Saturday, March 12, 2011

संत रैदास की 'आत्मा' मारने में जुटी यूपी सरकार Written by कौशल किशोर

Written by कौशल किशोर
Thursday, 28 January 2010 14:34
13 जनवरी को लखनऊ में संत रैदास पर आधारित नाटक 'सत भाषै रैदास' का मंचन नहीं हो सका. उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी में होने वाले इस नाटक को प्रदेश सरकार द्वारा आखिरी क्षणों में रद्द कर दिया गया. संस्कृति निदेशालय अपने पक्ष में इस नाटक के मूल स्क्रीप्ट में बदलाव चाहता था. मंत्रालय खासतौर से उन अंशों में संशोधन चाहता था, जहाँ रैदास ब्राहमणवाद, सवर्ण श्रेष्ठता और सामंती वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हैं. नाटककार राजेश कुमार ने इससे इंकार कर दिया, जिसके बाद इसे रद्द कर दिया गया. राजेश कुमार द्वारा लिखित और निर्देशित इस नाटक को नाट्य संस्था 'अभिव्यक्ति' को प्रस्तुत करना था.
हाड़ कंपाती ठंढ में अभिव्यक्ति के कलाकार शाहजहाँपुर से लखनऊ आये. चालीस कलाकारों के इस दल में छोटे.छोटे बाल कलाकार भी शामिल थे. शाम 6.30 बजे से नाटक का मंचन होना था. दिन के लगभग दो बजे संस्कृति निदेशालय के उप निदेशक इंदु सिन्हा का नाटक के निर्देशक राजेश कुमार के पास फोन आया कि संस्कृति निदेशालय के निदेशक नाटक का रिहर्सल देखना चाहते हैं. राजेश कुमार ने उनसे तीन बजे आने को कहा. करीब ढाई बजे इंदु सिन्हा का फोन फिर आया. उन्होंने बताया कि नाटक का मंचन स्थगित कर दिया गया है. कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि सचिवालय के पांचवे तल (प्रदेश सरकार का केंद्र) से नाटक को स्थगित किये जाने का आदेश आया है. कलाकारों और दर्शकों के रोष को देखते हुए उन्होंने निदेशालय की ओर से रैदास जयंती पर बड़े कार्यक्रम की योजना का झुनझुना थमा दिया.
गौरतलब है कि संस्कृति निदेशालय ने नाटक ‘सत भाषै रैदास’ के स्क्रीप्ट को देखने के बाद ही उसकी मंजूरी दी थी. हालांकि उन्होंने स्क्रीप्ट मे थोड़े-बहुत बदलाव करने का प्रस्ताव जरूर किया था. निदेशालय ने इसका निमंत्रण पत्र भी छपवाया था. लखनऊ के अखबारों में इसका विज्ञापन छाप इसे प्रचारित किया गया था. प्रदेश के संस्कृति मंत्री कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे. फिर कुछ घंटे पहले अचानक मंचन को स्थगित कर देना उत्तर प्रदेश के संस्कृति निदेशालय सहित पूरे प्रदेश सरकार की मंशा पर कई सवाल खड़े करता है. संस्कृति मंत्रालय के इस रवैये पर जन संस्कृति मंच, अलग दुनिया, अस्मिता थियेटर ग्रुप (नई दिल्ली), इप्टा, जनवादी लेखक संघ, अमुक आर्टिस्ट ग्रुप, अभिनव कला एकांश, इंकलाबी नौजवान सभा जैसे संस्थाओं ने विरोध जताया है. कलाकारों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और दर्शकों ने भी इसे इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला तथा कला का अपमान बताया.
राजेश कुमार का ‘सत भाषै रैदास’ काफी चर्चित नाटक है. पहले कई बार इसका मंचन हो चुका है. साहित्य कला परिषद, दिल्ली की ओर से 2008 में इस नाटक को ‘मोहन राकेश सम्मान’ मिल चुका है. यह नाटक रैदास के जीवन वृत के माध्यम से दिखाता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता व आर्थिक विषमता के खिलाफ अपने संघर्ष के द्वारा संत रैदास ने कैसे नई सामाजिक चेतना फैलाई थी. वह उस दौर की सबसे बड़ी सामाजिक क्रान्ति थी, जिसे दमित करने में ब्राहमणवादियों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा था. राजेश अपने इस नाटक के द्वारा वर्तमान के जनवादी संघर्ष को मध्ययुग में रैदास जैसे संतों के संघर्ष की परम्परा से जोड़ते हैं जो बुद्ध, फुले, अम्बेडकर से होते हुए नये समतामूलक समाज के निर्माण के जनवादी संघर्ष से आगे बढ़ती है.
वर्तमान मे प्रदेश सरकार द्वारा ‘समरसता’ और ‘सर्वजन हिताय’ की जोर-शोर से बात की जा रही है. पूर्व में जिन नायकों ने ब्राहमणवाद विरोधी संघर्ष चलाया, उन्हें समरसता के प्रवर्तक के रूप में पेश किया जा रहा है. इस नाटक में भी संस्कृति निदेशालय की यही कोशिश थी कि वे रैदास को समरसता के प्रवर्तक के रूप में पेश करें. मंत्रालय ने ऐसा ही प्रचारित किया था. धरती से कटे 'पंचम तल' पर बैठी सरकार को वह रैदास नहीं चाहिए जो चैराहों-चैराहों पर सत्संग लगाता है, जो सड़कों पर संघर्ष का गीत गुनगुनाता है, अपने अधिकार जताता है और नए राज-समाज का सपना देखता है. वह कहता है ‘ऐसा राज चाहूँ मैं, जहाँ मिलै सबब को अन्न’. लगता है प्रदेश सरकार महान संत के इस कथन से इत्तेफाक नहीं रखती.

लेखक कौशल किशोर जनसंस्कृति मंच लखनऊ से जुड़े हुए हैं. उनसे संपर्क 09335226034 पर किया जा सकता है

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