Wednesday, July 20, 2011

श्रमण संस्‍कृति का बौद्ध दर्शन ही वर्तमान समस्‍याओं का सही निदान हो सकता है

 by Sheel Bodhi on Wednesday, July 20, 2011 at 11:30pm


जयप्रकाश कर्दम जी की बातों से मैं सहमत हूं लेकिन जाति व्‍यवस्‍था या वर्ण व्‍यवस्‍था अपने आप में एक स्‍वतंत्र व्‍यवस्‍था नहीं है। जाति या वर्ण की व्‍यवस्‍था के बदल देने से बदलाव आ ही जाएगा यह जरूरी नहीं है। जाति या वर्ण आधारित व्‍यवस्‍था संस्‍कृति के साथ जुडा एक गहरा मामला है। जाति या वर्ण जैसी व्‍यवस्‍था को हटा भी दिया जाए तब भेदभाव पर आधारित कोई दूसरी व्‍यवस्‍था उत्‍पन्‍न हो जाएगी। मामला संस्‍कृति के अन्‍तर्भूत तत्‍व दर्शन का है। चीजें जैसी है उन्‍हें वैसा नहीं देखा जा रहा है। अपितु वैसा देखा जा रहा है जैसा कि हिन्‍दू संस्‍कृति के दर्शन के द्वारा दिखाया जा रहा है। इसलिए मेरा मानना है कि भ्रष्‍टाचार जैसे मामलों को हल करने के लिए आर्य संस्‍कृति की अपेक्षा श्रमण संस्‍कृति के दर्शन को जनमानस में प्रचारित व प्रसारित किए जाने की जरूरत है। चार्वाक, आजीवक, जैन और बौद्ध दर्शन श्रमण संस्‍कृति से जुडे अभिन्‍न भाग है। चार्वाक व आजीवक दर्शन का मूल ग्रंथ या प्रमाणित साहित्‍य हमारे पास नहीं है और महावीर के 12 पूर्व भी महाबली के समय तक लूप्‍त हो चुके थे, अंक और उपांग के रूप में निर्मित साहित्‍य प्रवर्तित काल का साहित्‍य है, जैसे कि सांख्‍य दर्शन के ऊपर ईश्‍वर कृष्‍ण के भाष्‍य। बौद्धों का साहित्‍य देखा जाए तो भगवान बुद्ध की मुत्‍यु के एक सप्‍ताह के भीतर ही संकलन करना शुरू किया जा सका था, इसलिए सुत्र व विनय पिटक मौलिकता के सर्वाधिक करीब की रचना हैं। ये दो पिटक व्‍यक्ति पूजा से प्रेरित नहीं है और न ही व्‍यक्ति विशेष के प्रति आस्‍थावान है, बल्कि आदमी को कोरा बनाकर उसे विवेकशील बनाने के धेय के साधक हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि जब बुद्ध शिक्षाओं का संकलन व संग्रहण हो रहा था तब किसी ने भी बुद्ध की जीवनी नहीं लिखी और न ही इसपर जोर दिया गया था। इसलिए श्रमण संस्‍कृति का प्रतिनिधि स्‍वर बौद्ध दर्शन ही है जो व्‍यक्ति को विवेकशील बनाकर व्‍यक्ति को इस काबिल बनाता है ताकि वह अपने निर्णय स्‍वयं तैयार कर सके। सम्‍यक दृष्टि के द्वारा यथार्थ को यथार्थ रूप में देख सके। यही यथार्थवादी दृष्टि केवल  भ्रष्‍टाचार को ही नहीं बल्कि मनुष्‍य समाज की और दूसरी बुराईयों का अंत करेगी। श्रमण संस्‍कृति का एक बड़ा गुण यह है कि यह व्‍यक्ति को आत्‍मकेन्द्रित नहीं बनाता है। इस दर्शन की पूजा विधि ही आत्‍म सुधार से शुरू होकर सब्‍ब सत्ता सुखी होन्‍तु की भावना से समाप्‍त होती है। आर्य संस्‍कृति में सभी कुछ आत्‍म केन्द्रित है। यहां केवल एक ही शिक्षा है, और वह शिक्षा है जो  मांगना है केवल अपने लिए ही मांगना है। अपने लिए मांगने की यह प्रवृति जन्‍म के साथ सिखाई जाती है और मूत्‍यु पर्यंनत तक व्‍यक्ति के अंतर्मन में अवस्थित रहती है, जिससे एक प्रकार का सामाजिक अनुशासन सामने आता है जिसका नाम  भ्रष्‍टाचार है। इसलिए मामला केवल वर्ण या जाति की  प्रथाओं का ही नहीं है बल्कि मुख्‍य मुद्दा तो आर्य संस्‍कृति के स्‍थान पर लोक कल्‍याणकारी श्रमण संस्‍कृति के अनुसार व्‍यक्ति के निर्माण का है। 

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