Thursday, March 17, 2011

इज्जत की हत्यारी पंचायतें

November 1st, 2010
◙गायत्री आर्य

कईं साल पहले मेरे गांव में एक किशोरी की हत्या की गई थी। उसने ना तो सगोत्र विवाह किया था, ना ही अंतर्जातीय। सुनने में आया था कि वह संभंवत: दूसरी-तीसरी बार गर्भवती थी अपने पिता से! उसके परिवार वालों ने ही अंतत: उसे इस ‘पाप’ से ‘मुक्ति’ भी दी! इस हत्या पर कोई खाप या जाति पंचायत तो क्या अपने गांव में भी कोई पंचायत नहीं हुई थी। थाने में रिपोर्ट भी विरोधी गुट के लोगों ने किसी पुरानी दुश्मनी के चलते करवाई। ना कि इसलिए कि कोई गलत काम हुआ है। एक ही गांव के लड़के-लड़कियों द्वारा किया जाने वाला विवाह अपराध है क्योंकि गांव के सारे लड़के-लड़कियां आपस में भाई-बहन हैं लेकिन एक ही गांव के पुरुषों द्वारा अपने ही गांव की लड़कियों/स्त्रियों पर किये गए बलात्कार, यौन शोषण व तमाम तरह की ज्यादतियां जायज हैं? जायज हैं तभी तो खाप पंचायतें उनके खिलाफ कोई फैसला नहीं लेतीं। फैसला लेना तो दूर, पंचायत तक नहीं जुड़ती। क्यों?

यह इज्जत के नाम पर हत्या का वह रूप है जिसे ना तो सामने लाया जाता है, ना ही उस पर पंचायतें कोई बात ही करना चाहती हैं। क्योंकि ऐसे तमाम केसों में ‘मूंछ’ वालों का घिनौना नंगा सच सामने आता है। ऑनर किलिंग के नाम पर अपने ही बच्चों की हत्याओं का यह कैसा सिलसिला चल निकला है। जिन घरों के बच्चे मारे जाते हैं कैसा होता होगा उन घरों का माहौल? हत्या का मातम होता होगा या इज्जत बचाने की खुशी? मां इज्जत बचा लेने (?) के निर्णय पर खुश होती होगी या अपने जाए बच्चे की हत्या पर दुखी? पिता का दिल भरता होगा या पाप खत्म कर देने की शांति होती होगी दिल में? यह नए दौर का नया बढ़ता चलन है। अपने ही बच्चों की मौत पर मातम नहीं, जश्न। आधुनिक और सभ्य समाज ने बर्बर युग से ज्यादा बर्बर तरीके इजाद किये हैं इंसानों को मारने के!

स्त्रियों के साथ तमाम तरह की बदसलूकियां करने पर भी जिनकी इज्जत ना लुटती हो, स्त्रियों को अपमानित करने व उनके साथ हिंसा करने में जिनका अहम शांत होता हो। किसी के प्रेम करने और साथ जीने के फैसले का जो स्वागत नहीं कर सकते। वे लोग वास्तव में इज्जत का अर्थ नहीं समझते। ये खाप पंचायतें और परिवार वाले इज्जत के नाम हत्या नहीं कर रहे हैं। वे असल में इज्जत और इंसानियत की हत्या कर रहे हैं। जो बच्चे कल को किसी क्षेत्र में विशेष उपलब्धि हासिल कर सकते थे। मां-बाप और पंचायतें उस उपलब्धि विशेष से होने वाले फख्र और बढऩे वाली इज्जत को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म करने के निर्विवाद दोषी हैं। प्रेम के साथ-साथ वे युवा संभावनाओं की हत्या के भी दोषी हैं!

चंडीगढ़ के एक वरिष्ठ वकील रंजीत मल्होत्रा ने जबरन किये जाने वाले विवाहों के सामाजिक और कानूनी पक्ष पर एक शोध पत्र तैयार किया है। इसके हिसाब से उत्तर भारत के सिर्फ तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में ही साल भर में ‘ऑनर किलिंग’ की लगभग 900 घटनाएं होती हैं। बहुत सारे ऐसे मामले तो सामने ही नहीं आते, क्योंकि उन्हें घरेलू मसला कहकर दबा दिया जाता है । पूरी दुनिया में पाकिस्तान सबसे ज्यादा ऑनर किलिंग के लिए पहले स्थान पर है। मल्होत्रा का कहना है कि भारत में होने वाली ‘ऑनर किलिंग’ पाकिस्तान में होने वाली ऐसी घटनाओं के लगभग बराबर है। रंजीत मल्होत्रा का यह शोध पत्र लंदन में होने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस में पढ़ा जाएगा। बदनामी में नाम कमाने की एक और वजह उत्तर भारत पूरी दुनिया को दे रहा है। और वह भी पूरे फख्र के साथ!

सवाल असल में सिर्फ पंचायतों द्वारा अपना वर्चस्व कायम रखने का नहीं है। वर्चस्व कायम रखने के लिए पे्रम विवाह से कहीं ज्यादा अहम और भी असंख्य मुद्दे हैं, जिन पर फरमान सुनाए जा सकते हैं। सवाल असल में यह है कि कैसे एक लड़की उनकी नाक और मूछों के नीचे अपनी मर्जी से शादी करने जैसा अहम फैसला ले सकती है? ले रही है ! स्कूल-कालेज में पढऩे भेजा, आधुनिक कपड़े पहनने पर भी चलो सब्र कर लिया। नौकरी करने तक भी ठीक है लेकिन शादी! यह तो पूरी जिंदगी से जुड़ा फैसला है। यह अहम फैसला लेने के लिये उन्हें दूसरा जन्म लेना होगा। सगोत्र विवाह मंजूर नहीं, अगली नस्ल कमजोर होगी! अंतरजतीय विवाह मंजूर नहीं अगली नस्ल खराब होगी! अंतर्संप्रदाय विवाह मंजूर नहीं, कौम ही खतरे में पड़ जाएगी! मुद्दा असल में यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि विवाह किससे किया है। असल मुद्दा यह है कि लड़की ने विवाह करने का फैसला खुद लिया है जोकि मंजूर नहीं हो सकता। जाति, गोत्र, संप्रदाय तो सिर्फ आड़ हैं अपने क्रूर निर्णयों को सही ठहराने की।

सगोत्रीय विवाह, अंतरजातीय विवाह से कहीं ज्यादा संख्या में होते हैं—लड़कियों के बलात्कार। लड़कियों के साथ छेडख़ानी, दहेज के नाम पर हत्याएं । तब ये खाप और जाति पंचायतें किस नीम बेहोशी में रहती हैं। तब क्यूं नहीं सुनाया जाता बलात्कारी को मृत्युदंड का फरमान? तब क्यूं नहीं पेड़ से लटका दिया जाता छेडख़ानी करने वालों को? क्यूं नहीं बहिष्कार किया जाता दहेज के कारण लड़की को मार डालने वालों का ? क्यूं नहीं सर कलम किया जाता मादा भू्रण हत्या और बालिका वध करने वालों का? वह इसलिए क्योंकि तब ये तमाम फैसले मर्द करते हैं कि कब, कहां, कितने, किसके बलात्कार करने हैं, छेडख़ानी करनी है, दलितों के घर जलाने हैं, किसको डायन/चुड़ैल बनाना है, किसकी मदद के नाम पर शोषण करना है! किसको उठवाना है, किसको मारना है । खांटी मर्दों द्वारा लिए गए फैसलों पर भला पंचायतें क्या बोलेंगी और क्यों बोलेंगी? इन खांटी मर्दों के फैसले तो खुदा का फरमान होते हैं।

सगोत्र विवाह के नाम पर नस्ल बिगडऩे से बचाने की बात पर जोर दिया जा रहा है। जो अभी दुनिया में नहीं है उसकी कितनी चिंता है। लेकिन जिंदा नस्लों को सुधारने की कोई सुध किसी को नहीं। सच तो यह है कि ऑनर किलिंग के गढ़-क्षेत्रों यू.पी., हरियाणा, पंजाब(और अब तो दिल्ली में भी) सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों की उपस्थिति मात्र हम लड़कियों को असुरक्षित महसूस करवाती है! हम डरना नहीं चाहतीं उनसे, उनके साथ सहज महसूस करना चाहती हैं। इन जीवित नस्लों को इंसान बनाने का बीड़ा क्यों नहीं उठातीं ये खाप पंचायतें? क्योंकि ऐसा करने से उनके लड़कियों को कदम-कदम पर त्रस्त करने के जन्मजात अधिकार का हनन होगा!

असल में घर से बाहर निकली, खुद मुख्तार बनी लड़की को बर्दाश्त करने की आदत अभी हमारे समाज को नहीं पड़ी है । घर की चार-दीवारी से बाहर निकलने पर तमाम जगहों पर हिंसा का ग्राफ बढ़ा है, जो कि अभी और बढ़ेगा। बावजूद महिला सुरक्षा में बने कानूनों की लंबी फेहरिस्त के । क्योंकि कानून किसी भी समस्या का स्थायी हल नहीं होते। और वैसे भी अपने देश में कानूनों की हालत गली के कुत्तों से बेहतर नहीं बची है! पढऩे-लिखने के बाद सबसे पहले लड़कियों ने नौकरी करने, उत्पादन में अपनी प्रत्यक्ष भागीदारी को सुनिश्चित किया है। जैसे-जैसे वे काम पर जाने लगीं, वैसे-वैसे कार्यस्थलों पर, सार्वजनिक जगहों पर, रास्तों में, रेल में, बसों में तमाम तरह की छेडख़ानियों की शुरुआत हो गई। अब लड़कियां एक कदम और आगे बढ़ रही हैं। शादी जैसा अहम फैसला ले रही हैं। तो जाहिर है यहां भी आशीर्वाद तो नहीं ही मिलेगा। खाप व जाति पंचायतों द्वारा दिये जा रहे बर्बर फैसले भी असल में सार्वजनिक जीवन जी रही, व्यक्तिगत फैसले ले रही लड़कियों को ही प्रताडि़त करने का एक नया आयाम है। यह उन लड़कों की बदकिस्मती है जिन्हें प्यार के कारण लड़की के साथ मर जाना पड़ता है।

नेता और सरकारें जनहित के ऐसे किसी भी मुद्दे पर विवेक से काम ना लेने को विवश हैं जो कि सीधे-सीधे उनके वोट बैंक से जुड़ा हो। ऐसे माहौल में पुलिस और प्रशासन से मदद की गुहार लगाना, किताबी रूप में सहीे है, व्यवहारिक रूप में नहीं। इन प्यार करने वालों को होशोहवास में एक और चीज को समझना होगा। जैसे उनके लिए ‘प्यार के आगे कुछ नहीं’ है, वैसे ही उनके परिवार के लिए गोत्र, जाति, धर्म, संप्रदाय से पगे संस्कारों के आगे कुछ नहीं है। प्यार करने के साथ-साथ जिंदा रहने की चुनौती भी उन्हें खुद ही स्वीकार करनी होगी। नहीं तो मरकर वे सिर्फ खाप पंचायतों के लिए फख्र का और न्यूज चैनलों के लिए खबर का मुद्दा भर बन के रह जाएंगे।

अंतर्जातीय विवाह करने वालों को यह समझना होगा कि उन्होंने अपने कंधों पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी ली है। ना सिर्फ अपनी जिंदगी का फैसला लेने की जिम्मेदारी बल्कि, जाति व्यवस्था पर प्रहार करने की भी। जिसके लिए उन्हें जिंदा भी रहना होगा। मार्च, 2010 में चंडीगढ़ की निचली अदालत ने मनोज और बबली को मारने का फरमान सुनाने वाली खाप पंचायत के मुखिया समेत सात लोगों को सजा सुनाई थी। अदालत का यह फैसला काबिले तारीफ है। क्योंकि पहली बार खुलेआम नृशंश हत्या करने वालों को अपराधी ठहराया गया व सजा दी गई। एक हल्की-सी उम्मीद जगी थी की शायद अब खाप पंचायतें अपने क्रूर फैसलों में कुछ कटौती करेंगी। लेकिन हाल-फिलहाल के घटनाक्रम को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रेम विवाह व खाप पंचायतों के क्रूर फैसले अब दोनों खुले तौर पर आमने-सामने आ गए हैं। पुराने को बचाने और नये को गढऩे के बीच टकराहट के संक्रमण का यह दौर अभी लंबा चलने वाला है। जाति की दीवारों को तोडऩे वालों को अब न सिर्फ निर्णय लेने की आजादी के हक का प्रयोग करना है, बल्कि इस विचार को जिंदा रखने के लिए खुद को जिंदा रखने की जंग भी लडऩी होगी। सभ्य समाज को भी तय करना होगा कि वे इंसानियत के हक में खड़े होंगे या बर्बरता की तरफ लौट कर जाएंगे? पंचायतें यदि वास्तव में लड़कियों को अपनी इज्जत समझती हैं तो, इज्जत की रक्षा उन्हें मारने में नहीं बल्कि उन्हें ससम्मान बचाने में हैं।

Tags: Gayitri Arya - वर्ग- विचार - कमेंट: एक

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