♦ कौशल किशोर
अंबेडकर जयंती पर पिछले दिनों लखनऊ में हुए नाट्य समारोह की यह रपट कौशल किशोर ने हमें भेजी है। यह सिर्फ रपट नहीं है – इसके बहाने उन्होंने इस नाट्य समारोह की आलोचनाओं के सामाजिक संदर्भ भी समझाये हैं। बड़े अखबारों की विद्वेषपूर्ण भूमिका की पोल भी खोली है। कौशल जी ने यह रपट इस टिप्पणी के साथ हमें और अन्य वेबसाइट्स को भेजी है कि यह लेख किसी प्रिंट मैगजीन को नहीं भेजा गया है : मॉडरेटर
इस साल लखनऊ में डॉ अंबेडकर के जन्म दिवस 14 अप्रैल 2011 से यहां दलित नाट्य महोत्सव शुरू हुआ, जो 16 अप्रैल तक चला। इस महोत्सव का आयोजन शहर की सामाजिक संस्था अलग दुनिया ने किया था। इसके अंतर्गत तीन नाटक दिखाये गये। पहले दिन राजेश कुमार का लिखा ‘अंबेडकर और गांधी’ का मंचन दिल्ली की संस्था अस्मिता थियेटर ग्रुप ने किया। इसका निर्देशन जाने-माने निर्देशक अरविंद गौड़ ने किया था। दूसरे दिन मराठी लेखक प्रेमचंद गज्वी का लिखा नाटक ‘महाब्राह्मण’ का मंचन मयंक नाट्य संस्था, बरेली ने किया। इसका निर्देशन राकेश श्रीवास्तव ने किया था। समारोह के अंतिम दिन 16 अप्रैल को राजेश कुमार द्वारा लिखित व निर्देशित नाटक ‘सत भाषे रैदास’ का मंचन शाहजहांपुर की संस्था अभिव्यक्ति ने किया। नाट्य प्रर्दशन के दौरान चचा-परिचर्चा भी होती रही, जो दलित रंगमंच की जरूरत क्यों है, इस रंग आंदोलन की दिशा क्या हो, जन नाट्य आंदोलन से इसका रिश्ता क्या है आदि विषयों पर केंद्रित थी। वरिष्ठ नाट्य निर्देशक सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, आलोचक वीरेंद्र यादव, दलित चिंतक अरुण खोटे, राजेश कुमार, कृष्णकांत वत्स आदि ने इस चर्चा में भाग लिया।
इन नाटकों ने धर्म, अस्पृश्यता, वर्णवादी व्यवस्था, गैरबराबरी, सामाजिक शोषण, ब्राह्मणवाद जैसे मुद्दों को उठाया और इस बात को रेखांकित किया कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान व कानून का शासन होने के बावजूद आज भी समाजिक तौर पर ऐसे मूल्य मौजूद हैं जो शोषण व उत्पीड़न पर आधारित हैं तथा मनुष्य विरोधी हैं। आज की सत्ता द्वारा ये संरक्षित भी हैं। इस व्यवस्था को बदले बिना दलितों-शोषितों की मुक्ति संभव नहीं है। चेतना और प्रतिरोध पर केंद्रित इस नाट्य समारोह का यही मूल संदेश था। इस आयोजन की एक खासियत यह भी देखने में आयी कि नाटकों को देखने बड़ी संख्या में लोग आये। ये दर्शक ‘नाटक देखा और चल दिये’ से अलग और लखनऊ रंगमंच के पारंपरिक दर्शकों से भिन्न थे। तीन दिनों तक हॉल भरा रहा बल्कि काफी दर्शकों को जगह न मिलने पर सीढ़ियों पर बैठकर या खड़े होकर नाटक देखना पड़ा। नाटक और उसकी थीम से उनका जुड़ाव ही कहा जाएगा कि नाटक खत्म होने के बाद भी विचार विमर्श, बहस-मुबाहिसा, बातचीत का क्रम चलता रहा। यह एक नयी बात थी, जो इस समारोह में देखने को मिली।
यह विचार व बहस का अलग विषय है कि जहां हिंदी साहित्य में दलित लेखन ने पिछले दो दशकों से एक विशिष्ट प्रवृति के रूप में अपनी पहचान बनायी है, दलितों की समाजिक समस्याओं को संबोधित किया है और उनकी राजनीतिक दावेदारी को मजबूती से जताया है, वहीं हिंदी में दलित नाटकों के क्षेत्र में ठहराव जैसी स्थिति क्यों? मराठी में दलित नाट्य आंदोलन तो पिछली शताब्दी के उत्तरार्द्ध में शुरू हो गया था। जिस समाजिक यथार्थ ने दलित साहित्य आंदोलन के लिए जमीन तैयार की है, वह दलित नाट्य आंदोलन को प्ररित नहीं कर सका, इसके क्या कारण हो सकते हैं, यह विचारणीय है।
इस नजरिये से देखा जाए, तो लखनऊ में आयोजित इस पहले दलित नाट्य समारोह को एक नयी शुरुआत माना जा सकता है। हिंदी प्रदेशों में भी इस तरह का यह पहला दलित नाट्य समारोह था। तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी। भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने आयोजन पर सवाल करते हुए कुछ टिप्पणियां भी प्रकाशित की। इस मामले में अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के लखनऊ संस्करण की भूमिका गौरतलब है। इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की। बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को ‘स्टेजिंग ए नेम गेम’ शीर्षक से एक बड़ी-सी खबर जरूर प्रकाशित की। इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र लखनऊ के कुछ कलाकारों का दलित नाट्य समारोह का विरोध था। ये विचार जरूर गौरतलब हैं।
नाट्य समारोह का विरोध करने वालों का तर्क था कि एक खास जाति विशेष के नाम पर नाटक करने का कोई औचित्य नहीं है। आज दलित नाट्य समारोह हो रहा है, कल दूसरी जातियों के नाट्य समारोह होंगे। इससे तो रंगमंच की दुनिया में जातिवाद बढ़ेगा। रंगमंच की दुनिया तो वैसे ही आज संकटग्रस्त है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है, ऐसे में दलित नाट्य समारोह इस रंगमंच को विभाजित करेगा। इस तरह का आयोजन अलगाववादी व विघटनकारी है। इनका यह भी कहना था कि दलित के नाम पर नाटक समारोह का आयोजन जनता के साथ मजाक है, यह राखी सावंत जैसे सस्ते प्रचार का तरीका है। आयोजकों को यदि इन नाटकों का प्रदर्शन करना ही था, तो इस समारोह को किसी और नाम से किया जा सकता था। लेकिन दलित के नाम पर नाट्य समारोह के आयोजन के पीछे आयोजकों का मात्र निहित स्वार्थ है। इनका उद्देश्य ‘दलित’ नाम को बाजार में भुनाना तथा प्रदेश की मौजूदा सरकार से लाभ लेना है।
यहां इस तथ्य का उल्लेख जरूरी है कि इस नाट्य समारोह में जिस ‘सत भाषै रैदास’ नाटक का मंचन हुआ, उसे पिछले साल प्रदेश के संस्कृति निदेशालय ने स्वीकृति व सारी तैयारी के बावजूद मंचन के कुछ घंटे पहले पंचम तल के आदेश से इसका प्रदर्शन रोक दिया था क्योंकि इस नाटक में रैदास का जो सामंतवाद व ब्राह्मणवाद विरोधी रूप उजागर किया गया था, उससे प्रदेश की मौजूदा सरकार की समरसता की अवधारणा पर चोट पड़ती थी। इस समारोह में उस नाटक का प्रदर्शन मौजूदा सत्ता के उस संस्कृतिविरोधी रवैये का प्रतिवाद था।
इस नाट्य समारोह का विरोध करने वाले जो कलाकार दलित को जाति के रूप में देखते हैं, दरअसल वे इस सच्चाई को नकार देना चाहते हैं कि दलित भारत की विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था की देन हैं, जिसका रूप वर्णव्यवस्था है तथा वैचारिक व दार्शनिक आधार ब्राह्मणवाद है। यह दलित शूद्र वर्ण के रूप में जाना जाता है तथा सामंती व्यवस्था में श्रमजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे शिक्षा व ज्ञान प्राप्त करने से वंचित रखा गया तथा वह अपने पुश्तैनी पेशे को अपनाने के लिए अभिशप्त रहा। देश के आजाद होने, राजनीति प्रणाली के रूप में लोकतंत्र को अपनाने, समाज के पूंजीवादीकरण, दलितों के अंदर शिक्षा का प्रसार, नौकरियों में आरक्षण आदि से जहां दलितों में चेतना का प्रसार हुआ है, वहीं इनमें से एक शिक्षित तबका उभरा है, जिसने राजनीतिक दावेदारी जतायी है और सत्ता में भागीदारी तक पहुंचा है। इस सबके बावजूद आज भी न सिर्फ सामंती अवशेष के रूप में पिछड़े भूमि संबंध मौजूद हैं बल्कि वर्णवादी व्यवस्था का मजबूत प्रभाव समाज में बना हुआ है। यही वह जमीन है, जो पिछड़े सांस्कृतिक मूल्यों, सामाजिक गैरबराबरी और सवर्ण व ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के लिए आधार प्रदान करती है तथा न सिर्फ दलित आंदोलन बल्कि व्यापक जनवादी आंदोलन का परिप्रेक्ष्य निर्मित करती है। इसीलिए किसी सांस्कृतिक आयोजन को जब दलित नाट्य समारोह के रूप में आयोजित किया जाता है, तो उसके पीछे इसी खास परिप्रेक्ष्य को फोकस करना है। इसके द्वारा उस सांस्कृतिक संघर्ष को आगे बढ़ाना है जो दलितों के सामाजिक पहचान, अस्मिता, सम्मान जैसे मूल्यों पर आधारित है तथा जिसका लक्ष्य बराबरी के एक बेहतर व मानवीय समाज का निर्माण करना है।
रही बात रंगमंच के विभाजन की तो एक ऐसे समाज में जहां समाज वर्गों व कई उपवर्गों में बंटा हो, वहां निरपेक्षता व तटस्थता जैसे मूल्य बेमानी हैं। ऐसे समाज में संस्कृति हमेशा सापेक्षता में अपनी सार्थकता साबित करती है। हमारे समाज में जो संघर्ष चल रहा है, कोई भी कला आंदोलन उससे निरपेक्ष नहीं रह सकता। नाटक के क्षेत्र में तो जन नाटय आंदोलन ने तो कलावाद के विरुद्ध संघर्ष करके ही अपनी पहचान बनायी है। सामाजिक व राजनीतिक आंदोलनों के उतार-चढ़ाव की वजह से संभव है सांस्कृतिक धरातल पर कभी यह संघर्ष अपने तीखे रूप में हो, कभी उसमें वह तेजी न हो। भले ही नाटक व रंगमंच में विभाजन की यह रेखा धूमिल जान पड़ती हो लेकिन इसका अस्तित्व हमेशा से रहा है, खासतौर से इप्टा के गठन के बाद से तो हम बखूबी इसका दर्शन कर सकते हैं।
यह सांस्कृतिक संघर्ष लखनऊ रंगमंच पर भी मौजूद है। इस दलित नाट्य समारोह पर ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में जिनकी टिप्पणियां प्रकाशित की गयी, ये वे कलाकार व निर्देशक हैं, जो लगातार नाटक में विचार व राजनीति का विरोध करते हैं और नाटक में कलावाद के पक्षपोषक हैं। इनकी इस कलावादी अवधारण के विरुद्ध लखनऊ रंगमंच में विवाद व बहस भी जारी है। इन कलाकारों का दलित विरोधी होना और दलित नाट्य समारोह का विरोध करना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन जब इप्टा जैसी प्रगतिशील नाट्य संस्था से जुड़े कलाकार व निर्देशक इनके साथ एकताबद्ध हो जाते हैं, तब हमें समझना जरूरी है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता कितने गहरे हमारे अंदर जड़ जमाये बैठी हुई है, जो हर कठिन समय में प्रगतिशीलों में उभर कर सामने आ जाती है। इस मायने में कहा जाए तो यह दलित नाट्य समारोह की सफलता ही है कि उसने बहुतों की ‘प्रगतिशीलता’ का पर्दाफाश किया है।
एक बात ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की भूमिका पर। किसी नाटक या किसी नाट्य समारोह को लेकर सवाल उठाना, इसके मुद्दों पर बहस व वाद-विवाद संचालित करना कहीं से गलत नहीं है। यह होना भी चाहिए। लेकिन नाटक को लेकर एक शब्द नहीं, मात्र कुछ लोगों के एक पक्षीय विचारों को प्रकाशित करना, दूसरे पक्ष के विचारों को सामने न आने देना तथा आयोजनकर्ता संस्था के बारे में गलत तथ्य पेश करना – यह कौन सी पत्रकारिता है? क्या इसे स्वस्थ पत्रकारिता का नमूना माना जा सकता है?
(कौशल किशोर। सुरेमनपुर, बलिया, यूपी में जन्म। जनसंस्कृति मंच, यूपी के संयोजक। 1970 से आज तक हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। रेगुलर ब्लॉगर, यूआरएल हैkishorkaushal.blogspot.com। उनसे kaushalsil.2008@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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