Thursday, May 5, 2011

अंबेडकर का दलित विमर्श







यह भ्रम बना हुआ है कि डा. भीमराव अंबेडकर केवल दलित नेता थे. वह सदैव पूरे देश के लिए सोचते और काम करते रहे. निस्संदेह, आज बहुत से लोग अंबेडकर और दलितवाद के नाम पर ऐसी गतिविधियों में संलग्न हैं, जिससे अंबेडकर को घृणा होती. अंबेडकर ने बार-बार घोषित किया था कि भारतीय समाज की सबसे निम्न सीढ़ी के लोगों के लिए आर्थिक उत्थान से बड़ा प्रश्न उनके आत्मसम्मान, विवेक और आत्मनिर्भरता का है. आजकल अंबेडकर का नाम लेकर जब-तब ‘बौद्ध दीक्षा समारोह’ आयोजित होते हैं. इन आयोजनों में ईसाई मिशनरियों का बड़ा हाथ होता है. किंतु दलितों को बौद्ध धर्म में मतांतरित कराने में ईसाई नेताओं की क्या दिलचस्पी है? इसका जवाब ‘क्राइस्ट व‌र्ल्ड’ पत्रिका में है. इसमें लिखा है कि दलितों की मुक्ति के लिए ईसाई समाज ने इतना काम किया है कि दोनों के बीच एक संबंध विकसित हो गया है. इससे भविष्य में दलितों का ईसाई पंथ में मतांतरित हो जाना एक स्वभाविक संभावना है.
मिशनरी संस्था ‘गोस्पेल फार एशिया’ के अनुसार पहले दलितों को केवल बौद्ध होने के लिए कहा गया. बदले में दलित नेताओं ने वादा किया कि वे अपने लोगों को ईसाई बनाने के लिए हमारे साथ काम करेंगे. इनमें यदि एक तिहाई भी बाद में ईसाई बन जाते हैं तो कितनी बड़ी संख्या में नए ईसाई होंगे! क्या इसीलिए डा. अंबेडकर बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए थे? उन्होंने स्पष्ट कहा था कि अपने कार्य के लिए उन्हें विदेशी धन की आवश्यकता नहीं है. उन्होंने यह भी कहा था कि भारत को बाहरी मजहबों की कोई आवश्यकता नहीं है. आज के छद्म अंबेडकरवादी इन बातों को नहीं दोहराते. वे ‘बौद्ध-दीक्षा’ के नाम पर भोले-भाले हिंदू दलितों को विदेशी मिशनरियों के हाथों बेच रहे हैं. यह दलितों को सम्मान और आत्मविश्वास देने के उलट उन्हें ही मिटा देने का षड्यंत्र है.
अंबेडकर ने 15 फरवरी, 1956 को अपने भाषण में बताया था कि वह बौद्ध क्यों बने. ईसाइयत, इस्लाम आदि का नाम लेकर उन्होंने कहा था कि वे भेड़चाल में यकीन रखते हैं जबकि बौद्ध धर्म विवेक आधारित है. ईसाई पंथ एक ईश्वर-पुत्र, एक दूत-पैगंबर जैसे जड़-अंधविश्वासों का दावा करते हैं. उन मजहबों में मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए के लिए स्थान नहीं. डा. अंबेडकर के शब्दों में- मैं भारत से प्रेम करता हूं इसीलिए झूठे नेताओं से घृणा करता हूं. हिंदुत्व के प्रति कटुता के बावजूद अंबेडकर विश्व संदर्भ में भारत की अस्मिता, एकता के प्रति निष्ठावान रहे. विदेशियों द्वारा हिंदू समाज की झूठी आलोचना करने पर डा. अंबेडकर हिंदू धर्म का बचाव करते थे. जब कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक में हिंदू धर्म की कुत्सित आलोचना की, तो अंबेडकर ने उसका मिथ्याचार दिखाने में तनिक संकोच नहीं किया था. कैथरीन ने कहा था कि हिंदू धर्म में सामाजिक विषमता है, जबकि इस्लाम में भाईचारा है. अंबेडकर ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि इस्लाम गुलामी और जातिवाद से मुक्त नहीं है.
डा. अंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘भारत विभाजन या पाकिस्तान’ के दसवे अध्याय में मुस्लिम समाज का अध्ययन किया है. अंबेडकर के अनुसार, हिंदुओं में सामाजिक बुराइया हैं किंतु एक अच्छी बात है कि उनमें उसे समझने वाले और उसे दूर करने का प्रयास करने वाले लोग भी हैं. जबकि मुस्लिम यह मानते ही नहीं कि उनमें बुराइयां हैं और इसलिए उसे दूर करने के उपाय भी नहीं करते. आज अंबेडकर की इस विरासत को तहखाने में दफन कर दिया गया है. दलित राजनीति को विदेशी, संदिग्ध, मिशनरी संगठनों ने हाई-जैक कर लिया है. वे दलितों को अविवेक, लोभ, भोगवाद और राष्ट्रविरोध के फंदे में डाल रहे हैं. अनेक दलित नेता-बुद्धिजीवी दलित प्रश्न को अपने निजी स्वार्थ का हथकंडा बनाए हुए हैं. अंबेडकर ऐसे नेताओं से घृणा करते थे.
यह कथित उच्च वर्गीय हिंदुओं के लिए लज्जा की बात है कि वे भारत के क्रमश: विखंडन को देख कर भी सीख नहीं ले रहे. उन्हें आत्मरक्षा के लिए भी भेद-भाव संबंधी बुराइयों को दूर करने और संपूर्ण समाज की एकता के लिए प्रयत्‍‌नशील होना चाहिए था. कई बिंदुओं पर अंबेडकर की विरासत उच्च-वर्गीय हिंदुओं के लिए अधिक मनन करने योग्य है. डा. अंबेडकर ने 1955 में कहा था कि स्वतंत्र भारत के चार-पांच वर्ष में ही निम्न जातियों की स्थिति में काफी सुधार हुआ. स्वतंत्र भारत में दलितों की स्थिति तेजी से सुधरी, जो हिंदुओं के सहयोग के बिना संभव न था. निस्संदेह, डा. अंबेडकर आज जीवित होते तो मात्र दलितों के नहीं, पूरे देश के नेता होते.
साभार- लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
Written by एस शंकर 
Thursday, 21 April 2011 20:37   

No comments:

Post a Comment