Saturday, March 12, 2011

आज भी प्रासंगिक है ''मै भंगी हूं``

Written by संजीव खुदशाह
Thursday, 30 December 2010 15:47
कुछ लेखको द्वारा मुझे सूचना मिली की ऐड. भगवान दासजी नही रहे. मैने उनके पुत्र राहुल दास जी से फोन पर बात की तो पता चला कि 18 दिसंबर को 93 साल की उम्र में वह हमें छोड़ गए. समाजिक सरोकार से जरा सा भी संबंध रखने वाले लोग उनसे भली भांति परिचित होगे. बताया जाता है कि अंत में उनका याददाश्त जाती रही और वे अत्यंत रूग्ण हो गए थे. दो वर्ष पूर्व मेरे द्वारा उनसे संबंधित एक संस्मरण लिखा गया था जो काफी चर्चित रहा. मै उस याद को पुन: ताजा करना चाहूंगा. उनके साहित्य का अध्ययन ही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

सन् 1993-94 के आस-पास जब मैं छठवीं क्लास में था, अक्सर समाज की बैठकों में शामिल हो जाया करता था. ऐसे ही कार्यक्रमों में पहली बार पता चला कि हमारे बीच के एक सुप्रीम कोर्ट के जज (वकील है ये जानकारी बाद में हुई) है, जो समाज के लिए भी काम कर रहे है. मुझे उनके बारे में और जानने की उत्सुकता हुई लेकिन ज्यादा जानकारी नही मिल सकी. इस दौरान मैने डा. अम्बेडकर की आत्मकथा पढ़ी. दलित समाज के बारे में और जानने-पढ़ने की इच्छा जोर मार रही थी.
यह कमी वकालत की पढ़ाई करने वाले रिश्ते के मामाजी पूरी करते थे. वो मुझे किताबे लाकर देते थे और मै उन्हे पढ़कर वापिस कर देता था. उन्हेाने अमृतलाल नागर की 'नाच्यो बहुत गोपाला` उपन्यास लाकर दी. पढ़ाई को लेकर बहुत टेन्शन रहता था. माता-पिता को मुझसे बड़ी अपेक्षाएं थी जैसा कि सभी माता-पिता को अपने बच्चों से रहती है. चूंकि मै मेघावी छात्र था इसलिए कक्षा में अपना स्थान बनाए रखने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ती थी. इस समय मेरे मन में समाज के लिए काम करने की इच्छा जाग चुकी थी. यही वजह थी कि कम उम्र का होने पर भी मै सभी सामाजिक गतिविघियों में भाग लेने लगा. इसी दौरान मामाजी ने मुझे एक किताब लाकर दी, ''मै भंगी हूं``. इसे मैने दो-तीन दिनों में ही पढ़ डाला. मन झकझोर देनेवाली शैली में लिखी इस किताब ने मुझे बहुत अंदर तक प्रभावित किया. चूंकि मेरी आर्थिक हालत अच्छी नही थी, इसलिए इस किताब को मै खरीद नही पाया. पिताजी की छोटी सी नौकरी के साथ घर का खर्च बड़ी कठिनाई से चल पाता था. ‘मैं भंगी हूं’ पढ़ते समय भी मुझे यह जानकारी नही थी कि ये वही सुप्रीम कोर्ट के जज है, जिनके बारे मे मैने सुन रखा था. बाद में मुझे अन्य लोगों से मुलाकात के दौरान पता चला कि वे जज नही बल्कि सुप्रीम कोर्ट के वकील है, जिन्होने मै भंगी हूं किताब की रचना की है. मैने एक चिट्ठी एड. भगवानदास जी के नाम लिखी, जिसमें मै भंगी हूं की प्रशंसा की थी.
अत्यधिक सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने के कारण तथा चिन्तन के कारण मै स्कूल की पढ़ाई की ओर ध्यान नही दे पा रहा था. माता-पिता चिंतित रहने लगे. मां ने नानाजी को यह बात बताई. नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ-साथ समाज-सेवक भी थे. मै उनसे बहुत प्रभावित था. मै नानाजी की हर बात को बड़े ध्यान से सुनता था. वे रिलैक्स होकर बहुत रूक-रूक कर बाते करते थे. उन्होने मुझे एक दिन अपने पास बिठाकर पूछा ''तुम क्या करना चाहते हो..?
''मै अपने समाज को ऊपर उठाना चाहता हूं``, मैंने गर्व से अपना जवाब दिया. यह सोचते हुए कि नानाजी मेरा पीठ थपथपाएंगे, मेरा उत्साहवर्धन करेगें, नाना जी ने कहा ''जब तुम खुद ऊपर उठोगे तथा ऐसी मजबूत स्थिति में पहुंच जाओगे कि तुम्हारे नीचे आने का भय नही होगा, तभी तो तुम दूसरों को ऊपर उठा सकोगे. ये तो बड़े दुख की बात है कि तुम तो खुद नीचे हो और दूसरों को उपर उठाना चाहते हो. ऐसी उल्टी धारा तो मैने कही नही देखी.`` उनकी इस बात का मेरे जहन में बहुत असर हुआ और सामाजिक गतिविधियों पर से ध्यान हटाते हुए मैने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना शुरू कर दिया.
1998 में मुझे शासकीय नौकरी मिली, इसी बीच मै सुदर्शन समाज, वाल्मीकि समाज के कार्यक्रमों में एक दर्शक की भांति जाता था. मुझे सुदर्शन ऋषि का इतिहास जानने की इच्छा होती. मै इस समाज के नेताओं से इस बाबत पूछताछ करता तो सब अपनी बगले झाकनें लगते. मैने इसका इतिहास विकास उत्पत्ति हेतु सामग्री इकट्ठी करनी शुरू की. मैं जैसे-जैसे किताबों का अध्ययन करता गया , मेरी आंखो से धुंध छॅटती गई. अब सुदर्शन ऋषि, वाल्मीकि ऋषि एवं उनके नाम पर समाज का नामकरण मुझे गौण लगने लगा. डा. अम्बेडकर की शूद्र कौन और कैसे ? तथा अछूत कौन है? पढ़ी तो पूरी स्थिति स्पष्ट हो गई. दलित आन्दोलन से ही समाज ऊपर उठ सकता है, मुझे विश्वास हो गया.
मैने अपनी पुस्तक ''सफाई कामगार समुदाय'' पर काम करना प्रारंभ किया. कई किताबों, लाइब्रेरियों की खाक छानी बुद्धिजीवियों के इन्टरव्यू लिये. इसी परिप्रेक्ष्य में मेरा दिल्ली आना हुआ और मेरी मुलाकात एड. भगवानदास जी से हुई. मैने पहले उनसे फोन पर बात की, उन्होने शाम को मिलने का समय दिया. जब शाम को फ्लैट में उनसे मुलाकात हुई तो देखा सफेद बाल वाले, ऊंची कद के बुजुर्ग कक्ष मे किताबों से घिरे बैठे हैं. मैने उन्हे बताया कि मै उनकी किताब से बहुत प्रभावित हूं तथा उन्हे एक चिट्ठी भी लिखी थी. अभी मै इस विषय पर रिसर्च कर रहा हूं. उन्होने कहा चिट्ठी इस नाम से मुझे मिली थी. मैने सफाई मुद्दे पर कई प्रश्न पूछे उन्होने बड़ी ही संजीदगी के साथ मेरे प्रश्नों का उत्तर दिया. उन्हे यकीन नही हो रहा था कि मै ऐसा कोई गंभीर काम करने जा रहा हूं. वे इसे मेरा लड़कपन समझ रहे थे.
उनका व्यवहार, उनके मन की बात मुझे अनायास ही एहसास करा रही थी. वे कह रहे थे लिखने-विखने में मत पड़ो और खूब पढ़ो. उन्होने अंग्रेजी की कई किताबे मुझे सुझाई. मैने उनको नोट किया. ये किताबे मुझे उपलब्ध नही हो पाई. शायद आउट आफ प्रिन्ट थी. उन्होने अपनी लिखी कुछ किताबे मुझे दी और अपने पुत्र से कहने लगे, इनसे किताब के पैसे जमा करा लो. मैने एक किताब ली और शेष किताबे पैसे की कमी होने के कारण नही ले सका. यही मेरी उनसे पहली मुलाकात थी. उनसे मैने उनकी जाति सम्बन्धी प्रश्न पूछा, लेकिन वे टाल गये. शायद वे मुझे सवर्ण समझ रहे होगें. मै लौट आया.
इस समय राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अशोक महेश्वरी जी ने इस किताब को प्रकाशित करने हेतु सहमति दे दी थी. 2005 में यह किताब प्रकाशित होकर बाजार में उपलब्ध हो गई. नेकडोर ने सन 2007 को दलितों का द्वितीय अधिवेशन आयोजित किया. उन्होने मुझे सफाई कामगार सेशन के प्रतिनिधित्व हेतु आमंत्रित किया. दिल्ली में हुए इस कार्यक्रम में एड. भगवानदास जी भी आये थे. मैने उनसे मुलाकात की एवं हालचाल पूछा लेकिन वे मुझे पहचान नही पा रहे थे. शायद उनकी स्मरण-शक्ति कुछ कम हो गई थी. कुछ लोग विभिन्न भाषा में ''मै भंगी हूं`` किताब के अनुवाद प्रकाशित होने पर बधाई दे रहे थे. मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ अनुवाद के बारे मे उन्होने अनभिज्ञता जाहिर की. वे बधाई सुनकर बिल्कुल नार्मल थे. कोई घमंण्ड का भाव नही था. सबसे साधारण ढंग से मुलाकात कर रहे थे.
जब सफाई कामगारों पर सेशन प्रारंभ हुआ तो वे स्टेज में मेरी बगल में बैठे थे. मुझे अपने बचपन के वे दिन याद आने लगे, जब सामाजिक गतिविधियों में इनके बारे में चर्चा सुना करता था. बड़े ही गर्व से लोग इनके कार्यो की प्रसंशा करते थे. आज मै अपने-आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके साथ मुझे वक्तव्य देने का मौका मिला. स्टेज पर ही उन्होने मुझसे पूछा- ''संजीव खुदशाह जी, आप ही है न..?``
''जी हां`` -मैने कहां ।
''मैने आपकी किताब देखी, बहुत ही अच्छा लिखा है आपने. इस विषय पर इस तरह की ये पहली किताब है, उन्होने कहा. इतना सुन कर मेरी आंखे नम हो गई. मैने उनको धन्यवाद दिया और कहा- ''आदरणीय इस किताब में आपका भी जिक्र है. मैने शोध के दौरान आपका इन्टरव्यू भी लिया था. वो मेरी ओर देखते हुए अपनी भृकुटियों में जोर डाल रहे थे, साथ ही सहमति में सिर भी हिला रहे थे.
आज उनकी जितनी भी किताबे उपलब्ध है, वह भंगी विषय पर पहले पहल किये गये काम का उदाहरण है. वे ये कहते हुए बिल्कुल भी नही शर्माते है कि उन्हे हिन्दी नही आती (आशय संस्कृत निष्ठ हिन्दी से है) फिर भी साधारण भाषा में लोकप्रिय साहित्य की रचना उन्होने की है. अपनी शैली के बारे में वे लिखते है कि मैं भागवतशरण उपध्याय की ''खून के छीटे इतिहास के पन्ने पर`` पुस्तक की शैली से प्रभावित हूं. अंग्रेजी और उर्दू भाषा पर वे अपना समान अधिकार समझते है. बावजूद इसके हिन्दी में उनकी कृति ''मैं भंगी हूं`` आज भी प्रासंगिक है.

संजीव खुदशाह, बिलासपुर (छत्तीसगढ़) के निवासी हैं. उनकी कुछ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं. ''सफाई कामगार समुदाय'' उनकी लोकप्रिय किताब है. आप उनरो उनकी मेल आईडी sanjeevkhudshah@gmail.com पर मेल कर सकते हैं एवं मोबाइल नंबर 09977082331 पर संपर्क कर सकते हैं.

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