नागार्जुन को बाबा के नाम से जाना जाता है. आप बाबा कह दीजिए तो लोग समझ जाएँगे कि बात नागार्जुन की हो रही है. हिंदी में उनके आलावा सिर्फ़ एक ही कवि को बाबा कहा जाता है और वो हैं तुलसीदास.
हिंदी के प्रगतिशील कवियों में जितने लोकप्रिय नागार्जुन हैं उतना और कोई नहीं है यह बात बिना हिचक कहनी चाहिए.
अब तो नई कविता गद्य हो गई है लेकिन नागार्जुन ऐसे कवि हैं जो छंद को नहीं छोड़ते. आधुनिक कवियों में छंद को न छोड़ने वाले कवियों में रघुवीर सहाय भी हैं और उनकी लिखी बहुत सी कविताएँ नागार्जुन की कविता प्रतीत होती है, 'राष्ट्रगीत में भला ये कौन भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हर हरणा गाता है.'
नागार्जुन का ये जादू है कि वे पारंपरिक छंदों का प्रयोग करते हुए भी ऐसा कुछ लिखते हैं कि कोई ये न कह सके कि ये आधुनिक कविता नहीं है. अब दोहे को लीजिए. पता नहीं वह हिंदी का कितना पुराना छंद है. कालिदास तक ने दोहे लिखे हैं. उनका लिखा एक दोहा बार-बार याद आता है,
'खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक'
नभ में विपुल विराट सी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक'
क्या भयानक बिंब है इस कविता में. शासन के आतंक के लिए ऐसा बिंब मैंने कहीं और नहीं पढ़ा. ये कमाल देखिए कवि का कि वह दोहे में ऐसे बिंब खड़े कर सकता है. संगीनों के जंगल पर मुक्तिबोध ने भी लिखा है. मुक्तिबोध बड़े कवि हैं और मुझे बेहद प्रिय भी हैं लेकिन बंदूक का 'नभ में विपुल विराट' होने का बिंब वहाँ नहीं है.
लोक का बिंब
नागार्जुन विद्वान कवि हैं. वे संस्कृति और परंपरा के विद्वान हैं. संस्कृत, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश सब को वे जानते हैं. वे अपने इस ज्ञान से परंपरा का रचनात्मक दोहन करना नागार्जुन के अलावा किसी को नहीं आता.
ऐसा नहीं है कि हमारे नए कवि अच्छे नहीं है. बहुत से अच्छे कवि हैं. उनमें से कुछ मुझे प्रिय भी हैं. अगर मुझे एक दो का नाम लेना हो तो मैं रघुवीर सहाय और विष्णु खरे का नाम लूँगा.
लेकिन जब नए कवियों को कोई नई बात कहनी होती है तो वे पश्चिम की ओर देखते हैं या यथार्थ को अपने आसपास देख लेते हैं लेकिन नागार्जुन अपना बिंब लोक जीवन से लेते हैं. फिर वे नए फ़ॉर्म में भी कविता रच देते हैं.
नागार्जुन पंडितों के सख़्त ख़िलाफ़ थे लेकिन वे उनके पढ़े जाने वाले मंत्र जैसी कविता रचते हैं, 'ऊँ काली काली काली महाकाली महाकाली, ऊँ मार मार मार वार न जाए खाली....'
रूप और शिल्प की बातें बहुत से लोग करते हैं. मैं उस पर बहस नहीं करना चाहता. लेकिन नागार्जुन की कविता रूप और शिल्प के स्तर पर भी चकित करती हैं. उनकी एक कविता है, 'अकाल के बाद'
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुँआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
धुँआ उठा आंगन के ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद.
ये नई जनवादी और प्रगतिशील कविता है.
मैं कहता हूँ कि यह जनवादी-प्रगतिशील कविता का 'क्लासिक' है. पता नहीं कब ये लोगों को समझ में आएगा कि जनवाद और प्रगतिशीलता सिर्फ़ संवेदनाएँ नहीं है.
वो शिल्प भी है और फ़ॉर्म भी है. जिसने किसी भूखे आदमी को अन्न पाना देखा है. जिसने आँखों की चमक देखी है. वह समझ सकता है. ग़रीबी के छोटे सुख होते हैं. यही छोटा सुख उसका बड़ा सुख होता है. इससे उसकी आँखों में चमक आती है. जो इस छोटे सुख को पहचानता है वही बड़ा कवि है.
नागार्जुन ग़रीब के छोटे सुख और उसकी आँखों की चमक को पहचानते थे इसलिए वे एक बड़े कवि थे.
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