करते हैं और दूसरी तरफ वह उन पुरुषों की विशेषता बताते हैं मानों उनके पास मर्यादा है और होनी चाहिए ! क्योंकि, ‘किसी जाति में नियंत्रक अनुपात एक पुरष और एक स्त्री का होना चाहिए’ (खंड 1 पृ 12) मानो यह मर्यादा का सिद्धांत, जो आज भी लागू नहीं हुआ है, अतीत में पहले ही लागू हो चुका हो!
चाहे अतीत में हो या वर्तमान में, जिनकी पत्नियां मर जाती हैं, क्या वे बालिग स्त्री से विवाह नहीं करते हैं? क्या इससे ऐसी स्थिति निर्मित हो रही है जिससे अविवाहित पुरुष पत्नियां पाने में विफल हो जाएं। क्या पत्नियों के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह, तीसरा विवाह और विवाह के बाद विवाह नहीं किए जा रहे हैं? एक पुरुष और एक स्त्री का यह नियंत्रक उपाय किस जाति में और किस समय मौजूद था?
अंबेडकर लिखते हैं-
“मेरे विचार में, यह जातियों की व्यवस्था में किसी जाति की एक सामान्य प्रक्रिया है” (खंड 1 पृ 13)
इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप किसी जाति को सतत बनाए रखना चाहते हैं तो ये सभी प्रथाएं प्रकट होंगी।
ठीक है तो क्या ये प्रथाएं निचली जातियों में भी मिलती है? ब्राह्मण जाति की तरह, हमें हर जाति में अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अवश्य मिलते हैं। सभी जातियों को जातियों के रूप में सतत बनाए रखने के लिए, आप यह अपेक्षा करेंगे कि सती, वैधव्य और बाल-विवाह की प्रथाएं सभी जातियों में मौजूद रहनी चाहिए। क्या वे मौजूद थीं?
सजातीय विवाह से हमारा तात्पर्य उन विवाहों से है जो जाति के भीतर ही होते हैं। किसी जाति में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की संख्या से मेल खानी चाहिए। हमें यह देखने को मिलता है कि पत्नियो के जीते जी पति मर जाते हैं और पतियों के जीते जी पत्नियां मर जाती हैं यदि कोई पत्नी मर जाए और उसका पति जीवित हो तो वहअतिरिक्त पुरुष होता है औऱ यदि पति मर जाय और पत्नी जीवित हो तो वह ‘अतिरिक्त स्त्री’ होती है। ये शब्दावलियां अंबेडकर ने गढ़ी हैं। यदि ऐसी अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अब भी युवावस्था या अधेड़ उम्र में हों तो उन्हे फिर से विवाह करना होगा। ऐसे विवाह उसी जाति में करने होंगे, अन्यथा वे अपने पुनर्विवाह के लिए दूसरी जातियों में झांक संकते हैं। तब जाति-व्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसा जोखिम उठाए बिना पुनर्विवाह की इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है?
अंबेडकर को पुनर्विवाह की समस्या मुश्किल में डाल देती है। उन्होने इस बात की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की कि स्त्रियों की सती प्रथा जैसी सभी समस्याएँ, पुनर्विवाह की समस्या के कारण उत्पन्न हुई।
“….(जाति से) बाहर विवाह रोकने की यह घेरा बंदी अनिवार्यत: समस्या पैदा कर देती है जिनका समाधान बहुत आसान नहीं है...यदि सजातीय विवाह पद्धति को निरापद रखना है तो यह आवश्यक रुप से दांपत्य अधिकारों का प्रावधान करना होगा, अन्यथा समूह के सदस्या येन-केन प्रकारेण अपना काम बनाने के लिए घेरे से बाहर निकल जाएंगे। परंतु दांपत्य अधिकारों का आवश्यक रुप से प्रावधान करने के लिए यह परम आवश्यक है कि समूह के भीतर दो लिंगो के विवाह-योग्य उन घटकों की आंकिक समानता कायम रखी जाय जो खुद को जाति में बनाए रखना चाहते हैं। केवल ऐसी समानता कायम रखने से ही यह संभव होगा कि समूह की आवश्यक सजातीयता को अक्षुण्ण रखा जा सके, और बहुत बड़ी विषमता से यह अवश्य टूट जाएगी। तब, जाति की समस्या जाति के भीतर दोनों लिंगों के विवाह योग्य घटकों के बीच विषमता को दुरुस्त करने की समस्या में बदल जाती है......यदि ध्यान न दिया जाय तो अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री, दोनों, जाति के लिए संकट खड़ा कर देते हैं..”(खंड 1 पृ 10)
अंबेडकर की व्याख्या जारी रहती है...
“…यदि हम उस समाधान की जांच करें जो हिंदुओं ने अतिरिक्त पुरुष और अतिरिक्त स्त्री की समस्याओँ को हल करने के लिए ढूंढा है तो हमारा काम आसान हो जाएगा...हिंदू समाज की कार्यपद्धति भले ही जटिल हो परंतु एक मामूली द्रष्टा को भी तीन अनूठे स्त्रियोचित प्रचलन देखने को मिलते हैं जिनका नांम है 1) सती प्रथा 2) बलात वैधव्य 3) बालिका विवाह ।...जहां तक मुझे पता है आज भी इस परिपाटी के उद्भव की कोई वैज्ञानिक व्याख्या नहीं मिलती है ”।( खंड 1 पृ 13)
बहरहाल, उन परिघटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या जो अभी तक दूसरों ने नहीं दी और जिसका अंबेडकर ने आविष्कार किया, इस प्रकार है:
“इस प्रश्न के बारे में कि क्यों वे उत्पन्न हुए, मेरा मानना है कि जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए वे आवश्यक थे।”
जाति व्यवस्था की संरचना निर्मित करने के लिए ऐसे प्रचलन क्यों जरूरी हैं?
पहले हम अंबेडकर के शब्दों में ही इन दोनों प्रथाओं का अवलोकन करें..
“...अतिरिक्त स्त्री (=विधवा) को यदि ठिकाने नहीं लगाया जाए तो वह समूह में बनी रहेगी: लेकिन उसके बने रहने से दोहरा खतरा है। वह जाति से बाहर विवाह कर सकती है और सजातीय विवाह पद्धति का उल्लंघन कर सकती है, या वह जाति के अंदर विवाह कर सकती है और स्पर्धा के द्वारा उन अवसरों को अतिक्रमित कर सकती है जो जाति में संभावी वधुओं के चलिए अवश्य सुरक्षित होना चाहिए। इसलिए किसी भी दशा में वह अभिशाप है, और यदि उसके मृत पति के साथ उसे जलाया न जा सकता हो तो उसका अवश्य कुछ होना चाहिए। दूसरा उपाय यह है कि उसके शेष जीवन के लिए उस पर वैधव्य थोप दिया जाए”।(खंड 1, पृ 11)।
अंबेडकर के मुताबिक सती प्रथा और वैधव्य इसी प्रकार अस्तित्व में आए।
कई स्थानों पर अंबेडकर का तर्क विच्छिन्न है। हम किन्ही भी दो तर्कों में सामंजस्य नहीं पाते है। उन्हे इस बात की बिल्कुल शंका ही नहीं हुई कि किसी भी सूरत में बालिका विवाह अतिरिक्त पुरुष के पुनर्विवाह की समस्या को हल नहीं कर सकता। अंबेडकर का कहना है कि कुछ अतिरिक्त पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं जबकि दूसरे विरक्त हो जाते हैं और यह टिप्पणी करते हैं कि यदि वे किसी एक रास्ते का इमानदारी से पालन करें तो कोई समस्या नहीं होगी अन्यथा जाति मर्यादा की सुरक्षा के लिए खतरा रहेगा। एक तरफ तो वे पुरुषों के प्रभुत्व की व्याख्या करते हैं और दूसरी तरफ वह उन पुरुषों की विशेषता बताते हैं मानों उनके पास मर्यादा है और होनी चाहिए ! क्योंकि, ‘किसी जाति में नियंत्रक अनुपात एक पुरष और एक स्त्री का होना चाहिए’ (खंड 1 पृ 12) मानो यह मर्यादा का सिद्धांत, जो आज भी लागू नहीं हुआ है, अतीत में पहले ही लागू हो चुका हो!
चाहे अतीत में हो या वर्तमान में, जिनकी पत्नियां मर जाती हैं, क्या वे बालिग स्त्री से विवाह नहीं करते हैं? क्या इससे ऐसी स्थिति निर्मित हो रही है जिससे अविवाहित पुरुष पत्नियां पाने में विफल हो जाएं। क्या पत्नियों के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह, तीसरा विवाह और विवाह के बाद विवाह नहीं किए जा रहे हैं? एक पुरुष और एक स्त्री का यह नियंत्रक उपाय किस जाति में और किस समय मौजूद था?
अंबेडकर लिखते हैं-
“मेरे विचार में, यह जातियों की व्यवस्था में किसी जाति की एक सामान्य प्रक्रिया है” (खंड 1 पृ 13)
इसका अर्थ यह हुआ कि अगर आप किसी जाति को सतत बनाए रखना चाहते हैं तो ये सभी प्रथाएं प्रकट होंगी।
ठीक है तो क्या ये प्रथाएं निचली जातियों में भी मिलती है? ब्राह्मण जाति की तरह, हमें हर जाति में अतिरिक्त स्त्रियां और अतिरिक्त पुरुष अवश्य मिलते हैं। सभी जातियों को जातियों के रूप में सतत बनाए रखने के लिए, आप यह अपेक्षा करेंगे कि सती, वैधव्य और बाल-विवाह की प्रथाएं सभी जातियों में मौजूद रहनी चाहिए। क्या वे मौजूद थीं?
समकालीन जनमत
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