Thursday, March 17, 2011

कौशांबी का कुफ्र

देश के स्वाधीनता संग्राम के निर्णायक काल बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में ज्ञान-विज्ञान और मानव के प्रयासों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जिसमें विलक्षण विभूतियों का आविर्भाव न हुआ हो। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डी.डी. कौशांबी को आज उन्हीं यशस्वी लोगों में गिना जाता है। महाराष्ट्र के ही एक और महारथी बी.आर. अम्बेडकर की तरह कौशांबी के योगदान को भी उस काल में यथायोग्य महत्व नहीं दिया गया था।
कौशांबी क्या-कुछ नहीं थे। गणित के वह प्रकांड विद्वान थे और अंतिम समय तक उसकी शिक्षा देते रहे। सांख्यिकी और स्टेटिक्स सिद्धांत के क्षेत्र में उनका कार्य विज्ञान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया। मुद्राशास्त्र उनका प्रिय विषय था। तक्षशिला के (विशेष रूप से मगधकालीन) सिक्कों के विशाल भंडार और नियंत्रण साधन के रूप में आधुनिक सिक्कों का उन्होंने उपयोग किया। लगभग 12 हजार सिक्कों को तौलने के बाद उन्होंने कहा था कि पुरालेख और पुरातत्व से भिन्न एक विज्ञान के रूप में मुद्रा शास्त्र की नींव डाली जा सकती है। संस्कृत के साहित्य में कोशांबी ने भर्तृहरि और भास की रचनाओं की ओर विशेष ध्यान दिया और उनके भाष्य उत्कृष्ट माने जाते हैं। संस्कृत साहित्य से वह उसकी सामाजिक पीठिकाµ प्राचीन भारत के इतिहास की ओर बढ़ गए। 1938-39 के बाद से उन्होंने इस विषय पर अनेकानेक निबंध लिखे। 1956 में प्रकाशित उनकी पुस्तक इंट्रोडक्शन टू द स्टडी आॅफ इंडियन हिस्ट्री ने इतिहास की एक नई परिभाषा बताई। इतिहास को समझने की उन्होंने एक नई दृष्टि प्रस्तुत की और इतिहास लेखन का नया, परिवर्तनकामी मार्ग प्रशस्त किया। जहां एक ओर उन्होंने पश्चिमी इतिहासकारों की रचनाओं के आधार को चुनौती दी, वहीं दूसरी ओर उन्होंने प्राचीन काल को स्वर्ण-युग बताने वाले हमारे अपने देश के देशाहंकारी भाटों के दंभ को चूर-चूर कर डाला। आज डी.डी. कौशांबी को प्रधान रूप से इसी योगदान के लिए याद किया जाता है।
ऐसी बात नहीं है कि उनसे पहले इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया था। 1917 में रूसी समाजवादी क्रांति की विजय के बाद जब अनेकानेक देशों में माक्र्सवादी विचारधारा का प्रसार हुआ और अर्वाचीन तथा प्राचीन कालों के घटना-क्रम को वर्ग संघर्ष की दृष्टि से देखा जाने लगा तो हमारे देश में अनेक विद्वानों ने प्राचीन भारत के इतिहास को भौतिकवादी दृष्टिकोण से समझने की कोशिश की। राहुल सांकृत्यायन ने संस्कृत और पालि के गं्रथों के अध्ययन, भाषाओं के सान्निध्य और देश-देशांतर के अपने अनुभव के आधार पर भारतीय इतिहास के प्राचीन काल पर विहंगम दृष्टि डाली। अनुसंधान के नाम पर अनाचार भी किए गए। गोबिंद बल्लभ पंत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने संपूर्णानंद ने 1939 में छपी अपनी पुस्तक समाजवाद में ब्राह्मण परशुराम द्वारा पृथ्वी को 21 बार क्षत्रियों से निर्वंश कर देने की कथा को ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच वर्ग-संघर्ष बना डाला था। कम्युनिस्ट नेता एस.ए. डांगे की पुस्तक भारत में आदिम साम्यवाद से दास प्रथा तक का इतिहास 1949 में प्रकाशित हुई जिसमें उन्होंने हमारे देश के अतीत को अधिकृत माक्र्सवाद के चैखटे में फिट कर दिया थाµमक्षिका स्थाने मक्षिका! कौशांबी ने उसकी बखिया उधेड़ी तो कम्युनिस्ट पार्टी ने चुप्पी साधना बेहतर माना और स्वयं डांगे ने, ‘समयाभाव के कारण’ आलोचना का उत्तर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी। हिंदी के मूर्धन्य साहित्यालोचक रामविलास शर्मा ने प्राचीन भारत के साथ-साथ अंगे्रजी शासन से पहले के भारत पर अपनी कलम चलाई तो प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता आर.एस. शर्मा ने उसे ‘अनधिकार चेष्टा’ बताया।
डी.डी. कौशांबी ने जब प्राचीन भारत के अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित किया तो सबसे पहले परंपरागत सीमाओं और अधिकृत चैखटों को रास्ते से हटा दिया। उनके लिए न तो कोई मिथक पवित्र-पावन था, न कोई स्थापना। भारत-विद्या में गहराई से पैठने के लिए उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन के साथ-साथ भाषाओं के परिवारों का ज्ञान, मुद्रा शास्त्र, पुरातत्व संबंधी कार्य और वर्तमान के माध्यम से अतीत को जानने के लिए फील्ड-वर्क को आवश्यक माना, वह ‘सैकिंड हैंड’ ज्ञान पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति नहीं थे, इसलिए मूल स्रोतों तक पहुंचने के उद्देश्य से उन्होंने पालि व संस्कृत जैसी अपने देश की प्राचीन भाषाओं, प्राचीन यूनानी व लातिन भाषाओं और फ्रांसीसी व जर्मन भाषाओं का अध्ययन किया। यही संयुक्त चैमुखी प्रणाली उनके अनुसंधान का आधार बनी। और इस प्रणाली की रीढ़ थी द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद की विचारधारा।
कौशांबी दिए गए ज्ञान को आंख बंद करके शिरोधार्य करने के कायल कभी नहीं रहे। भौगोलिक क्षेत्रों और समाजों की विभिन्नता के बावजूद मानव समाज के विकास को हर जगह आदिम साम्यवादµदास प्रथा-सामंतवाद-पूंजीवाद की स्कीम के अनुसार निर्धारित कर देना उन्होंने वस्तुगत ऐतिहासिक तथ्यों के प्रतिकूलµइतिहास का मखौल बताया। आॅफीसियल यानी अधिकृत माक्र्सवाद कभी उनके गले के नीचे नहीं उतरा। यह तो कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन लाइन को विधि का विधान मानना था। उन्होंने आॅथौडौक्स यानी कट्टर माक्र्सवाद का डटकर विरोध किया। उन्होंने लिखा कि ‘‘माक्र्सवाद को गणित की तरह स्थिर सूत्रों के रूप में नहीं देखा जा सकता। मानव समाज में भौतिक तत्वों के अनंत रूप होते हैं और पर्यवेक्षक स्वयं पर्यवेक्षित जनस्तरों का अंग होता है और वे एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि सिद्धांतों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए विश्लेषणात्मक क्षमता का विकास, उपस्थित परिस्थिति में प्रमुख तत्वों को समझने की योग्यता आवश्यक हो जाती है।’’
डी.डी. कौशांबी को स्वयं माक्र्स और एंगेल्स की कुछ स्थापनाओं पर आपत्ति थी। वह माक्र्स के इस कथन को भ्रामक मानते थे कि ‘‘भारत का कोई इतिहास नहीं है’’ (कुछ विद्वानों के अनुसार यह मूल धारणा हीगेल की थी जिसे माक्र्स ने अपना लिया था)। एशियाई गांवों को परिवर्तनहीन और स्वयं-संपूर्ण मानने के विचार से भी वह सहमत नहीं थे। उन्होंने सावधान किया था कि माक्र्स की विचारधारा को स्वीकार करने का यह अर्थ नहीं है कि उनके सभी निष्कर्षों को, यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी की तत्कालीन पार्टी लाइन के निष्कर्षों को भी ज्यों का त्यों मान लिया जाए।
कौशांबी का विश्वास था कि समाज में उत्पादक शक्तियों का विकास होने के फलस्वरूप मौजूदा उत्पादन संबंध विच्छिन्न हो जाते हैं और नई सामाजिक व्यवस्था रूप ग्रहण करने लगती है। उनका कहना था कि हल से खेती के कार्य शुरू होने पर कंद, मूल, फल और शिकार के सहारे जीवन-यापन की व्यवस्था बदल गई थी। दिलचस्प है कि रवि ठाकुर हमारे मिथकों में हलधारी राम (बलदाऊ) की भूमिका को विशेष रूप से महत्वपूर्ण समझते थे। भारत की जाति व्यवस्था और वर्णों के आधार पर समाज के वर्गीकरण की चर्चा करते हुए कौशांबी ने लिखा कि आदिम स्तर पर जाति ही वर्ग थी। अनार्यों के ‘दस्यु’ जैसे कबीलों को आधीन करके शूद्र माना जाने लगा (हो सकता है ‘दास’ शब्द ‘दस्यु’ से ही निकला हो)। प्राथमिक उत्पादक को वर्ण व्यवस्था में निम्नतम दर्जा दे दिया गया और धार्मिक रीति-रिवाजों का शिकंजा कस दिए जाने पर वह असहाय चाकर बन गया। प्राथमिक उत्पादक के अतिरिक्त उत्पाद का शोषण दमन से अधिक धर्म के बल पर किया जाने लगा। बिना हल्दी-फिटकरी लगे चोखे रंग को बेजबान कमकर प्राप्त हो गए। आदिम जन-जातियों के अंगों को पूरी तरह वश में रखने के लिए उनके कुल-देवताओं को हिंदू देवी-देवताओं, की पांत में बैठा दिया गया और उनके सरदारों को धीरे-धीरे वर्ण व्यवस्था में सापेक्षतया ऊपरी श्रेणी के लोगµमुख्यतया क्षत्रिय माना जाने लगा। वर्ण व्यवस्था ने हमारे देश में दास प्रथा को एक तरह से अनावश्यक कर दिया। सामंतवाद के संबंध में भी कौशांबी का स्पष्ट मत था कि भारत में उसे इंग्लैंड के ‘फ्यूडल बांडौं और सफौं’ (अर्ध-दासों) जैसा नहीं समझना चाहिए। उनके विचार में यहां सामंती समाज का विराम ऊपर से भी और नीचे से भी चल रही प्रक्रियाओं का परिणाम था।
प्राचीन इतिहास की जानकारी देने वाली लिखित सामग्री हमारे देश में कम है और जो है, उसे इतिहास नहीं माना जा सकता। इसलिए भौतिक संस्कृति का महत्व बढ़ जाता है। पुरातत्व विषयक खोजों से बड़ी सहायता मिलती है। कौशांबी ने डिफेंस अकादमी के इंस्पेक्टरों व कैडेटों की उत्साही टुकड़ी के साथ ‘डैकन ट्रैक्ट’ को नापा और अनौपचारिक समर्पित छात्रों के दल के साथ शुरू के और बाद के पाषाण काल के अवशेषों का पता चलाया। वैस्टर्न घाट की तलहटी में आगे गुफाओं के नीचे उन्होंने अद्भुत भित्ति-चित्रों से सजी करसाबला गुफाओं की खोज की। ऐसी ही खोजों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अनेक बौद्ध गुफाएं प्रमुख व्यापार मार्गों के साथ-साथ कारवाओं की एक-एक दिन की यात्रा की दूरी पर स्थित थीं। आज मौजूद आदिवासियों के बीच जाकर कौशांबी ने उनके जीवन, उनके मिथकों और रीति-रिवाजों का अध्ययन किया। प्राग्-ऐतिहासिक काल के जीवन को समझ कर उस पर प्रकाश डालने का यह उनका तरीका था।
कौशांबी ने कभी दावा नहीं किया कि वह अंतिम सत्य का प्रतिपादन कर रहे हैं। इतिहास को नई सामग्री और नई समझ के आधार पर बार-बार लिखा जाता है। फिर भी भूलना नहीं चाहिए कि जब आइंसटाइन ने ‘थ्योरी आॅफ रिलेटेविटी’µसापेक्षता के सिद्धांत की व्याख्या की तो न्यूटन का ‘लाॅ आॅफ ग्रेवीटेशन’µ गुरुत्वाकर्षण का नियम रद्द नहीं हो गया। वह अपर्याप्त था और उसका आगे विकास हुआ। यह बात कौशांबी के ‘आविष्कारों’ के संबंध में भी सही है।
आज ऐसे इतिहासकारों की पूरी की पूरी पांत मौजूद है जो कौशांबी से प्रेरणा लेकर उनके दिखाए रास्ते पर आगे बढ़े हैं और मूल्यवान अनुसंधान-कार्य कर रहे हैं। इतिहासकार के.एन. पाणिक्कर इसकी चर्चा करने के साथ यह भी जोड़ देते हैं कि माक्र्सवादी इतिहास-लेखन में संस्कृति के अध्ययन की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया जिसके फलस्वरूप सांप्रदायिक तत्वों के लिए संस्कृति की ठेकेदारी का दावा करना आसान हो गया। पूछा जा सकता है कि इस दिशा में स्वयं उन्होंने (अनन्य बंगला साहित्यकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय को ‘संप्रदायवादी’! घोषित करने के अलावा) कुछ क्यों नहीं किया। प्राचीन काल के संबंध में अभी बहुत कुछ जानना, समझना और खोज करना आवश्यक है। सिंधु घाटी की सभ्यता की लिपि अभी तक पढ़ी नहीं गई है। भारत और ईरान के बीच के इलाकों में सिलसिलेवार खुदाई कार्य भी अभी तक नहीं हुआ है। वहां हमारी प्राचीन सभ्यता को आलोकित करने वाली उपयोगी वस्तुएं मिल सकती हैं। याद किया जा सकता है कि आज से कोई 8 हजार वर्ष पहले गेहूं और जौ की खेती किए जाने की जानकारी बलूचिस्तान के मेहरगढ़ से मिली थी। उसी सूबे के कंलात इलाके के कुछ गांवों में लोग ब्राहुई भाषा बोलते हैं जिसका द्राविड़ भाषा परिवार से संबंध बताया जाता है। अफगानिस्तान के दक्षिण में जर्मन पुरातत्व वेत्ताओं की सहायता से जो खुदाई कार्य हो रहा था, उसे राजनीतिक उथल-पुथल ने चैपट कर दिया। इसके अलावा हमारे देश के प्राचीन- साहित्य का समुचित विश्लेषण और उसकी व्याख्या भी अभी तक नहीं की गई है। ‘‘परिवार, व्यक्तिगत संपत्ति और राज्य’’ की उत्पत्ति के बारे में अपनी प्रसिद्ध रचना की भूमिका में एंगेल्स ने बताया कि एसकीलुस के नाटक ओरेस्टिया की बायोफेन द्वारा व्याख्या से प्राचीन यूनान में मातृसत्ता की अवनति और पितृसत्ता के उठान की विशेष जानकारी प्राप्त हुई थी। द वंडर दैट वाज इंडिया शीर्षक प्रसिद्ध इतिहास-पुस्तक के रचयिता ए.एल. बाशेम ने ‘महाभारत’ की चर्चा करते हुए कहा था कि इतिहास की दृष्टि से देखने पर उसमें मिथक ही मिथक नजर आते हैं लेकिन अगर उसे मिथक की दृष्टि से देखा जाए तो उनके पीछे इतिहास झांकने लगता है। संक्षेप में कार्य बहुत हैं।
डी.डी. कौशांबी केे जीवन-काल में और उनकी मृत्यु के बाद बीते दशकों में उनके आलोचकों की कोई कमी नहीं रही। परंतु इतिहास को एक अजायबघर के रूप में देखने वाले उत्तर-आधुनिकतावादियों को एक किनारे करके कुछ प्रगतिपंथी इतिहासकारों की टीका-टिप्पणियों पर ध्यान देना बेहतर होगा। कौशांबी के कुछ विचारों में अपनी असहमति वे कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप में व्यक्त करते हैं, उल्लेखनीय है कि मौटे तौर पर सवाल वे ही उठाए जाते हैं जिनको लेकर कौशांबी ने डांगे की ‘रूपरेखा’ की धज्जियां उड़ा दी थीं। विवादास्पद बातों को सुलझाने का रास्ता विवाद ही हो सकता है। यह इशारा भी किया जाता है कि कौशांबी पर भारत के संबंध में योरोपीय माॅडेल स्वीकार न करने की सनक सी सवार थी। जो इतिहासकार दायरे से बाहर निकलने का साहस नहीं जुटा पाते, उन्हें मूर्तिभंजक विद्वान पर उंगली उठाने से पहले अच्छी तरह सोच-विचार कर लेना चाहिए। और जो इतिहासकार अपने लेखन में आगे-पीछे और दाएं-बाएं पेशबंदी करते हुए चलते हैं ताकि इसकी अथवा उसकी पकड़ में न आ जाएं, उन्हें समझना चाहिए कि कौशांबी ‘तटस्थ’ नहीं बल्कि एक पक्षधर विचारक थे; वह प्रतिबद्ध व्यक्ति थे। कम्युनिस्टों से कुछ बातों पर मतभेद रखते हुए भी वह खरे वामपंथी थे। इसका एक सबूत तो यही है कि जब चीन में माओ-त्से-तुंग द्वारा सांस्कृतिक क्रांति का बिगुल बजाने पर संसार की अधिकांश कम्युनिस्ट पार्टियों ने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की देखा-देखी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ जिहाद छेड़ दिया था तो कौशांबी ने गांवों में जन कम्यूनों की स्थापना और सांस्कृतिक क्रांति के कुछ पहलुओं की मुक्तकंठ से सराहना की थी। वह अत्यंत मेधावी, अत्यंत कर्मठ और अत्यंत निर्भीक व्यक्ति थे। अपनी बात को डंके की चोट पर घोषणा करने में उन्हें कभी कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। माक्र्स ने अपनी क्लासिकी रचना पूंजी के पहले भाग की भूमिका समाप्त करते हुए दांते के शब्द उद्धृत किए थे जिनका अर्थ है: ‘‘अपने पथ पर बढ़ते जाओ; चिंता मत करो कि भद्रजन क्या कहते हैं।’’ कौशांबी भी यही मानते थे।
कहा जाता है, परंपरा का आदर करना चाहिए। परंतु परंपरा का अनादर करना भी सीखना चाहिए। जो व्यक्ति पुरातन का अनादर नहीं कर सकता, वह उसे ठुकरा भी नहीं सकता। और जो व्यक्ति पुरातन को ठुकरा नहीं सकता, वह नए को अपना भी नहीं सकता।

राधेश्याम दूबे

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