Monday, June 27, 2011

उत्तर प्रदेश में आगे बढ़ते दलित Written by स्वामीनाथन अय्यर





Friday, 24 June 2011 06:22
क्या आप भी यही सोचते हैं कि जीडीपी की रिकॉर्ड ग्रोथ से दलितों का कुछ भी भला नहीं हुआ है? सेंटर फॉर एडवांस स्टडी ऑफ इंडिया के डायरेक्टर देवेश कपूर, सीबी प्रसाद, लैंट प्रिचेट और डी श्याम बाबू ने हाल ही में एक स्टडी की है. ‘रिथिंक इनइक्वालिटी: दलित्स इन यूपी इन मार्केट रिफॉर्म इरा’ नाम से किए गए इस अध्ययन के मुताबिक 1990 के बाद से उत्तर प्रदेश में दलित क्रांति का दौर सामने आता है. हालांकि यहां लंबे समय तक दलितों का दमन हुआ है.
मीडिया में जोर शोर से दलितों के दमन, आर्थिक असमानता और इनकी कमजोर आर्थिक व सामाजिक स्थिति की बात कही जाती है. इसमें कोई शक नहीं है कि आय के मामले में ये तबका अभी भी सबसे निचले पायदान पर है. लेकिन इस नई स्डटी में ये बात भी सामने आई है कि बीते कुछ सालों में इनकी सामाजिक और आर्थिक हैसियत में काफी बदलाव आया है. सबसे बड़ा बदलाव तो यही है कि अब दलित कहे जाने वाले लोग खुद को खास मानने लगे हैं. इस स्टडी (2010 में की गई) के लिए यूपी के दो ब्लाकों में एक सर्वे करवाया गया. इनमें से एक संपन्न कहा जाने वाला पश्चिमी यूपी का ‘खुर्जा’ ब्लॉक था और दूसरा अपेक्षाकृत पिछड़ा बताया जाने वाला पूर्वी यूपी का ब्लॉक ‘बिलारियागंज’ था. इन दोनों ब्लॉकों में ये पता लगाने की कोशिश की गई कि 1990 से 2008 के बीच दलितों के जीवन में किस तरह का सामाजिक-आर्थिक बदलाव आया है.
सर्वे में ये समाने आया कि पूर्वी यूपी के ब्लॉक में पक्के मकानों की संख्या 18.1 फीसदी से बढ़कर 64.4 फीसदी के स्तर पर पहुंच गई है. वहीं पश्चिमी यूपी में ये आंकड़ा 38.4 फीसदी से बढ़कर 94.6 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह घरों में टेलीविजन का आंकड़ा लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी इलाके में 22.2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 45 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया. इसी तरह आधुनिकता का प्रतीक कहे जाने वाले मोबाइल फोन की संख्या भी लगभग शून्य से बढ़कर पूर्वी ब्लॉक में 36.3 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 32.5 फीसदी पर पहुंच गई.
अठारह सालों के दौरान दलितों के घरों में पंखों की संख्या पूर्वी ब्लॉक में बढ़कर 36.7 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 61.4 फीसदी हो गई. कुछ ऐसा ही हाल साइकिल के मामले में भी है. पूर्वी ब्लॉक में साइकिल-मालिकों की संख्या 46.6 फीसदी से बढ़कर 84.1 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 37.7 फीसदी से बढ़कर 83.7 फीसदी हो गई.
ग्रामीण क्षेत्रों में सम्मान का प्रतीक माने जाने वाली मोटरसाइकिल के मामले में भी अच्छे तथ्य सामने आए हैं. 1990 में जहां मोटरसाइकिल मालिकों की संख्या नगण्य थी वहीं 2008 में पूर्वी ब्लॉक में 7.6 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 12.3 फीसदी दलितों के पास मोटरसाइकिल मौजूद थी. हालांकि बुरे वक्त के साथी कहे जाने वाले गहनों के मामले में आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. गहनों के मामले में पूर्वी ब्लॉक का आंकड़ा 75.8 फीसदी से घटकर 29.3 फीसदी के स्तर पर आ गया वहीं पश्चिमी ब्लॉक में भी ये आंकड़ा 64.6 फीसदी से घटकर 21.2 फीसदी के स्तर पर आ गया.
अनाजों के मामले में भी सर्वे में काफी अच्छे संकेत मिले हैं. 1990 से 2008 के बीच, 18 सालों के दौरान इन क्षेत्रों में दलितों द्वारा मोटे यानी निम्न कोटी के अनाजों (टोटा चावल, गुड़ का रस) के मुकाबले अच्छी क्वालिटी के अनाजों जैसे चावल, दाल, टमाटर आदि का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है.निम्न स्तर का भोजन कहे जाने वाले रोटी-चटनी का इस्तेमाल पूर्वी ब्लॉक में 82 फीसदी से घटकर 2 फीसदी और पश्चिमी ब्लॉक में 9 फीसदी रह गया है. इसी तरह बच्चों द्वारा रात का बचा हुआ खाना अगले दिन खाने के मामले में आंकड़ा पूर्वी ब्लॉक में 95.9 फीसदी से गिरकर 16.2 फीसदी के स्तर पर आ गया है. निम्न क्वालिटी के चावल के उपयोग के मामले में भी पूर्वी क्षेत्र का आंकड़ा 54 फीसदी से घटकर 2.6 फीसदी और पश्चिमी क्षेत्र में 2.7 फीसदी से घटकर 1.1 फीसदी के स्तर पर आ गया है.
दालों की बात की जाए तो पिछले कुछ सालों में भारत में प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता में कमी आई है. अच्छी बात यह है कि बावजूद इसके यूपी के पूर्वी ब्लॉक के दलितों में इसका इस्तेमाल 31 फीसदी से बढ़कर 90 फीसदी हो गया है. इसी तरह पश्चिमी ब्लॉक में इसका इस्तेमाल 60.1 फीसदी से बढ़कर 96.9 फीसदी हो गया है. शायद दाल की बढ़ती कीमतों के पीछे ये भी एक वजह है. टोटा चावल और गुड़ का पानी पीने के मामलों में कमी आई है. सर्वे में एक और अच्छी बात सामने आई है. दरअसल इन इलाकों में अब पैकेट बंद नमक, इलाइची और टमाटर का इस्तेमाल भी दिख रहा है.
आलोचक कहते हैं कि आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में दलित वर्ग को खास फायदा नहीं पहुंचा है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यूपी के जिस पूर्वी ब्लॉक की बात हो रही है वहां के 61 फीसदी दलित और पश्चिमी ब्लॉक के 38 फीसदी दलित ये मानते हैं कि अब उनकी स्थिति काफी बेहतर है. केवल 2 फीसदी का ये सोंचना है कि उनकी स्थिति वैसी की वैसी ही है या फिर और बदतर हुई है.पारंपरिक तौर पर दलितों का मुख्य पेशा खेतों में मजदूरी करना रहा है. लेकिन देश में आर्थिक सुधारों के दौरान इन का पेशा भी बदला है. इनमें से बड़ी संख्या में लोग शहरों में काम करने आ गए. और शहरों में इनको मिलने वाला वेतन इतनी तरक्की की बड़ी वजह के तौर पर सामने आया है.
सर्वे में पता चला है कि 1990 में जहां पूर्वी ब्लॉक के 14 फीसदी दलित परिवारों को शहरों में नौकरी करने वाले सदस्यों या रिश्तेदारों के जरिए आर्थिक फायदा पहुंचता था वहीं 2008 में आंकड़ा 50.5 फीसदी के स्तर पहुंच गया. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 6.1 फीसदी से बढ़कर 28.6 फीसदी पर आ गया. अच्छी बात ये भी है कि अपना व्यावसाय करने वाले दलितों की संख्या में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है. 1990 से 2008 के बीच पूर्वी ब्लॉक के 4.2 फीसदी दलित अपना खुद का व्यवसाय करते थे. 2008 में ये आंकड़ा 11 फीसदी पर आ गया. इसी तरह पश्चिमी यूपी के मामले में ये आंकड़ा 6 फीसदी से बढ़कर 36.7 फीसदी पर आ गया. इसके उलट कृषि कार्यों में मजदूरी करने वालों की तादाद पूर्वी ब्लॉक में 76 फीसदी से घटकर 45.6 फीसदी पर आ गई. पश्चिमी ब्लॉक में ये आंकड़ा 46.1 फीसदी से घटकर महज 20.5 फीसदी पर आ गया है.
आखिर इस बदलाव के पीछे क्या वजह रही है? दलित खुद ये कहते हैं कि करीब 10-15 साल पहले इन बदलावों की शुरूआत हुई थी. हालांकि तेजी से तरक्की करने के मामले में कई दूसरे राज्यों के मुकाबले उत्तर प्रदेश पिछड़ गया. बावजूद इसके 2003-04 से 2008-09 के बीच पांच सालों में इस राज्य का औसत सकल घरेलू उत्पाद 6.29 फीसदी बढ़ा है. यूं तो ये आंकड़ा देश की जीडीपी ग्रोथ के औसत आंकड़े से काफी पीछे है, लेकिन 7 फीसदी के जादुई आंकड़े के काफी करीब भी है. इंदिरा-नेहरु युग के मुकाबले मौजूदा समय में दलितों की आय 10 गुना तेजी से बढ़ रही है. और इसकी बदौलत उनकी संपन्नता भी तेजी से बढ़ रही है.
लेखक का मानना है कि पिछले दो दशकों में तेजी से आर्थिक सुधारों का दौर रहा है. इसके साथ ही बहुजन समाज पार्टी का प्रभाव भी तेजी से बढ़ा है. उनका ये भी मानना है कि दलितों की स्थिति में सुधार के मामले में इस पार्टी की और बड़ी भूमिका हो सकती है.
मायावती अब तक चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं. इस दौरान उन्होंने अपने नौकरशाहों और अधिकारियों को दलितों का खास खयाल रखने के लिए विशेष तौर पर संतुष्ट किया. और ऐसा हुआ भी है. आज दलित समाज की तरक्की की झलक सिर्फ उनके जीवन स्तर में ही नहीं बल्कि उनकी सामाजिक हैसियत में भी दिख रही है. दलित अब सवर्णों की आंखों में आंखें डाल सकते हैं. यूपी में यह एक  अहम सामाजिक परिवर्तन है.
आजादी.मी से साभार.

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