Friday, May 6, 2011

यह दलित विरोधी पत्रकारिता है




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हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादीब्राह्णवादी चेहरा अक्सर हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिकप्रगतिशीलनिष्पक्षलोकतांत्रिक होने का स्वांग करता हुआ हमें दिखता है. लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्राह्मण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है. ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं. लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला.

लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला. इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था 'अलग दुनियाने किया था. इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये. 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया. इसका निर्देशन जाने-माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था. यह वही ग्रुप है, जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन में पांचों दिन अपने नाटक से लोगों का ध्यान खींचा था. दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्थाबरेली ने किया. इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था. समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया. नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा-परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों हैइस रंग आंदोलन की दिशा क्या होजन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठआलोचक वीरेन्द्र यादवदलित चिन्तक अरुण खोटेराजेश कुमारकुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया.
इन नाटकों ने धर्मअस्पृश्यतावर्णवादी व्यवस्थागैरबराबरीसमाजिक शोषणब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं, जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं. आज की सत्ता द्वारा ये संरक्षित भी हैं. इस व्यवस्था को बदले बिना दलितों-शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है. चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था. इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये. ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे. तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा. नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्शबहस.मुबाहिसाबातचीत का क्रम चलता रहा. यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली.
यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था. हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था. इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया. उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये. उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया. आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था. लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था. आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाये?अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई. उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं. यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है.
लेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकीभले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की. इस मामले में अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इण्डियाके लखनऊ संस्करण ने तो हद ही कर दी. इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तुनिर्देशनअभिनयसंगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की. बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की. इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे. ये विचार जरूर गौरतलब हैं. इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक हैयह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है. इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है. आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है.
इस दलित नाट्य समारोह पर टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गईये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं. इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है. इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है. लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैंतब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है. इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है.
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआउसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया थाउससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी. इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा व्यवस्था के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था.
किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठानाइसके मुद्दो पर बहस व वाद-विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है. यह होना भी चाहिए. लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहींमात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करनादूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है?
मीडिया के नंबर वन न्यूज पोर्टल bhadas4media.com से साभार
Written by कौशल किशोर   
Wednesday, 20 April 2011 20:18

लेखक कौशल किशोर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें मोबाइल नंबर 0980751922708400208031 पर फोन कर सकते हैं.

सीधा प्रसारण

    यह अनीता भारती जी  की नई कहानी है आशा है अच्छी लगेगी सर्वेश कुमार मौर्या 

सुबह की चाय की चुस्की के साथ ही उसने गोल करके फोल्ड की गई अखबार में लगी रबड़ को हटाया और अखबार फैला कर अपने सामने रखा. पहली हेडलाईन में किसी किशोरी प्रियंका की आत्महत्या की खबर छपी थी. उसको आत्महत्या के लिए उकसाने के पीछे किसी बड़े नौकरशाह का हाथ बताया गया था. खबर थी कि नौकरशाह उस किशोरी से अपनी हवस पूरी करना चाहता था और किशोरी के मना करने पर उसने जीना हराम कर देने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी.  लगातार तंग किए जाने से बेहद परेशान उस किशोरी ने आखिरकार खुद को फांसी पर लटका लेना ज्यादा आसान समझा.
पूरी खबर वह उत्सुकता से पढ़ गया. खबर ने उसे काफी विचलित कर दिया था. प्रियंका किसी शिक्षित और ऊंचे खानदान की लड़की थी, यह खबर के साथ छपे फोटो से पता चल रहा था. बड़ी-बड़ी आंखें, अच्छे से संवारे हुए बाल. स्कूल की वर्दी में छपे उसके फोटो को देखकर ही लग रहा था कि वह किसी अच्छे स्कूल में पढ़ती रही होगी. खबर में बताया गया था कि प्रियंका एक प्रतिभाशाली लड़की थी. पढ़ाई के अलावा खेलकूद में भी वह हमेशा अव्वल रहती थी. ऐसी होनहार लड़की को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर देना भास्कर को हृदय को भीतर तक दुखा गया. भास्कर को उसमें अपनी ही तरह के किसी परिवार की बच्ची नजर आई. भास्कर के मुंह से आह निकल गई. गुस्से में उसकी नसें फड़क उठी. उसे लगा कि अगर कहीं वह कमीना नौकरशाह मिल जाए तो वह उसका का खून पी जाए. उसके मन में रोष भर गया. उसने उसी रोष में अखबार के अन्य पन्ने पलटने शुरू किए. दूसरा पन्ना दिल्ली- देहात की खबरों पर था. पूरा का पूरा पन्ना मारधाड़, चोरी, हत्या या अपहरण की खबरों से भरा पड़ा था. ऊपर से फिसलती हुई उसकी निगाह पन्ने में सबसे नीचे लिखी तीन लाईनों की एक खबर पर गई जिसमें एक दलित किशोरी सुनीता की गांव के दबंगो ने बलात्कार करने के बाद जिंदा जला कर हत्या कर दी थी. उसके मुंह से उफ्फ निकला.
उसका मन अखबार से उकता चुका था. उसने अखबार मोड़ कर रखा और किचन में अपने लिए चाय बनाने चला गया. चाय बनाते-बनाते भास्कर ने अपने डेली-रुटीन के मुताबिक सबसे पहले मां को फोन लगाया और प्रणाम करते हुए उनका हालचाल पूछा. रोज की तरह मां की आवाज में रुंआसेपन की जगह आज खुशी टपक रही थी. मां कह रही थी- बचुआ कब तक अकेले-अकेले अपने हाथ से सेंककर रोटी खाओगे. हमने तुम्हारे लिए रोटी सेकने वाली ढूंढ़ ली है. लड़की एमए पास है. खूब गोरी है, तुम्हारे साथ जोड़ी खूब जंचेगी. लेने- देने की बात सब तुम्हारे चाचा कर लेंगे. हमने उन्हें बता दिया है कि हमारा भास्कर दिल्ली में रहता है और वहीं सेटल होना चाहता है, इसलिए आप समझिए कि आप भास्कर की जगह अपनी बेटी को ही सेट करेंगे.
भास्कर पिछले कुछ सालों से दिल्ली में रह रहा था. पता नहीं क्यों उसे बचपन से ही दिल्ली जाकर पढ़ने और बसने की ललक थी. बारहवीं के बाद उसने यहीं आकर दिल्ली के एक जाने-माने पत्रकारिता संस्थान से पत्रकारिता में डिप्लोमा कर लिया. उसके चाचा उमाशंकर दुबे इलाहाबाद के एक प्रतिष्ठित अखबार में सहायक संपादक थे. इस कारण उसे दिल्ली में एक दैनिक अखबार में रिर्पोटर की नौकरी सहज ही मिल गई. उसे 'अपराध जगत' पर प्रतिदिन कॉलम लिखना होता था, सो 'प्रियंका आत्महत्या केस' और 'सुनीता बलात्कार-हत्या केस' उसके पास आ गया. अब उसे दोनों केस पर एक साथ काम करना था. उसने तय किया कि 'सुनीता केस' की रपट तो अपने गांव के रिसोर्स से मंगवा लेगा पर 'प्रियंका केस' पर वह खुद फील्ड में जाकर खोजबीन कर रपट लिखेगा. उसे अखबार के संपादक ने भी हिदायत दी थी कि वह प्रियंका आत्महत्या केस पर गंभीरता से काम करे. लोगों की रुचि ऐसे ही 'हाई प्रोफाईल केसों' में अधिक होती है. संपादक ने भास्कर को भरोसा दिया कि प्रियंका आत्महत्या केस को 'स्पेशल स्पेस' दिया जायेगा और रिपोर्टिंग में भी रोज भास्कर का नाम ही जाना तय हुआ. भास्कर ने मन में सोचा कि वह ऐसे स्वर्णिम अवसर को कभी हाथ से नहीं जाने देगा. प्रियंका केस के माध्यम से वह समाज में अपनी सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध पत्रकार की छवि बनाकर रहेगा.
भास्कर ने सबसे पहले 'सुनीता केस' की रपट के लिए गांव में काम कर रही रंजना से बात करने की सोची. रंजना उसके कॉलेज के समय की मित्र थी. आजकल वह गांव में ही रहकर वहां एक स्वयंसेवी संस्था 'जनचेतना' में काम कर रही थी. भास्कर ने गांव में फोन लगाया. फोन लगते ही भास्कर ने कहा- “रंजना, तुम्हारे गांव से कुछ मील दूर छिनौरा गांव में एक दलित लड़की सुनीता के साथ बलात्कार की घटना हुई है. क्या तुम उस मामले के बारे में किसी को अपने ऑफिस से भेजकर घटना का डिटेल्स पता करवाकर मुझे बता सकती हो. मैं वहां जरूर आता, लेकिन इसी तरह के एक और केस के सिलसिले में मुझे चंडीगढ़ जाना पड़ रहा है." दूसरी तरफ से रंजना ने कहा- “अच्छा हुआ तुमने मुझे फोन कर लिया. मैं भी आज जनचेतना की तरफ से छिनौरा जा रही हूं. घटना की जानकारी लेने. तुम बेफ्रिक होकर चंडीगढ जाओ. गांव से लौटकर मैं तुम्हें पूरा ब्योरा दे दूंगी." भास्कर निश्चिंत हो गया. रंजना ने कई बार ऐसे ही संकट के समय बडी़ ईमानदारी के साथ उसकी मदद की है और अब भी करेगी. भास्कर को पता है कि खबर की तह तक जाने के लिए रंजना किसी तरह की कोई कमी नही छोडे़गी. 

भास्कर ने 'सुनीता केस' के बारे में सोचना छोड़ अपना पूरा ध्यान 'प्रियंका केस' की ओर लगा दिया. अब भास्कर को प्रियंका की आत्महत्या से संबंधित नयी-नयी खबरें रोज  मिल जाती थीं. वह रोज इस कांड के नए राज पर्दाफाश करना चाहता था. उसे खबरों का खिलाड़ी माना जाता था. उसने अपने फोटोग्राफर प्रीतम को साथ लिया और प्रियंका के घर पहुंच गया. वहां से उसने प्रियंका की सहेलियों के घर-घर जाकर प्रियंका के बारे में ढेर सारी जानकारियां इकठ्ठी कीं
उधर रंजना ने अपना काम शुरु कर दिया. वह उस गांव के प्रधान को जानती थी. उसका मोबाइल नंबर भी उसके पास था. उसने प्रधान चौधरी मलखान सिंह को फोन लगाया- 'प्रधान जी मैं 'जनचेतना' से रंजना बोल रही हूं. कल आपके गांव के पास कुछ लोगों ने एक लड़की सुनीता के साथ बलात्कार करने के बाद उसे जिन्दा जला दिया. उस घटना के बारे में आपको तो पता ही होगा.' प्रधान रंजना की बात बीच में ही काटते हुए बोला- 'अरे मैडम यहां तो ऐसी घटनाएं आए दिन घटती रहती हैं. आप क्यों परेशान होती हैं. वैसे घटना कोई खास नहीं है जी! वैसी ही है जैसी गांव में होती है. अरे सच तो ये है कि इन ससुरों से अपनी लड़कियां संभाली नहीं जाती. जब ऊंच-नीच घट जाती है तो पुलिस में दौडे़-दौडे़ फिरते हैं. हमारे गांव के पास कुछ दिहाड़ी मजदूरों की झुग्गी है. उसी झुग्गी में बंसी की बेटी रात को शायद शौच-वौच को गई थी. वहीं कुछ लड़कों ने उसके साथ बातचीत करनी चाही तो उसने जुबान लडा़नी शुरू कर दी. बस लड़कों को ताव आ गया और ये घटना घट गई. अरे क्या जरूरत थी उसे उन लड़कों से जबान लडा़ने की.' रंजना को प्रधान की बातों से समझ में आ गया कि वह घटना को अपने मन की कहानी बना कर सुना रहा है. रंजना ने फोन रख दिया. लेकिन इतनी बातों से ही रंजना को अंदाजा हो गया कि जरूर सुनीता ने उन अत्याचारियों के आगे घुटने टेकने के बजाय उनका मुकाबला करना ही बेहतर समझा होगा. रंजना को लगा कि यहां बैठे-बैठे खबर की असलियत निकलना मुश्किल है, इसलिए वहां खुद जाना होगा. वह गांव की ओर चल पड़ी.
इधर प्रियंका के मामले में शिद्दत से काम कर रहे भास्कर का काम तेजी पर था. अब उसे  इसी कडी में कुछ और जाने-माने लोगों के इंटरव्यू लेने थे. वह प्रियंका के स्कूल गया. उसने प्रियंका की दूसरी शिक्षिकाओं और कुछ पड़ोसियों से भी बात की. सबने उसे बेहद होशियार और शांत रहने वाली सभ्य-शालीन लड़की बताया और उसकी बहुत तारीफ की. उसने स्कूल में प्रियंका की पिछले पांच सालों की रिपोर्ट कार्ड निकलवाई. गंभीरता से उसका आकलन करने के बाद उसने अपने अखबार के लिए खबर बनाई- 'हमेशा फर्स्ट आने की सजा...।' इस खबर में उसने बाकायदा प्रियंका का रिपोर्ट कार्ड भी छापने के लिए भेजा. खबर उसी शीर्षक के साथ उतने ही महत्त्व के साथ छापी गई. खबर के बीच में रिपोर्ट कार्ड में प्रियंका को मिले ग्रेड को एक गोल घेरा बना कर हाइलाइट किया गया था.
उधर रंजना पता पूछते-पूछते जब सुनीता के घर पहुंची तो घर के नाम पर अधबनी कच्ची झोपडी़, फूस की छत और मिट्टी से लीपा हुआ फर्श. दो टूटी खाट और उन पर तह करके दो मैली रजाइयां रखी थी. कोने में रस्सी की अरगनी पर एक पुरानी साड़ी और एक मैली-कुचेली पैबंद लगी पैंट टंगी हुई थी. मिट्टी की दीवार के बीचोंबीच एक फोटो टंगा था. फोटो सुनीता का ही था. बड़ी-बड़ी खूबसूरत चहकती-सी आंखें, स्कूल के साधारण कपड़ों में भी चेहरे पर अनोखी चमक दीख रही थी. सुनीता का फोटो देख रंजना भावुक हो गई. इस बीच उसके सुनीता के बारे में बारे पूछते ही घर में फिर से रोआराट मच गया. सुनीता की मां बेटी का नाम लेकर फिर रोने लगी. रंजना ने सुनीता की मां को चुप कराते-कराते पूछा- 'सुनीता, कौन-सी क्लास में पढ़ती थी.' उसने बताया कि वो दसमीं का पेपर देने वाली थी और खूब पढ़ाकू थी. हम तो सुबह ही उसके बापू के साथ काम पर चले जाते थे. लेकिन वह स्कूल से आने के बाद अपने आप पढ़ती थी और घर का सारा काम भी करती थी. कभी-कभी गली -गांव के बच्चों को भी पढ़ाती देती थी.' उसने रमबतिया के आंसू पोंछते हुए कहा- 'ये सब कैसे हुआ?' रमबतिया ने बताया कि सुनीता उस दिन जब स्कूल से लौटी तो उसने हमें बताया कि गांव के चौधरी का लड़का मुकेश उसका रास्ता घेर कर उसे छेड़ते हुए बोला- ' अरी ओ इन्दिरा गांधी, पढ़-लिख कर क्या कलेक्टर बनेगी?' हमरी बिटिया को गुस्सा आ गया और उसने पलट कर कह दिया कि हां, बनूंगी कलेक्टर बोल तू क्या करेगा? और अगर मैं किसी दिन कलेक्टर बन गई तो इतने डंडे लगवाऊंगी कि तू किसी भी लड़की से बात करने लायक नहीं रहेगा.'
यह कह कर वह घर आ गई. जब उसने मुझे बताया तो मैंने उसे कहा था कि इन लोगों के मुंह मत लग बिटिया. तू अपनी पढ़ाई अच्छी तरह से कर. लेकिन रात जब सुनीता खेतों में गांव की दो लड़कियों के साथ शौच को गई तो वहीं चौधरी के लड़के ने उसे दो और लड़को के साथ दबोच लिया. उसके साथ जबर्दस्ती जो चाहा किया. हमरी बिटिया ने भागना चाहा तो उन कमीनों ने उस पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा दी.
रंजना ने उसे सांत्वना देते हुए कहा- 'धीरज रखो काकी. वे लोग पकड़े गए कि नहीं.' रमबतिया ने कहा- 'कहां बिटिया, वे तो खुल्ले घूम रहे हैं. उल्टे पुलिस हमें धमका रही है कि कहीं रिपोर्ट नहीं करना, नहीं तो हम तुम्हारे आदमी को उठा ले जाएंगे. वे हमारी बिटिया की आखिरी निशानी साइकिल भी ले गए. कह रहे थे कि सुनीता इससे स्कूल जाती थी. जांच के लिए इस साइकिल का ले जाना जरूरी है


रंजना ने तसल्ली दिया और कहा कि दिल्ली में मेरा एक जानकार पत्रकार है. सुनीता के साथ जो भी हुआ, मैं उसकी पूरी खबर उसे भेजूंगी. मैं उसमें सब लिख दूंगी कि कैसे अपराधी खुल्ले घूम रहे हैं और पुलिस वाले कैसे आपको तंग कर रहे है.' इसके बाद रंजना वहां से वापस आ गई. उसने शाम को भास्कर को फोन लगाया और पूरी घटना बताई. रंजना ने भास्कर को बताया कि मुझे लगता है कि अगर सुनीता दलित नहीं होती तो शायद इस तरह क्रूर तरीके से उसकी हत्या नहीं होती. सच तो यह है कि गरीब-दलित समाज की होने के बावजूद उसका पढ़ना-लिखना और साहसी होना ही गांव के दबंगों की नजर में चढ़ गया था. इसीलिए उसे जिंदा जलाकर मार डालने से पहले बलात्कार के जरिए दबंगों ने यह बताने की कोशिश की कि उसके जैसी जमात की लडकियों के लिए पढ-लिखकर भविष्य के सुनहरे सपना देखना कितना त्रासद हो सकता है. यह स्पष्ट तौर पर जातीय द्वेष और अत्याचार का मामला है. सब कुछ बताने के बाद रंजना ने भास्कर से कहा- 'देखो, खबर जरा मजबूत तरीके से बनाना, ताकि अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई हो सके. मैं भी 'जनचेतना' की तरफ से पुलिस स्टेशन जाकर पुलिस वालों से बात करती हूं.' भास्कर ने रंजना का शुक्रिया किया.
रंजना से बात करने के बाद भास्कर को लगा कि सुनीता का केस बहुत ही साधारण है और आज की पत्रकारिता की भाषा में कहें तो 'लो प्रोफाइल' है. गांवों में ऐसी न जाने कितनी घटनाएं घटती रहती हैं. अखबारों में कितना और कब तक इनके बारे में छपता रहेगा. सुनीता के साथ बलात्कार करने वालों में अगर कोई नेता, मंत्री या ऊंचे कद का राजनीतिज्ञ शामिल होता तो खबर अच्छी बनती. उसे भी इस तरह के अन्याय के खिलाफ लिखने में संतोष होता. और भास्कर ने अपने अखबार में सुनीता के बारे में जो खबर बना कर दी, वह कुल  सौ-सवा शब्दों की रही होगी, जिसे किसी कोने में जगह मिल जाती तो अखबार की मेहरबानी ही होती. इसके बाद भास्कर ने सुनीता की कहानी को सिर से झटक दिया और फिर पूरी ताकत से प्रियंका केस में जुट गया.
 इसमें कोई शक नहीं कि भास्कर आज का एक बेहद प्रतिभाशाली पत्रकार था. वह सोच रहा था कि वह प्रियंका केस में अपने अखबार को क्या ऐसी खबर दे जो सबसे पहली और सबका ध्यान खींचने वाली हो. उसके ध्यान में श्रुति का नाम घूम गया. श्रुति महिलाओं के मुद्दों पर एक स्वयंसेवी संगठन चलाती थी. कभी-कभार अपने कार्यक्रमों में वह भास्कर को भी बुला लेती थी और इस नाते श्रुति से भास्कर की थोड़ी जान-पहचान हो गई थी. उसने श्रुति को फोन लगाया. उधर से श्रुति की चहक भरी आवाज आई- 'अरे भास्कर जी, कैसे याद किया हमें?' भास्कर ने तुरंत गम्भीरता से कहा- 'मुझे प्रियंका केस में आपकी स्टेटमेंट चाहिए. आपके अलावा दो-चार आपकी जैसी बहादुर महिलाओँ के नाम भी चाहिए जो महिलाओं मुद्दों पर काम कर रही हों. अगले दिन छह महिला प्रतिनिधियों के स्टेटमेंट सहित बड़ी खबर छपी- 'प्रियंका के लिए न्याय की लडा़ई में महिला संगठन आगे आए...!'
भास्कर के काम की तारीफ होने लगी. भास्कर को अब और कुछ नया करना था. उसने श्रुति को फिर फोन लगाया और कहा- 'श्रुति जी, क्या आप 'प्रियंका केस' को लेकर कोई विरोध जताने जा रही हैं?' श्रुति ने कहा- 'फिलहाल ऐसा कोई इरादा तो नहीं, लेकिन आप कहें तो विरोध कर सकते हैं.' भास्कर ने श्रुति को आइडिया देते हुए कहा- 'क्या आप कुछ महिला संगठनों की औरतों को साथ लेकर प्रियंका के मामले पर कैंडल मार्च कर सकती हैं? अगर ऐसा कर सकें तो मैं भी अपने सभी पत्रकार दोस्तों को इन्फॉर्म कर दूंगा. हम सब भी शमिल हो जाएंगे.' अगले दिन भास्कर के बाइलाइन से पहले पन्ने पर बड़ी खबर छपी थी- 'प्रियंका मामले पर भड़का अवाम, कल कैंडल मार्च.' भीड़ इकठ्ठी करने के लिए लिए एसएमस जैसी सुविधाओं का भी सहारा लिया गया. कैंडल मार्च में अत्याधुनिक दिखने वाली महिलाओं से लेकर स्कूल-कॉलेज के बच्चे, स्वयंसेवी-सामाजिक संस्थाओँ के लोगों के साथ एक विशाल पत्रकार समूह ने प्रियंका की बडी़-बडी़ फोटो हाथों में लिए जंतर-मंतर की सड़क पाट दी. चारों तरफ मर्द, औरतें, बच्चे प्रियंका की फोटो के होर्डिंग पकड़े मौन कैंडल मार्च कर रहे थे.
चारों तरफ 'प्रियंका केस' की चर्चा थी। कैंडल मार्च का सिलसिला दिल्ली से शुरू होकर पूरे देश में फैल गया. हर रोज कहीं न कहीं विरोध प्रदर्शन होने लगे. उसकी खबरें अखबारों के पहले पन्ने पर और टीवी के प्रमुख समाचारों का हिस्सा बन रहे थे. लोग प्रियंका को आत्महत्या के लिए उकसाने वाले के लिए सजा देने की मांग कर रहे थे और नौकरशाह को सजा न देने के लिए सरकार और न्याय व्यवस्था पर लानत भेज रहे थे. सबसे बडी़ बात यह थी कि पूरा मीडिया प्रियंका के केस में बेहद संवेदनशील था. और आखिरकार प्रियंका को न्याय दिलाने में मीडिया की जीत हुई. प्रियंका की मौत के जिम्मेदार नौकरशाह को आखिरकार एक साल की जेल हो ही गई. स्त्री अस्मिता के मुद्दों पर समाज में मीडिया की इस सकारात्मक भूमिका के लिए खासकर भास्कर और उसके अखबार की प्रशंसा में फेसबुक, ब्लॉग आदि पर लेख लिखे जा रहे थे. भास्कर को सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित बेहतरीन पत्रकारिता के लिए सरकार की ओर से पुरस्कृत करने की घोषणा की गई.
चंद रोज बाद रंजना टीवी के सामने बैठी थी. प्रियंका को न्याय दिलाने में मीडिया और खासकर भास्कर की भूमिका पर केंद्रित कार्यक्रम चल रहा था. इसी बीच टीवी की एंकर ने बताया कि अब हम आपको सीधे उस समारोह में लिए चलते हैं जहां प्रियंका को न्याय दिलाने के अभियान की कमान थामने वाले पत्रकार भास्कर को मुख्यमंत्री के हाथों पुरस्कृत किया जा रहा है. रंजना का मुंह कसैला हो रहा था, आंख और कान में कुछ चुभने लगा था कि इसी बीच उसके फोन की घंटी बजी. उधर से बोलने वाले ने रोते-रोते कहा- 'मैडम जी, जब से हमारी बिटिया गई, आपके अलावा हमारी किसी ने नहीं सुनी. जगह-जगह जाकर सिर पटकता हूं. जिन्होंने हमारी बिटिया को मार डाला, वे मुझे कहीं आने-जाने पर भी धमकाते हैं. पीठ पीछे सब कहते हैं कि हमारी बिटिया का चरित्र ही खराब था. मैडमजी अब हमें कुछ नहीं चाहिए. हम किसी से कुछ नहीं कहेंगे. सुना है पुलिस वाले अखबार और चैनल वालो से डरते हैं. आपकी तो बहुत लोगों से जान-पहचान है. किसी अखबार-चैनल वाले से कहवा कर बस हमारी बिटिया की साइकिल हमें वापस दिलवा दीजिए, हमें कुछ और नहीं चाहिए...।'
फोन पर रोने वाला सुनीता का पिता था- एक 'लो प्रोफाइल' बेटी का 'लो प्रोफाइल' बाप.
रंजना की निगाह फिर टीवी पर गई. मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री महोदय भास्कर के गले में फूलों का हार पहनाने के बाद उसके हाथ में प्रशस्ति-पत्र सौंप रहे थे. कैमरों के फ्लैश चकाचक चमक रहे थे. अखबारों के पत्रकार अपने नोटपैड पर तेजी से कलम चला रहे थे. टीवी चैनलों के पत्रकार मुख्यमंत्री और भास्कर की बाइट लेने के लिए मोर्चा संभाल चुके थे. देश की राजधानी में मीडिया अपने नायक के सम्मान का सीधा-प्रसारण कर रहा था! (END)



लेखिका दलित लेखक संध की महासचिव हैं. साथ ही 1992 से दिल्ली प्रशासन में हिन्दी पी.जी.टी के पद पर कार्यरत हैं. इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप उन्हें anita.bharti@gmail.com पर मेल कर सकते हैं या फिर 9899700767 पर संपर्क कर सकते हैं.

Thursday, May 5, 2011

अंबेडकर का दलित विमर्श







यह भ्रम बना हुआ है कि डा. भीमराव अंबेडकर केवल दलित नेता थे. वह सदैव पूरे देश के लिए सोचते और काम करते रहे. निस्संदेह, आज बहुत से लोग अंबेडकर और दलितवाद के नाम पर ऐसी गतिविधियों में संलग्न हैं, जिससे अंबेडकर को घृणा होती. अंबेडकर ने बार-बार घोषित किया था कि भारतीय समाज की सबसे निम्न सीढ़ी के लोगों के लिए आर्थिक उत्थान से बड़ा प्रश्न उनके आत्मसम्मान, विवेक और आत्मनिर्भरता का है. आजकल अंबेडकर का नाम लेकर जब-तब ‘बौद्ध दीक्षा समारोह’ आयोजित होते हैं. इन आयोजनों में ईसाई मिशनरियों का बड़ा हाथ होता है. किंतु दलितों को बौद्ध धर्म में मतांतरित कराने में ईसाई नेताओं की क्या दिलचस्पी है? इसका जवाब ‘क्राइस्ट व‌र्ल्ड’ पत्रिका में है. इसमें लिखा है कि दलितों की मुक्ति के लिए ईसाई समाज ने इतना काम किया है कि दोनों के बीच एक संबंध विकसित हो गया है. इससे भविष्य में दलितों का ईसाई पंथ में मतांतरित हो जाना एक स्वभाविक संभावना है.
मिशनरी संस्था ‘गोस्पेल फार एशिया’ के अनुसार पहले दलितों को केवल बौद्ध होने के लिए कहा गया. बदले में दलित नेताओं ने वादा किया कि वे अपने लोगों को ईसाई बनाने के लिए हमारे साथ काम करेंगे. इनमें यदि एक तिहाई भी बाद में ईसाई बन जाते हैं तो कितनी बड़ी संख्या में नए ईसाई होंगे! क्या इसीलिए डा. अंबेडकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए थे? उन्होंने स्पष्ट कहा था कि अपने कार्य के लिए उन्हें विदेशी धन की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने यह भी कहा था कि भारत को बाहरी मजहबों की कोई आवश्यकता नहीं है. आज के छद्म अंबेडकरवादी इन बातों को नहीं दोहराते. वे ‘बौद्ध-दीक्षा’ के नाम पर भोले-भाले हिंदू दलितों को विदेशी मिशनरियों के हाथों बेच रहे हैं. यह दलितों को सम्मान और आत्मविश्वास देने के उलट उन्हें ही मिटा देने का षड्यंत्र है.
अंबेडकर ने 15 फरवरी, 1956 को अपने भाषण में बताया था कि वह बौद्ध क्यों बने. ईसाइयत, इस्लाम आदि का नाम लेकर उन्होंने कहा था कि वे भेड़चाल में यकीन रखते हैं जबकि बौद्ध धर्म विवेक आधारित है. ईसाई पंथ एक ईश्वर-पुत्र, एक दूत-पैगंबर जैसे जड़-अंधविश्वासों का दावा करते हैं. उन मजहबों में मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए के लिए स्थान नहीं. डा. अंबेडकर के शब्दों में- मैं भारत से प्रेम करता हूं इसीलिए झूठे नेताओं से घृणा करता हूं. हिंदुत्व के प्रति कटुता के बावजूद अंबेडकर विश्व संदर्भ में भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान रहे. विदेशियों द्वारा हिंदू समाज की झूठी आलोचना करने पर डा. अंबेडकर हिंदू धर्म का बचाव करते थे. जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में हिंदू धर्म की कुत्सित आलोचना की, तो अंबेडकर ने उसका मिथ्याचार दिखाने में तनिक संकोच नहीं किया था. कैथरीन ने कहा था कि हिंदू धर्म में सामाजिक विषमता है, जबकि इस्लाम में भाईचारा है. अंबेडकर ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि इस्लाम गुलामी और जातिवाद से मुक्त नहीं है.
डा. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन या पाकिस्तान’ के दसवे अध्याय में मुस्लिम समाज का अध्ययन किया है. अंबेडकर के अनुसार, हिंदुओं में सामाजिक बुराइया हैं किंतु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने का प्रयास करने वाले लोग भी हैं. जबकि मुस्लिम यह मानते ही नहीं कि उनमें बुराइयां हैं और इसलिए उसे दूर करने के उपाय भी नहीं करते. आज अंबेडकर की इस विरासत को तहखाने में दफन कर दिया गया है. दलित राजनीति को विदेशी, संदिग्ध, मिशनरी संगठनों ने हाई-जैक कर लिया है. वे दलितों को अविवेक, लोभ, भोगवाद और राष्ट्रविरोध के फंदे में डाल रहे हैं. अनेक दलित नेता-बुद्धिजीवी दलित प्रश्न को अपने निजी स्वार्थ का हथकंडा बनाए हुए हैं. अंबेडकर ऐसे नेताओं से घृणा करते थे.
यह कथित उच्च वर्गीय हिंदुओं के लिए लज्जा की बात है कि वे भारत के क्रमश: विखंडन को देख कर भी सीख नहीं ले रहे. उन्हें आत्मरक्षा के लिए भी भेद-भाव संबंधी बुराइयों को दूर करने और संपूर्ण समाज की एकता के लिए प्रयत्‍‌नशील होना चाहिए था. कई बिंदुओं पर अंबेडकर की विरासत उच्च-वर्गीय हिंदुओं के लिए अधिक मनन करने योग्य है. डा. अंबेडकर ने 1955 में कहा था कि स्वतंत्र भारत के चार-पांच वर्ष में ही निम्न जातियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ. स्वतंत्र भारत में दलितों की स्थिति तेजी से सुधरी, जो हिंदुओं के सहयोग के बिना संभव न था. निस्संदेह, डा. अंबेडकर आज जीवित होते तो मात्र दलितों के नहीं, पूरे देश के नेता होते.
साभार- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Written by एस शंकर 
Thursday, 21 April 2011 20:37   

यह दलित विरोधी पत्रकारिता है






हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादीब्राह्णवादी चेहरा अक्सर हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिकप्रगतिशीलनिष्पक्षलोकतांत्रिक होने का स्वांग करता हुआ हमें दिखता है. लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्राह्मण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है. ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं. लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला.

लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला. इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था 'अलग दुनियाने किया था. इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये. 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया. इसका निर्देशन जाने-माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था. यह वही ग्रुप है, जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन में पांचों दिन अपने नाटक से लोगों का ध्यान खींचा था. दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्थाबरेली ने किया. इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था. समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया. नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा-परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों हैइस रंग आंदोलन की दिशा क्या होजन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठआलोचक वीरेन्द्र यादवदलित चिन्तक अरुण खोटेराजेश कुमारकुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया.
इन नाटकों ने धर्मअस्पृश्यतावर्णवादी व्यवस्थागैरबराबरीसमाजिक शोषणब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं, जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं. आज की सत्ता द्वारा ये संरक्षित भी हैं. इस व्यवस्था को बदले बिना दलितों-शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है. चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था. इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये. ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे. तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा. नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्शबहस.मुबाहिसाबातचीत का क्रम चलता रहा. यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली.
यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था. हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था. इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया. उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये. उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया. आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था. लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था. आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाये?अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई. उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं. यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है.
लेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकीभले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की. इस मामले में अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इण्डियाके लखनऊ संस्करण ने तो हद ही कर दी. इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तुनिर्देशनअभिनयसंगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की. बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की. इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे. ये विचार जरूर गौरतलब हैं. इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक हैयह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है. इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है. आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है.
इस दलित नाट्य समारोह पर टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गईये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं. इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है. इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है. लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैंतब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है. इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है.
यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआउसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया थाउससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी. इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा व्यवस्था के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था.
किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठानाइसके मुद्दो पर बहस व वाद-विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है. यह होना भी चाहिए. लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहींमात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करनादूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है?
मीडिया के नंबर वन न्यूज पोर्टल bhadas4media.com से साभार
Written by कौशल किशोर   
Wednesday, 20 April 2011 20:18

लेखक कौशल किशोर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें मोबाइल नंबर 0980751922708400208031 पर फोन कर सकते हैं.

The Other Temple Entry - Dalit Assertion




  
Saturday, 23 April 2011 11:44
The tree Khade stops by falls on the way to his village Ped in Sangli district in Maharashtra, and is the very place where his father made a living as a cobbler. Young Khade’s caste marked him out for exclusion—from the village ground, the well, its water, the temple—almost everything. Education held the lone hope in this dark abyss, and Khade clutched firmly at this straw, sweating it out at the Mazgaon docks during the day and studying for a diploma in mechanical engineering at night. It wasn’t easy; there were times when he had to live under staircases because he could not afford to pay the rent. But determination and hard work eventually paid off. Today, Khade presides over a business empire that is worth Rs 550 crore and has a workforce of 4,500 people. Das Offshore undertakes construction assignments for offshore rigs, and also builds skywalks or foot overbridges.
Khade and 30 other businesspersons, including a woman, are now part of a league of ‘Dalit crorepatis’, comprising first-generation entrepreneurs who run successful businesses and give jobs to others. And they haven’t used the ladder of quotas to get to the top, preferring instead to strike out on their own, cocking a snook at the cynics who disapprovingly cluck at the very mention of an inclusive society based on positive discrimination. Propelled by sheer grittiness and tremendous self-belief, they have arrived at a juncture far removed from their predecessors and have acquired a clout their forefathers wouldn’t even have dreamt of. So much so that the Confederation of Indian Industry (CII) is trying to formalise an association with their body, the Dalit Indian Chamber of Commerce and Industry (DICCI). And they are by no means done yet. “Every time I look at Fortune magazine’s list of billionaires,” says Milind Kamble, CMD of Fortune Construction Company, Pune, “I wonder when one of us will make it to the list.” When he says “one of us”, Kamble is referring to the country’s most oppressed community, the Dalits, making it to the world’s list of the richest. Incidentally, Kamble takes some measure of pride in one of his recent projects—laying the pipeline supplying water to Baramati, the pocketborough of Union agriculture minister Sharad Pawar. “Mein Pawar ko pani pilata hoon (give him water, literally, but the phrase could also mean get the better of someone),” he says jocularly.
Outlook’s list of 30 Dalit crorepatis (sourced from the DICCI) is far from complete; members of the chamber say the numbers are likely to increase as more entrepreneurs come forward. But what makes each of these success stories that much sweeter is the fact that it has come after years of fighting a system whose very structure is designed to keep Dalits out. Not only that, many of the enterprises are in areas not traditionally open to the community.
As Surinder S. Jodhka of the Indian Institute of Dalit Studies at Delhi’s Jawaharlal Nehru University puts it, “It is a tough struggle in a market where businesses are run on networks and caste lines, and being a Dalit often means no land and virtually no assets. The discrimination is not just on the lines of untouchability, a whole structure of stereotypes is built around them—that they lack the required skills or can’t speak good English—which takes time to work around.” Besides, Jodhka points out, the informal sector is brutal and exploitative, while shrinking avenues of employment in the government sector in the face of liberalisation have meant that the oppressed classes have had to perforce step out and try to forge networks as they rise up in the open market—the very reason DICCI was set up in 2005.
The market, say many of these Dalit entrepreneurs, is not quite the leveller it is often made out to be. The poor and socially backward find credit facilities to start something big hard to come by. Admits Kalpana Saroj, chairperson of the Mumbai-based Kamani Tubes, which she took over after clearing a debt of Rs 140 crore, “Being a woman and a Dalit, it was really tough to make the grade.”
Married off at the age of 12, Saroj took a loan of Rs 40,000 from Allahabad Bank to purchase a few sewing machines and employed women to stitch and embroider garments. But ambition got the better of her and she moved soon enough into real estate and construction, using that money to buy Kamani Tubes eventually. The company started small, but today boasts a turnover of Rs 100 crore. Her next project: to buy a helicopter before Diwali!
Did her Dalit background inhibit her in any way? “One has to move forward,” Saroj says philosophically, adding that the initiative has come from her side. “Not all Dalits can become businessmen,” notes political writer Chandra Bhan, “just as not every bania (traditionally traders) is a businessman. The Dalit crorepatis show how success is possible within the system.”
Once a business gets going, though, getting loans becomes easier for expansion and diversification. Devjibhai Makwana from Bhavnagar, Gujarat, found it difficult to source funds when he tried to set up a unit manufacturing multi-filament yarn used in fishing nets. But now things have changed, as his son Nagin Makwana explains. “My father struggled to get a loan, now there is no dearth of bankers queuing up to offer credit. We have a BMW now and our business of multi-filament yarn can only look upwards.” Currently, the Makwanas’ Suraj Filament has a turnover of Rs 300 crore.
Success, however, has not made these Dalit crorepatis turn their back on where they came from. Instead, they are striving to uplift their brethren, whether by example or through community service. Since education is what liberated them from the chains of caste, Saroj, Khade and others have opted to open schools in their villages. Dr Sushant Meshram, whose father worked as a waiter in an ordnance factory and who himself went on to become a fellow at the Johns Hopkins University, is now putting the final touches on a multi-speciality state-of-the-art hospital in Nagpur which will be open to the public in a month’s time. “Fortunately, I was a bright student and did well in college. We are socially backward but we have chosen not to be economically backward,” he says.
There is also the more celebrated example of IIM graduate Sharath Babu, who grew up in the slums of Chennai and whose mother sold idlis for a living. He went on to study at BITS Pilani and then IIM-A and started the eatery chain Food King four years ago. With his business yielding an annual turnover of Rs 7 crore now, Sharath decided it was time to repay the faith people reposed in his abilities. And so he contested the recent assembly elections in Tamil Nadu. He feels people like him should join politics to rid it of its bad name.
And where does the state figure in this saga of Dalit emancipation and inclusion? Six decades after Independence, the state seems to have confined itself to playing the welfare card with its schemes for the scheduled castes. Employment of Dalits in the private sector is still voluntary though the idea was mooted in 2007. And predictably, the business lobby was quick to raise concerns of quality taking a hit should it implement the suggested inclusive agenda, even as they would publicly declare that the market does not discriminate on lines of caste. Given this scenario, the number of backward castes making it to top-level positions is virtually an impossibility. Something that irks Professor Anil Gupta of IIM Ahmedabad no end. The state, he says, has disengaged itself from where it should actively be helping. “Why is that the state still engages in the skill development jargon for the poor and talks of leadership development for the rich? How many leadership institutes do we have in states where there’s a larger scheduled caste population?” he asks.
Ironically, inclusion is an initiative being taken by some Dalits themselves. IIT Roorkee graduate Harish Bhaskar, who started the Kota tutorials in Agra, takes pride in the fact that almost all castes come to him to gain an entry to the elite IITs. Started 10 years ago, Bhaskar says he is trying hard to persuade members of his community to take education seriously. “Most of them are too scared to look at IITs and IIMs, and there are few people to guide them,” he says.
Not all, however, are hurrying to raise a toast to this group of 30. Some fear the lobby of Dalit crorepatis might well be gobbled up by big business as other enterprises have been by an unsentimental market. Others say poverty and backwardness are still endemic to most castes and not much should be read into the lavish lifestyle and BMWs of Dalit businesspersons.
Which is not to say that new Dalit entrepreneurs should not be helped along, and the field be made open to all. Karnataka announced a slew of policies last year that ranged from a Rs 10 crore budgetary allocation for the welfare of SC/STs and credit at 4 per cent rate of interest by the state finance corporation to 40 per cent subsidy on land. Says Baalu of the Karnataka chapter of small enterprises: “The state can intervene with loans on easy terms of interest, easy credit and subsidies on land—as are made available for the big business houses.” Adds professor Y.S. Alone of JNU: “All industrialists thrive on government money and support. They are opposed to reservations but welcome tax cuts, subsidised loans and many such government measures which are another form of reservation.”
Ask the Dalit crorepatis, and they say they don’t see the need for reservations for their children. Let others not as fortunate as us avail of its benefits, they say. They are set on consolidating on the gains they have made so far. And maybe get into Fortune’s list of billionaires. With a firm named Fortune Constructions, Kamble just might make it there.
Top 10 Dalit Crorepati Club
Natha Ram, Chairman, Steelmont Pvt Ltd, Mumbai, Turnover: Rs 600 crore
Ashok Khade, CEO, Das Offshore Engineering, Mumbai, Rs 550 crore
Kalpana Saroj, Chairperson, Kamani Tubes, Mumbai, Rs 100 crore
Milind Kamble, CMD, Fortune Construction Company, Pune, Rs 101 crore
Sanjay Kshirsagar, MD, Sound Concept, Mumbai, Rs 100 crore
Devjibhai Makwana, CEO, Suraj Filament, Bhavnagar, Gujarat, Rs 300 crore
Swwapnil Bhingardeve, MD, Khandoba Prassana Sakhar, Pune, Rs 90 crore
Malkiat Chand, CEO, Janagal exports, Ludhiana, Rs 70 crore
Dr Sushant Meshram, Multi-specialty hospital in Nagpur, Rs 40 crore
Avinash Jagtap, CMD, Everest Spun Pipes, Pune, Rs 35 crore
***
20 Emerging ‘Dalpatis’
Sushil Kumar, MD, Simlex Engineers, Noida, Rs 25 crore
Mahavir Singh, MD, Tricon Buildcon, Delhi, Rs 16 crore
Rajendra Gaikwad, MD, GT Pest Control, Pune, Rs 15 crore
Pradeep Nagrare, MD, P.K. Nagrare Construction, Nagpur, Rs 15 crore
Dilip Bhai, CEO, Amba Synthetics, Bhavnagar, Rs 15 crore
Jeetu Makwana, MD, Millennium Industries, Bhavnagar, Rs 10 crore
Sharath Babu, CEO, Food King, Chennai, Rs 10 crore
Harsh Bhaskar, Director, Kota Tutorials, Agra, Rs 10 crore
Devanand Londhe, MD, Payod Industries, Pune, Rs 7 crore
Raju Neele, MD, Sunrise Auto Pack, Aurangabad, Rs 7 crore
Sukesh Ranjan, MD, ABS Beverages, Lucknow, Rs 7 crore
Bijendra Singh, MD, Kabeera Printo Graphic, Faridabad, Haryana, Rs 6 crore
Nand Kishor Chandan, MD, Samrat Ashoka Buildwell, Delhi, Rs 5 crore
Madan Lal Khinder, MD, Rattan Brothers, Jalandhar, Punjab, Rs 5 crore
Lalit Bhansod, MD, Comsolve Mediatech, Pune, Rs 4 crore
J.S. Phulia, MD, Signet Freight Express, New Delhi, Rs 3 crore
Shishupal Singh, CEO, Sangam Exports, Delhi, Rs 3 crore
Shammi Kapoor, MD, Buildtech Engineers, Ludhiana, Rs 3 crore
Devki Nandan Sone, MD, Hotel Taj Plaza, Agra, Rs 3 crore
Sudhir Chaudhary, CEO, MD Plastics, Gurgaon, Rs 3 crore
COURTESY: OUTLOOK INDIA.COM

Written by ANURADHA RAMAN  

अमेरिकी मॉडल अपनाएं दलित




डा. अम्बेडकर दोहरी क्रांतियों के दार्शनिक थे. पहली क्रांति का दर्शन था जाति-व्यवस्था का समूल विनाश. दूसरी क्रांति का दर्शन था-भारत की आर्थिक तरक्की. डा. अम्बेडकर अर्थशास्त्री पहले थे, व्यवस्था परिवर्तक बाद में. वस्तुत: डा. अम्बेडकर पहले भारतीय थे जिन्होंने किसी विदेशी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. हासिल की थी. जिस औद्योगीकरण या उदारीकरण की शुरुआत डा. मनमोहन सिंह जी ने वित्तमंत्री के रूप में 1991 शुरू की, उस तथ्य को दूरद्रष्टा डा. अम्बेडकर ने पचहत्तर वर्ष पहले ही कह दिया था.
डा. अम्बेडकर वर्ष 1913 में अमेरिका के विश्वविख्यात विश्वविद्यालय कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पहुंच गए थे उनका पहला शोध पत्र था 'प्राचीन भारत में व्यापार". लगभग सौ वर्ष पूर्व (1913) में ही डा. अम्बेडकर ने समस्त भारतवासियों के लिए अमेरिकन नागरिकों के ही तरह का जीवन स्तर का स्वप्न देखना शुरू कर दिया. डा. अम्बेडकर की दूरदर्शिता ने भांप लिया था कि भारत में वह क्षमता है कि वह अमेरिका जैसा समृद्ध-सम्पन्न तथा आत्मनिर्भर देश बन सकता है. लेकिन इसके लिए भारत को भी पूर्णत: औद्योगिक एवं शहरीकृत होने के लिए मानसिक तैयारियां करनी होगी. इनके लिए ठोस और सतत नीतियां बनानी होंगी, उन पर चलते रहना होगा. डा. अम्बेडकर के पास इन लक्ष्यों को साकार करने के लिए तमाम फामूले थे. अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में अश्वेतों की गर्हित स्थिति को गौर से देखते हुए डा. अम्बेडकर मुतमईन थे कि भारत में सदियों से चली आ रही जाति-व्यवस्था का जब तक समूल विनाश नहीं होगा, भारत किसी भी सूरतेहाल में अमेरिका जैसा होना तो दूर उसके आसपास भी नहीं फटक सकता. औद्योगीकीकरण और शहरीकरण माने सीधे-सीधे देश की तरक्की. तो उन्होंने निष्कर्ष यह निकला कि जाति व्यवस्था भारत के औद्योगीकीकरण-शहरीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा है.
उदाहरण अनेक हैं. वर्ष 1913 में जब डा. अम्बेडकर भारत को अमेरिका बनाना चाहते थे, तब यदि कोई ब्राह्मण चाय-पकौड़ी की दुकान खोलता, तो वह ब्रााह्मण समाज में ही अलग-थलग पड़ जाता. उस ब्रााह्मण परिवार के बच्चों की शादियों में भी दिक्कतें हो सकती थीं. वहीं पर यदि कोई दलित चाय-पकौड़ी की दुकान खोलता और अत्यन्त स्वादिष्ट चाय-पकौड़ी बनाने और निहायत साफ-सुथरे तरीके से उन्हें ग्राहकों को परोसने की उसकी महारत के बावजूद गैर-दलित उसकी दुकान पर नहीं जाते. इस तरह के सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किए  जा सकते हैं, जिनमें व्यक्ति के खुद के जीवनस्तर को सुधारने वाले किसी भी आर्थिक प्रयास को समुदाय या जातिगत आधार निंदनीय कहे जाते.
बाबा साहेब ने यह समझ लिया कि अगर भारत को अमेरिका या सुपर पॉवर की जमात में शामिल होना है, तो उसे अपनी जाति-व्यवस्था पर हमला करना ही होगा. जाति-व्यवस्था पर हमले के कई तरीके हो सकते हैं. विचारवान दलित लेखक एचएल दुसाध के अनुसार, जाति-व्यवस्था के दो आधार स्तम्भ हैं-पेशेगत शुद्धता और रक्त शुद्धता. दुसाध जी के विचारों से प्रभावित होकर, मैंने मनुस्मृति को फिर से पढ़ा. मनुस्मृति का निचोड़ मात्र तीन है-कोई भी जाति अपना पेशा बदल नहीं सकती, (2) कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर शादी नहीं कर सकता तथा (3) अछूत कभी भी, गैर अछूत का एम्प्लॉयर नहीं बन सकता. शिक्षा तो अछूतों के लिए पूर्वत: वर्जित थी, जिसे लार्ड मैकाले ने समाप्त किया.
डा. अम्बेडकर के जन्म दिन पर दलितों को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे भारत की जाति-व्यवस्था टूटे और इसका समूल विनाश हो? किसी भी व्यवस्था परिवर्तन में मानवीय प्रयास महत्त्वपूर्ण होते हैं पर जहां डा. अम्बेडकर जैसे महापुरुष नेतृत्व प्रदान करते हैं. हालांकि व्यवस्था परिवर्तन में आर्थिक प्रक्रियाओं का भी विशिष्ट योगदान होता है. मसलन, वर्ष 1863 में ही अब्राह्म लिंकन ने अमेरिका में दास-प्रथा को संवैधानिक रूप से समाप्त कर दिया था, बावजूद इसके पहले से रहे दास, दास-तुल्य हालत में ही जीने के लिए मजबूर थे.
बीसवीं सदी के आरम्भ के साथ ही अमेरिका में औद्योगीकीकरण की रफ्तार तेज पकड़ी. अश्वेतों ने भी बड़े पैमाने पर औद्योगिक केन्द्रों की ओर प्रस्थान  किया. वर्ष 1910 से 1930 के दौरान लाखों अश्वेत कृषि क्षेत्र एवं ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर औद्योगिक शहरों में आकर सैटल हो गये. इस घटना को सही मायने में दास प्रथा की समाप्ति माना जाता है. बदलाव की प्रक्रिया में सामाजिक-मनोविज्ञान की भी अहम भूमिका होती है. वर्ष 1619 में बेड़ियों में जकड़े अश्वेत दासों का पहला दस्ता अमेरिकी धरती पर उतरा था. वर्ष 2009 में बराक ओबामा के रूप में एक अश्वेत अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया. यानी मात्र 390 वर्षों में रंग-भेद पर अश्वेत का पानी छा गया. श्वेत बाहुल्य अमेरिका ने एक अश्वेत को अपना नेता चुना.
ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के तुरंत बाद मुझे अमेरिका जाने का अवसर मिला. अपनी यात्रा के दौरान मैंने दर्जनों अश्वेत प्रोफेसर से बातचीत की. यह पूछे जाने पर भी श्वेत अमेरिका में एक अश्वेत नेता की स्वीकृति के पीछे मौलिक कारण क्या है? इसके कई जवाब मिले. पर, मौलिक कारण बताया गया अश्वेत पूंजीवाद का उदय जिससे लाखों अश्वेत पूंजीपति लाखों-लाख श्वेतों के नियोक्ता बन गये. जब लाखों-लाख श्वेत कर्मचारी अश्वेतों के हाथ से वेतन ले रहे हों तो ऐसे परिदृश्य में अश्वेतों की राजनीतिक स्वीकृति स्वाभाविक है.  दूसरा सबसे बड़ा कारण बताया गया, अंतर-प्रजाति शादियों को. पांच लाख से अधिक दम्पति अश्वेत एवं श्वेत हैं. इनमें भी अस्सी प्रतिशत पति अश्वेत हैं. एक अश्वेत बुद्धिजीवी के अनुसार, ओबामा के राष्ट्रपति बनने के समय, अमेरिका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सास, पांच लाख श्वेत ससुर और लाखों-लाख श्वेत सालियां, एवं श्वेत सरहजें घूम रही हैं. ऐसे में अमेरिका में रंग-भेद कैसे टिक पाता?
वैसे ही, भारत को यदि जाति-विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बन गैर-दलितों को नौकरी पर रखना होगा. लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर-दलित साले, सालियां, सढुआइन एवं गैर-दलित सास-ससुर बनाने चाहिए. इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित गैर दलित भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पॉवर के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा. यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत.
सहारा समय अखबार से साभार
 सहमति असहमति अलग है पर इसे पढ़ा जाना चहिये चंद्रभान जी दलित दुनिया के उगते सूरज है  sarvesh kumar maurya



Written by चंद्रभान प्रसाद   
Saturday, 16 April 2011 12:39

एस.आर लाखाः ईट भठ्ठे से कुलपति पद का सफर






Sunday, 01 May 2011 19:25
जब आप एस.आर लाखा के बारे में बात करेंगे तो लगेगा जैसे कोई फिल्म देख रहे हैं. एक अद्भुत फिल्म. जो हर किसी के लिए प्रेरणा हो सकती है. सफलता को पाने की ललक, जिद और जूनून उनके पूरे जीवन में साफ दिखता है. बचपन में अपने मां-बाप के साथ उन्होंने ईंट-भट्ठे पर काम किया लेकिन हार नहीं मानी. पढ़ाई के दौरान कई बार घर से स्कूल की दूरी बढ़ने के बावजूद वह हर बार उसका पीछा करते रहे.
चप्पल पहनने से कितनी राहत मिलती है यह वो आठवीं कक्षा के बाद जान पाएं. इन तमाम मुश्किलों के बावजूद लाखा सिविल सर्विस की परीक्षा पास कर कलेक्टर बने. इसके बावजूद वो अपने गर्दिश के दिनों को कभी नहीं भूले और 30 साल के करियर में हर वक्त समाज की बेहतरी के लिए काम करते रहे. चाहे तमाम जिलों में कलेक्टर का पद हो, या सोशल सेक्टर में रहे हों या फिर यूपी के 570 आईएएस में से सबसे भ्रष्ट तीन नौकरशाह चुनने की बात हो, हर नई जिम्मेदारी के साथ उन्होंने साबित किया कि उनसे बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता था.
रिटायर होने के बाद एस.आर लाखा इन दिनों एक नई जिम्मेदारी के लिए कमर कस कर तैयार हो चुके है. हाल ही में उन्हें ‘गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय’ के कुलपति पद की जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके 'विजन' के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है-----
अपका जन्म कहां हुआ, बचपन कहां गुजरा?
-  जन्म 12 मार्च 1949 को पंजाब में एक गांव है भंगरनाना. नवाशहर जिले में है, वहीं हुआ था. एक छोटे से घर में हुआ था. मां-बाप खेती करते थे. चौथी तक की पढ़ाई यहीं हुई. मिडिल क्लास में पढ़ने के लिए घर से पांच किलोमीटर दूर दूसरे गांव में गया. हाई स्कूल के लिए गांव से आठ किलोमीटर गया. डिग्री तक की शिक्षा सिख नेशनल कॉलेज से की. एमए पंजाब यूनिवर्सिटी से किया. इस दौरान मां-बाप के साथ खेती-बारी में सहयोग भी करता था. फिर 76 में दिल्ली आ गया. पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद 77 फरवरी में सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी मिली थी. सेक्सन आफिसर की नौकरी थी. इसमें रहा. साथ-साथ आईएएस की तैयारी भी करता रहा. 78 का जो आईएएस का रिजल्ट आया, उसमें सेलेक्ट हो गया. 79 में मंसूरी में ट्रेनिंग हुई, फिर मैं यूपी कैडर में आ गया.
परिवार में कौन-कौन था. सामाजिक परिवेश और घर की आर्थिक स्थिति कैसी थी?
-  जब मैं पैदा हुआ था तब घर की आर्थिक स्थिति बड़ी खराब थी. जब बारिश होने लगती थी तो पूरा परिवार चिंतित हो जाता था कि अगर बारिश नहीं रुकी तो रोटी कैसे खाएंगे. तब मां कहती की जाओ काम कर के कुछ खाने को ले आओ. तो ऐसी स्थिति थी. चप्पल मुझे आठवी क्लास के बाद पहनने को मिली. उससे पहले गर्मी के दिनों में हम यूं ही नंगे पांव स्कूल में जाते थे. तो आर्थिक स्थिति ऐसी ही थी. मां-बाप मजदूरी करने जाते थे. हम भी उनके साथ चले जाया करते थे. पहले सुबह स्कूल में पढ़ने जाते, फिर शाम को मां-बाप के साथ काम करने जाते थे. वो भट्ठे पर ईंट बनाने का ठेका लेते थे, फिर बटाई पर खेती करते और जानवर रखते तो हम भी उनकी मदद करते. जानवर होते थे तो उनको चारा डालने का काम करते थे. दूध निकालते थे. हम चार भाई थे, एक बहन थी. मैं चौथे नंबर का भाई था. मुझसे छोटी एक बहन थी. बड़ा भाई इंग्लैंड चला गया तो पैसे भेजने लगा. फिर मेरे पिताजी ने देखा कि मैं पढ़ने में ठीक हूं तो मुझे पढ़ाने लगे.
बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए?
- हां, आर्थिक स्थिति खराब थी तो मां-बाप भट्ठे पर ईंट बनाने का काम करते थे. एक हजार ईंट बनाने के तब दो रुपये मिलते थे. तो हम भी मां-बाप के साथ रात को काम करते थे. सन् 1966 की बात है.
इतनी मुश्किलों और गरीबी से गुजरने के बाद आप कलेक्टर बने थे. इस दौरान आपका सामना तमाम गरीब परिवारों से होता होगा. उन्हें देखकर उस वक्त आपके जहन में क्या चलता था. क्या आपको अपनी मुफलिसी के दिन याद आते थे?
- मेरी पूरी ब्यूरोक्रेसी लाइफ के कुल 30 सालों में से छह साल तक मैं सोशल सेक्टर में रहा. यहां मुझे वंचित समाज के लिए काम करने का मौका मिला. एससी/एसटी समाज के लोगों का प्रोजेक्ट मंजूर करना, उनकी दिक्कतें दूर करने का काम था. यहां मुझे बहुत मजा आता था. एक आत्मिक संतुष्टि मिलती थी. मैं यह भी ध्यान रखता था कि कोई स्टॉफ उनसे कमिशन ना ले. ऐसा करने पर मैं बड़ी कार्रवाई करता था. तो अपने समाज के गरीब लोगों के लिए काम करने का अपना आनंद है. मुझे याद है कि जब मैं फैजाबाद में कलेक्टर था. मैं कहीं जा रहा था तो एक ईंट-भट्ठा दिखा. मै अपनी गाड़ी रुकवा कर वहां काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया. मैने उनसे पूछा कि आजकल ईंट बनाने का दाम कैसा चल रहा है. तो उन्होंने बताया कि अब एक हजार बनाने के दस रुपये मिलते हैं. वहां से चले तो मेरे ड्राइवर ने पूछा कि साहब आप इतनी गर्मी में इतनी दूर क्यों गए थे? हालांकि मैने तब ड्राइवर को नहीं बताया कि मैं इसलिए गया था क्योंकि आज जिस झोपड़ी में वो मजदूर रहते थे. मैं भी उसी झोपड़ी से निकला था और वहां से उठकर अब कलेक्टर की गाड़ी में यहां आया हूं. यह जो सफर मैने तय किया है. वह मुझे याद आता था. तो ब्यूरोक्रेसी में रहने के दौरान भी मेरे पूरे करियर में यह अहसास, यह दर्द मेरे अंदर रहा. जब मैं पब्लिक सर्विस कमिशन का चेयरमैन बना. तब उस समय एससी/एसटी/ओबीसी और गरीबों का जो भी बैकलॉग था. मैने उसे भरने की पूरी कोशिश की और भरा भी. इससे मुझे आज भी बहुत संतुष्टि मिलती है.
आज भी मैं किसी गरीब बच्चे को पढ़ाई वगैरह में कोई कठिनाई होते देखता हूं तो खुद को रोक नहीं पाता. जैसे हमारे यहां इंटर कॉलेज खुले है. कुछ दिन पहले वाल्मीकी परिवार के कुछ लोग हमारे पास आएं कि साहब फीस बहुत ज्यादा है और हम इतनी फीस नहीं दे पाएंगे. मैनें उनसे कहा कि वो बच्चों की पढ़ाई जारी रखें उनकी फीस मैं भर दूंगा. वाल्मीकी समाज में आज शिक्षा का बड़ा अभाव है. जब भी किसी गरीब आदमी को देखता हूं तो तुरंत मुझे अपने संघर्ष के दिन याद आ जाते हैं. जैसे हमारे मां-बाप काम करते थे. हम भी उनके साथ काम करते थे. फिर गांव से दलिया बनाकर भट्ठे पर ले जाते थे. दूध बेचते थे. जानवर चराते थे. तो हमेशा गरीबों के लिए दर्द रहता है.
सिविल सर्विस की परीक्षा में पास होने के बाद जब आप ट्रेनिंग के लिए मसूरी पहुंचे, वो आपके लिए कितने गौरव का पल था?
- 11 जुलाई को मैं मसूरी पहुंचा था, सन् 79 को. तब मसूरी में बहुत बारिश हो रही थी. इससे पहले मैने कभी पहाड़ देखे नहीं थे. जब हम टैक्सी में देहरादून से मसूरी जा रहे थे तो हमारी गाड़ी बादल और पहाड़ों के बीच में चल रही थी. तो मुझे ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रहा हूं. यह एक सपने के जैसा था. फिर हम अकादमी में पहुंचे. वहां हमें कमरा अलॉट किया गया. ट्रेनिंग सोमवार से शुरू होनी थी और मैं शनिवार को ही पहुंच गया था. मैं खाना खाकर अपने कमरे में सो गया. दो दिन-दो रात तक बारिश होती रही. मैं दो दिन-दो रात तक लगातार सोता रहा. मैं खाना खाने के बाद जैसे बेहोश हो जाता था. वहां के स्टॉफ ने पूछा कि आप दो दिन से लगातार सो रहे हो. तो मैने कहा कि यार मैने अपनी जिंदगी में बहुत संघर्ष किया है (चेहरे पर वह दर्द फिर उभर आया). अब जरा अच्छी जगह आया हूं मुझे चैन से सो लेने दो. इसके बाद फिर शुरू करना है काम.
अपने करियर में आपने किन-किन शहरों में किन-किन पदों पर काम किया?
-सबसे पहली पोस्टिंग जहां बैठे हैं (यूनिवर्सिटी कैंपस  की ओर इशारा करते हुए), और जिसे आज ग्रेटर नोएडा कहते हैं, इसी इलाके में हुई. तब यह सारा एक था. मैं एसडीएम सिकंदराबाद के पद पर आया था. फिर तीन साल बाद यहीं कलेक्टर बन गया. बुलंदरशहर जिले में. फिर फैजाबाद में और देवरिया में कलेक्टर रहा. ज्यादा काम मैने सोशल सेक्टर में किया. डायरेक्टर सोशल वेलफेयर साढ़े तीन साल रहा, तीन साल शिड्यूल कास्ट कॉरपोरेशन का मैनेजिंग डायरेक्टर रहा. इसमें जो भारत सरकार की योजनाएं थी, स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के अंतर्गत इसमें गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए जो आर्थिक योजना थी, वो उन्हें दिया. साथ ही उनके लिए स्पेशल ट्रेनिंग का कार्यक्रम भी आयोजित किया. इसके बाद भी कई विभागों में काम किया. सूडा का चेयरमैन रहा.
बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
- खुद के और अपने मां-बाप के जिस सपने और अरमान के साथ मैं आईएएस बना, उसका मैने हमेशा ख्याल रखा. जो हमारे बड़े थे, वो मुझसे अक्सर कहा करते थे कि आईएएस बनने के बाद तुम अपने समाज के लोगों का ख्याल रखना. उनकी जितनी मदद हो सके जरूर करना. तो इसे मैं अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता हूं कि मैं पूरी जिंदगी अपने बड़ों की उम्मीद और अपने इस कमिटमेंट को नहीं भूला, चाहे मुझे कितनी भी दिक्कते आईं. मैं कभी नहीं भूला.
जब आप बुलंदशहर में थे तो 26 जनवरी के दिन दलित बस्ती में झंडा फहराने को लेकर आप काफी चर्चा में रहे थे. दलित समाज से तमाम आईएएस होते हैं. आम तौर पर ऐसा सुनने को नहीं मिलता. लेकिन वो कौन सी बात थी जिसने आपको ऐसा करने के लिए प्रेरित किया?
- इसकी एक कहानी है. हुआ यह था कि जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो नवाशहर में हमारे एसडीएम बैठते थे. वहां डीएसपी का भी आफिस था. एक दिन मैं उसके आगे से निकलने लगा तो लोग कहने लगे कि यहां से मत जाओ, यहां एसडीएम का बंगला है, डीएसपी का बंगला है. तो मुझे उस वक्त बड़ा अजीब लगा कि हम उनके बंगले के आगे से भी नहीं निकल सकते? तो जब मैं खुद डीएम बना तो मुझे एक  बात याद आई कि बाबा साहेब आगरा में आए थे. यहां उन्होंने काफी काम किया और स्कूल भी खोला था. जब मैं सिकंदराबाद का एसडीएम था तो मैने वहां म्यूनिसिपल कारपोरेश बोर्ड में बाबा साहब की प्रतिमा लगवाई. लेकिन कुछ लोगों ने अपने वाल्मीकी समाज के लोगों को भड़का दिया और मेरे खिलाफ मुकदमा दर्ज करवा दिया. वो मुकदमा चलता रहा. जब मैं कलेक्टर बनकर बुलंदशहर आया तो मैने इसे ठीक करवाया. यानि लोग चाहते नहीं थे कि मैं बाबा साहब की प्रतिमा लगवाऊं. उसके बाद कासगंज गया तो वहां भी एक चौराहे पर बाबा साहेब का बुत लगवाया.
तो जो आपने पूछा कि मैं दलित बस्ती में क्यों गया था तो मैं वहां इसलिए गया था ताकि उनलोगों का हौंसला बढ़े कि हमारे समाज का कलेक्टर आया है और हमारे बीच में आया है. आमतौर पर वो लोग कलेक्टर की गाड़ी को बाहर से देखते थे. मैने सोचा उनके बीच जाकर उन्हें कांफिडेंस दिया जाए. ताकि उन्हें लगे कि अपना आदमी है तो इसके दिल में अपनों के लिए दर्द भी है.
आप बतौर ब्यूरोक्रेट्स रिटायर हो चुके हैं. इसके बाद गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. इस जिम्मेदारी को आप कितना बड़ा मानते हैं?
- मैं आईएएस के पद से रिटायर हुआ हूं, जिंदगी से रिटायर नहीं हुआ. मेरी जिंदगी में जो अरमान हैं, मेरे अंदर समाज के लिए काम करने की जो ख्वाहिश है, वह अभी भी है. और मेरी ख्वाहिश है कि मैं जब तक जिंदा रहूं इस समाज के लिए काम करुं. गुरु रविदास जी ने कहा था कि ‘जे जन्म तुम्हारे लिखे’ बल्कि अब मुझे काम करते हुए ज्यादा खुशी हो रही है. क्योंकि आईएएस रहते हुए ऑल इंडिया सर्विस रुल का ख्याल रखना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस के बाहर रहने के बाद आदमी खुलकर काम कर सकता है. मगर काम समाज के लिए करना है, अपने लिए काम नहीं करना है. समाज के लिए ‘पे-बैक’ करना है. समाज ने जो हमें दिया है, अब मुझे उसे समाज को लौटाना है.
जहां तक कुलपति की जिम्मेदारी का सवाल है तो जब मैं कमिशन में गया था. तो मैने उस जिम्मेदारी को भी बहुत बड़ा माना था और बहुत अच्छा काम किया. अब इस जिम्मेदारी को भी मैं बहुत बड़ा चैलेंज मानता हूं. यह एक ड्रीम प्रोजेक्ट है. और मैं चाहता हूं कि इसकी ख्याति दुनिया भर में फैले और यह संस्थान सामाजिक परिवर्तन का सेंटर ऑफ एक्सिलेंस बने.
देश में पहले से ही कई विश्वविद्यालय (University) है. ऐसे में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय औरों से किस मायने में अलग है. आप इसको किस दिशा में लेकर जाना चाहते हैं?
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय परंपरागत विश्वविद्यालयों से थोड़ा अलग है. इसकी जो सबसे खास बात है, वह यह कि इसको तीन हिस्सों में बांटा गया है. एक मैनेजमेंट का है, दूसरा इंजीनियरिंग का है जबकि तीसरा ह्यूमिनिटिज (Huminities) का है.  यूनिवर्सिटी का मकसद होता है यूनिवर्सिलाइजेशन ऑफ एजूकेशन. तो जो बुद्धिस्ट दर्शन है, बुद्धिस्ट कल्चर है, सिविलाइजेशन है, इसमे हजारों सालों से जो काम नहीं हुआ है, लोगों को उसकी जानकारी देना और जागरूक करना है. खासकर के शिड्यूल कॉस्ट के बच्चे हैं हम उनकों स्पेशल कंपोनेंट प्लॉन के तहत बाहर के देशों में भी पढ़ने के लिए भेजते हैं. ताकि विद्यार्थियों का एक्सपोजर विदेशों में भी हो. किसी और विश्वविद्यालय में यह सुविधा नहीं है. यह सिर्फ हमारे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में है. अगर अनुसूचित जाति के वैसे बच्चे जिनके पास पैसे नहीं है लेकिन वो बाहर पढ़ने जाना चाहते हैं, तो हम उन्हें भेजते हैं. इस साल भी हमने इसके लिए तीन करोड़ रुपये की व्यवस्था की है और 30 बच्चे बाहर भेजना है. पिछले साल 12 बच्चे गए थे. बाहर की कुछ यूनिवर्सिटी के साथ हमारा एग्रीमेंट है, उससे टाइअप करके बच्चों को भेजा जाता है.
दूसरा जो बुद्धिस्ट दर्शन है, उस पर रिसर्च करना, सिविलाइजेशन पर रिसर्च करना और उसकी पब्लिसिटी करना ये बहुत महत्वपूर्ण है.
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है?
- इसका पूरा कैंपस 511 एकड़ में फैला हुआ है. ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी इसको फाइनेंनसियली सपोर्ट करती है. पहले 2002 में इसकी नींव पड़ी लेकिन फिर कुछ राजनीतिक परिवर्तन होने के कारण 2008 से ठीक से काम शुरू हुआ. अभी यहां 60 फीसदी से ज्यादा का निर्माण हो गया है. कुल चार स्कूल (फैकल्टी) बाकी हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाएंगें. इसके साथ ही सभी आठो स्कूल (फैकल्टी) काम करना शुरू कर देंगे. अभी एक हजार बच्चे हैं और जुलाई से 2100 और बच्चे हो जाएंगे. हमारे हॉस्टल (लड़के-लड़कियां) की कैपेसिटी तीन हजार से ज्यादा हैं. यहां कांशीराम जी के नाम पर एक बहुत बड़ा आडिटोरियम बनने जा रहा है. 40 एकड़ में हमारा स्पोर्ट्स स्टेडियम बन रहा है. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर के खेल का मैदान औऱ स्वीमिंग पूल बनेगा. यह शुरू हो चुका है. इसी तरीके से बुद्धिस्ट सेंटर, मेडिटेशन सेंटर और लाइब्रेरी सब आधुनिक हैं. एक साल में यह सारे काम खत्म हो जाएंगे.
सन् 2008 में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू हो गई थी, जल्दी ही इसके तीन साल होने वाले हैं. इन तीन सालों में विश्वविद्यालय ने कितना सफर तय किया है?
- यह तीसरा सत्र है. अभी तक यहां इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में ज्यादा बच्चे रहे हैं. जबकि ह्यूमिनिटिज में अब तक अधिक बच्चों का दाखिला नहीं हो पाया है. अब हमारा फोकस बच्चों को ह्यूमिनिटिज में दाखिला देना है. एससी/एसटी वर्ग के गरीब बच्चों के लिए यहां मुफ्त शिक्षा है लेकिन हम इस कोशिश में भी हैं कि समाज के अन्य बच्चों को भी जो पढ़ने में ठीक हैं, उन्हें लिए फीस स्ट्रक्चर में थोड़ी रियायत दी जाए ताकि वो भी आगे बढ़ें.
अभी तक कितने पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं. कितने बाकी है?
- चार पाठ्यक्रम शुरू हो चुके हैं और चार बाकी है. जैसे वोकेशनल एजूकेशन का बाकी था. लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस का बाकी था. स्कूल ऑफ बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन ये अभी नहीं चल पाया है. स्कूल ऑफ मैनेजमेंट चल रहा है, स्कूल ऑफ इंफार्मेशन एंड टेक्नोलॉजी चल रहा है, स्कूल ऑफ लॉ जस्टिस एंड गवर्नेंस शुरू होना है. स्कूल ऑफ वोकेशन स्टडीज भी शुरू होना है, स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलाजी और इंजीनियरिंग चल रहा है.
इस विश्वविद्यालय के तमाम पाठ्यक्रम में बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन एक महत्वकांक्षी पाठ्यक्रम था. यह शुरू नहीं हो पाया है, इसके पीछे क्या वजह थी. इसको आप कैसे शुरू करेंगे?
- मुझे लगता है कि इसमें माइंड सेट की दिक्कत थी. पहले ज्यादा ध्यान मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग पर दिया गया. ध्यान देना भी चाहिए. लेकिन यह यूनिवर्सिटी है. इसका जो मुख्य फोकस था वो बुद्धिस्ट स्टडीज एंड सिविलाइजेशन और वोकेशनल स्टडीज पर था. इसको थोड़ा सा पीछे कर दिया गया था. अब मैने 2008 में इस विश्वविद्यालय की चांसलर बहन जी ने जिस-जिस विषय की घोषणा की थी, मैने उसे फिर से बिल्कुल वैसा ही (रि स्टोर) कर दिया है. अब इसमें रिसर्च का काम होगा. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जहां बुद्धिज्म फिलासफी के ऊपर काम हो रहा है, उन विषयों के विद्वानों को बुलाया जाएगा. हम सोच रहे हैं कि अगस्त में बुद्धिज्म पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमीनार विश्वविद्यालय में करवाई जाए. इसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो लोग भी काम कर रहे हैं उन्हें बुलाया जाए. हमारी कोशिश है कि एक डिस्कशन हो और उससे एक थीम निकले कि बुद्धिस्ट स्टडीज का पाठ्यक्रम (syllabus)  कैसे बनाया जाए. जैसे जापान की एक यूनिवर्सिटी में बुद्धिज्म पर काफी काम हो गया है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में इस पर काफी काम हो रहा है. बाहर के देशों में बुद्धिज्म एंड सिविलाइजेशन पर कैसे काम हो रहा है, इसे ध्यान में रखते हुए हम अपने कोर्स को एडप्ट करें और इसके पहले बुद्धिज्म पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक कांफ्रेंस करवाएं. इसके बाद हम यह तय करेंगे कि बुद्धिस्ट स्टडी एंड सिविलाइजेशन पर भविष्य में हमारा लाइन ऑफ एक्शन क्या होगा.
इसी प्रकार से लॉ, जस्टिस एंड गवर्नेंस है. यह बाबा साहेब का सब्जेक्ट है. वैसे बाबा साहेब को किसी विषय में बांधा नहीं जा सकता. तो हम सोच रहे हैं कि इसमें एक सब्जेक्ट ऐसा बनाया जाए, जिसमें शिड्यूल कॉस्ट के लिए संविधान में जो कानून बने हैं उस एक विषय अलग से रखा जाए. इस विषय पर एक पेपर रखा जाए ताकि लोगों को पता चल सके. साथ
ही विद्यार्थी अनुसूचित जाति को मिलने वाले कानूनी अधिकार को जान सके.
गौतम बुद्ध का जो दर्शन है, वह शांति, समानता और सौहार्द है. यह विश्वविद्यालय उन्हीं के नाम पर है. ऐसे में दलित एवं वंचित समाज को आगे बढ़ाने के लिए यह विश्वविद्यालय कितना प्रतिबद्ध है?
- सौ फीसदी...। हमने पहले ही कह रखा है कि यहां एससी/एसटी समुदाय के बच्चे यहां तक बीपीएल परिवार के जनरल वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं तो हमने उनकी फीस माफ की हुई है. इसके अलावे अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ऐसे बच्चें जो पढ़ने में काफी अच्छे हैं और जिनके आगे बढ़ने की संभावना है उन्हें हम पढ़ने के लिए विदेशों में भेजते हैं. यह व्यवस्था किसी और विश्वविद्यालय में नहीं है. यहां बच्चों के लिए आवासीय व्यवस्था जरूरी है. इससे बच्चों को एक विशेष वातावरण मिलेगा. बच्चों के व्यक्तित्व का और बेहतर विकास हो पाएगा.
विश्वविद्यालय को लेकर भविष्य की योजना क्या है?
- फिलहाल तो सबसे प्रमुख योजना ‘बुद्धिस्ट स्टडीज और सिविलाइजेशन’ को टेक आफ कराना है. लॉ, जस्टिस को शुरू करना है. 40 एकड़ में जो हमारा स्पोर्ट्स कंप्लेक्स है उसको लांच करना है.
आने वाले पांच सालों में आप इस विश्वविद्यालय को कहां देखना चाहते हैं?
- आने वाले पांच सालों में न सिर्फ भारत बल्कि एशिया और विश्व स्तर पर इस विश्वविद्यालय की एक पहचान बने, ऐसा मैं चाहता हूं. इसके लिए हमने तीन चीजों को चिन्हित किया है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना
इकठ्ठा कर के यह पता लगाएं कि ऐसी कौन सी किताबें हैं जो हार्वर्ड में, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में, या कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में है और हमारे पास नहीं है. इसी तरह हमारी जो इंजीनियरिंग लैब है. उसमें हम आईआईटी खड़गपुर, कानपुर और आईआईटी दिल्ली के स्तर के सारे इंस्ट्रूमेंट लाने के लिए प्रतिबद्ध है. हम देख रहे हैं कि हमारे पास क्या-क्या नहीं है. तो जो गैप है, उसे पहचान करके दूर करने की कोशिश कर रहा हूं ताकि बच्चों को उसका पूरा फायदा मिले. हम पाली भाषा को भी बढ़ावा देने की कोशिश में लगे हैं.
कई ब्यूरोक्रेट्स रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आ जाते हैं. क्या आपने राजनीति में आने की सोची है?
- मेरा मकसद समाज की सेवा करना है ना कि राजनीति में आना. अभी तक मैने राजनीति से बाहर रह कर अच्छा काम किया है. मैं आज भी यह सोचता हूं कि मैं राजनीति से बाहर रह कर समाज के लिए ज्यादा बेहतर काम कर सकता हूं.
आपकी किन चीजों में रुचि है?
- मैं लिखने के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन पढ़ने का मुझे बहुत शौक है. मेरे घर पर और ऑफिस में दोनों जगह लाइब्रेरी है. आज भी बाबा साहेब को पढ़ता रहता हूं. लेकिन इतना कष्ट है कि मुझे समाज के लिए जितना करना चाहिए था लगता है कि मैं उतना कर नहीं पाया. यही जो टिस है वो मुझे और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित करती है. जिंदगी निकलती जा रही है. मगर काम करने को लेकर मेरी भूख बनी हुई है.
क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है?
समाज के लोगों द्वारा मिली सराहना ही मेरे लिए पुरस्कार है. जब समाज के लोग आकर मिलते हैं और यह बताते हैं कि मैने विभिन्न पदों पर रहते हुए समाज के लिए, उनके लिए कुछ अच्छा किया. जब समाज के लोग इज्जत देते हैं तो अच्छा लगता है. यही मेरे लिए सच्चा पुरस्कार है.
एक ब्यूरोक्रेट्स का जीवन तमाम लोगों से घिरा हुआ होता है. आपके करियर की ऐसी कौन सी घटना है, जिसने आपको प्रभावित किया हो और जिसे आप याद रखना चाहते हैं?
- जब कानपुर में मैं स्लम एरिया का चेयरमैन था तो एक बस्ती में लोग बहुत बुरी हालत में रहते थे. कोई बुनियादी व्यवस्था तक नहीं थी. मैने उनके लिए पीने के साफ पानी, सड़क एवं सफाई, उनके बच्चों के लिए शिक्षा आदि की व्यवस्था कराई. मैने उनके लिए सरकार द्वारा प्रायोजित रोजगार कार्यक्रमों के माध्यम से मदद किया. उन्हें बताया कि शराब पीना गलत है, इसे छोड़ दो. इस प्रकार जो बस्ती एक स्लम एरिया थी मैने उसे दो साल में आदर्श कालोनी बना दिया. तभी मुझमें यह विश्वास आया कि जब एक कालोनी आदर्श बन सकती है, तो पूरा समाज बन सकता है. बस उनके बीच काम करने की जरूरत है. लोग सुनते हैं और रेस्पांस देते हैं.
व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कौन सा वक्त आपके लिए मुश्किल औऱ चुनौती वाला रहा?
- जो मुझे याद आ रहा है तो 30 साल के नौकरीपेशा पीरियड में सबसे बड़ी चुनौती 96 में आई. तब सभी आईएएस ने एजीएम की बैठक में 530 आईएएस में से सर्वसम्मति से मुझे जनरल सेक्रेट्री सेलेक्ट कर लिया. यूपी या फिर पूरे देश की ब्यूरोक्रेसी में मैं पहला शिड्यूल कॉस्ट आईएएस था जिसे आईएएस की इतनी बड़ी बॉडी ने जनरल सेक्रेट्री नियुक्त किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा.
मेरे साथ एक दूसरी घटना बचपन में घटी. मुझे याद है कि 66-67 में मेरे मां-बाप ने एक एकड़ जमीन बटाई पर ली थी. जुलाई या फिर अगस्त का महीना था. बहुत गर्मी और उमस थी. मां ने कहा कि पास वाले कुंए से पानी लेकर आओ. मैंने पास के ही मंदिर के एक कुएं से पानी खींच लिया. तभी एक आदमी भागा-भागा आया. वह पुजारी था. उसने कहा कि तुम तो शिड्यूल कास्ट हो तो तुमने कैसे पानी निकाल लिया और उसने मेरी पिटाई करनी शुरू कर दी. मैने पूछा कि मुझे क्यों मार रहे हो तो उसने कहा कि तुम छोटी जाति से हो और यहां से पानी नहीं निकाल सकते. जब वह मुझे मारता रहा तो मुझे भी गुस्सा आ गया फिर मैने भी पानी की बाल्टी उठाकर उसके सर पे मार दी. वह वहीं बेहोश हो गया. फिर गांव में पंचायत हुई और समझौता हुआ. उस वक्त मैने महसूस किया कि जाति की जो पीड़ा है, जो दुख है, वह कितना बड़ा है.
आपके सपने क्या हैं?
- मैं गुरुग्रंथ साहब के दर्शन पर बहुत ज्यादा विश्वास करता हूं. उसमें कहा गया है कि ‘नानक साचक आइए, सच होवे तो सच पाइये’. यानि कि अगर आप सच पर चलते रहिए तो जीत निश्चित ही आपकी ही होगी. मैं इस पर काफी विश्वास करता हूं. हमारे समाज को सच्चाई नहीं मिली. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है. वह यह है कि हमारा समाज जिस चीज का हकदार था उसे वह नहीं मिला. बावजूद इसके अगर हम सच पर चलेंगे तो एक दिन जीत हमारी होगी. हमारे समाज के साथ धोखा हुआ है और इसको कैसे ठीक किया जाए. यह मेरा एक्शन प्लान है.
Written by अशोक  

इस इंटरव्यूह पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आप दलित मत.कॉम से 09711666056 पर संपर्क कर सकते हैं. अगर आप कुलपति एस.आर लाखा तक कोई संदेश देना चाहते हैं तो हमें ashok.dalitmat@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.


Comments (10)Add Comment
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An Inspiring Personality
written by Shiv Shankar Das, May 01, 2011
Thanks Asoka ji for this interview. Though, I usually meet him but was never aware in such details which you provided. Lakha Saheb is really a very committed and inspiring personality especially for the marginalized sections of the people. Jai Bhim, Jai Buddh. 
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अशोक जी , लाखा जी के साथ भेंटवार्ता के लिए बधाई -के .पी. मौर्या 
written by k.p. maurya, May 02, 2011
अशोक जी , लाखा जी के साथ भेंटवार्ता के लिए बधाई
-के .पी. मौर्या 
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Construction of Positive image of Dalit society
written by vivek kumar, May 02, 2011
Excillent Ashok this really meaningful journalism. This will go a long way in Construction of Positive image of Dalit society.
vivek Kumar JNU
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सबके लिए प्रेरणास्रोत
written by अभिषेक सिंह , May 02, 2011
एस.आर लाखा साहब का इंटरव्यूह पढ़ने के बाद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वो अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। उनका पूरा जीवन आज के सभी वर्ग के युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है। वो जिस कठिनाई से निकल कर इस मंजिल तक पहुंचे हैं उसके लिए उनको नमन है।
अपनी प्रतिभा से वो गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय को एक नए मकाम तक ले जाएंगे इसका हमें पूरा विश्वास है। उनको ढ़ेरों शुभकामनाएं।।।
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Mr. Lakha is really a great man
written by raj kumar, May 02, 2011
After read this interview, i can say mr. lakha is a great personality. wish him for new responsibility. and also thanks to Mr. Ashok (dalitmat) to publish such type of personality.
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ALL THE BEST FOR NEW RESPOSIBILITY
written by Anand kumar, May 03, 2011
Lakha sir is really a committed person. I want to say him ALL THE BEST for new responsibility(GBU).
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WELLDONE
written by SUDHA, May 03, 2011
हम सब की ओर से लाखा जी को सलाम ।I feel very proud of u.your strugle is really aspiring.THANK YOU for ur great help to s.c/s.t needy people.I WISH BETEER FUTURE AS V.C .Ashok ji thank u for interview.BY SUDHA J.R.F(Schoolar) ALLAHABAD UNIVERSITY
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Very informative and inspirational pay back interview.
written by Jitendra Kumar Jatav, May 04, 2011
Thanks Ashok Ji
Send my best wishes to "Lakha Sir"
All the best for his great opportunity.
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...
written by raj, May 04, 2011
The profile interview of Manyawar Lakha Saheb makes it clear that nothing can stop the dalits achieving their goals if perused diligently with grit and determination. the Gautama Buddha University has potential to emerge as the international center of rationalist and egalitarian intellectual tradition of Buddhism.With a man of his stature and commitment at the helm of affairs, a great beginning is made.. those who have seen the campus accept with humility that it is undoubtedly the best campus in the country... best wishes for lakha ji to make it a world class center of excellence, committed to uproot the exploitation and ignorance with all its manifestations. Ashok did a commendable job.. keep it up with your relevent jouralism.
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मार्मिक और प्रेरणादायक है यह साक्षात्कार 
written by Dr. Rajesh Paswan, May 06, 2011
श्रधेय लाखा जी का यह साक्षात्कार बहुत ही प्रेरणादायक है. वे अपने आप में एक मिशाल रहे है. उन्हें जहाँ भी काम करने का मौका मिला है सामाजिक प्रतिबद्धता की एक नई इबारत लिखी है. उन्हें मेरा सादर अभिवादन है, साथ ही अशोक जी का भी आभार ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व से परिचय कराने के लिए.