Sunday, February 20, 2011

समकालीन दलित-विमर्श

इस लेख के शीर्षक में जो पद �दलित सैद्धान्तिकी� प्रयुक्त किया जा रहा है, इसी से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है। पहली आपत्ति में तो शायद यही कहा जाएगा कि �दलित सैद्धान्तिकी� जैसी कोई चीज नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में यदि कहा जाए कि दलित विषयक गंभीर विचार विमर्श के वैचारिक आधार को ही हम दलित सैद्धान्तिकी पद से अभिहित कर रहे हैं तो प्रतिप्रश्न होगा कि ऐसी कोई सैद्धान्तिकी अभी विकसित ही नहीं हुई है। समकालीन दलित-विमर्श की ओर संकेत करने पर भी कहा जाएगा कि यह किसी सर्वमान्य अथवा ऐसे किसी ठोस वैचारिक आधार पर नहीं टिका है जिसे दलित सैद्धान्तिकी पद-नाम दिया जा सके। इन्हीं प्रारम्भिक आपत्तियों से इस लेख के शीर्षक का अगला पद समस्याग्रस्त हो जाता है यानी जब ऐसी किसी सैद्धान्तिकी का ही वजूद नहीं है तो अन्तर्विरोध की बात करने का भला क्या औचित्य है ? इन प्रश्न-प्रतिप्रश्नों को हम शुरुआत में स्वाभाविक मानते हैं।
यहीं हम इस लेख की कुछ सीमाएँ स्पष्ट कर देना चाहते हैं। एक तो यही कि समकालीन दलित विमर्श की वैचारिक पीठिका में कई ऐसे आधार हैं जो इसे एक सैद्धान्तिकी प्रदान करने का काम करते हैं। इस विमर्श में हिस्सेदारी करते समय वक्ता/लेखकगण प्रायः यह प्रतीति कराते हैं कि वे एक खास तरह के संवाद में शामिल हैं। एक भिन्न परिप्रेक्ष्य को भी ऐसे संवादों में अनुभव किया जा सकता है। जो लोग इस विमर्श में उत्साह और प्रतिबद्धता से लगे हैं वे इसकी एक भिन्न सैद्धान्तिकी प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके मुकम्मिल हो जाने का दावा उन्होंने भले ही न किया हो। यह अभियान तभी से शुरू माना जा सकता है जब �दलित� पद सामने आया, निश्चय ही इस संदर्भ में प्रयुक्त �डिप्रेस्ड�, �अछूत�, �शूद्र� और �हरिजन� जैसे पद पूर्व-पीठिका में सम्मिलित रहेंगे। इस हिसाब से यह अभियान कई दशक की यात्रा पूरी कर चुका है और सैद्धान्तिकी के नाम से भले ही इसे प्रस्तुत नहीं किया जाता हो, लेकिन सोच की एक धारा तो सामने आ ही रही है। इस मुकाम पर अन्तर्विरोध पर चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं लगता। लेख की मुख्य सीमा यह है कि इसमें अन्तर्विरोधों की ओर इंगित भर किया जा रहा है। निश्चय ही इन संकेतों के पीछे ठोस आधार है और आगे चर्चा होने पर इन्हें व्याख्यायित किया जा सकता है। दलित-विमर्श के प्रति यहाँ कोई दुराग्रह नहीं है, आग्रह जरूर है कि इसे आलोचनात्मक विश्लेषण के दायरे में लाया जाए। इसकी मजबूती के लिए हम इसे आवश्यक समझते हैं।
दलित सैद्धान्तिकी का एक अन्तर्विरोध तो श्रेणीबद्धता को लेकर है। अकादमिक हल्के में इसे वर्ग न मानकर श्रेणी माना जाता है। वर्ग को अकादमिक हल्के में वर्गीकरण की आर्थिक इकाई मानते हैं। दलित को समाजशास्त्री एक सामाजिक श्रेणी मानते हैं जबकि नृतत्वशास्त्री इसे सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेणी स्वीकारते हैं। इसे लेकर भी ज्यादा मतभेद नहीं है कि बहुसंख्य दलित आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग का हिस्सा है। जैसा कि पूर्व में कहा गया कि इस श्रेणी को पूर्व में �डिप्रेस्ड� (वंचित), अछूत और �हरिजन� जैसे नाम दिये गये थे। लेकिन उनके लिए भिन्न-भिन्न कारणों से स्वीकृति नहीं बनी। �वंचित� में श्रेणी के बहुत व्यापक हो जाने का खतरा था तो �अछूत� में सीमित। �हरिजन� शब्द से इस श्रेणी से सम्बद्ध लोगों की वैयक्तिक गरिमा प्रभावित होती थी। संविधान में �दलित� शब्द भी प्रयुक्त नहीं किया गया। समाज के निचले पायदान पर रहने वाली जातियों की कुछ तयशुदा मापदण्डों पर पहचान करके उन्हें सूचीबद्ध किया गया। तदनन्तर सामाजिक उत्थान के लिए किए गए संवैधानिक प्रावधानों के लिए अनुसूचित जाति पद प्रयुक्त किया गया है। जबकि सामाजिक रूपान्तरण के लिए चले आन्दोलन ऐसे समुदायों के लिए दलित पद इस्तेमाल करते रहे हैं।
इस प्रकार हम पाते हैं दलित श्रेणी हिन्दू धर्म समाज के पदानुक्रम में निचले पायदान पर मानी जाने वाली कुछ जातियों का समुच्चय है। जिस अन्तर्विरोध की हम बात कर रहे हैं, वह इस समुच्चय की प्रकृति और स्वरूप को लेकर है। इन जातियों में ऐसी कोई समरूपताएँ नहीं है, जिन्हें आसानी से सामान्यीकृत किया जा सके। पारम्परिक रूप से हिन्दू धर्म समाज में अछूत माना जाना एक समरूपता हो सकती थी। लेकिन जैसा कि पहले उल्लेख किया गया, इसमें घेरा छोटा हो जाता है। इसके चलते कई और अछूत जातियाँ भी इस समुच्चय में शामिल हैं। दलित श्रेणी समुच्चय में शामिल जाति समुदायों की आर्थिक ही नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों में भी अन्तर्भेद और अन्तर्द्वन्द्व है जो इस श्रेणी समुच्चय को समस्याग्रस्त कर देते हैं। जबकि विमर्श की प्रक्रिया में यह देखने में नहीं आता कि कहीं इस समस्या को सम्बोधित करने का प्रयत्न किया जा रहा हो।
दलित-विमर्श का हिन्दू वर्ण-व्यवस्था से गहरा सम्बन्ध है। यह विमर्श इस व्यवस्था के प्रति आक्रामक और आलोचनात्मक है जो कि सर्वथा उचित है। इस आलोचना के प्रस्थान-बिन्दु के तौर पर हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के उद्गम तथा शूद्रों की उत्पत्ति के लिए पौराणिक आख्यानों और तथाकथित ऐतिहासिक वृत्तान्तों की व्याख्याएँ प्रस्तुत की जाती हैं। इस मामले में एक अन्तर्विरोध तो अप्रोच को लेकर है। दलित विमर्शकार पौराणिक आख्यानों को ऐतिहासिक मानकर चलते हैं। इसी तरह वे किसी भी प्राचीन मध्यकालीन वृत्तान्तों की ऐतिहासिकता जाँचने का कोई वैज्ञानिक उपक्रम नहीं करते।
इस प्रसंग में दूसरा अन्तर्विरोध विषयवस्तु को लेकर है। डॉ. अम्बेडकर अपनी पुस्तक �शूद्रों की खोज� (हिन्दी संस्करण, प्रोग्रेसिव पब्लिशर, नागपुर) के सातवें अध्याय के आरम्भ में ही यह स्थापना देते हैं, �यह सिद्ध हो चुका कि शूद्र अनार्य नहीं हैं। तो वे क्या हैं ?�� इसका उत्तर निम्नलिखित है -
(१) शूद्र आर्य हैं। (२) शूद्र क्षत्रिय हैं। (३) शूद्रों का स्थान क्षत्रियों में उच्च था, क्योंकि प्राचीन काल में कई तेजस्वी और बलशाली राजा शूद्र थे।
��इस स्थापना के बाद वे आगे लिखते हैं�� यह मत इतना अनोखा है कि इसे बिना प्रमाण लोग मानने को तैयार न होंगे। अतएव अब प्रमाण की जाँच की जाए। ��डॉ. अम्बेडकर अपनी स्थापना के पक्ष में प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसी पुस्तक के पिछले अध्यायों में भी वे कई संदर्भित प्रमाण देते हैं। इनके विस्तार में जाने की यहाँ आवश्यकता नहीं है।
दूसरी ओर ऐसे दर्जनों दलित चिंतक लेखक हैं जो शूद्रों को अनार्य, दस्यु, द्रविड, शक या हूणों से जोडते हैं और आर्यों का प्रतिद्वंद्वी ठहराते हैं (उदाहरण के लिए �आर्य-अनार्य वंश कथा�- के.नाथ, �धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता�- एस.एल. सागर और �जाति तोड उससे प्रेरणा पाने का उल्लेख करते हैं। फिर इन परस्पर विरोधी अवधारणाओं को कैसे लिया जा, और इसकी ताकिर्क निष्पत्ति क्या हो सकती है ? सृष्टि, वर्ण ो� चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु)। विडम्बना यह है कि ऐसे सभी लेखक चिन्तक डॉ. अम्बेडकर के कृतित्व के प्रति न केवल सम्मान भाव रखते हैं, बल्कि व्यवस्था या जाति विशेष की उत्पत्ति को लेकर भारत के लगभग हर जाति समुदाय में कुछ किंवदंतियाँ या दंतकथाएँ प्रचलित हैं। डॉ. अम्बेडकर देश में चार हजार जातियाँ होने का उल्लेख करते हैं। इनमें से अधिकांश वंचित जातियाँ हैं। इनमें परस्पर सूक्ष्म सांस्कृतिक भिन्नताएँ हैं। इनके रीति-रिवाज, अनुष्ठान, मूल्य-मान्यताओं और लोक आख्यानों के कुछ विश्लेषण सामने आए हैं। वे दलित अन्तर्भेद के कई स्तरों को उद्घाटित करते हैं।
इसी से सम्बद्ध एक सवाल और है। यदि शूद्र भी आर्य हैं अथवा शूद्र द्रविड, शक या हूण हैं तो आदिवासी कौन है*? आदिवासी विमर्श का दौर भी आरम्भ हो चुका है। वे भी अपनी उत्पत्ति के उत्सों को खोज रहे हैं। इस सिलसिले में एक मान्यता यह उभर रही है कि आर्यों के आक्रमण के बाद जो दास बना लिए गए, वे शूद्र हैं और जो जंगलों में भाग गए वे आदिवासी हैं। इस क्रम में आदिवासी समुदाय को भी समरूप मानने की गलती की जा रही है जबकि कई आदिवासी समुदायों के रिश्ते विद्वेषपूर्ण हैं और उनमें गहरे सांस्कृतिक विभेद हैं।
पौराणिक आख्यान और अनैतिहासिक वृत्तान्तों को सांस्कृतिक पाठ के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है। इनमें से कुछ इतिहास की स्रोत सामग्री के रूप में प्रयुक्त हो
सकते हैं। ऐसा करने पर जो निष्कर्ष आए हैं, उनसे हिन्दू वर्ण व्यवस्था का महिमा मण्डन नहीं होता, बल्कि उसकी अमानवीयता और क्रूरता ही सामने आती है। रोमिला थापर, रामशरण शर्मा और डी.डी. कोशम्बी जैसे आधुनिक इतिहासकारों के विश्लेषण इसका प्रमाण है, किन्तु दलित विमर्शकार प्रायः अपने लेखन में इनके कामों से संदर्भ नहीं देते। यह भी सही है कि सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए पूर्ववर्ती सांस्कृतिक विषयवस्तु का नया पाठ और विश्लेषण करने की आवश्यकता है। लेकिन हम ऐसी विषयवस्तु रच नहीं सकते और व्याख्या में अतिरंजित नहीं हो सकते। दलित सैद्धान्तिकी में धर्म की बात यहीं खत्म नहीं होती। डॉ. धर्मवीर और कंवल भारती अलग दलित धर्म की बात करते हैं और उसकी कुछ विशिष्ट अभिलक्षणाओं तथा तत्त्वों को वर्गीकृत करते हैं (देखें - दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म, कंवल भारती, कदम दिल्ली)। कंवल भारती तो दलितों को वर्ण व्यवस्था से बाहर अर्थात् �पंचम� या अति शूद्र मानते हुए कहते हैं कि वे हिन्दू ही नहीं हैं। कतिपय ईसाई मिशनरी आदिवासियों के बारे में भी यही कहते हैं। अन्तर्विरोध यह है कि अभी भी बहुसंख्य दलित हिन्दू धर्म में शामिल हैं।
पूना पैकेट से पहले डॉ. अम्बेडकर ने दलितों को हिन्दुओं से अलगाने और उनके लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली विकसित करने की जोरदार पैरवी की थी। कुछ साल पहले डरबन में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दलितों के प्रति भेदभाव को वैश्विक स्तर पर नस्लभेद की श्रेणी में रखने के लिए भी पैरवी
की गई।
दलित विमर्श स्वातंत्र्य आंदोलन और नवजागरण के दौर में जातिभेद के विरुद्ध उभरे आंदोलन को लगभग नजरअंदाज करता है। इस दौर में ब्राह्मणवाद के आलोचक आर्य समाज को सुधारवादी कह कर खारिज करता है। माक्र्सवादी और आधुनिक चिन्तक व इतिहासकारों ने भारत में सांस्कृतिक प्रतिरोध की जो लोकायत, बुद्ध और जैन धर्म से प्रणीत प्रति संस्कृति, संत परम्परा को रेखांकित किया, उसे दोहराते हुए भी उन्हें श्रेय करने से बचता है। दूसरी ओर इस तथ्य से आँखें चुराता है कि दलित जाति समुदायों में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो हिन्दू आख्यानों, मूल्य-मान्यताओं और विश्वासों को गहरे आत्मसात् किए हुए हैं। उनके लिए हिन्दुओं को �अन्य के रूप में प्रस्तुत करना सहज नहीं है।
दलितों में सक्रिय सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं द्वारा रची गई लोकप्रिय पुस्तिकाओं, गीतों व आख्यानों में वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि, वस्तुपरकता और प्रामाणिकता का अक्सर अभाव पाया जाता है। ये दलित सैद्धान्तिकी के सह-उत्पाद भी नहीं लगते। इनका मुख्य स्वर घृणा है। लेकिन यदि हम जाति व्यवस्था का उन्मूलन करना चाहते हैं तो घृणा से क्या अर्जित कर सकते हैं।
सवाल अन्ततः दलित सैद्धान्तिकी के दर्शन से जुडा है। इसका ध्येय दलितों को एक पृथक श्रेणी के रूप में स्थापित करना है जिसके कारण इस श्रेणी से सशक्त होने की आवश्यकता सामने आई है। भारत के संविधान की रोशनी में देखें तो लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था के लिए जाति का उन्मूलन एक अनिवार्यता है। इसके लिए समाज को समावेशी और बहुलतावादी बनाना होगा। यदि हम दलित श्रेणी की स्वतंत्र अस्मिता की बात करेंगे तो इसकी जगह जाति केन्दि्रत अस्मिताएँ विकसित होंगी, और फिर आदिवासी अस्मिता का क्या करेंगे जो संख्या में दलितों से भले ही थोडी कम हो, देशव्यापी उपस्थिति रखती है। उसकी वंचना का इतिहास भले ही कम कष्टकर रहा हो, लेकिन सदियों पुराना है और उनके लिए भी सामाजिक न्याय उतना ही है।
दलित सैद्धान्तिकी के अन्तर्विरोधों की चूँकि अनदेखी की जाती रही है, इसलिए इस ओर इंगित करना, हमने प्रासंगिक माना है। इन्हें लेकर असहमतियाँ हो सकती हैं, एतराज हो सकते हैं, बेशक कुछ बातें गलत सिद्ध हो सकती हैं। किन्तु दलित सैद्धान्तिकी के प्रति आलोचनात्मक रवैया और खुलापन इसके लिए किसी भी प्रकार से अहितकर नहीं है,

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