Wednesday, June 8, 2011

लोकतंत्र सरकार की विचारधारा नहीं होती



5 JUNE 2009 
♦ अनिल चमड़िया
democracy1किसी वैचारिक सवाल पर नज़रिया स्पष्ट नहीं बन पाने में शायद सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि उसे एक घटना और एक सीमित भूगोल में देखने की भूल भी होती हैं। नेपाल सरकार के सेनाध्यक्ष कटवाल को हटाए जाने के फैसले को राष्ट्रपति द्वारा रद्द किए जाने के बाद प्रधानमंत्री पद से प्रचंड द्वारा इस्तीफा देने के घटनाक्रमों को देखने के नज़रिये के साथ भी यही बात जुड़ी हुई हैं। पाकिस्तान के बारे में क्या कहा जाता है? वहां लोकतंत्र नहीं है। सेना सत्ता पर हावी रहती है। पाकिस्तान के लिए मज़बूत लोकतंत्र की ज़रूरत है। लेकिन नेपाल में चाहते हैं कि सेना हावी रहे। चुनी गयी सरकार की अधीनता में नहीं रहे। अब एक दूसरा सवाल करें। भारत में माओवादियों से अपील की जाती है कि वे हथियार का रास्ता छोड़ दें और मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हो जाएं। नेपाल के माओवादियों से भी यही अपील की जाती थी। उन्हें आतंकवादी घोषित किया गया। जब वे चुनाव में शामिल हुए और मतदाताओं ने उन्हें संविधान सभा के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें देकर सरकार बनाने के लिए कहा, तो इससे परेशानी होने लगी। कहा जाने लगा कि नेपाल में माओवादियों ने अपनी जड़ें जमा ली तो उसे हिला पाना मुश्किल होगा। उसका असर दूसरे देशों और खासतौर से पड़ोसी देशों के राजनीतिक भविष्य पर पड़ेगा। सवाल है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में ही विश्‍वास है या नहीं? क्या लोकतंत्र की वही प्रक्रिया उचित है, जो कि सत्ता पर काबिज वर्ग की सत्ता को बनाये रखने में मददगार हो?
संसदीय लोकतंत्र अपने आप में क्या कोई निरपेक्ष शासन व्यवस्था नहीं है? लोकतंत्र की प्रचलित अवधारणा में मतदाताओं द्वारा सत्ता चलाने के लिए किसी पार्टी या नेता का चुना जाना है। लेकिन किसी देश में ऐसे लोकतंत्र का मतलब यह नहीं होता है कि वहां की सत्ता का संचालन वहां के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित पार्टी, पार्टियों या नेतृत्व द्वारा ही किया जाना संभव है। यह खुला सत्य है कि दुनिया के ढेर सारे मुल्कों में मतदाताओं द्वारा पार्टियों के चुने जाने के बाद अमेरिका और ब्रिटेन की पसंद से नेतृत्व तय होते हैं। दरअसल दुनिया भर में मतदाताओं द्वारा चुनाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना के दावों के आलोक में अब तक कई चीजें स्पष्ट हो चुकी हैं। पहला तो यह कि महज मतदान लोकतंत्र के स्थापित होने की कोई कसौटी नहीं है। भूटान में सबने देखा कि वहां एक सरकार के लिए मतदान इसीलिए करा लिया जाता है क्योंकि उसके पड़ोसी देश नेपाल में राजशाही के खिलाफ़ ज़बरदस्त आंदोलन हुआ और बहुमत की संख्या में लोग वहां लोकतंत्र की बहाली के लिए सड़कों पर आ गये हैं। लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण बात पर ज़रूर ध्यान जाना चाहिए है कि भारत का चुनाव पर आधारित लोकतंत्र पिछले पचास पचपन साल में अपने पड़ोसी देश भूटान में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की स्थापना के लिए कोई प्रभाव नहीं डाल सका। जबकि पूरी दुनिया में यह देश सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दंभ भरता है। भूटान में चुनाव वहां लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं है ये बात भी पूरी तरह से स्पष्ट हैं। वह तो लोकतंत्र के आंदोलन के वैचारिक प्रभाव को दूसरी दिशा में ले जाने का तात्कालिक उपाय है। वहां चुनाव एक ऐसी योजना है, जिसमें लोकतंत्र की बहाली नहीं बल्कि राजशाही को उसकी पूरी ताक़त के साथ बनाये रखना है। दूसरी बात यह भी स्पष्ट हुई है कि गरीब देशों के लिए लोकतंत्र की एक परिभाषा होती है और ताक़तवर देशों के लिए दूसरी परिभाषा होती है। असमान विकास की स्थिति में लोकतंत्र की कोई निश्चित परिभाषा तय नहीं हो सकी है।
लोकतंत्र की अवधारणा लेकर एक बात बहुत स्पष्ट होनी चाहिए कि यह केवल ढांचा नहीं है। यह एक वैचारिक अवधारणा है। इस विचारधारा का सौंदर्य कई तत्वों पर खड़ा होता है। इसमें स्वतंत्रता और संप्रभुता प्रमुख हैं। लेकिन स्वतंत्रता और संप्रभुता का क्या पैमाना होना चाहिए? किसी देश का मतदाता एक निश्चित अवधि के बाद राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों का अपने प्रतिनिधि के पक्ष में मतदान करता है, तो यहां उसकी स्वतंत्रता दिखती है, लेकिन क्या यह स्वतंत्रता सरकार की भी स्वतंत्रता होती है? पार्टी और उसका प्रतिनिधि सरकार या सत्ता नहीं है। सरकार में स्थायित्व का चरित्र होता है। पार्टियां और प्रतिनिधि बदलते रहते हैं लेकिन सरकार नहीं बदलती। नेपाल के ही उदाहरण को लें। वहां राजशाही थी। माओवादियों के जनयुद्ध के बाद राजा की कुर्सी हमेशा के लिए छिन गयी। इसमें एक बात बहुत स्पष्ट है कि दुनिया भर में जहां लोकतंत्र की सरकारें बन रही थी, उनमें से किसी भी सरकार या कुछ ने मिलकर ये कोशिश नहीं की कि नेपाल जैसे देशों में राजशाही ख़त्म होनी चाहिए। लोगों ने ही तय किया। इसका मतलब साफ है कि लोकतंत्र सरकार की विचारधारा नहीं होती है। उसकी विचारधारा केवल उसका अपना हित है। अब दूसरा सवाल यह है कि माओवादियों के जनयुद्ध की वजह से राजा का सिंहासन चला गया, लेकिन राजा के साथ जो शाही जुड़ा हुआ है, वह कहां ख़त्म हुआ। शाही ही विचारधारा है, जो विभिन्न रूपों में नेपाल के पूरे समाज में घुसा पड़ा है। क्या राजा की कुर्सी के साथ ही वह ख़त्म हो सकता है? राजशाही की संस्कृति और उसमें रचे-बसे एक वर्ग और उसके तमाम तरह के हित सरकार के स्थायित्व के साथ जुड़े रहे हैं। वह तो कोई एक कुर्सी या महल नहीं है। नेपाल में माओवादियों को सरकार चलाने का अवसर तो मिला लेकिन वह कैसी सरकार को चलाएं? यदि वे सरकार को चलाते रहते तो क्या हो सकता है? सरकार को ही बदलें तो क्या क्या होना चाहिए? नेपाल के संदर्भ में तो ये बात बहुत साफ होती है कि संसदीय लोकतंत्र में भी मतदान में बहुमत ही पर्याप्त नहीं होता है। किसी भी मतदान के बाद यदि बहुमत मतदाता केवल फिर से मतदान के लिए तैयार रहने की मानसिकता में तैयार कर लिये जाएं तो सरकार को कभी कोई आंच नहीं आ सकती है। जिनके हित स्थायी तौर पर सरकार से जुड़े होते हैं, उनके हित बने रह सकते हैं। भारत का उदाहरण भी यहां काबिलेगौर है। केवल मतदाता बनने के कैसे खतरे हो सकते हैं, ये तो कई देशों के हालातों को देखकर कहा जा सकता है। सरकारें मतदाता तैयार करती हैं और आंदोलन सरकार को बदलने की संस्कृति। नेपाल के माओवादी आंदोलन में मतदाता नहीं बल्कि आंदोलनकारी तैयार हुए और उन्‍होंने मौके पर मतदान भी किया। इस प्रक्रिया से उन्हें अब तक गुरेज नहीं है।
लोकतंत्र के साथ राष्ट्रवाद के तत्व का भी विकास हुआ है। संप्रभुता इसी की गाड़ी पर चलती है। लेकिन जिस तरह से हर देश के लिए लोकतंत्र की कोई एक परिभाषा नहीं होती है, उसी तरह से राष्ट्रवाद भी लोकतंत्र की तरह अलग-अलग स्तरों पर पारिभाषित होता रहता है। ताक़तवर देश ही तय करता है कि ग़रीब मुल्क का राष्ट्रवाद क्या है? यह तो अक्सर देखा जाने लगा कि अमेरिका जब चाहता है, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के राष्ट्राध्यक्षों को बुला कर बताता है कि उन्हें अपने अपने राष्ट्र में क्या नहीं करना चाहिए और किस काम को किस तरह से करना है। यही नहीं, उनके राष्ट्र में उनके कौन कौन से दुश्मन हैं, उन्हें कैसे ख़त्‍म करना है। लोकतंत्र का मतलब ये भी होता है कि ग़रीब और कमज़ोर समझे जाने वाले मुल्क ताक़तवर देशों को हर वक्त अपने काम काज की रिपोर्ट दें। ऐसे में लोकतंत्र का मतदाता और उसका राष्ट्रवाद क्या कर सकता है? भारत में इस बात पर कई बार शोर-शराबा हुआ कि हमारी सरकार अमेरिकी सरकार के निर्देशों पर काम करती है। उसने अमेरिका से बिना पूछे परमाणु परीक्षण कर दिया तो भारत के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन अब नेपाल की चुनी हुई सरकार के मुखिया कह रहे हैं कि उन्हें अपने देश में सेनाध्यक्ष को हटाने के लिए भारत की सरकार से बात करने की कोशिश की थी। वहां से उन्हें धमकी मिली कि सेनाध्यक्ष को हटाने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे। सेनाध्यक्ष राज परिवार के सदस्य हैं। ये उदाहरण अपने आप में कहता है कि मतदान का मतलब लोकतंत्र और उसके तमाम मूल तत्वों का बने रहना नहीं है। अपने भारत देश में ही जिस तरह के राष्ट्रवाद को खड़ा किया जा रहा है, वह ताक़तवरों के सामने झुकने और कम ताक़त वालों को अक्सर हड़काने का नहीं है क्या?
इसीलिए अपना राष्ट्रवाद कभी जड़ नहीं तैयार कर पाया। वह एक मतदाता राष्ट्रवाद के रूप में ही दिखता रहता है। वहां की सरकार को दिशा निर्देश पाने में अपने हित सुरक्षित दिखते हैं, तो उसे कोई वैचारिक परेशानी नहीं है। लेकिन कोई भी आंदोलन जब अपनी एक मुकम्मल वैचारिक अवधारणा के साथ आकार लेता है, तो लोकतंत्र भी पूरे चांद के आकार की तरह आसमान में दिखना चाहता है। दरअसल यह अनुभव किया जा रहा है कि मुक्कमल वैचारिक अवधारणा के बिना यदि कोई आंदोलन करता है, तो वह केवल अपनी पार्टी या संगठन द्वारा चलायी जाने वाली सरकार ही स्थापित कर सकता है। बिना आंदोलन की पृष्ठभूमि के जहां चुनाव होते हैं, वहां का मतदाता पार्टी प्रतिनिधि को तो सुन लेता है, लेकिन उसके बाद का काम ताक़तवरों के हाथ में होता है। जिस सरकार को चलाने के लिए मतदाताओं ने पार्टियों या प्रतिनिधियों को चुना है, उस सरकार को ही चलने नहीं देंगे, तो मतदाता सरकार को नहीं चलने देने वालों का क्या कर लेंगे? लेकिन जब मतदाता एक वैकल्पिक व्यवस्था की संस्कृति में रचा बसा होगा, तो वह कुछ कर लेगा। वह कम से कम स्थितियों को समझेगा और अपना नया रास्ता निकालेगा।
राष्ट्रवाद का आधार स्वालंबन का होना चाहिए या फिर परजीविता का? परजीविता गुलाम मानसिकता का आधार तैयार करती है। दरअसल नेपाल की घटनाएं ही नहीं, पूरी दुनिया में लोकतंत्र की अवधारणा का जिस तेजी से विकास हुआ है, उसी तेजी के साथ सरकारों में निरकुंशता भी बढ़ी है और तेजी के साथ बढ़ रही है। इसकी यही वजह है कि सरकार चलाने के लिए चुनी जाने वाली पार्टियां मतदाताओं के बजाय सरकार को चलाने वाली शक्तियों के दबाव में आ जाती है। सरकार ने पार्टियों का सरकारीकरण कर दिया है और दूसरी तरफ मतदाताओं के सामने पार्टियों के बीच ही किसी पार्टी को चुनने की विकल्पहीनता की परिस्थितियां तैयार कर दी हैं। लेकिन जहां किसी आंदोलन की प्रक्रिया से लोकतंत्र की अवधारणा विकसित होती है, वहां वह आंदोलन संपूर्णता में लोकतंत्र को आकार लेते देखना चाहता है। ऐसी स्थिति में सरकार और आंदोलन के बीच टकराव स्वभाविक होता है। सरकार आंदोलनों के वास्तविक राजनीतिक उद्देश्यों को किसी पार्टी और किसी शासक के बदले जाने तक सीमित करना चाहती है।
नेपाल में राजा के बाद सेनाध्यक्ष को राजशाही द्वारा पोषित हितों के केंद्र के रूप में विकसित करने की कोशिश की गयी। लेकिन वहां लोकतंत्र का आंदोलन इसके लिए तैयार नहीं है, क्योंकि उसका उद्देश्य सत्ता के ढांचे में किसी एक पद को हमेशा के लिए ख़त्म करने तक सीमित नहीं है। वह तमाम स्तरों पर सत्ता संबंधों में परिवर्तन चाहता है। ऐसे आंदोलन ही सरकार के पूरे ढांचे के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाते हैं। वरना दूसरी भीड़ इकट्ठी करने वाले आंदोलनों की सरकार को क्या परवाह होती है। नेपाल का आंदोलन जिस अवस्था में पहुंच गया है, वहां राष्ट्रवाद और सार्वभौमिकता की उसकी अपनी परिभाषा बनने से रोका जाना संभव नहीं दिखता है। दरअसल नेपाल के बहाने यह देखने की कोशिश की जानी चाहिए कि पूरी दुनिया में मतदाताओं में यह जागरूकता बढ़ रही है कि वह लोकतंत्र को सरकारों के हाथों में नहीं छोड़ना चाहता है। उसे अपने द्वारा पारिभाषित लोकतंत्र की जरूरत महसूस हो रही है। लेकिन इस काम में एक चुनौती ये भी आ रही है कि नेपाल का आंदोलनकारी जब अपने लोकतंत्र को परिभाषित करता है तो पड़ोस में उसे दो तरह से देखा जाता है। पड़ोसी देश में उसे एक वर्ग अपने विरोध में देखता है क्योंकि उसके देश के हितों के वह प्रतिकूल होता है। दूसरा लोकतंत्र की एक समान परिभाषा को राष्ट्रवाद मानता है। लोकतंत्र का विकास इसी तर्ज पर होता रहा है। लेकिन सत्ता के साथ अपने हितों को बनाये रखने वाली शक्तियों ने लोकतंत्र की परिभाषा की कुंजी छीनकर अपने हाथों में ले ली है। इसीलिए लोकतंत्र केवल सत्ता के हथियार के रूप में बचा हुआ है।

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