दलित महिला विरोधी डॉ. धर्मवीर?
अनीता भारती
12 सितम्बर 2005 को राजेन्द्र भवन में धर्मवीर की पुस्तक ‘प्रेमचंद सामंत का मुंशी’ के लोकार्पण का दलित महिलाओं ने सशक्त विरोध किया। दलित महिलाओं ने धर्मवीर के दलित स्त्री विरोधी लेखन के खिलाफ न केवल नारे लगाए अपितु उन पर चप्पल भी फेंक कर मारी। सवाल उठता है कि आखिर दलित महिलाओं को धर्मवीर के खिलाफ इतने कडे़ विरोध में क्यो उतरना पडा। हम थोडा अतीत में झांक कर देखें तो 22-23 जलाई 1995 को साउथ एवन्यू के एम.पी हॉल में आयोजित ‘हिन्दी दलित साहित्य सम्मेलन में’ धर्मवीर का ऐसा ही विरोध हुआ था। दलित महिलाओं ने उनके लेखन के खिलाफ नारे लगाते हुए उन्हे मंच से खींच लिया था। तथा उनके लेखन का बहिष्कार करने की पुरज़ोर अपील की थी। तब इन महाश्य ने दलित महिलाओं से सार्वजनिक रूप से माफी मांगी थी और कसम खाई थी कि वे आईंदा दलित महिला विरोधी लेखन नहीं करेंगे।
1995 से लेकर 2005: दोनों बार अपनी सार्वजनिक बेइज्जती भूलकर लगातार निर्लज्जता से दलित/गैर दलित स्त्रियों के खिलाफ अश्लील व आपत्तिजनक सस्ता लेखन कर रहें हैं। ‘कथादेश’ में चली बहस इसकी गवाह है। पिछले सालों से धर्मवीर का लेखन उत्तरोत्तर दलित/गैर दलित स्त्री विरोधी होता जा रही है। कोई ताकत उनको अनर्गल लिखने से नहीं रोक पा रही है क्योंकि वे किसी भी तर्क, विचार, सिद्धान्त और दर्शन को मानने को तैयार नहीं है। धर्मवीर और लेखन मानवतावाद की स्थापना के खिलाफ अमानवीयता के झण्डे गाड़ना चाहता है। वह दबी कुचली दलित/गैर दलित स्त्री की अस्मिता को स्वीकारने को तैयार नहीं है। वे उसको चरित्रहीन सिद्ध करने पर तुले हैं और हद तो इस बात की है कि जो स्त्री उनके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत रखती है उसकी तो वे सरे आम नाक, चोटी काटकर वेश्या घोषित कर पत्थर मारकर हत्या तक कर देने की हिमायत कर रहें है। वे अपनी कपोल कल्पित भौंडी कल्पना के सहारे प्रेमचन्द की ‘कफ़न’ कहानी की नायिका बुधिया का बलात्कार हुआ दिखाकर बुधिया के पेट में ठाकुर का बच्चा बताकर उसके भ्रुण परीक्षण की बात कर रहे हैं।
डॉ. धर्मवीर दलित साहित्यकार होते हुए भी वर्ण व्यवस्था को बरकरार रखना चाहते हैं, इसलिए वो अन्तरजातीय विवाह का कट्टर विरोध करते हैं, जो कि अम्बेडकर के
जाति उन्मूलन दर्शन का एक आधारभूत स्तम्भ है। वे कहते हैं, ‘दलित नारी के साथ गै़र दलितों द्वारा जो विवाह-बाह्य मैथुन होता है वह जारकर्म नहीं होता बल्कि बलात्कार और केवल बलात्कार होता है।’ विवाहित स्त्री के अन्य पुरुषों के साथ सम्बन्ध को धर्मवीर जी ‘जारकर्म’ कहते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि दलित स्त्रियाँ केवल अपने समाज के दलित पुरुषों से ही शादी करें, अन्य जाति के पुरूषों के साथ अपनी मर्जी से की गई शादी के बावजूद भी उनका बलात्कार होगा। भला धर्मवार ये कौम सा दर्शन दलित समाज को अम्बेडकरवादी विचारधारा के खिलाफ दे रहें हैं?
डॉ. धर्मवीर वर्णव्यवस्था को मजबूत कर लिंगीय समानता के खिलाफ लिख रहें है। डॉ. धर्मवीर किसी हिन्दू मनुस्मृतिकार की तरह दलित औरतों को पितृसत्तात्मक समाज में उनके सामने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के संरक्षक बन कर उन्हें मात्र घर की चार दीवारी में सिमटा देखना चाहते हैं। इसके अलावा अगर किसी औरत ने उनके इस सांमतवादी लेखन के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उनके खिलाफ फतवा जारी कर देगें। उनके विचार से ‘ऐसी सोच वाली स्त्री अपने अधिकारों के लिए लड़ना चाहती है तो लड़े। रखैल के रूप में अधिकार मांगे, वेश्या के रूप में अपने दाम बढ़वाए और देवदासी के रूप में पुजारी की सम्पति में हाथ मारे ” (प्रेमचन्द सामन्त का मुंशी). असल बात यह है कि धर्मवीर दलित स्त्री पर सौ फीसदी कब्जा चाहते हैं। अगर वह काबू में आ जाती है तो ठीक है, नहीं तो उन्होंने उसके लिए वेश्या, रखैल, देवदासी आदि सम्बोधन तो रखे हैं ही।
डॉ. धर्मवीर ‘जारसत्ता’ को अपना मौलिक चिन्तन बताकर, उसे स्थापित कर अरस्तू की तरह दार्शनिक बनना चाहते हैं। पहले उनको उनके कुछ सहयोगी लेखकों ( प्रत्यक्ष रुप से श्योराज बैचेन, कैलाश दहिया, दिनेश राम, अप्रत्यक्ष रुप से वो लेखक जो चुप्पी मारे बैठे हैं या फिर अपनी पत्रिकाओं में धर्मवीर के लेख ,इन्टरव्यू छाप कर) ने धर्मवीर को डॉ. अंबेडकर घोषित करने की नाकाम कोशिश की, चेतनशील दलित साहित्यकारों ने जब इनका डॉ अम्बेडकर बनने का सपना पूरा ना होने दिया तो वे अब दार्शनिक बनने चले। जो लोग पहले इन्हें अम्बेडकर घोषित करने की कुचेष्ठा कर रहे थे अब वे ही इन्हें ‘जारसत्ता’ दर्शन का जनक घोषित करने की पूर्ण कोशिश में लगे हैं। इनके लेखन की तर्ज पर ही इनके दर्शन की शिकार भी ग़रीब-दलित औरतें ही हैं। इनके मतानुसार दलित स्त्रियों को केवल और केवल एक ही काम है और वह है ‘जारकर्म’। डॉ धर्मवीर का कहना है ‘दलित/गैर दलित स्त्रियों के इस ‘जारकर्म’ की हिमायत में भारत का कानून भी लिप्त है. कानून के हिसाब से भारत की हर पत्नी ‘जारकर्म’ से जितने चाहे बच्चे पैदा कर सकती है। कानून को इस बात से कोई ऐतराज नहीं है कि वह ऐसा करती है। इसलिए हिन्दुस्तान के इस कानून को पढ़कर यदि कोई अंदाज़ा लगाए कि भारत की नारियों के चरित्र कैसे हैं तो वह क्या ग़लती करता है?’ (‘अस्मितावाद बनाम वर्चस्ववाद’ कथादेशअप्रैल 2003) तात्पर्य यह है कि उनके अनुसार आज भारत की दलित - गैर दलित स्त्री के सामने सामाजिक, आर्थिक से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, अस्मिता के कोई मुद्दे नहीं हैं। अगर स्त्री पर चर्चा होगी तो केवल उसके ‘जारकर्म’ की। इन लेखकों को दलित-गैर दलित महिलाओं के संघर्ष और त्याग से कोई सरोकार नहीं है उसका एक ही उद्देश्य है कि वे कैसे सिद्ध करें कि भारतीय स्त्री चरित्रहीन है। वे स्त्रियों के तन-मन पर पूरा कब्जा चाहते हैं। धर्मवीर स्त्रियों के संदर्भ में यौन शुचिता का प्रश्न उठाकर अपने मनुवादी अहम की पुष्टि कर रहे हैं। वे दलित/गैर दलित स्त्रियों को अपनी सम्पत्ति मानते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थेरीगाथा की स्त्रियां’ की भूमिका में कहा है “अपनी पुस्तक के शीर्षक के
पद ‘थेरीगाथा की स्त्रियां मैंने जानबूझ गलत लिखा है, सही पद ‘थेरीगाथा की भिक्षुणियां’ है, लेकिन गलत शीर्षक रखकर मैं बताना चाहता हूं कि बुद्ध ने मेरी स्त्रियां छीनी हैं। घर से बेघर करके और विवाह से छीनकर स्त्रियों को सन्यास वाली सामाजिक मृत्यु की भिक्षुणियों बनाना उसका धार्मिक अपहरण कहा जाना चाहिए।”
डॉ. धर्मवीर दलित/गैर दलित स्त्रियों की वैयक्तिक स्वतन्त्रता और उनके मौलिक अधिकार छीन कर उन्हें अपनी परिभाषा के अनुसार चलाना चाहते हैं। वे बुद्ध का दर्शन जो कि मैत्री, करूणा, समता और संवेदना पर आधारित है उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध करते हुए कहते हैं, “इस देश को बुद्ध की ज़रूरत नहीं है। दलितों को बुद्ध की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है। बुद्ध के लौटने की प्रार्थना करना सहीं नहीं है। वे अपने घर नहीं लौटे थे, तो देश में क्या लौटेंगे? दलितो में क्या लौटेगें? बुद्ध को लौटना है तो पहले अपने घर लौटे। घर बारी बने, पत्नी से प्यार करें, बच्चों को स्कूल भेजें और कबीर की तरह भगवान के गुण गाएं।” (धर्मवीर का बीज व्याख्यान) मैं धर्मवीर को बुद्ध विरोधी, अम्बेडकर विरोधी, प्रेमचन्द विरोधी चर्चा में न जाकर केवल दलित स्त्री विरोधी चर्चा में ही रहना चाहूंगी। डॉ. धर्मवीर “जारकर्म” का झण्डा दलित स्त्रियों पर गाड़ कर अपने आप पर गर्व करते हुए कहते हैं कि ” लेकिन आप गर्व से कह सकते हैं कि परिवार से, समाज में, साहित्य में और कानून में “जारसत्ता की खोज आप के धर्मवीर ने की है। आप अंग्रेजी में कह सकते हैं “IS THE FIIRST DALIT CONTRIBUTION TO THE WHOLE WORLD THINKING” आगे वह और गर्वीले अंदाज में घोषणा करतें हैं “लोग मेरे इल्हाम से परेशान हैं। मुझे यह दैवी ज्ञान कैसे प्राप्त हो गया कि किस औरत के पेट में किस पुरुष का बच्चा है। लेकिन मैं इल्हाम से नीचे रहकर ही इस बात को जानता हूं।”
डॉ. धर्मवीर यह मानने लगे हैं कि उनको दैवीय शक्ति प्राप्त हो गई है जिससे वह सभी दलित गैर दलित महिलाओं के भ्रूण परीक्षण कर लेगें। बुद्ध का विरोध करने वाले दलित
लेखक ने आखिर ब्राह्मणवादी गढ्ढे में गिरकर अपना नैतिक पतन कर ही लिया। धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं। अब सवाल है कि धर्मवीर प्रेमचंद के पीछे लट्ठ लेकर क्यों पडे हैं? उन्हे प्रेमचंद से क्या दुश्मनी है?
धर्मवीर जी को प्रेमचन्द इसलिए अप्रिय हैं क्योंकि प्रेमचन्द दलित स्त्री पात्रों को अधिक मानवीय, सहनशील, संघर्षमयी दिखाते हैं और दलित स्त्री लेखन भी प्रेमचन्द को नकारता नहीं है। वह उनकी खूबियों और कमियों को एक साथ स्वीकरता है। पिछले दस सालों से लगातार दलित महिलाएं शालीनता से लिख-लिखकर डॉ.धर्मवीर जी से अपनी बहस चला रही हैं। परन्तु डॉ. धर्मवीर उस शालीनता को ताक पर रखकर उनको निरन्तर चरित्रहीन, निठ्ठली, निकम्मी, आवारा, कामचोर, पेटपूजक और ना जाने किन-किन सम्बोधनों से नवाज़तें जा रहे हैं और उनके विरोध में ना तो दलित लेखक और ना ही दलित पत्रिकाएं कुछ कह रही हैं। तब दलित महिलाएं क्या करें? कहां जाएं? चप्पल फेंक कर विरोध करना दलित महिलाओं के मन में जमा उनका अपने खिलाफ लिखा गया दलित साहित्य के प्रति उनका दुख है। दलित समाज द्वारा बरती जा रही उपेक्षा के साथ-साथ उनका चरित्रहनन करने पर भी क्या दलित महिलाएं चुप बैठकर लिखती रहें? बिच्छू कितनी बार काटेगा? आखिर आप कभी तो उसे अपने हाथ से हटायेगें? कुछ दलित साहित्यकारों का मानना है कि विरोध करने से दलित आन्दोलन टूटेगा या फिर वे यह मानते हैं कि घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए थी। पर जब घर में ही समस्या हो तो समस्या का निदान कैसे होगा? दलित साहित्यकारों से खुला प्रश्न है जिस आन्दोलन में पचास प्रतिशत समाज की हिस्सेदारी को नगण्य घोषित किया जा रहा है उसको जानबूझ कर उपेक्षित किया जा रहा है क्या वैसा आन्दोलन वास्तव में दलित आन्दोलन हो सकता है? क्या दलित आन्दोलन के आधार स्तम्भ समता, समानता, बंधुत्व नहीं होने चाहिएं? क्या उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘जारसत्ता’ से उत्पन्न चरित्रहनन की बात होगी? क्या दलित साहित्य दलित समाज की अन्य समस्याओं को छुऐगा भी नहीं? दलित महिलाओं के बारे में सोचते समय उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर केवल उनकी यौनिक्ता के मुद्दे ही क्यों चर्चा में लाए जाते हैं? दलित महिलाओं के संघर्ष का आज के दलित आन्दोलन में क्या स्थान है? क्या दलित साहित्यकार अम्बेडकर, बुद्ध, फूले का बेबुनियादी विरोध करके भी दलित साहित्यकार कहलाने लायक है? ये साहित्यकार मानवता का दामन छोड़कर अमानवीय होकर दलित चेतना की वकालत आखिर कब तक करेगें? बहस खुली है। दलित स्त्रियां जवाब चाहती हैं। उन्हें अपनी अस्मिता और अस्तित्व की पहचान की रक्षा के लिए जवाब चाहिए। जो अपने आप को दलित साहित्यकार समझतें हैं, और जो धर्मवीर के स्त्री विरोधी लेखन का मौन और साथ रहकर समर्थन कर रहे हैं, दलित महिलाएं उनसे भी जवाब चाहती हैं अन्यथा धर्मवीर के साथ-साथ वो भी अपने आप को सवालों के कटघरे में खड़े देखेंगे। आने वाल समय से साहित्यकारों को जिनका प्रगतिशील चिंतन से कोई वास्ता नहीं है, जो एक मूल मंत्र “अवसरवाद” को लेकर चल रहे हैं, उनको कभी माफ नहीं करेगा। और दलित स्त्रियां तो कभी माफ नहीं करेंगी। धर्मवीर तो मात्र प्रतीक हैं. जो भी धर्मवीर बनने की कोशिश करेगा दलित महिलाएं उस साहित्यकार और उसके लेखन का हर स्तर पर विरोध करेंगी चाहे वह विरोध किसी को आक्रमक ही क्यों ना लगे।
छात्र जीवन से ही दलित आंदोलन में सक्रिय अनीता भारती ने कुछ समय तक दलित पत्र ‘मूकनायक’ का संपादन किया व सामाजिक क्रांतिकारी गब्दूराम बाल्मीकि पर एक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी. पत्र-पत्रिकाओं में दलित-आदिवासी महिलाओं के मुद्दों पर निरंतर विभिन्न विधाओं में लिखने वाली, पेशे से अध्यापिका अनीता ‘दलित लेखक संघ’ की महासचिव हैं. बिरसा मुंडा सम्मान, वीरांगना झलकारी बाई सम्मान, समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित अनीता से anita.bharti@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
फिलहाल को यही कि अनीताजी आपने कुछ सवाल को छोड़ ही दिए हैं डॉ. साहब के प्रति. शायद यह अच्छा ही किया है आपने. आपका शुक्रिया.