Thursday, March 17, 2011

भारत के बारे में मार्क्स: एक संशोधनवादी एजेंडा

मार्क्स ने अरब, तुर्क, तरतार, मुगलों आदि द्वारा भारत की फतह के लिए खुद भारत पर ही दोष मढ़ है। उनकी इस दलील को ऐसे भी पढ़ा जा सकता हैः यदि बर्बर सभ्यताएं दूसरे देशों पर फतह कर सकती हैं, तो उच्चतर सभ्यताओं के पास ऐसी बर्बर कार्रवाइयां करने का स्वाभाविक अधिकार निर्विवाद रूप से होना चाहिए। यह काफी पारदर्शी साम्राज्यवादी तर्क है। समाजवादी/कम्युनिस्ट दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी सभ्य देश को दूसरे देश पर जबरन कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं होता।
भारत के बारे में हीगेल के विचारों को ही दुहराते हुए कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘भारतीय समाज का कोई अपना इतिहास नहीं है, कम से कम कोई ज्ञात इतिहास तो नहीं। जिसे हम भारत का इतिहास कहते हैं, वह दरअसल यहां एक के बाद एक आए उन आक्रांताओं का इतिहास है जिन्होंने एक प्रतिरोधहीन और परिवर्तनहीन समाज के आधार पर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया।’’ इस तरह उन्होंने अरब, तुर्क, तरतार, मुगलों आदि द्वारा भारत की फतह के लिए खुद भारत पर ही दोष मढ़ डाला। मार्क्स ने इन्हें बर्बर विदेशी आक्रांताओं की संज्ञा दी थी। इसी तर्क के सहारे मार्क्स ने अंग्रेजों द्वारा भारत की फतह को भी पुष्ट किया, जिसे वह उच्चतर सभ्यता कहते थे। इस बारे में उनकी टिप्पणी है, ‘‘इसलिए सवाल यह नहीं कि अंग्रेजों को भारत पर फतह करने का अधिकार था, बल्कि यह है कि हम किसके द्वारा भारत की फतह को प्राथमिकता देंगे, तुर्कों के द्वारा, फारसियों के द्वारा, रूसियों अथवा अंग्रेजों द्वारा।’’1 इस तरह उनकी इस दलील को ऐसे भी पढ़ा जा सकता हैः यदि बर्बर सभ्यताएं दूसरे देशों पर फतह कर सकती हैं, तो उच्चतर सभ्यताओं के पास ऐसी बर्बर कार्रवाइयां करने का स्वाभाविक अधिकार निर्विवाद रूप से होना चाहिए। यह काफी पारदर्शी साम्राज्यवादी तर्क है। समाजवादी/कम्युनिस्ट दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी सभ्य देश को दूसरे देश पर जबरन कब्जा करने का कोई अधिकार नहीं होता। बर्बर देशों के पास भी ऐसा कोई अधिकार नहीं होता, लेकिन वे ऐसा करते हैं और सिर्फ इसलिए क्योंकि वे अपनी बर्बरता से बाज़ नहीं आ सकते। इस तरह समाजवादी नजरिये से देखें तो योरोपीय बुनियादी तौर पर बर्बर थे। मार्क्स ने एक बार एक बात कही थी जिसे भुला पाना मुश्किल है, ‘‘एक राष्ट्र एक ही वक्त में स्वतंत्र हो और दूसरे राष्ट्रों का दमन भी करता रहे, यह संभव नहीं।’’2 तो क्या हम अंग्रेजों को एक स्वतंत्र राष्ट्र कह सकते हैं? चाहे जो भी हो, मार्क्स ने आगे लिखा, ‘‘इंगलैंड को भारत में दोहरा उद्देश्य पूरा करना हैः एक विनाशक है और दूसरा पुनर्निर्माणकारी है- यानी एशियाई समाज का अंत और एशिया में पश्चिमी समाज की भौतिकता की बुनियाद निर्मित करना।’’3 इस विनाशक उद्देश्य को उन्होंने कई मौकों पर विस्तार से वर्णित किया है। कुछेक निम्न हैंः
1. भारत की लूट के बारे में मार्क्स के शब्दों को देखेंः
‘‘इस बात में कोई शक नहीं कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान पर जो जुल्म ढाए हैं, वे बुनियादी तौर पर भिन्न हैं और हिंदुस्तान द्वारा अतीत में झेली गई जुल्मतों से असीमित रूप में कहीं ज्यादा तीखे हैं। मेरा आशय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा एशियाई तानाशाही पर थोपी गई योरोपीय तानाशाही से नहीं है, जो किसी भी दैवीय दैत्य के मुकाबले कहीं ज्यादा विनाशक और दैत्याकारी मिश्रण साबित होता…यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है, बल्कि सिर्फ डच लोगों का एक अनुकरण है। और इस हद तक है कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के काम करने के तरीकों के बारे में वही बात शब्दशः दुहराई जा सकती है जो जावा के अंग्रेजी गवर्नर सर स्टैमफर्ड रैफल्स ने पुरानी डच ईस्ट इंडिया कंपनी के बारे में कही थी।’’
‘‘डच कंपनी-जो मुनाफे की भावना से ही साकार हुई थी और जिसका व्यवहार अपने कारिंदों से वेस्ट इंडियन प्लांटर द्वारा कभी अपनी जागीर में काम करने वाले कारिंदों/गुलामों से किए जानेवाले बरताव से भी ज्यादा उपेक्षापूर्ण था। लेकिन प्लांटर द्वारा मानव परिसंपत्ति को खरीदने के लिए एक कीमत चुकाई जाती थी, जब कि कंपनी को यह भी नहीं करना पड़ता था – कंपनी ने तानाशाही के सभी मौजूद उपकरणों का इस्तेमाल इसलिए किया था ताकि वह लोगों के श्रम को पूरी तरह निचोड़ सके, उनकी मेहनत के पसीने की आखिरी बूंद को भी चूस सके; ऐसा कर के उसने एक अर्ध-बर्बर सरकार की बुराइयों को और ज्यादा बढ़ावा ही दिया, जिसमें नेताओं की चालाकियों तथा व्यापारियों के एकाधिकारी स्वार्थी गुण भी शामिल थे।’’4
2. भारतीय समाज के समूचे ढांचे का टूट कर बिखर जाना।5
3. भारतीय हथकरघा उद्योग और चरखे का विखंडन।6
4. बेशकीमती खजानों को लगातार भारत से इंगलैंड ले जाना।7
5. कर रोपण की एक बेहद खराब प्रणाली, तबाह करने वाले नियमित युद्ध जिनसे भारतीय बजट में वित्तीय घाटा स्थायी हो गया, सार्वजनिक निर्माण कार्यों को बंद कर देना तथा न्याय और कानून की भी उतनी ही निकृष्ट स्थिति का होना।8
6. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि अंग्रेजों ने पैसा कमाने के लिए ही भारत पर फतह की थी।9
7. भारत में वसूली से जुड़ी दमनकारी कार्रवाइयों ने ब्रिटिश बुर्जुआजी की अंतर्निहित बर्बरता और जबरदस्त पाखंड को उजागर कर दिया।10
8. मार्क्स ने तमाम ऐसे तरीके और साजिशों का खुलासा किया है जिसे अंग्रेजों ने भारत की संपदा को लूटने के लिए अपनाया, खासकर उनकी जघन्य कर प्रणाली को।’’11
9. मार्क्स ने भारतीय उद्योगों के विनाश और रह-रह कर पैदा किए जाने वाले अकालों जैसे मुद्दों को भी छुआ है, जिस पर खासकर अंग्रेजों ने धीरे-धीरे महारत ही हासिल कर ली थी।12
इन तमाम उत्पीड़नों के बावजूद मार्क्स ने इस विनाश का स्वागत किया क्योंकि वह मानते थे कि ऐसे विनाश को झेले बगैर भारतीय उस वक्त की भयावह रूप से बदहाल जीवन स्थितियों से बाहर नहीं आ सकते। मार्क्स ने इन भारतीय जीवन स्थितियों को ओरिएंटल डेस्पोटिज्म की संज्ञा दी थी, जहां निस्सहाय और प्रतिरोधविहीन आबादी का लंबे समय से क्रूरतम दमन और संहार सामान्य बात थी। लोग आम तौर पर बेहद मामूली तरीके से गुजारा कर रहे थे, अर्थव्यवस्था ठहर चुकी थी और एक तरह का रुका हुआ प्राणहीन अपमानजनक जीवन जातिवाद, दासता, अंधविश्वास, पशु पूजा और नर बलि जैसे कर्मकांडों के साथ जिया जा रहा था।13 मार्क्स ने भविष्यवाणी की थी कि भारतीय जनता के ऊपर विनाश की अंग्रेजों की यह विशिष्ट आपराधिक परियोजना ‘एक अवचेतन ऐतिहासिक उपकरण का काम करेगी जो’ एशिया में बुनियादी सामाजिक क्रांति ला देगी, जिसके बगैर मनुष्यता अपनी नियति को प्राप्त नहीं कर सकती। जैसा कि मार्क्स ने पहले कहा था, ऐसी क्रांति लाने का जरिया इंगलैंड के दूसरे उद्देश्य की पूर्ति होगा, जो पुनर्निर्माण का उद्देश्य है। आखिर अंग्रेजों ने इस दूसरे काम को कैसे पूरा किया? भारत में शोषण और विध्वंस की करीब एक सदी गुजर जाने के बाद मार्क्स ने एक बार फिर भारत का मूल्यांकन करते हुए पाया कि पुनर्निर्माण का कोई लक्षण सामने नहीं आया है। हालांकि ठीक एक माह बाद उन्होंने अपनी राय बदल डाली और कहा कि पुनर्निर्माण का काम शुरू हो चुका है।14 इसकी पुष्टि के लिए मार्क्स ने उन कामों को गिनाया जो अंग्रेजों ने किए थेः
1. भारत का राजनीतिक एकीकरण।
2. अंग्रेजों द्वारा संगठित की गई राष्ट्रीय सेना।
3. स्वतंत्र प्रेस।
4. भूमि के निजी स्वामित्व के दो विशिष्ट स्वरूप जमींदारी और रैयतवारी प्रणाली।
5. एक स्थानीय योरोपीय जीवनशैली वाले समूह का निर्माण।
6. रेलवे और भाप से चलने वाले परिवहन की शुरूआत।
मार्क्स को उम्मीद थी कि ये सभी मिल कर पुनर्निर्माण का कार्य पूरा करेंगे और ‘‘कभी एक उत्कृष्ट राष्ट्र रहा भारत वास्तव में पश्चिमी दुनिया के साथ जुड़ जाएगा।’’15
1.1 आखिर मार्क्स निर्दोष भारतीयों पर इतना उत्पीड़न और विनाश क्यों चाहते थे, जिन्होंने कभी अंगे्रजों का कोई बुरा नहीं किया? ऐसा इसलिए था क्योंकि मार्क्स का अपना एक भ्रामक सिद्धांत था जिससे वह संचालित हो रहे थे जिसने उन्हें यह मानने पर मजबूर किया कि अंग्रेजों द्वारा पूर्ण विनाश के बगैर बदकिस्मत भारतीय कभी भी खुद समृद्धि की राह पर आगे नहीं बढ़ पाएंगे, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था विशिष्ट एशियाई उत्पादन प्रणाली से ग्रस्त थी जिसने इसे अरुद्ध और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था बना दिया था, और जब तक इस अर्थव्यवस्था को नष्ट कर उत्पादन की बुर्जुआ प्रणाली नहीं ला दी जाती, भारत हमेशा के लिए बदकिस्मती का शिकार रहेगा। इसके बावजूद उन्होंने कहा, ‘‘ब्रिटिश बुर्जुआजी द्वारा नए सामाजिक तत्वों के जो बीज बोए गए हैं, भारतीय उनकी फसल खुद तब तक नहीं काट पाएंगे जब तक कि खुद ग्रेट ब्रिटेन में मौजूदा सत्ताधारी वर्ग को औद्योगिक सर्वहारा वर्ग उखाड़ कर नहीं फेंक देता या फिर जब तक कि हिंदू इतने मजबूत न हो जाएं कि वे अंग्रेजों को निकाल बाहर करें।’’ आखिर अंग्रेजों की लूट के बारे में क्या चीज इतनी विशिष्ट है? आखिर मार्क्स इस बात पर इतना जोर क्यों देते हैं कि किसी और देश द्वारा लूट यह चमत्कार नहीं कर सकती? इस सवाल पर मार्क्स ने अन्यत्र कहीं लिखा था कि बर्बर देशों को लूटने के बाद योरोपीय बुर्जुआजी ने उन्हें ‘‘उत्पादन की बुर्जुआ प्रणाली अपनाने को बाध्य किया; वह इन देशों को उनके बीच वह चीज लाने को बाध्य करती है जिसे वे सभ्यता कहते हैं यानी खुद बुर्जुआ हो जाना…इस तरह उसने बर्बर और अर्ध-बर्बर देशों को सभ्य देशों पर निर्भर कर दिया है, किसानों के देश को बुर्जुआ के देश पर निर्भर कर दिया है, पूर्व को पश्चिम पर निर्भर कर दिया है।’’17 सही मायनों में देखें तो सच्चाई के सभी पहलुओं को नकारते हुए मार्क्स की यह धारणा सहज रूप से एक फंतासीनुमा लगती है। ऐसा कहीं भी नहीं हुआ कि योरोपीय बुर्जुआजी ने मार्क्स से पहले, उनके दौरान या बाद में अपने किसी भी उपनिवेश में उत्पादन की बुर्जुआ प्रणाली लागू करने की आत्मघाती परियोजना को अंजाम दिया हो। और वैसे भी योरोप द्वारा राष्ट्रों को उपनिवेश बनाने के दौर में खुद योरोप में बुर्जुआजी मौजूद नहीं थी और उपनिवेशों से बेशी मूल्य की लूट पर वह मोटे तौर पर निर्भर था। इन्हीं तथाकथित बर्बर देशों पर अपनी निर्भरता के चलते योरोप बच सका, आगे बढ़ सका और विकास कर सका। यदि मार्क्स अपनी नस्ली श्रेष्ठता और प्राच्यवाद की दृष्टि को छोड़ पाते, तो शायद वह यह देख पाते कि वास्तव में पश्चिम ही पूर्व पर निर्भर हो चुका था। पश्चिम ने अपने स्वार्थी भौतिक हितों के चलते पूर्व के देशों को बुर्जुआ उत्पादन प्रणाली अपनाने से रोकने के लिए हिंसक तरीकों का सहारा तक लिया, क्योंकि यदि उन्होंने अपने लिए प्रतिद्वंद्वी पैदा करने की मूर्खता की होती, तो यह उनके लिए आत्मघाती साबित होता। मार्क्स ने एक और बड़ी भूल की जब उन्होंने लुटेरे ब्रिटेन को भारतीय क्रांति लाने में ‘‘एक अवचेतन ऐतिहासिक उपकरण’’ की संज्ञा दे डाली। ऐसा कह कर वह पूरी तरह सच्चाई और तर्क से दूर चले गए। इसके बजाय इंगलैंड ने सचेतन रूप से भारत में प्रतिक्रांति के एजेंट की भूमिका निभाई, ठीक वैसे ही जैसे अन्य योरोपीय देशों ने अपने-अपने उपनिवेशों में, जिसकी शुरुआत कोलंबस ने 1492 में की थी। अपने जीते जी मार्क्स ने भले ही ऐसी किसी क्रांति का साक्षात्कार नहीं किया हो, लेकिन प्रतिक्रांति के ऐसे कई उदाहरण थे जिनका वह संज्ञान ले सकते थे। सभी अश्वेत और गैर-ईसाई उपनिवेशों को श्वेत व ईसाई योरोपवासियों द्वारा इस कदर कुचला गया था कि उनकी प्रगति के सभी रास्ते बंद हो गए थे- एशिया, अफ्रीका, अमेरिका और अन्य कहीं। तथाकथित योरोपीय बुर्जुआजी ने वहां जो कुछ भी किया, उसे अविकास का विकास कह सकते हैं। इसलिए साम्राज्यवादी विनाश के अंतिम लाभ के इस भ्रामक, नस्ली और हानिकारक सिद्धांत को हमेशा के लिए खारिज कर दफना दिया जाना चाहिए।
1.2 पूर्व के समाजों में मौजूद क्रूरता, संहार, नस्लवाद, दासता और दास व्यापार व अंधविश्वास के बारे में अपने पूर्वाग्रहग्रस्त विचारों को अभिव्यक्ति देने से पहले मार्क्स ने यदि पूर्व के समाजों और तथाकथित सभ्य योरोपवासियों के बीच मौजूद ईसाई रूढ़ियों की इन संदर्भों में तुलना की होती तो बेहतर होता, जिसके बारे में वह खुद काफी जानकारी रखते थे। यदि वह ऐसा करते, तो योरोपीय समाजों को सभ्य कहने से पहले दो बार सोचते। हो सकता है कि यह हमारी सदिच्छा हो, लेकिन मार्क्स खुद योरोपीय नस्ली पूर्वाग्रहों में इतना डूबे हुए थे कि अक्सर वह अंतर्विरोधी हो जाते थे। जैसे एक मौके पर उन्होंने कहा कि भारत प्राचीन काल से ही एक कमजोर अर्थव्यवस्था वाला गरीब देश है, लेकिन बाद में उन्होंने बताया कि भारत तो एक उत्कृष्ट राष्ट्र था। हालांकि उन्होंने इस बात को नहीं बताया कि ये गरीब देश कैसे उत्कृष्ट बन गया। इंगलैंड को उन्होंने लुटेरा, चोर, डकैत और बर्बर कहा, लेकिन अगले ही पल वह कहते हैं कि पश्चिम के अनुकरण से भारत प्रगति के रास्ते पर जा सकता है। इसलिए इस मसले पर मार्क्स ने जो कुछ कहा है, उसे खारिज कर देना ही समझदारी होगी।
1.3 ब्रिटेन को मार्क्स द्वारा ‘‘उच्चतर सभ्यता’’ की संज्ञा दिए जाने के संदर्भ में यह बताना उचित होगा कि मार्क्स ने अपने समूचे लेखन में कभी भी किसी सभ्यता के उत्कृष्ट या निकृष्ट होने अथवा सभ्य और बर्बर होने संबंधी मूल्यांकन या गणना की कसौटी को सामने नहीं रखा। कई मौकों पर मार्क्स ने खुद श्वेतों, ईसाई यूरो-अमेरिकी राष्ट्रों द्वारा किए गए बर्बर उत्पीड़न की बात कही है, लेकिन उन्होंने काफी उदारतापूर्वक ऐसा करने का प्रमाण पत्र उन्हें दे डाला बगैर यह बताए हुए कि आखिर यूरो-अमेरिकियों के पास बर्बरता का जन्मसिद्ध अधिकार क्यों होना चाहिए? मार्क्स के आख्यान विरोधाभासों और अंतर्विरोधों से भरे पड़े हैं। ब्रिटिशों के बारे में मार्क्स ने लिखा, ‘‘हमारी आंखों के समक्ष बुर्जुआ सभ्यता का जबरदस्त पाखंड और अंतर्निहित बर्बरता अब उजागर हो चुकी है, जो अपने घर में तो सम्मानित है लेकिन उपनिवेशों में पूर्णतः नग्न…क्या उन्होंने भारत में- उस महान लुटेरे लाॅर्ड क्लाइव के शब्दों में कहें तो- उत्पीड़नकारी लगान वसूली को अंजाम नहीं दिया जब उनकी लूट की राह में मामूली भ्रष्टाचार भी नहीं टिक सका?कृउड़ीसा और बंगाल के मंदिरों में उमड़ने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ से पैसा बनाने के लिए क्या उन्होंने मंदिरों के भीतर होने वाली वेश्यावृत्ति और हत्याओं को धंधे में नहीं तब्दील कर डाला…?’’18 मानवता के सभ्य नमूने यानी अंगे्रजों के इन लक्षणों के ठीक उलट मार्क्स द्वारा गरीब भारतीयों की तुलना को अब हम सामने रख सकते हैं। उसी आलेख में मार्क्स ने भारतीयों को ‘भले लोग’ कहा है, ‘‘जिनका आत्मसमर्पण भी उनकी शांत सज्जनता से प्रतिसंतुलित होता है, जिन्होंने अपनी प्राकृतिक रूप से कमजोर शारीरिक बनावट के बावजूद ब्रिटिश अधिकारियों को अपने साहस से चैंकाया है, जिनका देश हमारी भाषाओं और धर्मों का स्रोत रहा है और जहां के जाटों में हम प्राचीन जर्मन व ब्राह्मणों में प्राचीन ग्रीक नस्ल के दर्शन कर सकते हैं।’’ इसके बावजूद मार्क्स भारतीयों को अर्ध-बर्बर मानते थे।20 उपर्युक्त के मद्देनजर हम मार्क्स के इन फतवों को पूरी तरह नजरअंदाज कर सकते हैं।
1.4 भारत के पुनर्निर्माण के संबंध में जिन उपकरणों और कारकों के बारे में मार्क्स ने कयास लगाए थे, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि यहां भी उनकी सदिच्छा काम कर रही थी। विदेशी संगीनों के साये में हासिल किया गया राजनीतिक एकीकरण शायद ही फतह किए जा चुके भारतीयों के किसी राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करता हो। मार्क्स ने खुद देखा था कि 1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान यह कारगर नहीं रहा। मार्क्स के दौर में तो योरोप में भी प्रेस स्वतंत्र नहीं था। अंग्रेज पूर्व भारत में जमींदारी और रैयतवारी प्रथा का खूब चलन था जहां जमीन के निजी स्वामित्व का संचालन सक्षम तरीके से होता था। नई अंग्रेजी प्रणाली में किसानों के जमीन के अधिकारों को समाप्त कर दिया गया तथा जमींदारों और राज्य को पूर्ण स्वामित्व दे दिया गया। जहां तक रेलवे की बात है, मार्क्स ने खुद कहा था कि भारतीयों के लिए यह अनुपयोगी है। जिस योरोपीयकृत राष्ट्रीय समूह की बात मार्क्स करते हैं, वह अंग्रेजों की अपेक्षाओं के अनुरूप ही उनके दलाल की भूमिका निभाता था, जो कि भारत समेत सभी उपनिवेशों में साम्राज्यवादी शोषण का एक महत्वपूर्ण औजार था।21
2. मार्क्स ने हालांकि एक इतिहासविहीन अर्ध-बर्बर राष्ट्र के रूप में भारत का अपना एक इतिहास सामने रखा। यहां के सामाजिक-राजनीतिक ढांचे के बारे में उन्होंने कहा कि भारतीय समाज भौगोलिक रूप से भिन्न लेकिन तकरीबन एकरूप आत्मनिर्भर ग्राम समुदायों से मिल कर बना है। ‘‘ऐसे छोटे और बेहद प्राचीन भारतीय समुदाय जमीन के सामूहिक स्वामित्व, कृषि और हस्तकला उद्योगों के सम्मिश्रण, श्रम के अपरिवर्तित विभाजन आदि पर आधारित हैं, और जब भी कोई नया समुदाय बनता है, यह बनी-बनाई योजना और दिशा के रूप में काम करता है…प्रत्येक समुदाय एक समुच्चय होता है जो अपनी जरूरत का उत्पादन कर लेता है…जमीन की जुताई सामूहिक होती है और उपज को सदस्यों के बीच बांटा जाता है। इसी के समानांतर कताई-बुनाई का काम हर परिवार में सहायक उद्योग के रूप में चलता रहता है।’’ अन्य विनिर्माताओं और सेवा प्रदाताओं में शामिल होते हैं प्रमुख निवासी यानी सरपंच, पुलिस और लगान अधिकारी; मुंशी जो उपज का हिसाब रखता है; सरकारी वकील जो सुरक्षा पर भी निगरानी रखता है; सीमा पर तैनात बल; सिंचाई अधिकारी; पुरोहित; स्कूल मास्टर; ज्योतिषी; लोहार; बढ़ई; कुम्हार; नाई; धोबी; जवाहरी; कवि। राजनीतिक रूप से यह संगठन एक काॅरपोरेशन या टाउनशिप से मेल खाता था और समान लोकतांत्रिक आचार के माध्यम से एक नगर निकाय की भूमिका निभाता था। लेकिन शीर्ष पर राष्ट्र की सत्ता एक निरपेक्ष तानाशाह के हाथ में होती जो सारी जमीनों का वास्तविक मालिक होता और जो हर ग्रामीण समुदाय से एक इकाई के रूप में जमीन का लगान माल के रूप में लेता था। यदि लगान चुका दिया जाता, तो हर समुदाय को कथित तानाशाह द्वारा उसके आंतरिक राजनीतिक व आर्थिक प्रशासन में स्वतंत्रता और स्वायत्तता की छूट होती क्योंकि हर समुदाय का पुलिस, न्यायपालिका व सेवा प्रदाताओं का अपना तंत्र होता था। उच्च राजनीतिक दायरे में चलने वाले संघर्षों की वजह से कभी-कभार सत्ता परिवर्तन भी हो जाता था, लेकिन मार्क्स दावा करते हैं कि इसके कारण कभी भी ग्रामीण समुदाय की स्वायत्तता पर असर नहीं पड़ता था। ‘‘निवासी कभी भी साम्राज्य के विभाजन या टूटने की चिंता नहीं करते थे; गांव अपनी जगह अखंड बना रहता था और उन्हें इसकी चिंता नहीं रहती कि सत्ता किसके हाथ में जा रही है; या फिर कितनी संप्रभुता उसमें होगी; क्योंकि गांवों की आंतरिक अर्थव्यवस्था अपरिवर्तित रहती थी।’’ फ्रांसिस बर्नियर के यात्रा वृत्तांत के आधार पर मार्क्स कहते हैं कि सही मायने में भारत में कोई शहर नहीं था; जिसे शहर कहा जाता, वह शासक के ‘सैन्य शिविरों के अलावा और कुछ नहीं होता’’ जो विजय अभियान में उसके सफर के दौरान बनाए जाते थे। मार्क्स दावा करते हैं कि यह राजनीतिक ढांचा सुदूरतम इलाके में भी बना हुआ था और अंग्रेजों के आने तक कायम रहा।’’22
2.1 यह खोजना काफी आसान है कि मार्क्स ने कई मौकों पर खुद भारत में छोटे-बड़े शहर होने की बात की है।23 एक भारतीय विद्वान एस. नकवी ने कहा है कि इस बात की पर्याप्त आशंका है कि मार्क्स ने बर्नियर का यात्रा वृत्तांत पूरा नहीं पढ़ा होगा और वह अपने तथ्य जुटाने में असावधान रहे होंगे, क्योंकि बर्नियर ने खुद भारत में शहरों के अस्तित्व को स्वीकारा है जिनकी आबादी पांच लाख से ज्यादा बताई गई है। इसके अलावा मार्क्स के दौर मेें तमाम भारतीय और योरोपीय इतिहासकारों के संदर्भ मौजूद थे जो भारत में शहरों के न होने की बात को गलत ठहराते थे। खुद अकबर के साम्राज्य में कम से कम 120 बड़े शहर और 3,200 कस्बे (टाउनशिप) थे।24
2.2 तकरीबन सभी एशियाई और कुछ गैर- एशियाई समाजों में जमीन के सामूहिक स्वामित्व की मार्क्स द्वारा गढ़ी गई कहानी ब्रिटिश संसद की एक चयनित कमेटी की रिपोर्ट से ली गई थी, जिसे पांचवीं कमेटी के नाम से जाना जाता है। मार्क्स ने 1853 में लिखा, ‘‘बर्नियर सही कहते हैं कि पूर्व में – यानी तुर्की, फारस और हिंदुस्तान में- सभी परिघटनाओं का मूल इस तथ्य में निहित है कि यहां जमीन का निजी स्वामित्व अस्तित्व में नहीं है। यह तो वास्तव में स्वर्ग के ताले की कुंजी है।’’25 मार्क्स जब कभी पूर्व पर लिखते, अपनी इस खोज को सनक की हद तक दुहराते थे। लेकिन भारत में बंटाई प्रथा पर हुए संघर्षों और विवाद पर 1858 में लिखते हुए मार्क्स ने कहा, ‘‘यह सही है कि अधिकतर एशियाई देशों की तरह भारत में भी जमीन का आखिरी मालिकाना हक सरकार का है, लेकिन इस विवाद का एक पक्ष इस बात पर जोर देता है कि सरकार को जमीन के स्वामी के रूप में देखा जाना चाहिए जो किसानों को बंटाई पर जमीन देती है जबकि दूसरा पक्ष कहता है कि अपने मूल में भारत में जमीन के स्वामित्व का स्वरूप उतना ही निजी है जितना किसी अन्य देश में – सरकार के कथित स्वामित्व की यह बात सभी देशों में सैद्धांतिक रूप से स्वीकार्य जमीन के मालिकाने की संप्रभुता से निकली है, जिसके कानून सामंती नियमों पर आधारित हैं…हालांकि यह मानते हुए कि भारत में जमीन निजी संपत्ति है, जो उतनी ही मजबूती से निजी हाथों में केंद्रित है जितना कहीं अन्यत्र, आखिर वास्तविक मालिक किसे माना जाए?’’26 चाहे जो भी हो, इस मामले में एस. नकवी बताते हैं कि उसी पांचवीं रिपोर्ट में कई अन्य संदर्भ हैं जो मार्क्स के विवरणों के उलट हैं। नकवी कहते हैं, ‘‘और इसके बावजूद हम पाते हैं कि मार्क्स ने खुद को इसी एक रिपोर्ट तक सीमित रखा, और भारतीय ग्रामीण संरचना के सामान्य लक्षण का एक वैध आधार मान लिया जिसमें कहीं किसी दूसरी रिपोर्ट का उल्लेख तक नहीं किया गया। यहां फिर से एक सवाल उठता है कि क्या मार्क्स ने सीधे पांचवीं रिपोर्ट को पूरा पढ़ा था या फिर उसके किसी पुनरुत्पादित स्वरूप से यह बात निकाली थी?’’ पांचवीं रिपोर्ट, और साथ ही मार्क्स का एक अन्य स्रोत जाॅर्ज कैंपबेल की पुस्तक माॅडर्न इंडिया दोनों ही, ‘‘तमाम अन्य रिपोर्टों व स्मारिकाओं का हवाला देते हैं जिनमें जमीन के निजी संपत्ति होने का उल्लेख है, जमीन को बेचने या उपहार में देने अथवा अन्य तरीकों से हस्तांतरित कर उसे खुद से अलग कर देने के अधिकार की बात है बिक्री या अन्य किसी माध्यम से जमीन का अलगाव अप्रतिबंधित था। उपहार या बिक्री के रूप में हस्तांतरण न हो, तो भी किराये का भुगतान न होने के चलते भी स्वामी से जमीन छिन सकती थी। यदि वह किराया न चुकाए और भाग जाए, तो जमीन किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरित की जा सकती थी; लेकिन यदि वह या उसका उत्तराधिकारी वापस लौट आए, चाहे वह कितने भी दिनों बाद, तो उसे जमीन लौटा दी जाती थी। भूस्वामी द्वारा किए गए अपराध के कारण उत्तराधिकारी का जमीन पर अधिकार समाप्त नहीं हो जाता। रिपोर्ट आगे बताती है कि यदि स्वामी ने जमीन का एक हिस्सा जोत के लिए बंटाई पर किसी को दे दिया हो, तो भी स्वामित्व में कोई फर्क नहीं पड़ता था।’’ नकवी कहते हैं, ‘‘यह अजीब बात है कि मार्क्स इनमें से किसी रिपोर्ट का संदर्भ नहीं देते हैं, जो कम से कम यह दिखती है कि जमीन का सामुदायिक मालिकाना और निजी संपत्ति की गैर-मौजूदगी अनिवार्य तौर पर अंग्रेजों के पहले के भारत में और यहां तक कि दक्षिण में भी भूमि संबंधों का सामान्य स्वरूप नहीं था, और यहां तक कि कुछेक इलाकों में तो जमीन का निजी मालिकाना और अलगाव का अधिकार प्रचलित था और इसे बरता जाता था…मार्क्स ने कभी भी पांचवीं रिपोर्ट की मूल प्रति को नहीं देखा, यह बात इससे भी पुष्ट होती है कि न तो पूंजी में और न ही अपनी किसी अन्य रचना में उन्होंने इस स्रोत का एक बार भी कोई उल्लेख किया हो।’’ इसके बाद नकवी बताते हैं कि कैंपबेल समेत एक अन्य स्रोत लेफ्टिनेंट कर्नल मार्क विल्किस की ‘‘हिस्टाॅरिकल स्केचेज़ आॅफ दी साउथ आॅफ इंडिया’’ (जिसका जिक्र मार्क्स ने पूंजी के पहले अध्याय में पृष्ठ 338 पर किया है) में भी पांचवीं रिपोर्ट के इससे उलटे तथ्य का जिक्र नहीं किया गया है। इसके अलावा, मार्क्स ‘‘ग्रामीण समुदाय’’ से जो समझते थे, कैंपबेल का उससे वह आशय नहीं था। कैंपबेल ने कहा था कि ‘‘ग्रामीण समुदाय’’ सिर्फ उत्तर-पश्चिमी भारत में मौजूद है। कैंपबेल ने दो किस्म के ग्राम समुदायों का जिक्र किया था – एक राजकीय, जिसका संचालन राज्य की अफसरशाही करती थी और दूसरा लोकतांत्रिक, जिसका संचालन आदिवासी संगठन करता था। कैंपबेल ने कहा था कि भूमि के अलगाव का अधिकार बाकी उत्तरी भारत में मौजूद था और बाकी क्षेत्रों में जमींदारी प्रथा पहले से ही थी, कम से कम मुगलों के जमाने से, जहां भूस्वामी और बंटाईदार के बीच फर्क स्पष्ट परिभाषित था। इसके बावजूद मार्क्स ने कैंपबेल द्वारा बताए गए इन तथ्यों को नोट नहीं किया। यह बताता है कि मार्क्स ने कैंपबेल को भी पूरा नहीं पढ़ा होगा।’’27 चूंकि भारत में जमीन के निजी स्वामित्व का मार्क्स का सिद्धांत गलत साबित होता है, लिहाजा इससे निकलने वाले मार्क्स के अन्य सभी निष्कर्ष अस्वीकार्य हैं और इन्हें भुला दिया जाना चाहिए।
2.3 मार्क्स भारतीय समाज के राजनीतिक चरित्र की व्याख्या करने के लिए ‘‘ओरिएंटल डेस्पोटिज़्म’’ (पूर्वी तानाशाही) का अक्सर इस्तेमाल करते हैं, लेकिन कहीं भी इस बारे में नहीं बताते हैं कि आखिर यह था क्या और इसका वास्तविक अर्थ क्या है। उन्होंने यूरोपियन डेस्पोटिज़्म और इंग्लिश डेस्पोटिज़्म जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल किया और पाठकों को इनके अर्थ के मामले में अंधेरे में रखा। इसीलिए इन शब्दों को भी भुला दिया जाना चाहिए। बाद में कई अन्य टिप्पणीकारों ने, जिनमें कई मार्क्सवादी भी थे, बताया कि ओरिएंटल डेस्पोटिज़्म से मार्क्स का आशय एक केंद्रीय तानाशाही सत्ता व एक विशिष्ट अर्थतंत्र से था जिसे उन्होंने ‘उत्पादन की एशियाई प्रणाली (एएमपी) का नाम दिया था, जो भारत में लंबे समय से काम कर रही थी जब तक कि अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा नहीं कर लिया; ओरिएंटल डेस्पोटिज़्म और एएमपी इस अर्थ में एक-दूसरे का पर्याय हैं।28 लेकिन मार्क्स के मुताबिक केंद्रीय सत्ता का राजनीतिक चरित्र तानाशाही नहीं था; हालांकि इसे हम उदार तो नहीं, बल्कि तार्किक मान सकते हैं। एक प्राचीन भारतीय शासक जमीन के लगान से संतुष्ट रहता है और लोगों के आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक क्रियाकलापों में स्वतंत्रता व स्वायत्तता की छूट देता है, इस लिहाज से इस शासक को ‘‘उदार’’ कहने पर कोई सवाल नहीं खड़ा होना चाहिए। तानाशाही इसके उलट हमेशा अराजक होती है, विनाशक और कभी भी कानूनी, लोकतांत्रिक या रचनात्मक नहीं होती; तानाशाही कभी भी शासितों को स्वेच्छा से स्वतंत्रता और स्वायत्तता की छूट नहीं देती। यह मानना काफी मुश्किल है कि प्राचीन काल में ऐसे शासक रहे होंगे और यही वजह है कि मार्क्स की व्याख्या पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
2.4 बाद में भारतीय और रूसी दोनों ही मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस तथ्य की पुष्टि कर दी कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जमीन का निजी स्वामित्व, सरकारी स्वामित्व, मौद्रिक अर्थव्यवस्था, जमींदारी प्रथा और साथ ही मुक्त वर्ग संघर्ष सभी मौजूद थे। जमीन का सामूहिक स्वामित्व उतना लाक्षणिक नहीं था।29
ऊपर जो राजनीतिक संरचना बताई गई है, ऐसा लगता है कि मार्क्स की एएमपी या ओरिएंटल डेस्पोटिज़्म की अवधारणा ही पर्याप्त गैर-मार्क्सवादी थी जब वह दावा करते हैं कि यह उत्पादन की प्राचीन प्रणाली है जो अब भी एशिया, अफ्रीका और योरोप के कई देशों में जारी है। एक बार फिर काफी दावे से जमीन के निजी स्वामित्व की गैर-मौजूदगी की बात दुहराते हुए वह कहते हैं कि स्वायत्त ग्राम समुदायों के पास जो जमीन थी, वे उसका इस्तेमाल श्रम के विभिन्न माध्यमों से करते थे, यानी सामूहिक या निजी श्रम से जहां श्रमिक भी सह-स्वामी थे क्योंकि वे समुदाय के सदस्य थे। उन्हीं उत्पादकों के परिवार औद्योगिक सामग्री का भी निर्माण करते थे, जो कि कृषि और उद्योगों के एकीकरण का प्रतीक है। समूचा उत्पादन स्व-उपभोग के लिए उपयोग मूल्य के उत्पादन में संलग्न था (न कि जिंस के लिए, क्योंकि पड़ोसी समुदायों के बीच भी विनिमय के संबंध कायम नहीं थे)। इससे उपजा बेशी मूल्य राज्य को हस्तांतरित कर दिया जाता था। समुदाय अपनी जरूरत के हिसाब से उत्पादन करता था और यह एक स्वावलंबी अर्थव्यवस्था का द्योतक था। राज्य द्वारा समुदाय को जमीन के पैकेज का आवंटन एक राजनीतिक कार्य था। राज्य की आर्थिक मोर्चे पर भूमिका को साफ करते हुए मार्क्स ने लिखा था, ‘‘लंबे समय से एशिया में प्रशासन के तीन विभाग रहे हैंः एक वित्त विभाग या आंतरिक लूट का विभाग, एक युद्ध यानी बाहरी लूट का विभाग और तीसरा सार्वजनिक कार्य का विभाग। जलवायु और क्षेत्रीय परिस्थितियां, खासकर अरबिया, फारस, भारत और तारतार तक चला आया सहारा रेगिस्तान का विशाल क्षेत्र, एशियाई पठार आदि के चलते कृत्रिम सिंचाई सुविधाएं और जलीय कार्य प्राचीन कृषि का आधार थे…इस तरह सभी एशियाई सरकारों के ऊपर एक आर्थिक कर्तव्य का निर्माण हुआ यानी सार्वजनिक कार्य कराने की जिम्मेदारी…हालांकि भारतीय अतीत का राजनीतिक पक्ष चाहे कितना भी बदलता हुआ क्यों न जान पड़ता हो, यहां की सामाजिक स्थिति काफी लंबे समय से अपरिवर्तित है जो उन्नीसवीं सदी के पहले दशक तक समान बनी रही। एक ओर सभी प्राचीन निवासियों की तरह हिंदुओं द्वारा कृषि और व्यापार क्षेत्र में सार्वजनिक कार्यों की जिम्मेदारी राज्य पर छोड़ दिए जाने और दूसरी ओर कृषि व घरेलू निर्माण पहलों के स्थानीय एकीकरण से पैदा हुए केंद्रों, इन दोनों ने मिलकर विशिष्ट लक्षणों वाला एक सामाजिक तंत्र धीरे-धीरे निर्मित किया- तथाकथित ग्राम प्रणाली, जिसने इन छोटे-छोटे यूनियनों को उनका स्वतंत्र अस्तित्व मुहैया कराया।’’ ये ‘‘छोटे अर्ध-बर्बर अर्ध-सभ्य समुदाय’’, जैसा कि मार्क्स कहते थे, ‘‘हमेशा से ओरिएंटल डेस्पोटिज़्म के ठोस आधार रहे, इन्होंने इंसानी दिमाग को न्यूनतम दायरे में बनाए रखने का काम किया जिससे वह अंधविश्वासों को कायम रखने का एक औजार बन गया, जिसने पारंपरिक नियमों का उसे दास बना डाला, और उससे सभी महत्तर व ऐतिहासिक ऊर्जाओं को छीन लिया…हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी अपमानजनक, गतिरुद्ध और पशुतुल्य जीवन ने, इसी आभासी अस्तित्व ने आंशिक तौर पर विनाश की जंगली, निरुद्देश्य और असीमित ताकतों को उकसायाकृ।’’30 यही वजह थी कि मार्क्स ने पहले कहा था कि एशियाई समाजों के न बदल पाने की कुंजी भूमि के निजी स्वामित्व की गैर-मौजूदगी में यानी उत्पादन के वर्चस्वकारी माध्यम की अनुपस्थिति में निहित है, जो कि संग्रहण व विस्तारित पुनरुत्पादन के लिए जिंसों के उत्पादन और विपणन की राह में एक बड़ा अवरोध पैदा करती है। अब यह साफ है कि ऐसी अर्थव्यवस्था आबादी में वर्गों का निर्माण किए बगैर अपना काम करती है और इस तरह समाज में वर्ग-संघर्ष का सवाल ही नहीं पैदा हो पाता, जो मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत के मुताबिक सामाजिक बदलाव का प्राथमिक संचालक बल है। यही वजह है कि अधिकतर टिप्पणीकारों ने इस एएमपी को एक गैर-मार्क्सवादी सिद्धांत करार दिया है।
3.1 मार्क्स के इस गैर-मार्क्सवादी सिद्धांत के संदर्भ में नकवी ढेर सारे विरोधाभासी ऐतिहासिक साक्ष्यों का हवाला देते हैं। वह दिखाते हैं कि खुद मार्क्स के स्रोत कैंपबेल ने बिल्कुल ही अलग कहानी बताई थीः
क. निजी भूस्वामियों की काश्त अलग-अलग थी; काश्त में अंतर ही सरपंच और अन्य पदाधिकारियों के चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता था।
ख. सभी समुदायों में पैसे की ताकत काम करती थी, जो मौद्रिक अर्थव्यवस्था का संकेत था।
ग. बैंकर और व्यापारी यहां मौजूद थे, जो संग्रहण, वाणिज्य, बैंकिंग आदि का संकेत हैं।
घ. यहां बढ़ई, लोहार, बुनकर, तेली, गन्ना पेरने वाले, पुरोहित आदि मौजूद थे और भारी संख्या ऐसे लोगों की थी जो खेती के अलावा मेहनत वाला हर काम कर लेते थे; इन्हें कभी-कभार खेती में सहयोग लेने के लिए लगाया जाता था – इन सभी को कमीन या निचले वर्ग का माना जाता था और काम के बदले इन्हें अन्न दे दिया जाता था। इस तरह हम देखते हैं कि यहां हमारे पास श्रमिकों और कारीगरों के वर्ग के भी तत्व हैं जो मार्क्स के माॅडल से पूरी तरह गायब हैं; और जैसा कि मार्क्स ने दिखाया है, कारीगरी के काम व खेती के बीच कोई एकता जैसी चीज नहीं है।
अब यह साफ है कि मार्क्स के स्रोत यानी कैंपबेल की पुस्तक में भी एएमपी जैसी कोई चीज नहीं थी जो भारत में मौजूद रही हो। इसके बजाय जमीन का निजी स्वामित्व, आय में अंतर, संग्रहण, वाणिज्य, श्रम का विभाजन, वर्ग विभाजन, मौद्रिक अर्थव्यवस्था और तमाम अन्य चीजें मौजूद थीं। क्या यह अजीब नहीं है कि मार्क्स ने खुद अपने ही स्रोत से इन चीजों को छोड़ दिया?31 इस संदर्भ में जरा उन बातों पर नजर डालें जो मार्क्स ने अन्यत्र कही हैं और जिन्हें पढ़ कर किसी को भी आशंका होने लगेगी कि इन्हें लिखते वक्त मार्क्स एएमपी को पूरी तरह भूल चुके थेः
क. ‘‘काफी लंबे समय से योरोप को भारतीय श्रमिकों के बनाए माल हासिल हो रहे थे, जिसके बदले में वह अपनी बेशकीमती धातु भेजता था; ऐसा मामूली उत्पादन करने वाले, अवाणिज्यिक, असंग्रहणकारी एएमपी में संभव नहीं। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि तत्कालीन योरोप में उसके खुद के कोई जिंस नहीं थे जो कि पूर्व में बदले में स्वीकार्य होते।32 इसीलिए बेशकीमती धातु भेजे जाते थे।
ख. ‘‘लंदन, लिवरपूल और ब्रिस्टल के व्यापारियों ने चार्टर को हटाने के भरसक प्रयास किए ताकि कंपनी का वाणिज्यिक एकाधिकार टूटे और वे (भारत के साथ) व्यापार कर सकें, जिसे वे सोने की खदान मानते थे।’’33 यह बात ऊपर बताई गई बात से ही मेल खाती है, कि भारत मांग के मुताबिक विभिन्न जिंसों की आपूर्ति करने में सक्षम था और भारत के साथ व्यापार बेहद मुनाफाकारी होगा। निश्चित तौर पर ऐसा भारत एएमपी वाला नहीं हो सकता था।
ग. ‘‘समूची अठारहवीं सदी के दौरान भारत से इंगलैंड को भेजी गई संपदा व्यापार के माध्यम से उतनी अर्जित नहीं की गई थी, जितना इस देश के प्रत्यक्ष दोहन से हासिल हुई थी, यहां की चमकदार किस्मत को लूट कर और उसे इंगलैंड भेज कर हासिल हुई थी… क्योंकि भारत सदियों से दुनिया का कपास का महान कारखाना था।’’34 यानी अब भारत दुनिया भर में कपड़ों के लिए कपास की मांग पूरी कर रहा था, और यहां ‘‘विशाल खजाने’’ संग्रहीत थे जिसे समूची 18वीं सदी के दौरान सभ्य अंग्रेज लूटने को मुक्त थे, और यह सब कुछ एएमपी के माध्यम से हो रहा था, जिसमें लोग अपने उपभोग के लिए ही उपयोग मूल्य का उत्पादन करते रहे हैं, और वो भी सदियों से! शायद अब और किसी टिप्पणी की जरूरत नहीं रह गई है। जो भी हो, मार्क्स की ये तमाम विरोधाभासी टिप्पणियां साफ तौर पर जाहिर करती हैं कि मार्क्स पूरी तरह इस बात से अवगत थे कि यहां एएमपी नहीं है और अंग्रेजों के आने से पहले से भारत में काफी समृद्ध बेशी मूल्य उत्पादक एक उत्पादन प्रणाली इस हद तक मौजूद थी कि भारत के भीतर सुदूर इलाकों से आंतरिक व्यापार हो रहा था, साथ ही दुनिया भर को निर्यात किया जा रहा था। इसके बावजूद यदि उत्पादकों को गरीबी में जीवन बसर करना पड़ता था, तो वह निश्चित तौर पर वर्ग शोषण के चलते था, न कि अनिवार्य वस्तुओं की मांग के कारण। आज भी भारत में करोड़ों गरीब लोग हैं और तमाम भुखमरी के शिकार हो जाते हैं। लेकिन इससे भारत गरीब देश या फिर एएमपी वाला देश तो नहीं हो जाता, क्यों?
घ. एक भारतीय बुनकर अपने समकालीन अंग्रेजी कारीगर के मुकाबले ज्यादा कुशल था। ‘‘यह पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित किया गया और पिता से पुत्र को प्राप्त विशिष्ट कौशल है जो हिंदू को, बिल्कुल एक मकड़ी की तरह, यह सक्षमता प्रदान करता है।’’35
च. नकवी कहते हैं, ‘‘यदि मार्क्स और एंगेल्स ने सैकड़ों योरोपीय सैलानियों व व्यापारियों में से कुछेक के ही यात्रा वृत्तांत पढ़ लिए होते, जो कि कई दशकों तक फैले हुए थे और देश के बड़े हिस्से के बारे में थे, तो वे 14वीं से 18वीं सदी के बीच अलग-अलग काल में भारतीय सामाजिक व आर्थिक स्थितियों की मोटे तौर पर पुनर्संरचना करने में सक्षम हो पाते।’’ तब वह जान पाते कि राजा के नीचे सामंतों की एक पूरी कतार होती थी जिनकी अपनी निजी सेनाएं होती थीं; आंतरिक व्यापार की गति काफी तेज थी क्योंकि सड़क और जल मार्गों का एक प्रभावशाली संचार तंत्र मौजूद था जहां आर्थिक रूप से सक्रिय हजारों शहर और कस्बे थे। मसलन, 1600 ईसवी में मुगल साम्राज्य में अकेले 32 शहरी विनिर्माण केंद्र थे; वर्चस्वशाली व्यापारियों, जहाजियों और साहूकारों का एक पूरा तबका था; व्यापारियों और भ्रष्ट सामंतों के बीच संघर्ष काफी आम थे; किसानों के तमाम विद्रोह हुए जिनके नतीजे अलग-अलग समय पर भिन्न रहे; अर्थव्यवस्था का मौद्रीकरण हो चुका था, कृषि और गैर-कृषि उत्पादन बढ़ रहा था तथा पूंजी के संग्रहण में तेजी आ रही थी। नकवी कहते हैं, ‘‘सबसे पहले मुख्य बात यह है कि भारत में अब तक का इतिहास यही रहा है कि खेती मानसून पर निर्भर रही है’’, और भारत का छोटा-सा ही हिस्सा है जो सूखा या रेतीला था और जिसे सिंचाई की जरूरत थी। ‘‘दूसरे, सिंचाई केंद्रित कृषि क्षेत्रों के मामले में भी नदी के सालाना बहाव के अलावा पानी का मुख्य स्रोत कुएं और छोटे टैंक थे, जिन्हें खोदना और उनकी देखभाल करना उत्पादक परिवारों के लिए आसान काम था। बड़े टैंक और छोटी जलधाराओं पर बांध शायद समूचे गांव या अधिकतर उत्पादक परिवारों के सामूहिक श्रम से बनते थे। नकवी निष्कर्ष में कहते हैंः
1. तथ्य यह है कि एशियाई व भारतीय समाज की गतिकी के संदर्भ में विशिष्टतावाद व अपवाद के गैर-मार्क्सवादी सिद्धांत का सूत्रीकरण करने के क्रम में मार्क्स और एंगेल्स सामान्य तौर पर भारतीय इतिहास की वास्तविक धारा और विशिष्ट तौर पर ब्रिटिश कब्जे के वक्त भारतीय परिस्थिति को लेकर ही पूरी तरह गलत दिशा में थे।
2. दरअसल, यहां हमें यह कहने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे के बुनियादी आधार तथा उसके विकास क्रम में आए चरणों व प्रक्रिया पर मार्क्स और एंगेल्स की समझ पूरी तरह गलत थी, जो अवास्तविक व ऐच्छिक प्रस्थापनाओं तथा मान्यताओं के आधार पर खड़ी थी, जिन्हें 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध व 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुए मुट्ठी भर अंग्रेज लेखकों से बगैर आलोचकीय दृष्टि के ले लिया गया था।
3.2 डी.डी. कोसाम्बी भारत के शायद पहले मार्क्सवादी थे जिन्होंने नाम लेकर मार्क्स की कटु आलोचना की और गुरु के प्रति निरपेक्ष वफादारी की परंपरा को तोड़ दिया। कोसाम्बी ऐतिहासिक भौतिकवाद के सच्चे अनुयायी थे जिन्होंने भारतीय इतिहास को समझने में उसका प्रयोग किया। उन्होंने 1956 में कहा था, ‘‘मार्क्स के सिद्धांतों को मानने का यह अर्थ नहीं कि हमेशा उनके सभी निष्कर्षों को (बल्कि और कम, और यह बात पार्टी लाइन मार्क्सवादियों के लिए ज्यादा सही है) आंख मूंद कर दुहराया जाए…मार्क्स ने भारत के बारे में जो कहा, उसे जस का तस स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’37 कोसाम्बी छोटे, अपरिवर्तनीय और आत्मनिर्भर गांवों की मार्क्स की प्रस्थापना से सहमत नहीं, जो सिर्फ अपनी जरूरत का उपजाते हैं, न कि विनिमय के लिए जिंसों का उत्पादन करते हैं। कोसाम्बी इस विश्लेषण को भ्रामक पाते हैं और कहते हैं, ‘‘अधिकतर गांव न तो धातु पैदा करते हैं और न ही नमक, और ये दो चीजें इतनी अनिवार्य हैं कि इन्हें अधिकांश विनिमय से ही प्राप्त किया जा सकता है, और इसका सीधा सा अर्थ जिंसों का उत्पादन है…।’’ गांव ‘‘सदियों से’’ नहीं चले आ रहे। आदिवासी भारत हल का इस्तेमाल करने वाली ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था तक विकसित हो जाना अपने आप में एक महान ऐतिहासिक उपलब्धि है। दूसरे, भले ही गांवों की इकाई का आकार अपरिवर्तित रहे, इन इकाइयों का घनत्व सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है; एक ही क्षेत्र में यदि दो गांव हों, या दो सौ या फिर बीस हजार, तो यहां की अधिरचना का चरित्र समान नहीं होगा, न ही एक ही किस्म की राज्य प्रणाली द्वारा इसका दोहन संभव होगा।…परिमाण में परिवर्तन अंततः गुण में परिवर्तन के रूप में लक्षित होता है। इसी तरह हम मार्क्स की इस टिप्पणी को बगैर चुनौती दिए नहीं चले जाने देंगे, कि ‘‘ भारतीय समाज का कोई अपना इतिहास नहीं है…जिसे हम भारत का इतिहास कहते हैं, वह दरअसल यहां एक के बाद एक आए उन आक्रांताओं का इतिहास है जिन्होंने एक प्रतिरोधहीन और परिवर्तनहीन समाज के आधार पर अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया।’’ वास्तव में, भारतीय इतिहास के महान काल, जैसे मौर्य, सातवाहन, गुप्त काल का आक्रांताओं से कोई लेना-देना नहीं; वे दरअसल मूलभूत ग्रामीण समाज के ही प्रसार और गठन का प्रतीक हैं, या कहें नए व्यापारिक केंद्रों के विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं।’’38 कई अन्य विद्वान भी हैं जिन्होंने मार्क्स का नाम लिए बगैर भारत पर मार्क्स की राय को खारिज किया है। मसला यह है कि एक ऐसा ग्रामीण समाज जो प्राचीनतम समय से लेकर अंग्रेजों के आने तक बना हुआ है, जो न तो बदलता है और न ही उसमें सक्षम है, उसकी अवधारणा क्रूरतम दिवास्वप्न को भी झुठलाता है। किसी भी सोचने-समझने वाले व्यक्ति के लिए इसे पचा पाना मुश्किल है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स आजीवन इसमें विश्वास करते रहे; एंगेल्स तो भारत में ‘‘आदिम साम्यवाद’’ के मौजूद होने की घोषणा तक पहुंच गए।39 इसलिए इस अजीबो-गरीब अवधारणा पर किसी गंभीर बहस की अब गुंजाइश नहीं रह जाती।
3.3 मार्क्सवादी विद्वानों बैरी हिंडेस और पाॅल क्यू. हस्र्ट ने सैद्धांतिक दायरे में एएमपी का विश्लेषण किया है जिसमें उन्होंने किसी भी आनुभविक साक्ष्य को संज्ञान में नहीं लिया है। इसमें उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की है कि ‘‘क्या एएमपी की एक ऐसी अवधारणा विकसित करना संभव है जो ऐतिहासिक भौतिकवाद में उत्पादन के सामान्य साधनों से मेल खाती हो और जो किसी अन्य उत्पादन के साधन से भिन्न हो। उन्होंने कहा, ‘‘अवधारणाएं किसी वास्तविक स्थिति के सामान्यीकरण से पैदा नहीं होतीं, न ही वे बोधगम्य तथ्यों के किसी समुच्चय से निकलती या उन तक सीमित रहती हैं। एक अवधारणा की निर्मिति की सीमा यह नहीं है कि उसके आसपास कोई वास्तविकता अस्तित्व में है या नहीं। एएमपी की अवधारणा तभी विकसित की जा सकती है जब उत्पादन के साधनों के सिद्धांत में उसके लिए जगह हो, यदि वह इस समस्या की अवधारणा के मुताबिक एक संभावित उत्पादन साधन हो। एक अवधारणा के रूप में उसके अस्तित्व की ये शर्तें हैं। ये विशुद्ध ज्ञान के दायरे में सुरक्षित हैं। एशिया या कहीं भी घटी कोई भी घटना इसे बदल नहीं सकती।’’ ऐसे सैद्धांतिक विश्लेषण के आधार पर वे निष्कर्ष निकालते हैं, ‘‘इस अध्याय के पिछले खंडों के आधार पर यह जाहिर है कि हम एएमपी पर मार्क्स की अवस्थिति का समर्थन नहीं करते या उससे सहमत नहीं हैं।’’ इनका निष्कर्ष यह है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के बुनियादी मार्क्सवादी सिद्धांत में उत्पादन के साधनों की सामान्य प्रस्थापना से एएमपी की अवधारणा सैद्धांतिक तौर पर बेमेल है।40
4. मार्क्स की आजीवन तमाम अखंडित आस्थाएं, जैसे योरोपीय नस्ली श्रेष्ठता, पूर्व का चतुर्दिक पिछड़ापन, पूंजीवाद की अंतर्निहित प्रगतिशील भूमिका, दुनिया भर में हर कहीं पूंजीवाद को लाने का योरोपीय बुर्जुआजी का अपरिहार्य कार्यभार, अश्वेत देशों पर हिंसक तरीकों से कब्जा कर उन्हें लूटने का योरोप का प्राकृतिक अधिकार आदि ने एक अजीब हवाई सिद्धांत में उनकी आस्था कायम कर दी कि अपने उपनिवेशों में साम्राज्यवाद की भूमिका आखिरकार लाभकारी होती है जो पहले विनाश और फिर पुनर्निर्माण करती है। आखिरकार उन्होंने प्रतिक्रांति को क्रांति सिद्ध करने के लिए खुद को मना ही लिया। कई प्रासंगिक मौकों पर उन्होंने इस सिद्धांत का प्रचार किया, और इस निराधार सिद्धांत ने दुनिया भर के, खासकर उपनिवेशों के कम्युनिस्टों को हमेशा के लिए भ्रमित कर दिया क्योंकि कम्युनिस्टों ने कभी भी मार्क्सवादी आख्यान को आलोचनात्मक नजरिये से नहीं देखा। अब यह बात जाहिर हो चुकी है कि इस सिद्धांत की ही तरह मार्क्स के कई अन्य सिद्धांतों को भी संशोधित किया जाना होगा और विश्वास किए जा सकने वाले तथ्यों को ऐतिहासिक भौतिकवाद की दृष्टि से देखना होगा ताकि अतीत और वर्तमान की भारतीय राजनीति और आर्थिकी की एक समग्र सैद्धांतिकी विकसित की जा सके, जिससे लंबे समय से लंबित पड़ा कम्युनिस्ट आंदोलन को ताजा करने का काम दोबारा विफलता के गर्त में न जा गिरे।
4.1 मार्क्स ने जिस तरह भारत पर बात की थी, ठीक वैसे ही हलकेपन में उन्होंने चीन में इंगलैंड द्वारा लाई गई क्रांति की बात की।41 ऐसी क्रांति से मार्क्स का आशय चीनियों के विनाश और लूट तथा चीनी धरती पर अंग्रेजों के कब्जे से था। अश्वेत देशों में योरोपीय देशों द्वारा किए गए किसी भी विनाश को मार्क्स ने क्रांति का नाम दे दिया है, चाहे वहां पुनर्निर्माण का कोई भी संकेत मौजूद न हो। ऐसी व्याख्या दरअसल अंततः उदार साम्राज्यवाद के उसी सिद्धांत से निकलती है। कम्युनिस्ट जगत में चूंकि मार्क्स के लिखे की आलोचना को वर्जित माना जाता है, लिहाजा कम्युनिस्ट विचारधारा में क्रांति को लेकर एक असंतुलित नजरिया जम गया है।
उपर्युक्त बातों के मद्देनजर भारत पर मार्क्स की सभी टिप्पणियों और विचारों को खारिज कर देने में ही समझदारी जान पड़ती है।

संदर्भ
1. कार्ल मार्क्स (1853)‍ः द फ्यूचर रिजल्टस् ऑफ द ब्रिटिश रूल इन इंडिया, ऑन कॉलोनियलिज्म एमएलपीएच, मास्को, पृ. 76
2. के. मार्क्स और एफ. एंगल्स (1853)‍ः ऑन पोलैंड, एमईसीडब्लू 6, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को पृ. 389
3. माक्र्सः द फ्यूचर… उपरोक्त पृ. 77
4. मार्क्स (1853)‍ः द ब्रिटिश रूल इन इंडिया, आन कॉलो. पृ. 32
5. वही, पृ. 33
6. वही, पृ. 34
7. मार्क्स (1853)‍ः द ईस्ट इंडिया कंपनी – इट् हिस्ट्री एंड रिजल्ट्स, ऑन कॉलो., पृ. 47
8. मार्क्स (1853)‍ः द गर्वनमेंट आफ इंडिया, ऑन कालो. पृ 57.
9. वही पृ. 58
10. मार्क्स (1853)‍ः द फ्यूचर… पृ. 81
11. मार्क्स (1857)‍ः ब्रिटिश इंनकम्स इन इंडिया, ऑन कॉलो. पृ. 140-144
12. मार्क्स (1886)‍ः कैपिटल 1, प्रो. पब. मास्को 1978 पृ 333 एम.एन 3
13. मार्क्स (1853)‍ः द ब्रिटिश रूल… उपरोक्त, पृ. 36-37
14. वही पृ.33; माक्र्सः द फ्यूचर… वही पृ.77
15. वही पृ. 77-78
16. वही पृ. 80
17. मार्क्स व एंगल्स (1848)‍ः मैनिफेस्टो ऑफ कम्युनिस्ट पार्टी, एमईएसडब्लू 1, प्रो. पब. मास्को पृ. 112
18. मार्क्स (1853)‍ः द फ्यूचर… उपरोक्त पृ.81
19. वही पृ. 80-81
20. मार्क्स (1853)‍ः द ब्रिटिश रूल…, उपरोक्त, पृ. 81
21. माक्र्सःएन. एफ. डेनिलसन को पत्र,19.2.1881,एमइएससी, लारेंस एंड विशार्ट, लंदन, पृ. 385-86
22. माक्र्सः द ब्रिटिश रूल… उपरोक्त पृ. 35-36; माक्र्सः केपिटल 1 वही पृ. 337-39
23. उपरोक्तः पृ. 36; माक्र्सः ग्रुंडरिसे, पेंगुईन, 1973, पृ 467
24. एस. नक्वी (1969)‍ः मार्क्स ऑन इंडियन हिस्ट्री – ए क्रिटिकल लुक, इकानामिक रिसर्च यूनिट, रिसर्च एंड ट्रेनिंग स्कूल, इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट, कोलकाता, पृ. 9
25. मार्क्स लैटर टु एंगल्स, 2.6.1853, एमईएससी, पृ. 65
26. मार्क्स (1858)‍ः लॉर्ड केनिंग्स प्रोक्लेमेशन एंड लैंड टेन्योर इन इंडिया, ऑन कॉलो…पृ. 162-163
27. एस नक्वी, उपरोक्त पृ.15-17
28. बी हिंडेस एंड पी हिस्र्टः प्री कैपिटलिस्ट मोड्स ऑफ प्रोडक्शन, रोटलेज एंड केगान पॉल, लंदन, 1975, 207
29. इरफान हबीबः पोटेंशियलिटिज एंड कैपिटलिस्ट डैवलेपमेंट इन द इकानामी ऑफ मुगल इंडिया, एन इनक्वायरी; वीआइ पावलोवः हिस्टोरिकल प्रिमाइसेज फॉर इंडियाज ट्रांजीशन टु कैपिटलिज्म, नौका पब्लि. हाउस, सेंट्रल डिपार्टमेंट आफ ओरिएंटल लिटरेचर, मास्को, 1979
30. देखें संदर्भ 13
31. एस नक्वी, उपरोक्त
32. देखें संदर्भ 32
33. देखें संदर्भ 7
34. वही
35. माक्र्सः कैपिटल 1 , वही पृ. 322
36. देखें संदर्भ 31
37. डीडी कोसांबी (1956)‍ः एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी आफ इंडियन हिस्ट्री, मीरा कोसांबी द्वारा उद्धृतः डी डी कोसांबीः द स्कॉलर एंड द मैन, इकानामिक एंड पोलिटिकल वीकली, 25.7.2008, पृ. 39
38. वही
39. एंगल्सः रॉट्स्की को पत्र, 16.2.1884, ऑन कालो. पृ. 310
40. देखें संदर्भ 28
41. मार्क्स (1853)‍ः रिवोल्यूशन इन चाइना एंड योरोप, ऑन कालो. पृ 17
अनुः अभिषेक श्रीवास्तव; साभारः फ्रंटियर, वार्षिकांक, सितंबर, 2009

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