Thursday, May 5, 2011

अमेरिकी मॉडल अपनाएं दलित




डा. अम्बेडकर दोहरी क्रांतियों के दार्शनिक थे. पहली क्रांति का दर्शन था जाति-व्यवस्था का समूल विनाश. दूसरी क्रांति का दर्शन था-भारत की आर्थिक तरक्की. डा. अम्बेडकर अर्थशास्त्री पहले थे, व्यवस्था परिवर्तक बाद में. वस्तुत: डा. अम्बेडकर पहले भारतीय थे जिन्होंने किसी विदेशी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. हासिल की थी. जिस औद्योगीकरण या उदारीकरण की शुरुआत डा. मनमोहन सिंह जी ने वित्तमंत्री के रूप में 1991 शुरू की, उस तथ्य को दूरद्रष्टा डा. अम्बेडकर ने पचहत्तर वर्ष पहले ही कह दिया था.
डा. अम्बेडकर वर्ष 1913 में अमेरिका के विश्वविख्यात विश्वविद्यालय कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में पहुंच गए थे उनका पहला शोध पत्र था 'प्राचीन भारत में व्यापार". लगभग सौ वर्ष पूर्व (1913) में ही डा. अम्बेडकर ने समस्त भारतवासियों के लिए अमेरिकन नागरिकों के ही तरह का जीवन स्तर का स्वप्न देखना शुरू कर दिया. डा. अम्बेडकर की दूरदर्शिता ने भांप लिया था कि भारत में वह क्षमता है कि वह अमेरिका जैसा समृद्ध-सम्पन्न तथा आत्मनिर्भर देश बन सकता है. लेकिन इसके लिए भारत को भी पूर्णत: औद्योगिक एवं शहरीकृत होने के लिए मानसिक तैयारियां करनी होगी. इनके लिए ठोस और सतत नीतियां बनानी होंगी, उन पर चलते रहना होगा. डा. अम्बेडकर के पास इन लक्ष्यों को साकार करने के लिए तमाम फामूले थे. अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में अश्वेतों की गर्हित स्थिति को गौर से देखते हुए डा. अम्बेडकर मुतमईन थे कि भारत में सदियों से चली आ रही जाति-व्यवस्था का जब तक समूल विनाश नहीं होगा, भारत किसी भी सूरतेहाल में अमेरिका जैसा होना तो दूर उसके आसपास भी नहीं फटक सकता. औद्योगीकीकरण और शहरीकरण माने सीधे-सीधे देश की तरक्की. तो उन्होंने निष्कर्ष यह निकला कि जाति व्यवस्था भारत के औद्योगीकीकरण-शहरीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा है.
उदाहरण अनेक हैं. वर्ष 1913 में जब डा. अम्बेडकर भारत को अमेरिका बनाना चाहते थे, तब यदि कोई ब्राह्मण चाय-पकौड़ी की दुकान खोलता, तो वह ब्रााह्मण समाज में ही अलग-थलग पड़ जाता. उस ब्रााह्मण परिवार के बच्चों की शादियों में भी दिक्कतें हो सकती थीं. वहीं पर यदि कोई दलित चाय-पकौड़ी की दुकान खोलता और अत्यन्त स्वादिष्ट चाय-पकौड़ी बनाने और निहायत साफ-सुथरे तरीके से उन्हें ग्राहकों को परोसने की उसकी महारत के बावजूद गैर-दलित उसकी दुकान पर नहीं जाते. इस तरह के सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किए  जा सकते हैं, जिनमें व्यक्ति के खुद के जीवनस्तर को सुधारने वाले किसी भी आर्थिक प्रयास को समुदाय या जातिगत आधार निंदनीय कहे जाते.
बाबा साहेब ने यह समझ लिया कि अगर भारत को अमेरिका या सुपर पॉवर की जमात में शामिल होना है, तो उसे अपनी जाति-व्यवस्था पर हमला करना ही होगा. जाति-व्यवस्था पर हमले के कई तरीके हो सकते हैं. विचारवान दलित लेखक एचएल दुसाध के अनुसार, जाति-व्यवस्था के दो आधार स्तम्भ हैं-पेशेगत शुद्धता और रक्त शुद्धता. दुसाध जी के विचारों से प्रभावित होकर, मैंने मनुस्मृति को फिर से पढ़ा. मनुस्मृति का निचोड़ मात्र तीन है-कोई भी जाति अपना पेशा बदल नहीं सकती, (2) कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर शादी नहीं कर सकता तथा (3) अछूत कभी भी, गैर अछूत का एम्प्लॉयर नहीं बन सकता. शिक्षा तो अछूतों के लिए पूर्वत: वर्जित थी, जिसे लार्ड मैकाले ने समाप्त किया.
डा. अम्बेडकर के जन्म दिन पर दलितों को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे भारत की जाति-व्यवस्था टूटे और इसका समूल विनाश हो? किसी भी व्यवस्था परिवर्तन में मानवीय प्रयास महत्त्वपूर्ण होते हैं पर जहां डा. अम्बेडकर जैसे महापुरुष नेतृत्व प्रदान करते हैं. हालांकि व्यवस्था परिवर्तन में आर्थिक प्रक्रियाओं का भी विशिष्ट योगदान होता है. मसलन, वर्ष 1863 में ही अब्राह्म लिंकन ने अमेरिका में दास-प्रथा को संवैधानिक रूप से समाप्त कर दिया था, बावजूद इसके पहले से रहे दास, दास-तुल्य हालत में ही जीने के लिए मजबूर थे.
बीसवीं सदी के आरम्भ के साथ ही अमेरिका में औद्योगीकीकरण की रफ्तार तेज पकड़ी. अश्वेतों ने भी बड़े पैमाने पर औद्योगिक केन्द्रों की ओर प्रस्थान  किया. वर्ष 1910 से 1930 के दौरान लाखों अश्वेत कृषि क्षेत्र एवं ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर औद्योगिक शहरों में आकर सैटल हो गये. इस घटना को सही मायने में दास प्रथा की समाप्ति माना जाता है. बदलाव की प्रक्रिया में सामाजिक-मनोविज्ञान की भी अहम भूमिका होती है. वर्ष 1619 में बेड़ियों में जकड़े अश्वेत दासों का पहला दस्ता अमेरिकी धरती पर उतरा था. वर्ष 2009 में बराक ओबामा के रूप में एक अश्वेत अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया. यानी मात्र 390 वर्षों में रंग-भेद पर अश्वेत का पानी छा गया. श्वेत बाहुल्य अमेरिका ने एक अश्वेत को अपना नेता चुना.
ओबामा के राष्ट्रपति चुने जाने के तुरंत बाद मुझे अमेरिका जाने का अवसर मिला. अपनी यात्रा के दौरान मैंने दर्जनों अश्वेत प्रोफेसर से बातचीत की. यह पूछे जाने पर भी श्वेत अमेरिका में एक अश्वेत नेता की स्वीकृति के पीछे मौलिक कारण क्या है? इसके कई जवाब मिले. पर, मौलिक कारण बताया गया अश्वेत पूंजीवाद का उदय जिससे लाखों अश्वेत पूंजीपति लाखों-लाख श्वेतों के नियोक्ता बन गये. जब लाखों-लाख श्वेत कर्मचारी अश्वेतों के हाथ से वेतन ले रहे हों तो ऐसे परिदृश्य में अश्वेतों की राजनीतिक स्वीकृति स्वाभाविक है.  दूसरा सबसे बड़ा कारण बताया गया, अंतर-प्रजाति शादियों को. पांच लाख से अधिक दम्पति अश्वेत एवं श्वेत हैं. इनमें भी अस्सी प्रतिशत पति अश्वेत हैं. एक अश्वेत बुद्धिजीवी के अनुसार, ओबामा के राष्ट्रपति बनने के समय, अमेरिका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सास, पांच लाख श्वेत ससुर और लाखों-लाख श्वेत सालियां, एवं श्वेत सरहजें घूम रही हैं. ऐसे में अमेरिका में रंग-भेद कैसे टिक पाता?
वैसे ही, भारत को यदि जाति-विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बन गैर-दलितों को नौकरी पर रखना होगा. लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर-दलित साले, सालियां, सढुआइन एवं गैर-दलित सास-ससुर बनाने चाहिए. इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित गैर दलित भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पॉवर के रूप में दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा. यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत.
सहारा समय अखबार से साभार
 सहमति असहमति अलग है पर इसे पढ़ा जाना चहिये चंद्रभान जी दलित दुनिया के उगते सूरज है  sarvesh kumar maurya



Written by चंद्रभान प्रसाद   
Saturday, 16 April 2011 12:39

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