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हमारी पत्रकारिता का हिन्दूवादी, ब्राह्णवादी चेहरा अक्सर हमें दिख जाता है। सामान्य स्थितियों में तो यह आधुनिक, प्रगतिशील, निष्पक्ष, लोकतांत्रिक होने का स्वांग करता हुआ हमें दिखता है. लेकिन जब भी इसके अन्तर्मन पर चोट पड़ती है या जब भी इसके अन्दर बैठे किसी ब्राह्मण या सवर्ण पर प्रहार होता है तब यह तिलमिला उठता है. ऐसे में इसकी सारी बड़ी बड़ी बातें धरी की धरी रह जाती हैं. लखनऊ में हुए दलित नाट्य महोत्सव में हमें पत्रकारिता का ऐसा ही चेहरा देखने को मिला. लखनऊ में डॉ अम्बेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ जो 16 अप्रैल तक चला. इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था 'अलग दुनिया' ने किया था. इसके अन्तर्गत तीन नाटक दिखाये गये. 14 अप्रैल को राजेश कुमार का लिखा ‘अम्बेडकर और गाँधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रूप ने किया. इसका निर्देशन जाने-माने निर्देशक अरविन्द गौड़ का था. यह वही ग्रुप है, जिसने अन्ना हजारे के आंदोलन में पांचों दिन अपने नाटक से लोगों का ध्यान खींचा था. दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक ‘महाब्राहमण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्था, बरेली ने किया. इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था. समारोह के अन्तिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ‘सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहाँपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया. नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा-परिचर्चा भी होती रही जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों है, इस रंग आंदोलन की दिशा क्या हो, जन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषय पर केन्द्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आलोचक वीरेन्द्र यादव, दलित चिन्तक अरुण खोटे, राजेश कुमार, कुष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया. इन नाटकों ने धर्म, अस्पृश्यता, वर्णवादी व्यवस्था, गैरबराबरी, समाजिक शोषण, ब्राहमणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं, जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं. आज की सत्ता द्वारा ये संरक्षित भी हैं. इस व्यवस्था को बदले बिना दलितों-शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है. चेतना और प्रतिरोध पर केन्द्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल सन्देश था. इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आई कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये. ये दर्शक नाटक देखा और चल दिये से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारम्परिक दर्शकों से भिन्न थे. तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर वे सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखा. नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जायेगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्श, बहस.मुबाहिसा, बातचीत का क्रम चलता रहा. यह एक नई बात थी जो इस समारोह में देखने को मिली. यह नाट्य समारोह लखनऊ में पहली बार आयोजित हो रहा था. हिन्दी प्रदेश में इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह का आयोजन था. इस आयोजन के प्रचार के लिए आयोजकों द्वारा प्रेस कान्फ्रेन्स बुलाया गया. उस प्रेस वार्ता में डेढ़ दर्जन से अधिक अखबारों के प्रतिनिधि आये. उन्होंने आयोजकों से दलित नाटकों को लेकर कई सवाल भी किये और उन्होंने प्रेस प्रतिनिधियों को संतुष्ट भी किया. आयोजकों की ओर से प्रेस विज्ञप्ति भी बाँटी गई जिसमें इस आयोजन के पीछे क्या उद्देश्य है से लेकर इस दलित नाट्य महोत्सव में कौन कौन से नाटकों का प्रदर्शन होगा का विस्तार से उल्लेख था. लेकिन दूसरे दिन यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि किसी अखबार ने दलित नाट्य महोत्सव का कोई समाचार नहीं छापा था. आखिर अखबार के इस रवैये के बारे में क्या कहा जाये?अखबार के इस रुख को देखकर कुछ ही दिन पहले लखनऊ में ‘मीडिया और दलित’ विषय पर आयोजित सेमिनार की याद हो आई. उक्त सेमिनार की खबरें भी अखबार से गायब थीं. यह अनायास नहीं हुआ है बल्कि उस दलित विरोधी मानसिकता की वजह से हुआ है या हो रहा है जो हिन्दी प्रदेशों के समाचार पत्रों में जड़ जमाये बैठा है. लेकिन तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी, भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ भी प्रकाशित की. इस मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’के लखनऊ संस्करण ने तो हद ही कर दी. इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा उसकी कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की. बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को ‘स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी सी खबर जरूर प्रकाशित की. इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र दलित विरोधियों व सामाजिक सरोकार से दूर कलाकारों के विचार थे. ये विचार जरूर गौरतलब हैं. इनका कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक है, यह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है. इसके माध्यम से रंगमंच के क्षेत्र में जातिवाद को बढ़ाना है तथा रंगमंच को विभाजित कर दलित के नाम पर बनी मौजूदा सरकार से लाभ लेना है. आयोजकों के इस तरह के आयोजन के पीछे मात्र निहित स्वार्थ है. इस दलित नाट्य समारोह पर ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में जिनकी टिप्पणियाँ प्रकाशित की गई, ये वे कलाकार व निर्देशक हैं जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं. इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है. इन दक्षिणपंथी कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है. लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैं, तब हमें समझना जरूरी है कि ब्राहमणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अन्दर जड़ जमाये बैठी हुई है जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है. इस मायने में कहा जाय तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की नकली प्रगतिशीलता का पर्दाफाश किया है. यहाँ इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस ‘सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआ, उसे प्रदेश सरकार के संस्कृति निदेशालय ने मंचन को पिछले साल प्रदेश सरकार ने रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राहमणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया था, उससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी. इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा व्यवस्था के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था. किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठाना, इसके मुद्दो पर बहस व वाद-विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है. यह होना भी चाहिए. लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहीं, मात्र कुछ लोगों के एकाँगी विचारों को प्रकाशित करना, दूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना - यह कौन सी पत्रकारिता है ? यह सारा अभियान क्या अस्वस्थ व दलित विरोधी मानसिकता की उपज नहीं है? मीडिया के नंबर वन न्यूज पोर्टल bhadas4media.com से साभार
लेखक कौशल किशोर से संपर्क करने के लिए आप उन्हें मोबाइल नंबर 09807519227, 08400208031 पर फोन कर सकते हैं. |



सुबह की चाय की चुस्की के साथ ही उसने गोल करके फोल्ड की गई अखबार में लगी रबड़ को हटाया और अखबार फैला कर अपने सामने रखा. पहली हेडलाईन में किसी किशोरी प्रियंका की आत्महत्या की खबर छपी थी. उसको आत्महत्या के लिए उकसाने के पीछे किसी बड़े नौकरशाह का हाथ बताया गया था. खबर थी कि नौकरशाह उस किशोरी से अपनी हवस पूरी करना चाहता था और किशोरी के मना करने पर उसने जीना हराम कर देने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. लगातार तंग किए जाने से बेहद परेशान उस किशोरी ने आखिरकार खुद को फांसी पर लटका लेना ज्यादा आसान समझा.
Khade and 30 other businesspersons, including a woman, are now part of a league of ‘Dalit crorepatis’, comprising first-generation entrepreneurs who run successful businesses and give jobs to others. And they haven’t used the ladder of quotas to get to the top, preferring instead to strike out on their own, cocking a snook at the cynics who disapprovingly cluck at the very mention of an inclusive society based on positive discrimination. Propelled by sheer grittiness and tremendous self-belief, they have arrived at a juncture far removed from their predecessors and have acquired a clout their forefathers wouldn’t even have dreamt of. So much so that the Confederation of Indian Industry (CII) is trying to formalise an association with their body, the Dalit Indian Chamber of Commerce and Industry (DICCI). And they are by no means done yet. “Every time I look at Fortune magazine’s list of billionaires,” says Milind Kamble, CMD of Fortune Construction Company, Pune, “I wonder when one of us will make it to the list.” When he says “one of us”, Kamble is referring to the country’s most oppressed community, the Dalits, making it to the world’s list of the richest. Incidentally, Kamble takes some measure of pride in one of his recent projects—laying the pipeline supplying water to Baramati, the pocketborough of Union agriculture minister Sharad Pawar. “Mein Pawar ko pani pilata hoon (give him water, literally, but the phrase could also mean get the better of someone),” he says jocularly.
अर्थशास्त्री पहले थे, व्यवस्था परिवर्तक बाद में. वस्तुत: डा. अम्बेडकर पहले भारतीय थे जिन्होंने किसी विदेशी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएच.डी. हासिल की थी. जिस औद्योगीकरण या उदारीकरण की शुरुआत डा. मनमोहन सिंह जी ने वित्तमंत्री के रूप में 1991 शुरू की, उस तथ्य को दूरद्रष्टा डा. अम्बेडकर ने पचहत्तर वर्ष पहले ही कह दिया था.
जब आप एस.आर लाखा के बारे में बात करेंगे तो लगेगा जैसे कोई फिल्म देख रहे हैं. एक अद्भुत फिल्म. जो हर किसी के लिए प्रेरणा हो सकती है. सफलता को पाने की ललक, जिद और जूनून उनके पूरे जीवन में साफ दिखता है. बचपन में अपने मां-बाप के साथ उन्होंने ईंट-भट्ठे पर काम किया लेकिन हार नहीं मानी. पढ़ाई के दौरान कई बार घर से स्कूल की दूरी बढ़ने के बावजूद वह हर बार उसका पीछा करते रहे.
जिम्मेदारी दी गई है. जिस 12 मार्च (49) को उन्होंने इस दुनिया में आंखें खोली और अपनी मेहनत और लगन से हर कदम पर सफलता हासिल की उसी 12 मार्च (2011) को उन्होंने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी संभाला. और अब इस विश्वविद्यालय को विश्व भर में एक अलग पहचान दिलाने का बीड़ा उठा चुके हैं. यह महज संयोग नहीं है. पिछले दिनों उनके जीवन-संघर्ष और इस नई जिम्मेदारी को लेकर उनके 'विजन' के बारे में मैने (अशोक) उनसे लंबी बातचीत की. आपके लिए पेश है-----
बचपन में ऐसी मुश्किलें आई की आपने ईंट-गारे तक बनाए?
बतौर नौकरशाह आप अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि क्या मानते हैं?
गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय के निर्माण का उद्देश्य क्या था. यह कितने का प्रोजेक्ट है?

है. पहला, ‘क्वालिटी ऑफ स्टूडेंट’. इसके लिए हमने व्यवस्था की है कि यहां जो भी एडमिशन हो वो योग्यता के आधार पर हो. दूसरा, यहां की जो फैक्लटी हो वो योग्य हो और तीसरी बात लाइब्रेरी. हमारी जो लाइब्रेरी और लेबोरेटरी है, उस पर भी हम खासा ध्यान दे रहे हैं. इस साल के बजट में मैने इसके लिए 52 करोड़ रुपये रखा है. विश्व में जो सबसे बेहतरीन किताबें हैं, चाहे वो लॉ में हो, इंजीनियरिंग में हो, मैनेजमेंट में हो या ह्यूमिनिटिज में हो. मैने अपने पूरे स्टॉफ और डीन को कह रखा है कि वह इंटरनेट या कहीं से भी सूचना
क्या आपको कोई पुरस्कार भी मिला है?
किया था. उसके बाद मुद्दा यह उठा कि नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार पर अंकुश कैसे लगे. (मुझे बताते हैं कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नुकसान हमारे समाज (दलित) को होता है). तो उसमे फिर एक्जीक्यूटिव बॉडी ने तय किया कि वोटिंग डाली जाए और उसके जरिए यूपी के तीन महाभ्रष्ट आईएएस को चुना जाए. वो बहुत मुश्किल काम था. लेकिन मैने उसे आगे बढ़ाया. उस वक्त मेरे पास दुनिया भर के दबाव आएं. उस दौरान 2-3 साल मुझे कितनी टेंशन रही यह मुझे ही मालूम है. मैं बहुत दबाव में रहा. हालांकि फिर इसकी बहुत चर्चा भी हुई और उसी वक्त मेरा नाम भी काफी चर्चा में रहा.