Written by हीरा डोम
सोच पाना भी असंभव सा लगता है कि सौ साल पहले अछूत जाति का कोई व्यक्ति पढ़ना-लिखना जानता होगा. लेकिन तब के समय के हीरा डोम का उल्लेख मिलता है. जाति की पीड़ा इतनी थी कि जब वो इस काबिल हुए कि अपनी बात कह सके तो अपनी व्यथा और दर्द को कहने के लिए उन्होंने कविता का सहारा लिया. सन् 1914 में उन्होंने यह कविता लिखी थी. आज भी दलित साहित्य की चर्चा इसके बिना अधूरी है. हीरा डोम द्वारा लिखी इस कविता का शीर्षक है 'अछूत की शिकायत'. इसे संजय भाई ने भेजा है. माना जाता है कि यह भोजपुरी की एकमात्र और पहली कविता है. हो सकता है कई लोगों को भाषा समझ में न आए लेकिन हिंदी जानने वाले अगर दो-तीन बार पढ़ कर कोशिश करेंगे तो समझ पाएंगे. देखिए क्या है अछूत की शिकायत....
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिली सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओ न देख ताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पादरी साहेब के कचहरी में जाइबजां,
बेधरम होके रंगरज बनी जाइबि।
हाय राम! धरम न छोड़ते बनत बाटे,
बेधरम होके कैसे मुंहवा देखाइबि।
खंभवा के फारि प्रहलाद के बचवले जां,
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना (दुर्योधना) कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां (रावण) के पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धैके पथरा (पत्थर) उठवले।
कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,
डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।
हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठाकुर के सुखसेत घर में सुतल बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे कै लसकरि उतरल बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे कै लसकरि उतरल बानीं,
जेत उहओं बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नोकरिया करत बानीं,
ई कुलि खबरि सरकार के सुनाइबि।
बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठाकुरे के लेके नहि लउरी चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांडी हम मारबजां,
अहिरा के लेखे नहि गइया चोराइबि।
भंटउ के लेखेन कवित हम जोरबजां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।
अपने पसिनवां (पसीना) के पइसा कमाइबजां,
घर भर मिली जुली बांटि चोंटि खाइबि।
हड़वा मसुइया कै देहियां है हमनी कै,
ओकरै के देहियां बभनओं कै बानी।
ओकरा के घरै घरै पुजवा होखत बाजे,
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इनरा (कुआं) के निगिचे (नजदीक) न जाइलेजां,
पांके (कीचर) में से भरि भरि पियतानी पानी।
(पत्रिका सरस्वती के सितंबर, 1914 में प्रकाशित)
सोच पाना भी असंभव सा लगता है कि सौ साल पहले अछूत जाति का कोई व्यक्ति पढ़ना-लिखना जानता होगा. लेकिन तब के समय के हीरा डोम का उल्लेख मिलता है. जाति की पीड़ा इतनी थी कि जब वो इस काबिल हुए कि अपनी बात कह सके तो अपनी व्यथा और दर्द को कहने के लिए उन्होंने कविता का सहारा लिया. सन् 1914 में उन्होंने यह कविता लिखी थी. आज भी दलित साहित्य की चर्चा इसके बिना अधूरी है. हीरा डोम द्वारा लिखी इस कविता का शीर्षक है 'अछूत की शिकायत'. इसे संजय भाई ने भेजा है. माना जाता है कि यह भोजपुरी की एकमात्र और पहली कविता है. हो सकता है कई लोगों को भाषा समझ में न आए लेकिन हिंदी जानने वाले अगर दो-तीन बार पढ़ कर कोशिश करेंगे तो समझ पाएंगे. देखिए क्या है अछूत की शिकायत....
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिली सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओ न देख ताजे,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पादरी साहेब के कचहरी में जाइबजां,
बेधरम होके रंगरज बनी जाइबि।
हाय राम! धरम न छोड़ते बनत बाटे,
बेधरम होके कैसे मुंहवा देखाइबि।
खंभवा के फारि प्रहलाद के बचवले जां,
ग्राह के मुंह से गजराज के बचवले।
धोती जुरजोधना (दुर्योधना) कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहां कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवां (रावण) के पलले भभिखना के,
कानी अंगुरी पै धैके पथरा (पत्थर) उठवले।
कहवां सुतल बाटे सुनत न बाटे अब,
डोम जानि हमनी के छुए से डेरइले।
हमनी के राति दिन मेहनत करीलेजां,
दुइगो रुपयवा दरमहा में पाइबि।
ठाकुर के सुखसेत घर में सुतल बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे कै लसकरि उतरल बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हाकिमे कै लसकरि उतरल बानीं,
जेत उहओं बेगरिया में पकरल जाइबि।
मुंह बान्हि ऐसन नोकरिया करत बानीं,
ई कुलि खबरि सरकार के सुनाइबि।
बभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठाकुरे के लेके नहि लउरी चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांडी हम मारबजां,
अहिरा के लेखे नहि गइया चोराइबि।
भंटउ के लेखेन कवित हम जोरबजां,
पगड़ी न बान्हि के कचहरी में जाइबि।
अपने पसिनवां (पसीना) के पइसा कमाइबजां,
घर भर मिली जुली बांटि चोंटि खाइबि।
हड़वा मसुइया कै देहियां है हमनी कै,
ओकरै के देहियां बभनओं कै बानी।
ओकरा के घरै घरै पुजवा होखत बाजे,
सगरै इलकवा भइलैं जजमानी।
हमनी के इनरा (कुआं) के निगिचे (नजदीक) न जाइलेजां,
पांके (कीचर) में से भरि भरि पियतानी पानी।
(पत्रिका सरस्वती के सितंबर, 1914 में प्रकाशित)
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