दलित लेखक संघ
दिनांक 19 जुलाई 2011
लेखक से मुलाकात
वरिष्ठ लेखक मा. माता प्रसाद जी के साहित्य पर बातचीत के लिए एक कार्यक्रम मोहन सिंह प्लेस के इंडियन कॉफी हाऊस में रखा गया। जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में जयप्रकाश कर्दम थे। मंच का संचालन मा.मुकेश मानस ने किया।
दलित आंदोलन में ठहराव क्यों ?... :मा. माता प्रसाद
नई दिल्ली के क्नॉट प्लेस स्थित मोहनसिंह प्लेस इंडियन कॉफी हाऊस में दलित लेखक संघ ने लेखक से मुलाकात कार्यक्रम रखा। जिसमें नाटककार व कवि मा.माता प्रसाद जी से मुलाकात की गई। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता मा. जयप्रकाश कर्दम, प्रख्यात साहित्यकार ने की तथा मंच संचालन मा. मुकेश मानस ने किया।
अपना वक्तव्य देते हुए मा. माता प्रसाद जी ने कहा कि पहले हम लोगों को हरिजन या अछूत कहा जाता था। बाद में दलित शब्द आया। दलित साहित्य की पृष्ठभूमि लोकगीतों से निर्मित है। आजादी के बाद जो पढ़ी लिखी पीढ़ी आई उसने साहित्य रचना आरम्भ किया और सन् 1980 के आसपास सही तरीके से दलित साहित्य लेखन आया। अब जो साहित्य आ रहा है वह मुख्यधारा के साहित्य से टक्कर ले रहा है। अभी तक जो मुख्यधारा का साहित्य लिखा गया उसमें सामने की तसवीर ही आई, पीछे का कुछ नहीं आया, पीछे जो था वह दलित था जो साहित्य में दिखाई नहीं दे रहा था। अब दलित साहित्य आने से दर्पण में जो छिपा हुआ था वह दिखाई देने लगा है। उन्होंने यह भी कहा कि दलित साहित्य का विस्तार विभिन्न विधाओं में होना चाहिए।
उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि ठहराव क्यों दिखाई दे रहा है, आंदोलन कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है। आंदोलन में ठहराव की स्थिति से आंदोलन कमजोर पड़कर बहुजन से सर्वजन हो गया है। ब्राह्मण साफ, क्षत्रिय हाफ और बनिया माफ। मा. माता प्रसाद जी ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि राजनीति सब तालों की कुंजी नहीं है। जब तक सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं होते हैं तब तक परिवर्तन नहीं होता है। डॉ. अम्बेडकर ने यही बात रखी है। राजनीति से सत्ता पाई जा सकती है लेकिन बदलाव के लिए सांस्कृतिक परिवर्तन जरूरी हैं। राजनीति से निकलकर हमें राजनैतिक सामाजिक परिवर्तन में जाना चाहिए। इसलिए सामाजिक व सांस्कृतिक व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन जरूरी हैं। आगे उन्होंने कहा कि पार्टी प्रथा में एक बुराई है कि हमें पार्टी का अनुशासन मानना होता है, इसलिए कभी-कभी ऐसा वक्त भी आता है जब अपना अहित, अपने समाज का अहित हो रहा होता है तब भी हमें उसका समर्थन करना पड़ता है। हम अलग-अलग पार्टियों में रहे लेकिन जो हमारे समाज का कॉमन इंटरेस्ट है, उसके लिए एक मंच पर आना चाहिए।
भट्टा मज़दूर, बेडित जाति, शरणार्थी, पीडि़त लोगों को हमें अपने साथ लेना चाहिए। पिछडी जाति के शुद्र लोग अब जातिवादी हो गए हैं। ये लोग अछूतों के साथ ज्यादा दुर्व्यवहार करते हैं। शुद्र और अछूत लेखकों को एक साथ बैठकर सोचना चाहिए जिससे नई राह निकलेंगी। उन्होंने कहा कि आरक्षण को हम अच्छा नहीं मानते परन्तु आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक बराबरी देनी होगी यदि यह मिले तो हम आरक्षण का विरोध करेंगे। महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए बल्कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को आरक्षण मिलना चाहिए, जिससे नेतृत्व उभरे और समानता आए और समाज का भला हो।
अपने वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा कि मिड डे मील योजना में छुआछूत की जो घटनाएं सामने आई हैं। उससे सरकार को दलित महिलाओं को वहां से नहीं हटाना चाहिए। इससे समाज पर बुरा असर पड़ता है। सार्वजनिक स्थानों पर छुआछात एक अपराध है, इसलिए यह नहीं होना चाहिए। मा. माता प्रसाद ने कहा कि किसानों और बुनकरों का ऋण माफ किया गया है पर आईआरडीपी/एसपीसीपी के तहत जो दलितों को दिया गया ऋण है सरकार उसे माफ क्यों नहीं करती। इसे सरकार के द्वारा माफ किया जाना चाहिए। उन्होंने भ्रष्टाचार पर रोशनी डालते हुए कहा कि भ्रष्टाचार में दलित समाज के लोग ज्यादातर नहीं है क्योंकि राजनीति में उनके सरंक्षक नहीं है इसलिए वे भ्रष्टाचारी नहीं होते। उन्हें डर होता है कि वे पकड़े जाएंगे। भ्रष्टाचार पर सरकार को कड़ा होना चाहिए।
मा. माता प्रसाद जी का वक्तव्य समाप्त होने पर मा. अजय नावरिया जी ने पूछा कि परिवर्तन के लिए राजनीति महत्वपूर्ण है या धर्म। जिसका जवाब देते हुए मा. माता प्रसाद ने कहा कि सांस्कृतिक परिवर्तन जरूरी है क्योंकि बड़ी संख्या में लोग जुडेंगे तो लोगों में सामाजिकता की भावना आयेगी फिर आर्थिक प्रश्न भी हल किए जाए, राजनीति से सभी परिवर्तन नहीं होते हैं।
बेधडक न्यूज मासिक के संपादक जसवंत सिंह बेधडक ने प्रश्न किया कि दलितों की दुर्दशा के लिए कांग्रेस कितनी जिम्मेदार है, का उत्तर देते हुए मा. माता प्रसाद जी ने कहा कि कांग्रेस ने बाबा साहब को मौका दिया जिससे संविधान बना और आज हमें आरक्षण भी बाबा साहब के द्वारा बने संविधान के कारण ही मिल रहा है। उसका श्रेय कांग्रेस को है। आजादी के बाद जमींदारी खत्म हुई, हमने जमींदारी का दौर देखा है, कांग्रेस ने जो बदलाव की बयार दी उससे मुक्ति की तड़प जागी। आज हमारे लोग अधिकारी बन गए हैं, यह सब कांग्रेस ने किया है।
जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के शोधार्थी मा. सर्वैश कुमार मौर्या ने पूछा कि रोटी बेटी के संबंध को दलित मुक्ति के लिए कितना महत्वपूर्ण मानते हैं का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि मैंने अपने नाटक अछूत का बेटा में रोटी बेटी का प्रश्न उठाया था। सामाजिक परिवर्तन में रोटी बेटी के संबंध सहायक के रूप में काम करते हैं।
वार्तालाप को आगे बढ़ाते हुए मा.शीलबोधि ने पूछा कि पिछले दौर में नौंटकी मे माध्यम से दलितों के पास रंगमंच था, आज दलितों के पास रंगमंच नहीं है, इसके लिए क्या होना चाहिए का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि दलित रंगमंच बनना चाहिए जिससे मंचन व अन्य चीजे प्रभावी तौर पर बने। नुक्कड़ नाटक लिखे जाने चाहिए। समाज हमारा अभी पढ़ा-लिखा नहीं है, इसलिए रंगमंच ही परिवर्तन का जरिया बनेगा।
मा. अजय नावरिया ने पूछा कि आपकी आत्मकथा क्यों चर्चित नहीं हुई पर मा. माताप्रसाद जी ने कहा कि मेरी आत्म कथा का एक बड़ा भाग राजभवन से जुडा हुआ था, शायद इसलिए।
अपना अध्यक्षीय भाषण करते हुए मा. जयप्रकाश कर्दम ने कहा कि दिल्ली आज दलित साहित्य के नामपर लेखकों का केन्द्र है। प्रबुद्ध लोगों के बीच अंतर्विरोध लाजमी हैं। और असहमति को तरजीह देना चाहिए। व्यक्तिगत संवाद चलता रहना चाहिए। हमारी असहमतियां जरूरी काम करती हैं। लेखक संकीर्ण नहीं हो सकता। सन् 1980 में मा. माता प्रसाद जी ने कहा था कि दलित शब्द बाद में आया यह सही है कि यह बाद में आया। बाबा साहब के यहां अनटचेबल शब्द था। बहुजन संगठन, ओप्रेस्ड इंडिया आदि कांशीराम के शब्द थे पर दलित बाद में आया। हमें मनुष्य को जाति के खांचे में नहीं बांटना चाहिए। यदि हम ऐसा करते हैं तो हमें अधिकार नहीं है कि हम सवर्णों की आलोचना करें। हमें अपना विस्तार करके एक सामाजिक ग्रुप बनना चाहिए। हमें किसी भी विचार में प्रगतिशीलता की बहुसंख्या देखनी चाहिए। हमारे आंदोलन की सोच बड़ी होनी चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि लक्ष्मण गायकवाड की “उचल्या” घुमन्तू समाज पर है वे हमारे प्रतिष्ठित लेखक हैं। जिस समाज से हमारे महत्वपूर्ण नारायण सुर्वे-संजय नवले भी जैसे लेखक भी हैं। कुछ लोग उन्हें अलगा रहे हैं। मा. कर्दम ने आगे कहा कि आज हमें फुले रैदास व नारायण गुरू से अलग नहीं होना चाहिए। यह कहना कि केवल अम्बेडकर चाहिए, ठीक नहीं है। हमें सभी लोगों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ना चाहिए। उन्होंने मा.माता प्रसाद के वक्तव्य पर बोलते हुए कहा कि विस्थापन का सवाल जो माता प्रसाद जी ने उठाया, वह बहुत महत्वपूर्ण है। हमारी समाज व्यवस्था के चलते, औरत से ज्यादा विस्थापन का दंश सहती है। माता प्रसाद जी की आत्म कथा में झौंपड़ी से शुरू होने वाला संघर्ष महत्वपूर्ण है, लेकिन जैसा उन्होंने कहा कि राज्यपाल वाला अंश ज्यादा है। ज्यादा आत्मकथाएं वे चर्चित हुई जो स्थापित लेखकों ने लिखी। माता प्रसाद जी बहुआयामी व्यक्तित्व वाले लेखक हैं इसलिए चर्चा ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। मा. कर्दम जी ने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा कि आंदोलन में व्यक्ति नहीं विचार प्रमुख होने चाहिए। दलित आंदोलन की त्रासदी यही है कुछ नामों के चलते यह आरोप लग रहा है। नई पीढ़ी स्पष्ट और बढि़या लिख रही है। यह एक चरण है इसे ठहराव नहीं माना जा सकता है।
इस मौके पर दलित लेखक संघ की अध्यक्षा मा. रजनी तिलक ने मा. माता प्रसाद और मा. जयप्रकाश कर्दम का कार्यक्रम में महत्वपूर्ण उपस्थित के लिए आभार प्रकट किया। कार्यक्रम में धन्यवाद शीलबोधि ने किया।
शीलबोधि, महासचिव
सर्वेश कुमार मौर्या, सचिवदलित लेखक संघ
दिनांक 20 जुलाई 2011
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