इन्द्रजीत कुमार झा
ऐतिहासिक रूप से देखें तो, महिलाओं के प्रतिनिधित्व एवं नागरिकता संबंधी अवधारणाएं ऐसे विमर्शों एवं प्रशासनिक व्यवहारों से घिरी हुई हैं, जो महिलाओं को अयोग्यता को प्रदर्शित करने वाली श्रेणी के रूप में प्रस्तुत करती हैं। यह भी एक विडंबनापूर्ण तथ्य है कि उसकी विशिष्ट जैविक-वैज्ञानिक संरचना और इस संरचना से जुड़ी सामाजिक और पारिवारिक भूमिकाओं को इस अयोग्यता या अपर्याप्तता की पुष्टि करने वाले तत्वों के रूप में माना जाता है।
आठ मार्च 2010 को 108वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में महिला आरक्षण विधेयक को राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया। 9 मार्च को राज्यसभा ने विधेयक का विरोध कर रहे सात सांसदों को सत्र की कार्यवाही से निलंबित कर इस विधेयक को अपार बहुमत से पारित भी कर दिया। जिस मुद्दे को विमर्शी लोकतंत्र के तरीके से पास करवाना चाहिए था उसे संख्यात्मक बहुमत के आधार पर पास कर दिया गया। अतः इस बिल को लेकर काफी विवाद भी उत्पन्न हुआ है तथा जो विवाद उत्पन्न हुए हैं उनकी वजह से यह बिल एक बार फिर अधर में लटकता दिख रहा है। सवाल यह है कि आखिर महिलाओं के लिए विधानमंडलों में 33 प्रतिशत आरक्षण की अपरिहार्यता क्यों है? लेकिन इससे भी जो ज्यादा महत्वपूर्ण बात है वो इस बिल के विरोध को लेकर है। आखिर क्या वजह है कि इस बिल का विरोध मुख्य रूप से उन्हीं पार्टिंयों की तरफ से हो रहा है जो निम्न एवं मध्यम जातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं?
वस्तुतः सार्वजनिक बहस में महिलाओं के अधिकार से संबंधित मुद्दे आम तौर पर कुछ और ही रूप धारण कर लेते हैं। उदाहरण के लिए समान आचार संहिता(यूनिफाॅर्म सिविल कोड) पर चल रही बहस को ही देख सकते हैं। यहाँ महिलाओं के लिए संपत्ति का अधिकार एवं वैवाहिक जीवन में उनकी स्थिति से संबंधित प्रश्न सामुदायिक अधिकार एवं राष्ट्रीय एकता(कम्युनिटी राइट्स वर्सेज नेशनल इंटीग्रेशन) का मुद्दा अख्तियार कर लेता है(निवेदिता मेनन, 2007ः61)। ऐसे ही कई दूसरे मामले जैसे कार्यस्थल पर यौन शोषण, समान कार्यों के लिए समान वेतन आदि से संबंधित मुद्दे दूसरे रूप धारण कर लेते हैं। ठीक इसी प्रकार की समस्या राजनीतिक एवं नीति निर्माण वाली संस्थाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने वाले प्रयास के साथ भी दिखायी देती हैं। इस बहस को भारत में महिला आरक्षण विधेयक को लेकर चलने वाले वाद-विवाद में देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो, महिलाओं के प्रतिनिधित्व एवं नागरिकता संबंधी अवधारणाएं ऐसे विमर्शों एवं प्रशासनिक व्यवहारों से घिरी हुई हैं, जो महिलाओं को अयोग्यता को प्रदर्शित करने वाली श्रेणी के रूप में प्रस्तुत करती हैं। यह भी एक विडंबनापूर्ण तथ्य है कि उसकी विशिष्ट जैविक-वैज्ञानिक संरचना और इस संरचना से जुड़ी सामाजिक और पारिवारिक भूमिकाओं को इस अयोग्यता या अपर्याप्तता की पुष्टि करने वाले तत्वों के रूप में माना जाता है। यहां तक कि राज्य की वे नीतियां जो महिलाओं के उत्थान करने का दावा करती हैं उनमें भी उस संरचना को पुष्ट करने एवं बनाए रखने का प्रयास किया जाता रहा है (अनुपमा राॅय, 2007ः54)। पहले से यह धारणा बना ली जाती है कि सामंजस्य और निरंतरता के प्रतीकों के रूप में महिलाओं ने राष्ट्र के लिए विशिष्ट योगदान दिया है। इस पूर्व धारणा के आधार पर महिलाओं के दृष्टिकोण को शामिल किए बिना ही उनके लिए नीतिगत फैसले ले लिए जाते हैं। यहां इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय हित की तरह ही महिलाओं के दृष्टिकोण भी महिलाओं की विशिष्ट पृष्ठभूमियों की व्यापक श्रेणी और इनमें व्याप्त अंतर के कारण इतने अलग-अलग हो सकते हैं कि इनका कोई एक अर्थ नहीं निकाला जा सके। द नेशनल पाॅलिसी फाॅर इमपाॅवर आॅफ वूमेन-2001 में यह स्वीकार किया गया है कि संविधान, कानून, नीतियों, योजनाओं और इससे संबंधित संयंत्रों द्वारा निर्धारित किए गए लक्ष्यों एवं महिलाओं की वास्तविक स्थिति में बहुत बड़ा अंतर है(एन.पी.इ.डब्ल्यू. 2001ः6)।
इसीलिए महिलाओं के लिए राजनीतिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की मांग काफी जोर-शोर से उठती रही है जिसे महिला आरक्षण विधेयक के पीछे के आंदोलनों में देखा जा सकता है। लेकिन महिलाओं के अधिकार से संबंधित अन्य दूसरे मुद्दों की तरह ही इसने भी एक दूसरे ही किस्म की बहस को जन्म दे दिया है। फिर भी, इस बात पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि यहां जो मुद्दे उभरकर सामने आए हैं वे इतने साधारण किस्म के नहीं हैं बल्कि ये कई संवेदनशील मुद्दों को अपने अंदर समाहित किए हुए हैं। जब यह विधेयक पहली बार 1996 में 81वे संशोधन बिल के रूप में पेश हुआ तो यह सार्वजनिक बहस में महिलाओं के मुद्दे के रूप में ही उछला एवं अभी भी यह महिला अधिकार की शब्दावली के अंतर्गत ही बहस का मुद्दा बना हुआ है। लेकिन अब यह बात मोटे तौर पर साफ हो रही है कि विधेयक के पेश होने के समय उठे सवालों तथा इसके फलस्वरूप उत्पन्न हुई प्रतिक्रियाओं को केवल महिला अधिकारों के सांचे में रखकर नहीं देखा जा सकता है (निवेदिता मेनन, 2007ः61)।
विधेयक पर चलने वाली यह बहस सामूहिक अधिकार की संकल्पना के अंदर की जटिलताओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। यह दर्शाती है कि कैसे एक समूह के अंदर कई उपसमूह हो सकते हैं जिनके हित आपस में एक दूसरे के विरोधी भी हो सकते हैं। अतः यहां इनके प्रतिनिधित्व की समस्या और भी जटिल रूप धारण कर लेती हैं। प्रस्तुत पर्चे के अंतर्गत महिला आरक्षण विधेयक के संदर्भ में इन्हीं समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है। यह पर्चा तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग के अंतर्गत समूहों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए सामने आए आकारिक प्रतिनिधित्व (डिस्क्रिप्टिव रिप्रजेन्टेशन) की अवधारणा पर गौर किया गया है। दूसरे भाग के अंतर्गत महिला आरक्षण विधेयक की पृष्ठभूमि एवं इस पर चलनेवाले वाद-विवाद को दर्शाया गया है तथा तीसरे भाग के अंतर्गत आकारिक प्रतिनिधित्व की समस्याओं को उजागर करते हुए महिला आरक्षण विधेयक के अंतर्गत विभिन्न उपसमूहों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने की दलील दी गई है।
एक
आधुनिक लोकतंत्र सिद्धंात की शब्दावली में प्रतिनिधित्व का प्रश्न एक गंभीर समस्या बना हुआ है। चूंकि लोकतंत्र लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धंात पर आधारित होता है जिसमें संप्रभुता जनता में निहित होती है। किंतु प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि संप्रभुता जनता में निहित होती है तो आखिर जनता अपने आपको शासित कैसे करे? वस्तुतः इसी प्रश्न के प्रतिउत्तर या विकल्प के रूप में प्रतिनिधित्व की अवधारणा प्रकाश में आती है। पर इस प्रतिनिधित्व के सिद्धंात के साथ भी कई समस्याएं देखी जा सकती हैं, खासकर तब जब समाज में व्यापक स्तर पर विभिन्नताएं मौजूद हों। यहां समाज में केवल विभिन्नता ही नहीं होती है बल्कि विभिन्न गुटों के बीच टकराव भी होता है एवं कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि गुटों के हित जीरो-सम-गेम पर आधारित हों। अर्थात् एक गुट का हित दूसरे गुट के अहित के रूप में सामने आता है।
इसलिए दो महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आते हैं। प्रथम, प्रतिनिधित्व कौन करे? और दूसरा, किसका प्रतिनिधित्व किया जाय?(हू रिप्रजेंट एंड ह्नाट रिप्रजेंट?) इसी स्थिति के कारण एक विखंडित एवं बहुसांस्कृतिक समाज में विकल्प के रूप में आकारिक प्रतिनिधित्व (डिस्क्रिप्टिव रिप्रजेन्टेशन) की अवधारणा प्रकाश में आती है। इसके अंतर्गत ऐतिहासिक रूप से वंचित एवं हाशिये पर स्थित समूहों के लोगों को किसी समूह विशेष के सदस्य के रूप में उनके अपने समूह के सदस्य के द्वारा ही प्रतिनिधित्व किया जाता है (सुसान डोवी, 2002ः729)।
आकारिक प्रतिनिधित्व की मूल भावना इस तथ्य पर आधारित होती है कि किसी एक समूह का उस समूह के व्यक्ति ही ठीक से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। क्योंकि वही उनके हितों, सुविधाओं, मांगों आदि को ठीक से समझ सकते हैं। इस प्रकार यहीं से यह दृष्टिकोण भी उभरकर सामने आता है कि ‘महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल महिलाएं एवं दलितों का प्रतिनिधित्व केवल एक दलित ही कर सकता है।’ सुसान डोवी के अनुसार, ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों के प्रतिनिधियों की संख्या में जितनी वृद्धि होती है उतना ही तात्विक प्रतिनिधित्व (सबस्टानटिव रिप्रजेंटेशन) की स्थापना में मदद मिलती है। अतः किसी समाज को पूरी तरह से लोकतंात्रिक बनाने के लिए राजनीतिक जीवन में ऐसे गुटों की राजनीतिक सदस्यता को बढ़ाने हेतु पूरी तरह से समर्पण की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कई उपायों की आवश्यकता होती है और इसीलिए पार्टी लिस्ट, कोटा, काॅकसेज़, रेसियल डिस्ट्रिक्ट्रींग तथा अनुपातिक मतदान आदि की व्यवस्था की जाती है (सुसान डोवी, 2002ः729)। इस प्रकार आरक्षण एवं कोटा प्रणाली के द्वारा विभिन्न गुटों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जाता है। किंतु प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या एक लोकतांत्रिक प्रणाली में ऐसे तर्क जायज हैं? क्या किसी गुट के सभी लोगों का हित एक समान हो सकता है? या गुटों के अंदर भी हितों में टकराव होता है? एवं क्या यह प्रतिनिधि की भूमिका से संबंधित बातों को कमजोर करता है?
हालांकि समाज में विभिन्न गुटों एवं उसके हितों के बीच टकराव को देखते हुए आकारिक प्रतिनिधित्व की बात तो की जाती है किंतु इसके साथ कई गंभीर समस्याएं हैं। कई सिद्धंातकारों ने ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों के अंदर उपस्थित विभिन्नता को उजागर किया है। उदाहरण के लिए हम महिलाओं को ही लें तो महिलाएं संख्या के आधार पर अल्पसंख्यक या हाशिये पर नहीं हैं बल्कि वे समुदाय के अंतर्गत वर्ग, प्रतिष्ठा एवं शक्ति में असमानता की वजह से हाशिये पर चली जाती हैं(माला टून, 2004ः448)। इस प्रकार महिलाओं को एक समूह के रूप में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में हाशिये पर स्थित माना जाता है लेकिन जेंडर तो सभी प्रकार के जाति, धर्म, भाषा आदि क्षेत्रों में पाया जाता है। अतः क्या किसी समूह के अंदर उपस्थित आंतरिक विभिन्नता एवं अन्याय को दरकिनार कर किसी गुट के हित को समान मानना उचित है? गिल अल्लूड एवं खुर्शीद वाडिया ने भारत में महिला आरक्षण विधेयक पर पक्ष एवं प्रतिपक्ष के विचारों को रखते हुए दिखाया है कि यहां इस विधेयक का विरोध इसी बात को लेकर हो रहा है। अतः इससे पहले हम इस समस्या की गहराई और इसके समाधान को ढूंढ़ने का प्रयास करें हमें भारत में महिला आरक्षण विधेयक की पृष्ठभूमि को समझ लेने की आवश्यकता है। इससे न केवल हम उन तथ्यों को भली प्रकार समझने में सक्षम होंगे कि आखिर महिलाओं के लिए अलग से प्रतिनिधित्व की मांग क्यों उठी बल्कि इस पर चलने वाले वाद-विवाद को भी ठीक से समझ सकेंगे।
दो
प्रतिनिधि संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण देने का सवाल लंबे समय से बहस का एक मुद्दा रहा है। 1930 के दशक में संवैधानिक सुधारों के अंतर्गत भी विधानपालिका में महिलाओं के लिए आरक्षण पर चर्चा हुई थी। भारत सरकार अधिनियम 1919 एवं 1935 के अंतर्गत मुस्लिमों, सिखों एवं ईसाइयों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गई थी। कुछ वंचित समूहों के लोगों को भी 1919 एवं 1925 के नामंाकित सीटों में तथा 1932 में चुने गए सीटों में स्थान दिया गया था। इस समय भारतीय राष्ट्रीय कंाग्रेस ने पृथक निर्वाचन का विरोध किया था। इसी का अनुपालन करते हुए अखिल भारतीय महिला कंाग्रेस (ए.आई.डब्ल्यू.सी.), द नेशनल काउंसिल फॅार वूमेंस इन इंडिया एवं वूमेंस इंडिया एशोसिएशन ने विधानपालिका में महिलाओं के आरक्षण का इस तर्क के साथ विरोध किया था कि इस तरह का कोई भी प्रयास राजनीतिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त करने की सार्वभौमिक मांग को कमजोर ही करेगा। 1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में सरोजिनी नायडू ने महिलाओं के लिए आरक्षित सीट के प्रावधान का खुलकर विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि वे भारत की सभी महिलाओं चाहे वे रूढ़िवादी हिन्दू या मुस्लिम कोई भी महिला हों, सबका प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन इससे अलग मुस्लिम लीग से जुड़ी कई महिलाओं ने कांग्रेसी महिलाओं द्वारा इस तरह से महिलाओं के लिए आरक्षण को अस्वीकृत किए जाने का खुलकर विरोध किया था। वे मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण के पक्ष में थी। इस तरह के आरक्षण के प्रावधान का विरोध होने के बावजूद भी ब्रिटिश सरकार ने 1935 के अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय विधानपालिका में 41 सीट तथा केन्द्रीय विधानपालिका में भी कुछ सीट आरक्षित कर दिया। लेकिन राष्ट्रवादी महिलाओं ने इसका खुलकर विरोध किया (जोया हसन, 2002ः406-407)।
इसी प्रकार महिला आरक्षण का मुद्दा संविधान सभा में भी उठाया गया था। किंतु महिला प्रतिनिधियों का मानना था कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में भारतीय समाज के सभी तबकों को प्रतिनिधित्व मिल ही जाएगा इसीलिए इनके लिए अलग से किसी तरह के आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। अतः उन्होंने इसे गैर जरूरी समझकर खारिज कर दिया। इस सुझाव को महिलाओं द्वारा पुरुषों के बराबर प्रतिस्पर्धा करने की शक्ति को कम करके आंकने वाला भी माना गया (निवेदिता मेनन, 2007ः62)।
आजादी के पश्चात् भारतीय संविधान में महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार दिए गए तथा मौलिक अधिकारों के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि राज्य इनके लिए कुछ विशेष प्रावधान कर सकता है। आजादी के तकरीबन 25 साल के बाद 1971 में भारत सरकार ने महिलाओं की स्थिति के अध्ययन के लिए एक कमिटी(कमिटी आॅन द स्टेटस आॅफ वूमेन इन इंडिया-सी.एस.डब्ल्यू.आई.) का गठन किया। इस कमिटी की रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति के संदर्भ में कई चैंकाने वाले तथ्य सामने आए। इस रिपोर्ट के अनुसार चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी में हुई बढ़ोत्तरी के बावजूद राजनीतिक प्रक्रिया में इनका प्रभाव नहीं के बराबर था। इसके लिए राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की असमानता को भी कारण बताया गया। इस रिपोर्ट के आने के बाद कई महिला संगठनों ने कमिटी पर यह दबाव बनाया कि कमिटी महिलाओं के लिए आरक्षण की सिफारिश करे। लेकिन इसके बावजूद भी कमेटी ने ऐसी सिफारिश नहीं की। चूंकि सी.एस.डब्ल्यू.आई. ने यह स्वीकार किया कि ग्रामीण महिलाओं के अनुभव तथा तकलीफें अप्रकट तथा मूल्यांकन से परे हंै। इसीलिए इसने सर्वसम्मति से संवैधानिक महिला पंचायत स्थापित करने की सिफारिश की। इससे पहले अधिकांश राज्यों में पंचायत अधिनियमों के अंतर्गत महिलाओं के लिए एक या दो सीटें आरक्षित रखी गई थी एवं किसी भी महिला सदस्य के निर्वाचित नहीं होने की स्थिति में इसे नामजदगी से भरा जा सकता था। सी.एस.डब्ल्यू.आई. ने सिफारिश की कि आरक्षित सीटें प्रस्तावित महिला पंचायतों के निर्वाचित पदाधिकारियों को दे देनी चाहिए। लेकिन कमिटी की दो सदस्य वीणा मजूमदार और लोटिका सरकार इससे सहमत नहीं थी। वे इस आरक्षण को पंचायतों तक सीमित न रख कर संसद तक में लागू करवाने के पक्ष में थी(जोया हसन, 2002ः409-410)।
जो भी हो, इस मुद्दे का वर्तमान दौर 1988-2000 के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (एन.पी.पी.) द्वारा पंचायतों तथा जिला परिषद स्तर पर महिलाओं के लिए 20 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने की बहस के साथ शुरू हुआ। आगे चलकर कर्नाटक एवं गुजरात जैसे राज्यों द्वारा कुछ हद तक पंचायतीराज संस्थाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान को कार्यान्वित भी किया गया। सन् 1993 में 73वें तथा 74वें संविधान संशोधनों द्वारा इन निकायों में राष्ट्रव्यापी तौर पर महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान किया गया। सन् 1996 के आम चुनावों के समय महिला संगठनों ने सभी राजनीतिक दलों से राज्य विधानमंडलों तथा संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण संबंधी एक साझी मांग रखी(वीणा मजूमदार, 1997ः15-16)।
हालांकि सभी मुख्य राजनीतिक दलों ने इस मांग को समर्थन दिया फिर भी उन्होंने अपनी टिकटों की कुल संख्या का 15 प्रतिशत से भी कम हिस्सा महिला उम्मीदवारों को दिया। फिर इस आरक्षण बिल के मुद्दे को संयुक्त मोर्चा सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल किया गया तथा 81वां संशोधन बिल सन् 1996 में पेश किया गया। इस बिल में संसद एवं राज्य विधानमंडलों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा गया था। यह बिल पास नहीं हो सका तथा विचार के लिए इसे संयुक्त प्रवर समिति के पास भेज दिया गया। सन् 1998 में इस बिल को 84वें संशोधन बिल के रूप में भाजपा सरकार द्वारा पुनः पेश किया गया जिसका कड़ा विरोध हुआ एवं एक बार फिर यह बिल पास नहीं हो सका(निवेदिता मेनन, 2007ः63)। इसे फिर कुछ संशोधनों के साथ 1999 में 85वें संशोधन बिल के रूप में पेश किया गया लेकिन इस समय भी यह पास नहीं हो सका। इस बीच बिहार में सर्वप्रथम पहल करते हुए पंचायती राज में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीट आरक्षित कर दी गई। वर्तमान में यूपीए सरकार ने सत्ता में आने के साथ अपने 100 दिन के कार्यकाल की प्राथमिकताओं के अंतर्गत महिला आरक्षण विधेयक को भी रखा तथा 8 मार्च, 2010 को महिला दिवस के अवसर पर इस बिल को राज्यसभा में प्रस्तुत किया। इस बिल के राज्यसभा में प्रस्तुत होने के बाद काफी हंगामा हुआ तथा समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल एवं लोकजनशक्ति पार्टी के नेताओं ने उपराष्ट्रपति की कुर्सी के पास पहुंचकर विधेयक की प्रति को छीनने का प्रयास किया। अंततः 9 मार्च 2010 को सपा, राजद एवं लोजपा के सात संासदों को संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने के आरोप में सत्र के शेष भाग से निलंबित कर दिया गया। इस तरह से राज्यसभा ने विधेयक को पारित कर दिया। इसके पक्ष में 186 तथा विपक्ष में मात्र एक मत पडे़। बहुजन समाजवादी पार्टी के सदस्य आरक्षण में पिछड़ी एवं अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी आरक्षण की माँग करते हुए सदन से वाकआउट कर गए। इस प्रकार राज्यसभा में यह बिल भले ही अपार बहुमत से पारित हो गया हो लेकिन यह विमर्शी लोकतंत्र के ऊपर संख्याबल के प्रभाव को ही दर्शाता है। अंततः हंगामे को देखते हुए सरकार ने इस बिल को लोकसभा में प्रस्तुत करने से पहले सभी पार्टियों से मशविरा करने का निर्णय लिया। लेकिन अभी भी इस बिल पर आम सहमति नहीं बन पायी है तथा काफी विवाद चल रहा है और इसका भविष्य अधर में लटका हुआ है।
इन सबके बीच जो प्रमुख सवाल उठता है वो यह है कि आखिर इस बिल की इतनी अपरिहार्यता क्या है? इसका जवाब विधानपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को देखने से काफी हद तक साफ हो जाता है। जैसा कि जोया हसन ने इस ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए दर्शाया है कि महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर चली चर्चा के तकरीबन 25 साल के बाद भी लोकसभा में निर्वाचित महिलाओं का प्रतिशत 6-7 ही रहा है जो कि विश्व में सबसे कम है। प्रथम लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 4.4 प्रतिशत था वहीं 1999 में बढ़कर यह महज 8.20 तक पहुंच सका। इसमें अगर मुस्लिम महिलाओं को देखें तो उसकी संख्या और भी कम है तथा वर्ष 2000 तक के आंकड़ों पर नजर डालें तो 1950-1999 तक में केवल सात ही मुस्लिम महिला लोकसभा में चुनकर आ सकीं हैं। राज्य विधान सभाओं में इसकी हालत और भी बुरी है। वर्ष 2000 से पहले 50 वर्षों में राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिशत महज चार प्रतिशत ही था। 2000 से पहले तक कभी भी कैबिनेट मंत्री के रूप में एक से ज्यादा महिला नहीं रही। राजनीतिक दलों ने इस लिंग विभेद को पाटने का कार्य किया। 1997 में कांग्रेस पार्टी ने उम्मीदवारों के चयन में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं को देने की बात की थी लेकिन 1999 के चुनाव में महज 12 प्रतिशत महिलाओं को ही टिकट दिए गए (जोया हसन, 2002ः 411)। लोकसभा के हाल के वर्षों पर भी नजर डालें तो 2004 में 14वीं लोकसभा के लिए हुए आमचुनाव में कुल 539 प्रतिनिधि चुनकर आए जिसमें से महिलाओं की संख्या महज 44 ही थी। 2009 में हुए 15वीं लोकसभा के चुनाव में भी कुल 59 महिलाएं ही चुनकर आयी हैं जो अब तक की सबसे बड़ी संख्या है। जोया हसन के अनुसार महिला वोटरों की संख्या में लगातार हो रही बढ़ोत्तरी के बावजूद जिस तरह से नीतियों में तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं से इन्हें वंचित रखने का प्रयास किया जा रहा है, वह इस आरक्षण के औचित्य को स्थापित करता है। इसी तर्क के साथ उन्होंने ‘विचारों की राजनीति’(पाॅलिटिक्स आॅफ आइडियाज़) के स्थान पर एन्न फिलीप के ‘उपस्थिति की राजनीति’(पाॅलिटिक्स आॅफ प्रजेन्स) के सिद्धंात की वकालत की है जिसमें वंचित समूहों को समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है (जोया हसन, 2002ः 412)।
इस तरह से यहां महिला आरक्षण विधेयक की अपरिहार्यता स्पष्ट तौर पर दिखायी देती है। नारीवादी बहस के अंदर अगर हम देखें तो महिला आरक्षण विधेयक का सबसे ज्यादा समर्थन वामपंथी दलों एवं महिला संगठनों के अंदर दिखायी देता है जो महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए सकारात्मक कार्यवाही की आवश्यकता पर बल देते हैं। उदाहरण के लिए वसंती रमण एवं कल्पना कन्नाबीरन के अनुसारः ‘‘राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी, लोकतंात्रिक परंपरा को मजबूत करने तथा उत्पीड़न के खिलाफ उनके संघर्ष दोनों ही के लिए अतिआवश्यक है। किंतु उनकी इस प्रकार की भागीदारी में सत्ता संबंध बाधक बनते हैं जो कि समाज के कई स्तरों, सर्वाधिक व्यक्तिगत से लेकर अत्यधिक सार्वजनिक में क्रियाशील होते हैं। इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि मुख्य धारा के राजनैतिक कार्यक्षेत्र में जो भी संभावनाएं हैं उनको हासिल करके एक नया रूप दिया जाए।’’ (निवेदिता मेनन, 2007ः65 में उल्लेखित)। इसी प्रकार से दूसरे लोगों ने भी समाज में लैंगिक विभेद को पाटने के लिए इसे आवश्यक बताया है। क्योंकि इनकी मान्यता है कि महिलाओं के हितों और मुद्दों को महिलाएं ही ज्यादा प्रभावी तरीके से रख सकती हैं।
लेकिन इससे भी जो ज्यादा गहरा सवाल है वह इसके विरोध के स्वर का है। कई छोटे लेकिन मजबूत राजनीतिक दलों के नेताओं ने महिला आरक्षण विधेयक के इस प्रारूप पर आपत्ति जतायी है। इसमें मुख्य रूप से वे पार्टियां हैं जो मध्यम एवं निम्न जातियों के प्रतिनिधि होने का दावा करती हैं। इसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, जनतादल(यू) के कुछ घटक और बहुजन समाजवादी जैसी पार्टियां हैं। इन पार्टियों की ऐसी आशंकाएं हैं कि इस बिल को इस वर्तमान स्वरूप में पारित करने पर केवल उच्च एवं मध्यम वर्ग की महिलाएं ही संसद एवं विधानमंडल जैसी संस्थाओं पर अपना कब्जा जमा लेंगी। वर्ष 2009 में तो शरद यादव ने धमकी देते हुए यहां तक कहा कि अगर इस बिल को पारित किया जाता है तो वे अपनी जान दे देंगे।
यहां एक गंभीर सवाल उत्पन्न होता है कि यद्यपि कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो कि महिलाओं के समुचित प्रतिनिधित्व का विरोध करता हो। फिर भी आखिर इस बिल को लेकर इतना विरोध क्यों है? और क्या वजह है कि इस बिल का सबसे ज्यादा विरोध मध्यम एवं निम्न जाति से संबंधित पार्टियों के नेताओं के द्वारा ही हो रहा है? और क्या इसका ये तात्पर्य है कि ये राजनीतिक दल या नेता महिला अधिकार के विरोधी हैं?
वस्तुतः ऐसा समझना एक बहुत बड़ी भूल होगी। इसके लिए हमें इसके अंदर जो इनकी आशंकाएँ हैं उसे बारिकी से समझने की आवश्यकता है। और यह बात नारीवादी डिस्कोर्स के अंदर इस बिल के विरोध को देखने से स्पष्ट हो जाती है। नारीवादी डिस्कोर्स के अंदर भी मानुषी की संपादक मधुकिश्वर एवं कृषक महिलाओं के संगठन शेतकारी महिला आगादी की ओर से इस बिल की आलोचना हुई है। इनकी मुख्य दलील है कि ये आरक्षण केवल बीवी-बेटी ब्रिगेड को ही तैयार करेगा। अर्थात् ऊंची जाति के लोग अपनी पत्नियों एवं बेटियों को सामने करके सत्ता चलाएंगे। इस संदर्भ में शेतकारी महिला आगादी ने संसद सदस्यों को खुली चिट्ठी भी लिखी जिसपर मधु किश्वर सहित गेल ओमवेट ने भी अपने हस्ताक्षर किए थे।
इस तरह से इन विचारों से ऐसा नहीं लगता है कि ये महिला अधिकार की विरोधी हैं बल्कि इससे एक अलग जो पहलू निकल कर आता है वह महिला समूह के अंदर उपस्थित विभिन्न उपसमूहों की मौजूदगी है जिनके हितों में मूलभूत टकराव देखे जा सकते हैं। और इसीलिए आकारिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा में भी कई कमियां दिखायी देती हैं जिसे अगले भाग में समझने का प्रयास किया जा रहा है।
तीन
यद्यपि लोकतंत्र के अंदर प्रतिनिधित्व की समस्या के समाधान के लिए आकारिक प्रतिनिधित्व की बात की जाती है लेकिन प्रतिनिधित्व के इस सिद्धांत को अपनाने पर भी कई तरह की शंकाएं उत्पन्न होती हैं। इस सिद्धांत के साथ सबसे बड़ी समस्या इस बात को लेकर उत्पन्न होती है कि समाज में किसी एक समूह के अंदर कई उपसमूह होते हैं। ऐसे में समूहगत प्रतिनिधित्व देने से समूह के अंदर विद्यमान किसी एक उपसमूह के हावी होने का खतरा रहता है। यही वह समस्या है जिसपर महिला आरक्षण विधेयक पर वाद-विवाद केंद्रित है। इसके अलावे भी इसमें कुछ दूसरी समस्याएं हैं। इसलिए इससे पहले कि महिला आरक्षण विधेयक के विवाद की मूल समस्या पर लौंटें हमें समूहों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए सामने आए आकारिक प्रतिनिधित्व के सिद्धंात पर लगने वाले दूसरे आक्षेपों पर भी एक नजर डाल लेने की आवश्यकता है।
सर्वप्रथम तो आकारिक प्रतिनिधित्व के साथ समस्या यह है कि इसमें किसी खास समूह के प्रतिनिधि से ऐसी आशा की जाती है कि वह जो भी फैसला ले वह उस समूह के हित में होना चाहिए। अर्थात् एक महिला प्रतिनिधि के द्वारा महिलाओं के हितों को वरीयता देनी चाहिए। किंतु जैसा कि एडमंड बर्क जैसे विद्वानों का कहना है कि प्रतिनिधियों को अपने मतदाताओं के निर्देशों एवं अधिदेशों से बंधा हुआ नहीं होना चाहिए। इनके अनुसार एक बार निर्वाचित हो जाने के पश्चात् वह पूरे राष्ट्र का प्रतिनिधि बन जाता है एवं उन्हें राष्ट्रहित में ऐसे भी निर्णय लेने पड़ सकते हैं जो उनके निर्वाचकों के हितों के खिलाफ हों (एडमंड बर्क, 1988ः150-152)। इस प्रकार आकारिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा, प्रतिनिधि को किसी खास समुदाय के हितों से बांधकर पूरे समाज के हितों पर आघात कर सकती है। साथ ही इसपर यह भी आक्षेप लगाया जाता है कि यह विभिन्न गुटों के बीच भिन्नता को इतना उजागर कर देता है कि ‘एक समान नागरिकता’(काॅमन सिटिजनशिप) का सिद्धंात कमजोर होने लगता है। इतना ही नहीं चूंकि प्रायः देखा जाता है कि लोकतंत्र में शासन पर एक विशिष्ट वर्ग का ही वर्चस्व रहता है अतः ऐसी स्थिति में यह भाई-भतीजावाद को भी बढ़ाता है जिससे योग्य व्यक्ति पीछे रह जाते हैं (गिल अल्लूड एवं खुर्शीद वाडिया, 2004ः387)।
आकारिक प्रतिनिधित्व में एक और समस्या है जो उत्तरदायित्व की है। हन्ना फेनिकेल पिटकिन ने अपने लेख ‘द काॅनसेप्ट आॅफ रिप्रजेंटेशन’ में उल्लेख किया है कि लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति में प्रतिनिधि को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। किंतु आकारिक प्रतिनिधित्व में ‘प्रतिनिधि क्या करता है’ के बजाय ‘प्रतिनिधि कौन है’ पर ध्यान दिया जाता है। इसप्रकार केवल उपस्थिति की राजनीति (पाॅलिटिक्स आॅफ प्रजेन्स) पर बल देने के कारण इसमें प्रतिनिधि उत्तरदायी नहीं रहता है(एच.एफ. पिटकिन, 1988ः157-59)। अतः इन कारणों से ऐसा लगता है कि सचमुच लोकतंत्र में आकारिक प्रतिनिधित्व का कोई स्थान नहीं है।
लेकिन इन बातों से ऐसा अर्थ कतई नहीं लगाना चाहिए कि आकारिक प्रतिनिधित्व बिल्कुल ही गलत है। बल्कि इसका दूसरा पहलू भी है जो कहीं न कहीं लोकतंत्र में इसकी आवश्यकता को भी दर्शाता है। विर्जीना सेपीरो ने स्पष्ट किया है कि किसी समूह की सुरक्षा के लिए दूसरे समूह पर विश्वास करना एक गलती है। उदाहरण के लिए पहले पत्नी के हितों की सुरक्षा के लिए पति को नियुक्त किया जाता था जो एक दुःसाहसिक कदम ही होता था। इन्होंने फायदे में रहने वाले समूह एवं वंचित समूहों के हितों के बीच टकराव पर बल देते हुए उपस्थिति की राजनीति (पाॅलिटिक्स आॅफ प्रजेंस) के समर्थन में एक पृष्ठभूमि तैयार किया तथा ऐसा करते हुए इन्होंने पिटकिन की दलीलों को बिल्कुल ही उलट दिया है। इन्होंने दर्शाया है कि लोकतंात्रिक उत्तरदायित्व के लिए कभी-कभी आकारिक प्रतिनिधित्व की आवश्यकता होती है (सुसान डोवी, 2002ः730 में उल्लेखित)।
सेपीरो के इन विचारों का पालन करते हुए एक समृद्ध राजनीतिक साहित्य विकसित हुआ जिसने इस अंतर्दृष्टि को पुष्ट किया कि महिलाओं एवं नृजातीय (इथनिक) अल्पसंख्यकों का चिरकालिक रूप से अप्रतिनिधित्व एक गंभीर समस्या है। एनन्न फिलिप ने सेपीरो के तर्कों का समर्थन करते हुए आकारिक प्रतिनिधित्व के संबंध में चार तर्क दिए हैं। उनका प्रथम तर्क ‘रोल माॅडल आर्गुमेंट’ (अनुकरणीय आदर्श का तर्क) है। इसमें वह कहते हैं कि ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों को यह बात देखकर काफी बल मिलता है कि उसके गुट का सदस्य किसी प्रभावी पद पर आसीन है। इससे उनमें स्वप्रेरणा का संचार होता है। उनका दूसरा तर्क ‘जस्टिस आर्गुमेंट’(न्याय का तर्क) है। इसमें उन्होंने इसे इतिहास में हुए असमान व्यवहार के प्रति एक क्षतिपूर्ति के रूप में दर्शाया है। इसका तीसरा तर्क ‘ओवर लुक्ड इंट्रेस्ट’ ’(अनदेखे किए गए हित का तर्क) है। इसके अंतर्गत इन्होंने बताया है कि आकारिक प्रतिनिधित्व उन मुद्दों को राजनीतिक एजेंडा पर लाने की अनुमति देता है जो अब तक दरकिनार किए जाते रहे थे। सबसे अंतिम तर्क के रूप में इन्होंने ‘रिविटलाइज्ड डेमोक्रेसी’ ’(पुनर्जीवित लोकतंत्र) की बात की है। इसके अनुसार राजनीतिक सहभागिता बढ़ाने के लिए एवं लोकतंात्रिक संस्थाओं की वैधता को मजबूत करने के लिए प्रतिनिधित्व में विभिन्नता आवश्यक है(सुसान डोवी, 2002ः730)। माला टून के अनुसार यह समूहों को राजनीति की इकाई मानकर चलता है एवं दासता, उपनिवेशवाद एवं जातिप्रथा जैसे संरचनात्मक अवरोधों के कारण ऐतिहासिक रूप से शोषित एवं उत्पीड़ित समूहों के प्रति एक क्षतिपूर्ति के रूप में सामने आता है (माला टून, 2004)।
दूसरी तरफ हमें यह भी देखना पड़ेगा कि यदि आकारिक प्रतिनिधित्व नहीं होगा तो एक ही सामाजिक वर्ग पूरी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करेगा जो लोकतंत्रात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं होगा। अतः हमें ऐसा प्रयास भी करना पड़ेगा कि ऐतिहासिक रूप से जो वंचित समूह हैं वे भी इसमें प्रवेश पा सकंे एवं अपने अधिकारों से राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर सकें। और यह आकारिक प्रतिनिधित्व को अपनाकर ही संभव है। यह नीति निर्माण की प्रक्रिया में दूसरे पक्षों को भी सामने रखता है तथा समाज में बहुलता(वैभिन्नता) को पुष्ट करता है। इसमें वंचित समूहों के अंदर जो नेतृत्व क्षमता का विकास होता है वह एक प्रकार की लोकतंात्रिक साझेदारी को पुष्ट करता है तथा साथ ही इससे इन वर्गों का सामाजिक एवं आर्थिक विकास भी होता है। इतना ही नहीं चूंकि इसमें प्रतिनिधि अपने समूह के हितों के प्रति समर्पित होते हैं, एवं समूह भी अपने बीच से ही प्रतिनिधि को चुनकर भेजता है अतः प्रतिनिधित्व को स्थिरता से हटाकर यह जनप्रिय वैधता एवं सामाजिक न्याय की पूर्ति के साथ भी जोड़ देता है।
जहां तक इसके विरोधियों के द्वारा इसमें उपस्थित भाई-भतीजावाद की आलोचना करने का सवाल है तो इस संदर्भ में आॅलूड एवं वाडिया के विचारों को देख सकते हैं। इन्होंने भारत में महिला आरक्षण बिल के विरोधियों के तर्कों पर प्रकाश डाला है एवं इसके कारण ‘बीवी ब्रिगेड’ बनने के अंदेशे की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। लेकिन आॅलूड एवं वाडिया ने अंदेशों को उजागर करने के बावजूद इसे प्रवेश बिंदु ( इंट्री प्वाइंट) के रूप में देखते हैं। इनके अनुसार महिलाओं को चाहिए कि वह परिवार को प्रवेश बिंदु के रूप में प्रयोग करें एवं आगे शक्ति प्राप्त कर घरेलू सहित हर प्रकार के शोषण को समाप्त करने का प्रयास करें(गिल अल्लूड एवं खुर्शीद वाडिया, 2004ः387)। इसके उदाहरण के रूप में पंचायती राज में बड़े पैमाने पर महिलाओं को चुने जाने के उदाहरण को ले सकते हैं। यद्यपि इन संस्थाओं में महिलाओं के सामने आने के बावजूद अधिकांश निर्णय पुरुष ही लेते हैं तथापि यदि हम इसे एक सीढ़ी के रूप में देखें तो एक युगांतरकारी परिवर्तन होता हुआ दिखाई देता है जो आनेवाली पीढ़ी के लिए एक रास्ता तैयार कर रहा है।
उपरोक्त तथ्यों से ऐसा नहीं लगता है कि आकारिक प्रतिनिधित्व किसी भी दृष्टिकोण से लोकतंत्र का विरोधी है एवं प्रतिनिधित्व की भूमिका को कम करता है। सचमुच कोई भी ऐसा समाज जो सामाजिक भिन्नता के प्रति अंधा हो, लोकतंात्रिक नहीं हो सकता है तथा यह स्थिर भी नहीं रह सकता है। साथ ही जिन लोगों का समाज में सदैव शोषण होता रहा है उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने के लिए कुछ विशेष सुविधाएं तो देनी ही होंगी। जाॅन राॅल्स ने भी अपने न्याय सिद्धंात में चेन कनेक्शन की बात करते हुए विभेद मूलक सिद्धंात को तरजीह दी है जिसमें समाज के दीन-हीन लोगों के कल्याण के लिए विशेष प्रावधान हैं(जाॅन राॅल्स, 1985ः80-83)। डाॅर्किन ने भी ‘समान बर्ताव’ एवं ‘बर्ताव के फलस्वरूप समानता’ में अंतर बताते हुए परिणाम में समानता की बात की है(रोनाल्ड डाॅर्किन, 2000ः364-65)। अर्थात समाज में समानता एवं न्याय होना ही नहीं चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए। इसी प्रकार का विचार आयरिश मेरियन यंग ने भी दिए हैं। उन्होंने स्त्री-पुरुष, श्वेत-अश्वेत सक्षम-अक्षम आदि को असमान मानने से इंकार किया है वहीं दूसरी तरफ इनके लिए कुछ विशेष अधिकारों की भी मांग की है(आयरिश मेरियन यंग, 1989ः250-74)।
अतः कहने का तात्पर्य है कि समाज में धर्म, जाति, भाषा, लिंग, नृजातीयता, नस्ल आदि किसी भी आधार पर जो भी वंचित समूह हैं उन्हें लोकतंत्र को पुष्ट करने के लिए समाज की मुख्यधारा से जोड़ना आवश्यक है और यह आकारिक प्रतिनिधित्व की अवधारणा को अपनाकर आसानी से हो सकता है। इन्हीं कारणों से आयरिश मेरियन यंग ने ‘इंद्रधनुषीय गठबंधन’(रेन्बो काॅलिशन) की बात की है। इसमें इन्होंने अश्वेतों, हिस्पेनिक, महिलाआंे, समलैंगिक पुरुषों एवं स्त्रियों, गरीब एवं श्रमिक वर्ग के लोगों, अक्षम लोगों, छात्रों सबके हितों के प्रतिनिधित्व को समाहित किया है(आयरिश मेरियन यंग, 1988ः165-69)।
अब सबसे अहम सवाल जो महिला आरक्षण विधेयक पर चलने वाले विवाद का केंद्र बिंदु कहा जा सकता है। आकारिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत समूहगत प्रतिनिधित्व की बात तो करता है लेकिन क्या किसी एक समूह के सभी लोगों के हित एक समान होते हैं? क्या किसी समूह को अपने-आप मंे परिपूर्ण माना जा सकता है?
वस्तुतः प्रत्येक समूह के अंदर कई उप-समूह विद्यमान होते हैं एवं जिस प्रकार विभिन्न समूहों के हितों में टकराव होता है उसी प्रकार किसी खास समूह के अंदर भी विभिन्न उप-समूहों के बीच भी विरोधाभास होता है। उदाहरण के लिए दलित वर्ग के अंदर ही हम देखें तो, दलित पुरुष-दलित स्त्री, धनी दलित-गरीब दलित; महिला वर्ग के अंतर्गत- सवर्ण महिला, धनाढ्य घर की महिलाएं एवं गरीब महिलाएं, पूंजीपति महिलाएं-मजदूर महिलाएं, ईश्वरवादी महिलाएं-अनिश्वरवादी महिलाएं, नास्तिक महिलाएं-आस्तिक महिलाएं, आम महिलाएं-डांस बार में काम करने वाली महिलाएं आदि अनेक उपसमूह देखे जा सकते हैं। यहां इनके हितों के बीच न केवल असमानताएं होती हैं बल्कि हितों के बीच टकराव भी हो सकता है। साथ ही एक ही समय में व्यक्ति अलग-अलग समूहों एवं उपसमूहों का भी सदस्य हो सकता है। उदाहरण के लिए कोई महिला, महिला होने के नाते महिला समूह की सदस्य तो होती ही है साथ ही वह अल्पसंख्यक (धर्म के आधार पर) भी हो सकती है। इसीलिए मालिसा विलियम जैसी सिद्धंातकारों के अनुसार यह मानना बड़ी भूल होगी कि कोई प्रतिनिधि केवल महिला होने के नाते सभी महिलाओं का समान रूप में प्रतिनिधित्व कर सकती है। इसी प्रकार कोई अफ्रीकन-अमेरिकन प्रतिनिधि भी सभी अफ्रीकन-अमेरिकन लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। इस संदर्भ में यह बात ध्यान देने की है कि कॅालिन पाॅवेल एवं कॅान्डेलिजा राइस के मंत्रिमंडल में प्रभावी रूप से होने के बावजूद भी 2004 के अमेरिकी चुनाव में बुश प्रशासन को केवल दो प्रतिशत अफ्रीकन-अमेरिकन लोगों का समर्थन प्राप्त था।
इस तथ्य को समझने के साथ भारत में महिला आरक्षण विधेयक पर उठे प्रतिरोध के स्वर को ज्यादा भली-भांति समझ सकते हैं। चूंकि महिलाओं के अंदर भी कई उपसमूह हैं एवं इसमें उच्च जातियों की महिलाएं ज्यादा पढ़ी-लिखी एवं तेज तर्रार हैं इसीलिए निम्न जाति के लोगों में ऐसा भय है कि इस विधेयक के पारित होने के बाद महिला विधायकों की संख्या में वृद्धि तो होगी लेकिन उससे उच्च जाति की महिलाएं ही पूरी तरह से हावी हो जाएंगी। दूसरी तरफ आरक्षण के पास होने से पुरुष उम्मीदवारों की संख्या में कमी होगी तो ओबीसी पार्टियों के जो पुरुष नेता अभी विधानमंडलों में पहुंच पा रहे हैं, इसके पारित होने के बाद वे भी नहीं आ पाएंगे। तथा इनकी जगह ऊंची जातियों की महिलाएं ले लंेगी। इससे अधिकंाश नीतियां ऊंची जातियों के पक्ष में ही बनेंगी और वे एक बार फिर हाशिये पर चले जाएंगे।
भारत में महिला आरक्षण विधेयक को लेकर निम्न एवं पिछड़ी जातियों से जुड़ी पार्टियों के अंदर जो विरोध एवं डर का माहौल है वह पिछले दिनों भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक स्तर पर किए गए बदलावों को देखने से उचित ही प्रतीत होता है। मार्च, 2010 में नितीन गड़करी की अध्यक्षता में भाजपा के अंदर संगठनात्मक फेरबदल करते हुए लगभग 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं को देते हुए पदाधिकारी स्तर पर 13 महिलाओं को तथा कार्यकारिणी में भी 40 महिलाओं को शामिल किया गया है। ऊपर से देखने पर यह काफी क्रंातिकारी कदम भी लगता है। लेकिन जब इसके अंदर जाकर हम देखते हैं तो स्थिति कुछ और ही दिखायी देती है। भाजपा के 11 उपाध्यक्षों में छः महिलाएं हैं लेकिन ये सभी महिलाएं अगड़ी जाति से तथा बड़ी पृष्ठभूमि से ही हैं। करुणा शुक्ला पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भांजी हैं, हेमामालिनी नामी अभिनेत्री हैं, बिजोया चक्रवर्ती भी समृद्ध परिवार से हैं, किरण घई महाराष्ट्री ब्राह्मण हैं, सुखदा पाण्डे भी सवर्ण जाति और संपन्न परिवार से हैं। नजमा हेपतुल्ला भले ही अल्पसंख्यक हैं लेकिन उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि किसी से छिपी नहीं है। इसी प्रकार इसकी कार्यकारिणी में भी देखें तो वसुंधरा राजे सिंधिया को महासचिव बनाया गया है। सचिव स्तर पर स्मृति ईरानी, आरती मेहरा, वाणी त्रिपाठी, सरोज पांडे आदि भी अगड़ी जाति से तथा समृद्ध परिवार से हैं। इसी प्रकार कार्यकारिणी सदस्यों में निर्मला भूरिया, पूनम आजाद, पिंकी आनंद, ललिता कुमार मंगलम, मृदुला सिन्हा, जयंती बेन मेहता आदि भी भले ही नये नाम लग रहे हों लेकिन ये सभी काफी समृद्ध परिवार से हैं। ये महिलाएं किसी भी तरह से सशक्तिकरण की मोहताज नहीं हैं तथा इन्हें देखकर यह आशंका और बलवती हो जाती है कि सीधे तौर पर महिलाओं को आरक्षण मिलने पर जमीन से जुड़ी महिलाओं को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाएगा और वे हाशिये पर ही रहेंगी।
जैसा कि हम जानते हैं कि इस विधेयक के पास होने के बाद लोकसभा की 543 सीट में से 181 सीट तथा 28 राज्यों की विधानसभाओं की 4,104 सीट में से 1,370 सीट महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। ऐसे में यदि इस बिल के विरोधियों के विचारों को कुछ देर के लिए सही मान लें कि इससे केवल ऊंची जातियों एवं अमीर घरों की महिलाएं ही चुनकर आएंगी तो यह सचमुच में एक खतरनाक स्थिति को जन्म दे सकता है। यह स्थिति इसलिए भी खतरनाक हो सकती है क्योंकि भारत में महिलाओं की इतनी बड़ी संख्या होने तथा उनकी स्थिति बदतर होने के बावजूद यह भी एक हकीकत है कि चुनाव प्रक्रियाओं को महिलाओं के मुद्दे प्रभावित नहीं करते हैं। चुनावी राजनीति को लिंग की बजाय जाति एवं धर्म जैसी संरचनाएं ज्यादा प्रभावित करती हैं। फिर यदि संसद में महिलाओं से संबंधित मुद्दे आते भी हैं तो भी हमें यह देखना पड़ेगा कि इन सांसदों की भूमिका केवल महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए नीतियां बनाने तक ही सीमित नहीं होंगी। कई दूसरी नीतियों को पारित करवाने में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। अतः ऐसे में यदि इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप के कारण अधिकंाशतः सवर्ण जाति की एवं धनाढ्य घर की ही महिलाएं चुनकर आएंगी तो वैसी नीतियां भी आसानी से पास हो जाएंगी जो निम्न जातियों, गरीबों एवं अल्पसंख्यकों के हितों को प्रभावित कर सकती हैं। वर्तमान समय में राज्य की सिमटती जा रही लोक-कल्याणकारी भूमिका को देखते हुए यह एक खतरनाक स्थिति को जन्म दे सकता है। अतः यदि इस बिल का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों के तर्कों में रत्तीभर भी सच्चाई है तो हमें इसपर विचार करना चाहिए।
इसीलिए यहां एक नजर में देखें तो ओबीसी एवं पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दलों की आपत्तियां सही प्रतीत होती हंै। लेकिन दूसरी तरफ इसमें भी कई तरह के पेंच उलझे हुए हैं। सबसे पहला सवाल यह है कि जो ओबीसी एवं पिछड़ी जाति के प्रतिनिधि महिला आरक्षण विधेयक का विरोध इस तर्क के आधार पर कर रहे हैं कि इससे समाज की ऊंची जातियों की महिलाएं ही चुनकर आएंगी तथा निम्न जातियों की महिलाएं पिछड़ जाएंगी, क्या वे सचमुच में महिलाओं को आरक्षण दिलाने के प्रति गंभीर हैं? ये राजनीतिक दल अपने आपको निम्न एवं पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं। इनके अनुसार इन जातियों का समर्थन भी इन पार्टियों के साथ है। हम इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जाति की महत्वपूर्ण भूमिका है तथा चुनाव के समय भी जातीय समीकरण एक प्रमुख निर्धारक का काम करता है। अतः जिन चुनाव क्षेत्रों से इनके पुरुष उम्मीदवार चुनाव में जीत हासिल कर सकते हैं, उन स्थानों से उसी जाति की महिला चुनाव क्यों नहीं जीत सकती?
दूसरा, जो राजनेता या राजनीतिक दल महिला आरक्षण का विरोध इस तथ्य के साथ कर रहे हैं कि इससे नीचे के तबके की महिलाएं ऊपर नहीं आ सकेंगी, उन्होंने खुद अपनी पार्टी में इन निम्न तबकों की महिलाओं को कितना प्रतिनिधित्व दिया है? इनकी अपनी पार्टी में भी महिला प्रतिनिधियों की संख्या काफी कम है तथा जो थोड़ी-बहुत महिला संासद या विधायक हैं वो उनके परिवार के ही लोग हैं। अतः ऐसे में केवल ऊंची जातियों की महिलाओं के प्रतिनिधित्व का रोना रोकर इस आरक्षण का विरोध करना, संदेह उत्पन्न करता है। कहीं इस विरोध के पीछे यह कारण तो नहीं है कि इस बिल के पास होने के बाद इनकी पार्टियों के बहुत सारे पुरुष नेताओं का राजनीतिक कैरियर दांव पर लग जाएगा या इसके विरोध का कारण यह भी हो सकता है कि अपनी सामंतवादी सोच के कारण ये अपनी जाति की महिलाओं को भी अपने से ऊपर जगह नहीं देना चाहते।
तीसरा, आखिर क्या वजह है कि वर्तमान समय में महिला आरक्षण विधेयक का विरोध मुख्य रूप से उत्तर-भारत में ही हो रहा है जबकि दक्षिण भारत में पिछड़ी जाति के भी नेता इसका समर्थन ही कर रहे हैं।
चैथा, जहां तक बहुजन समाज पार्टी जैसे राजनीतिक दल यह दलील देते हैं कि इससे दलित महिलाएं संसद में नहीं पहुंच पाएंगी तो हमें यह भी देखना चाहिए कि संविधान के अनुच्छेद 330 एवं 332 के तहत क्रमशः लोकसभा एवं राज्य विधानमंडलों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान पहले से आरक्षित हैं। मार्च, 2009 में परिसीमन के पश्चात् अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 79 से बढ़कर 84 हो गयी तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षिति सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 47 हो गयी है। फिर यह दलील देना कि महिला आरक्षण विधेयक के पास होने के पश्चात् केवल सवर्ण जाति की महिलाएं ही चुनकर आएंगी, उपयुक्त नहीं लगता है। क्योंकि जिन स्थानों पर इनके लिए सीटें आरक्षित हैं वहां महिला आरक्षण विधेयक के पारित होने के बाद चुनी गई महिलाएं भी उन्हीं की जाति की होंगी। यहां केवल इतना डर हो सकता है कि यदि बिल को वर्तमान स्वरूप में पारित कर दिया जाता है तो, जो सीटें पहले से उनके लिए आरक्षित हैं उन्हीं सीटों पर उनकी जाति की महिला उम्मीदवार जीत पाएंगी तथा महिला आरक्षण विधेयक के अंतर्गत दूसरी जगहों से खड़े किए गए उनके उम्मीदवार सवर्ण एवं संपन्न महिलाओं से मुकाबला नहीं कर पाएंगे। इस तरह से यदि यहाँ दलितों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न को अलग कर दें, क्योंकि उनके लिए पहले से आरक्षण की व्यवस्था है, तो असली मुद्दा मुस्लिमों तथा अन्य पिछड़ी जाति की महिलाओं के प्रतिनिधित्व का रह जाता है तथा इसमें भी अगर मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न को थोड़ी देर के लिए अलग कर दें तो ओबीसी पार्टियों की शंकाओं पर भी कई सवाल उठाए जा सकते हैं।
लेकिन यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आता है, जिसपर हमें थोड़ा विचार करना चाहिए। आज इस बात में कोई संदेह नहीं है कि चुनाव में जीत के लिए जाति एक प्रमुख निर्धारक का काम करती है। दूसरी तरफ जो ओबीसी एवं पिछड़ी जातियां हैं उनके हितों में भी काफी टकराव दिखाई देता है। उदाहरण के लिए उत्तर-प्रदेश में बहुजन समाजवादी पार्टी का सबसे ज्यादा टकराव अगर किसी पार्टी के साथ है तो वह समाजवादी पार्टी के साथ है। बिहार में समता पार्टी का टकराव सबसे ज्यादा राष्ट्रीय जनता दल के साथ है। कुछ वर्ष पहले तक रामबिलास पासवान और लालू प्रसाद यादव भी एक-दूसरे के धुर-विरोधी माने जाते थे। हालांकि यहां इस टकराव के अनेक कारण हो सकते हैं जिस पर यहां चर्चा करना संभव नहीं है। यहां मकसद केवल यह बताना है कि इस तरह की स्थिति में यदि इनके उम्मीदवार मजबूत नहीं हों तो इनकी आपसी लड़ाई में तीसरी पार्टी के निकलने की संभावना भी बढ़ जाती है। इतना ही नहीं, चुनाव में जातीय समीकरण होने के बावजूद कोई भी नेता केवल अपनी जाति के बलबूते चुनाव में जीत के लिए आश्वस्त नहीं हो सकता है। मायावती को ही उत्तर-प्रदेश में जीत हासिल करने के लिए कई सवर्ण लोगों को टिकट देना पड़ा। ऐसे में निम्न जाति की ही पार्टी के अंतर्गत यदि कोई एक दल सवर्ण महिला को खड़ा कर दे तो दलित महिला की तुलना में उसके जीतने की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है। इसी प्रकार यदि निम्न जाति की दो पार्टियां नीची जाति की दो महिलाओं को खड़ा करें एवं वहीं दूसरी तरफ कोई राष्ट्रीय दल भी किसी प्रभावशाली नीची जाति की महिला को या किसी अल्पसंख्यक समुदाय की महिला को खड़ा कर दे तो उसमें राष्ट्रीय पार्टी के जीतने की संभावना बढ़ जाती है।
दूसरी तरफ यदि हम बिल का विरोध करने वाली पार्टियों पर यह सवाल करते हैं कि जिस जगह से उनके पुरुष उम्मीदवार जीत सकते हैं वहां से उनकी महिला उम्मीदवार क्यों नहीं जीत सकतीं। और इस आधार पर हम कोटे के अंदर कोटा की मांग को महज अड़ंगा उत्पन्न करने की कार्यवाही के रूप में देखते हैं ताकि यह बिल पास नहीं हो सके, तो ठीक यही सवाल राष्ट्रीय पार्टियों के ऊपर भी लागू होता है। आखिर क्या वजह है कि इतने सालों से इस बिल के मौजूदा स्वरूप पर की जा रही आपत्तियों के बावजूद भी कांग्रेस एवं भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां बिल को इसी स्वरूप में पास करवाने के लिए ही अड़ी हुई हैं? यदि आरक्षण का मकसद सामाजिक उत्थान है और इसमें निम्न तबकों की महिलाओं के लिए अलग से कुछ स्थान सुरक्षित करने की मांग की जाती है तो इसमें नुकसान क्या है? इतना ही नहीं इस तरह की व्यवस्था पंचायती राज संस्थाओं में लागू भी है। जिस पद्धति को हम पंचायतीराज संस्थाओं में लागू कर सकते हैं उसे विधानमंडलों में लागू क्यों नहीं कर सकते?
वस्तुतः सवाल यहां बिल के विरोध एवं समर्थन का नहीं है बल्कि सवाल मानसिकता का है। यदि ये राजनीतिक दल महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर इतने ही चिंतित होते तो इनकी पार्टियों में महिलाओं की अच्छी-खासी संख्या होती। तब शायद इस तरह के आरक्षण की जरूरत ही नहीं होती। 2009 के लोकसभा चुनाव पर अगर नजर डालें तो इसमें कांग्रेस पार्टी ने कुल 440 उम्मीदवार खड़े किए जिसमें से केवल 43 महिलाएं थीं तथा भाजपा के 433 उम्मीदवारों में से केवल 44 महिलाएं थीं। 2004 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के कुल 414 उम्मीदवार में से केवल 45 उम्मीदवार ही महिलाएं थीं। इसी चुनाव में भाजपा ने कुल 364 उम्मीदवार खड़े किए जिसमें से महिलाओं की संख्या केवल 30 थी। यहां तक कि माकपा और भाकपा की भी स्थिति इस मामले में बदतर ही थी। 2009 में माकपा के कुल 82 उम्मीदवारों में केवल 6 (7.3 प्रतिशत) महिलाएं थीं तथा भाकपा के 56 उम्मीदवारों में केवल 4 (7.1 प्रतिशत) महिलाएं थीं ( ‘न्यू लोकसभा विल हैव मोस्ट वूमैन एमपीज़ एवर’, दि इंडियन एक्सप्रेस, 25 मई 2009)।
वस्तुतः आरक्षण या कोटा की व्यवस्था इसलिए की जाती है ताकि इसमें समाज के वंचित तबकों को सम्मिलित किया जा सके। यदि इस तरह से आरक्षण देने से आरक्षण की मूल-भावना ही पूरी नहीं हो रही हो तो फिर आरक्षण या कोटा प्रणाली का कोई लाभ नहीं है। इसलिए यहां उन लोगों को भी यह बात समझने की जरूरत है जो यह मानकर चलते हैं कि चाहे सवर्ण जाति हो या निम्न जाति, महिलाएं हर जगह दोयम दर्जे पर ही रहीं हैं। इस आधार पर वे सभी महिलाओं को एक समान मानकर सबको एक समान रूप से आरक्षण का लाभ देने के पक्ष में हैं। यहां यह सच है कि महिलाओं की स्थिति सभी जगह दोयम दर्जे पर रही हैं लेकिन ऊंची जाति के दोयम दर्जे में एवं निम्न जाति के दोयम दर्जे में अंतर होता है। नीची जाति की जो महिलाएं हैं वे दोहरे हाशियाकरण की शिकार हैं। एक जाति की वजह से और दूसरा महिला होने की वजह से। हम इस सच्चाई को मानने से इंकार नहीं कर सकते हैं कि एक समूह के अंदर कई उपसमूह होते हैं तथा इन उपसमूहों के हितों में टकराव हो सकता है। निश्चित ही एक सवर्ण महिला का हित एक दलित महिला के हित के साथ साम्य नहीं रख सकता है। इतना ही नहीं यह बात दलित समुदाय के अंदर भी लागू होती है। ओबीसी या दलित कहने का यह मतलब नहीं होता है कि इसके अंदर सभी जातियों की समान स्थिति है। 19 अक्टूबर, 2006 को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में अनुसूचित जातियों के अंतर्गत भी मलाईदार वर्ग (क्रीमी लेयर) को आरक्षण की सुविधा से वंचित करने की बात की (‘नो कोटा फाॅर क्रीमी लेयरः एससी’, दि इंडियन एक्सप्रेस, 20 अक्टूबर 2006)। यहां भी कहीं न कहीं संगठित विशिष्ट वर्गीय धनी दलित एवं असंगठित तथा गरीब दलितों के हितों में विरोधाभास के संकेत मिलते हैं। लेकिन इस मुद्दे को किसी भी ओबीसी या दलित राजनेता ने उठाने की जहमत नहीं उठाई। ओबीसी पार्टियों के अंदर ही हम देखें तो कुछ खास जाति के लोगों का ही वर्चस्व कायम है। इसके अंदर भी दूसरी छोटी जातियों को उभरने का मौका नहीं दिया जाता है। अतः यदि महिला आरक्षण विधेयक के पीछे मुख्य मंशा महिलाओं का उत्थान है तो इसमें निम्न एवं पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए कुछ विशेष प्रावधान करने होंगे। लेकिन इसके साथ ही इसमें यह व्यवस्था भी करनी पड़ेगी कि कहीं इसका फायदा निम्न एवं पिछड़ी जातियों के अंदर मौजूद प्रभावी जातियां ही न उठा लें।
यही कारण है कि एन्न फिल्लीप जैसी सिद्धांतकार इस तरफ विशेष ध्यान देने की जरूरत बताती हैं। उनके अनुसार, यह मानना एक खतरनाक भूल होगी कि महिला के रूप में सभी महिलाओं का तथा अश्वेत के रूप में सभी अश्वेत लोगों का एक समान हित, प्राथमिकताएं एवं उद्देश्य होते हैं (सुसान डोवी, 2002ः731 में उल्लेखित)। इसीलिए महिला आरक्षण विधेयक को मौजूदा स्वरूप में लागू करने पर आरक्षण की मूल भावना प्रभावित हो सकती है। इस प्रकार जब यहां समूह के अंदर उपसमूह हैं तथा इन उपसमूहों के अंदर भी काफी विरोधाभास हैं तो सवाल उत्पन्न होता है कि इनके बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाय। यहां सुसान डोवी के तर्क को देख सकते हैं जिसने अधिमान्य आकारिक प्रतिनिधित्व (प्रिफरेबल डिस्क्रिप्टिव रिप्रजेन्टेशन) के मुद्दे को उठाया है तथा गुटों के बीच पारस्परिक संबंध की बात की है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि यह पारस्परिक संबंध केवल दो गुटों के बीच ही नहीं होना चाहिए बल्कि एक गुट के अंदर उपस्थित वंचित उपसमूहों (डिस्पोज्ड सबग्रुप्स) के बीच भी होना चाहिए ताकि दोहरे हाशियाकरण(सेकेंड्री मार्जिनलाइजेशन) को रोका जा सके। इस प्रकार सुसान डोवी ने ‘अधिमान्य आकारिक प्रतिनिधित्व’ के रूप में एक ऐसे सिद्धांत की बात की है जो किसी वंचित समूह के अंदर उपस्थित विभिन्नता (आंतरिक विभिन्नता) के प्रति भी सजग होता है तथा इसके अंदर उपस्थित असमानता एवं अन्याय को भी दूर करने का प्रयास करता है (सुजान डोवी, 2002ः738-39)।
अब सवाल उठता है कि फिर महिला आरक्षण विधेयक को किस रूप में लाया जाय ताकि इस पर सर्वसम्मति बन सके। इस मुद्दे पर पहले भी कई तरह के सुझाव आ चुके हैं। इनमें से एक सुझाव यह भी आया था कि प्रत्येक पार्टी के लिए यह नियम बना दिया जाय कि वह चुनाव में खड़े किए जाने वाले कुल उम्मीदवारों में से 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए सुरक्षित कर दे। लेकिन इसके साथ समस्या यह है कि ऐसी स्थिति में राजनीतिक दल महिलाओं को खानापूर्ति के लिए ही चुनाव में खड़े करते तथा जिस सीट पर उन्हें जीतने की संभावना नहीं होती वहां से महिलाओं को टिकट दे देते। इसीलिए यहां महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित करने का निर्णय लिया गया। लेकिन इसका भी काफी विरोध हो रहा है। इसका विरोध निम्न जातियों एवं अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए अलग से प्रतिनिधित्व दिलाने को लेकर है। लेकिन इसके अलावा इस विरोध का एक प्रमुख कारण पुरुष सांसदों की संख्या में होने वाली कमी भी है जिससे कई पुरुष सांसदों के राजनीतिक कैरियर में अड़ंगा लग सकता है। अब इस तरह के सुझाव आ रहे हैं कि या तो लोकसभा सदस्यों की कुल संख्या को बढ़ाकर 750 कर दिया जाय अथवा महिलाओं के लिए आरक्षण को घटाकर 33 से 20 प्रतिशत कर दिया जाय।
यहां कुछ बातों पर गौर करने की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 81 के द्वारा लोकसभा में कुल सदस्यों की संख्या राज्यों के लिए 530 तथा संघशासित प्रदेशों के लिए 20 निर्धारित की गई थी। संविधान का अनुच्छेद 82 प्रत्येक जनगणना के पश्चात् उसके अनुसार सीटों के निर्धारण की बात करता है। 1971 की जनगणना के पश्चात् इसमें कुछ संशोधन किए गए तथा इसे वर्ष 2000 तक के लिए निश्चित कर दिया गया। 1971 में भारत की जनसंख्या तकरीबन 54 करोड़ थी जो अभी बढ़कर अनुमानतः 102 करोड़ हो गई है। इसीलिए यहां यह दलील दी जा रही है कि लोकसभा में सीटों की संख्या को बढ़ाकर 750 कर दिया जाय। इससे किसी भी पुरुष सांसद का हित प्रभावित नहीं होगा। राजिंदर सच्चर ने सीटों को बढ़ाने के अलावे दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र की भी वकालत की है। उनके अनुसार यदि पुरुष नेताओं के अंदर यह डर है कि जिस बार उनके निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित रखने की बारी आएगी उस साल उनका पत्ता साफ हो जाएगा, तो इसका समाधान यह है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाय वहां दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान कर दिया जाय। इससे एक सीट पर तो महिला जीत कर आएगी ही साथ ही सामान्य सीट पर भी पुरुष या महिला जो भी चुनाव लड़ रहा हो, जीत सकता है (राजिन्दर सच्चर, जुलाई 2003)। लेकिन इस व्यवस्था को अपनाने के अपने नुकसान हैं। जैसा कि 1957 के चुनाव में हुआ था कि वी.वी. गिरी को अनुसूचित जाति के उम्मीदवार से कम वोट मिले और इसकी वजह से दोनों ही सीट अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के पाले में चली गईं। इसी तरह से यहां भी हो सकता है कि एक ही पार्टी के दो उम्मीदवार चुनकर आ जाएं या एक ही पार्टी के दोनों उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़े। अर्थात् पिछले पांच सालों में किए गए कार्यों का परिणाम दो सीटों का नफा या नुकसान हो सकता है।
वस्तुतः उपरोक्त सुझावों में से किसी को भी अपनाना कारगर नहीं होगा। यदि महिलाओं के स्थान को 33 प्रतिशत से 20 प्रतिशत किया जाता है तो यह महिलाओं के प्रतिनिधित्व को कमजोर करेगा। साथ ही यदि लोकसभा सदस्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी की जाती है तो यह भी एक जटिल प्रक्रिया ही साबित होगी क्योंकि तब न केवल संवैधानिक परिवर्तन करने होंगे बल्कि लोकसभा में सदस्यों को बैठने के लिए सीटों को बढ़ाने की भी समस्या सामने आएगी। दूसरी तरफ यदि सीटों को बढ़ाकर बिल को पास करवाया जाता है तथा इस पर सभी लोग सहमत हो जाते हैं तो इसका तात्पर्य यह होगा कि बिल से निम्न जाति के लोगों, गरीबों एवं अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व को कोई खतरा नहीं है बल्कि खतरा मौजूद पुरुष सांसदों के राजनीतिक कैरियर को है। अतः यदि इस पर सहमति बनती है तो यह इन नेताओं की एक संकीर्ण मानसिकता को ही उजागर करेगा कि वे बिल का विरोध तो बड़ी-बड़ी बातें एवं दलीलें देकर कर रहे हैं लेकिन इसके पीछे उनका मुख्य मकसद अपने हितों को सुरक्षित रखना है। इसलिए इस स्थिति को अपनाना लोकतंत्र का सबसे बड़ा मजाक होगा।
अतः यहां यदि सचमुच में कोई समाधान निकल सकता है तो वह यही है कि विधानमंडल सदस्यों की वर्तमान संख्या के अंदर ही महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान सुुरक्षित किया जाय। फिर इस आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यक महिलाओं के लिए भी अलग से कुछ स्थान आरक्षित किया जाय। आखिरकार आरक्षण का मकसद वंचित तबकों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना है और यदि इस तरह की व्यवस्था से इनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है तो इसमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।
इसप्रकार प्रतिनिधित्व की समस्या का समाधान आकारिक प्रतिनिधित्व को अपनाने से ही हो सकता है तथा इस आकारिक प्रतिनिधित्व को और अधिक प्रभावी बनाने हेतु एक समूह के अंदर विभिन्न उपसमूहों से भी लोगों को चुनने की आवश्यकता है। यहां समूहों के बीच नियंत्रण एवं संतुलन के शक्ति के प्रयोग से भी इसे ज्यादा प्रभावी बना सकते हैं। इस प्रकार की अवधारणा हम मेडिसन के गुटबंदी (फेक्शन) की अवधारणा में देख सकते हैं जिसमें एक गुट का हित दूसरे गुट के हितों पर अंकुश लगाता है, फलस्वरूप एक संतुलन कायम रहता है। इन सबके अतिरिक्त आकारिक प्रतिनिधित्व में सरोगेट रिप्रजेंटेशन को भी बनाए रखने की आवश्यकता है जिसमें एक समूह के प्रतिनिधि दूसरे समूह के हित में भी निर्णय ले सकें।
स्पष्ट है कि अनेक कमियों के बावजूद आकारिक प्रतिनिधित्व हाशिये पर स्थित समुदायों को मुख्य धारा से जोड़कर लोकतंत्र को और भी अधिक मजबूत किया है। अतः आवश्यकता इसे समाप्त करने की नहीं बल्कि इसमें सुधार लाने की है। अतः यह तर्क कि ‘महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल महिलाएं एवं दलितों का प्रतिनिधित्व केवल एक दलित ही कर सकता है’, उचित प्रतीत होता है क्योंकि केवल इसी के द्वारा इनके हितों को राष्ट्रीय एजेंडे पर ठीक से लाया जा सकता है एवं शायद तभी प्रतिनिधित्व का स्वरूप ‘माइक्रोकॅास्मिक’ हो पाएगा जिसमें पूरे समाज का हित प्रतिबिम्बित होगा। इसी लिहाज से यहां महिला आरक्षण विधेयक की महत्ता भी स्थापित हो जाती है जिससे महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकेगा। लेकिन साथ ही इसमें महिला समूह के अंतर्गत उपस्थित उपसमूहों पर भी ध्यान देना होगा। अर्थात् हमें इसमें जाति एवं वर्ग का भी खयाल रखना होगा नहीं तो इस आरक्षण के कारण किसी खास जाति एवं वर्ग की महिलाओं का ही वर्चस्व स्थापित हो जाएगा जो किसी भी दृष्टिकोण से ‘माइक्रोकॅास्मिक’ नहीं होगा। प्रतिनिधि लोकतंत्र के प्रबल समर्थक जे.एस. मिल ने भी संसद को समाज के दर्पण के रूप में देखने की बात की थी। अर्थात् उन्होंने संसद को इस रूप में स्थापित करने की बात की जिसमें पूरे समाज का हित प्रतिबिंबित हो सके। अतः हमें केवल समाज में विभिन्न गुटों के प्रतिनिधित्व की ही बात नहीं करनी चाहिए बल्कि समूहों के अंदर उपस्थित विभिन्न उपसमूहों के हितों को भी उजागर करना चाहिए। और इसलिए महिला आरक्षण विधेयक में संशोधन करके अल्पसंख्यकों एवं पिछड़ी जातियों की महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान किए जाने चाहिए। तभी प्रतिनिधि संस्था का रूप वास्तव में इन्द्रधनुषीय हो पाएगा।
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